Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
View full book text
________________
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2630]
- बृहदावश्यकभाष्य 1224 शास्त्र का बार-बार अध्ययन कर लेने पर भी यदि उसके अर्थ की साक्षात् स्पष्ट अनुभूति न हुई हो तो वह अध्ययन वैसा ही अप्रत्यक्ष रहता है, जैसा कि जन्मांध के समक्ष चंद्रमा प्रकाशमान होते हुए भी अप्रत्यक्ष ही रहता है। 314. वैर का फल वेराणुबद्धा नरगं उति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2645]
- उत्तराध्ययन - 42 जो वैर की परम्परा बढते हैं, वे नरकगामी होते हैं । 315. धर्म
वचनादविरुद्धाद्यदनुष्ठानं यथोदितम् । मैत्र्यादिभावसमिश्रं, तद्धम इति कीर्त्यते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2665]
- धर्मबिन्दु 18 एवं धर्मसंग्रह। परस्पर अविरुद्ध वचन से शास्त्र में कहा हुआ मैत्री आदि भाव ले युक्त जो अनुष्ठान है, वह धर्म कहलाता है । 316. धर्म कैसा ? धर्मश्चित्तप्रभवो।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2666 ] __ - षोडशकप्रकरण 3 विवरण ' शुद्ध और पुष्ट चित्त ही धर्म है। 317. न कपट, न झूठ सादियं ण मुसं बूया ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2666 ] - सूत्रकृतांग - 18/19
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 . 136
-
-
-