Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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363. प्रज्ञा से धर्म - परीक्षा तं शब्दमात्रेण वदन्ति धर्मं, विश्वेऽपि लोका न विचारयन्ति । स शब्दसाम्येऽपि विचित्रभेदैः, विभिद्यते क्षीरमिवार्चनीयः ॥ लक्ष्मीं विधातुं सकलां समर्थ, सुदुर्लभं विश्वजनीनमेनम् । परीक्ष्य गृह्णन्ति विचारदक्षाः, सुवर्णवद् वञ्चनभीतचित्ताः ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 4 पृ. 2696 ] धर्मबन्दुसटीक 2/33 [87-88]
इस विश्व में कई लोग शब्द मात्र से सब को धर्म कहते हैं, परन्तु कौन - सा धर्म सत्य है ? ऐसा विचार नहीं करते । 'धर्म' शब्द समान होने पर भी वह विचित्र भेदों के कारण भिन्न-भिन्न हैं । अत: शुद्ध दूध की तरह परीक्षा करके उसे मान्य करना चाहिए। जैसे ठगे जाने के भय से बुद्धिमान् व्यक्ति स्वर्ण की परीक्षा करके उसे खरीदते हैं, वैसे ही सर्वधन देने में समर्थ, अतिदुर्लभ तथा जगत् हितकारी श्रुतधर्म को भी परीक्षा करके धीमान् व्यक्ति ग्रहण करते हैं ।
364. हिंसा हेय
सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता, न हंतव्वा न अज्जावेयव्वा न परिधितव्वा,
न परियावेयव्वा न उद्देवेयव्वा ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2697] एवं [भाग 7 पृ. 489]
आचारांग - 1/4/2/126
किसी भी प्राणी, किसी भी भूत, किसी भी जीव और किसी भी सत्त्व को नहीं मारना चाहिए। न उनपर अनुचित शासन करना चाहिए; न उन्हें गुलामों की तरह पराधीन बनाना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए और न उनके प्रति किसीप्रकार का उपद्रव करना चाहिए । अहिंसा वस्तुत: आर्य (पवित्र) सिद्धान्त है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 4 148
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