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श्रमण
ŚRAMAŅA 1934674113
जनवरी - मार्च, १९९७
[0] पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
PĀRŚVANĀTHA VIDYĀPĪTHA, VARANASI.
अरधरपुल
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श्रमण
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ की त्रैमासिक शोध-पत्रिका
वर्ष-४८]
अंक १-३]
[जनवरी-मार्च, १९९७
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प्रधान सम्पादक प्रोफेसर सागरमल जैन
सम्पादक मण्डल डॉ० अशोक कुमार सिंह
डॉ० शिवप्रसाद
डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय प्रकाशनार्थ लेख-सामग्री, समाचार, विज्ञापन एवं सदस्यता आदि के लिए सम्पर्क करें
प्रधान सम्पादक
श्रमण पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई०टी०आई०मार्ग, करौंदी पो०ऑo-बी०एच०यू० वाराणसी - २२१००५ दूरभाष : ३१६५२१, ३१८०४६ फैक्स : ०५४२ - ३१६५२१
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यह आवश्यक नहीं कि लेखक के विचारों से सम्पादक सहमत हों
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श्रमण प्रस्तुत अङ्क में
पृष्ठ संख्या
१-२०
२१-३२
३३-४५
४७-५९
तनाव : कारण एवं निवारण
- डॉ० सुधा जैन २. योगनिधान (जैन आयुर्वेद पर १३वीं शती की दुर्लभ प्राकृत रचना)
- कुन्दन लाल जैन ३. सूक्तिकाएँ
- डॉ० सुरेन्द्र वर्मा ४. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त
- डॉ०अशोक कुमार सिंह ५. अणगार वन्दना बत्तीसी (मुनि चन्द्रभान)
- डॉ० (श्रीमती) मुन्नी जैन ६. "जैन चम्पूकाव्य" एक परिचय
- डॉ० राम प्रवेश कुमार 2. Ācārya Hemacandra and Ardhamăgadhi
Prof. S.C. Pande ८. पिप्पलगच्छ का इतिहास (गताङ्क से आगे)
-डॉ० शिव प्रसाद
६०-७०
७१-७५
७६-८२
८३-११७
जैन जगत्
११८-१२३ १२४-१२६
१०.
पुस्तक समीक्षा
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श्रमण
तनावः कारण एवं निवारण
डॉ० सुधा जैन
वर्तमान में मानव भौतिक क्षेत्र में जितना प्रगति की ओर अग्रसर है, आध्यात्मिक क्षेत्र में उतना ही ह्रासोन्मुख है । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आत्मीयता, निर्भयता, सहिष्णुता, सामाजिकता आदि मानवीय गुणों का अकाल सा पड़ता जा रहा है। आज चारों ओर अराजकता, लूटपाट, हत्या, हड़ताल, पथराव, आगजनी आदि का साम्राज्य है, एक ओर वैयक्तिक जीवन विभिन्न कुंठाओं एवं हीन भावनाओं से ओत-प्रोत है तो पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक जीवन में ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, तिरस्कार, प्रतिशोध आदि का बोलबाला है। अमावस की रात्रि का घनघोर अंधकार जिस प्रकार सर्वत्र छाया रहता है, उसी प्रकार तनावों एवं विषमताओं का प्रभाव सर्वव्यापी होता जा रहा है। वर्तमान युग को तनाव युग की संज्ञा दें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मानसिक तनाव से प्रभावित होकर उसका (मानव) जीवन असंतुलित होता जा रहा है। इसलिए वह अपने असंयमित जीवन में शिव नहीं बल्कि शैतान को प्रतिष्ठित कर रहा है। ऐसी परिस्थिति में सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है कि तनावों से सर्वथा ग्रसित एवं व्यथित जनजीवन को कैसे तनाव मुक्त कर सहज जीवन जीने का मार्ग दिखाया जाय ।
तनाव की समस्या के समाधान के लिए पाश्चात्य चिन्तकों ने विशेष रूप से काम किया है। परन्तु भारतीय समकालीन चिन्तकों ने भी भारतीय वाङ्मय में प्राप्त तथ्यों के आधार पर तनाव का विवेचन, विश्लेषण प्रारम्भ कर दिया है। उनमें जैन संत एवं चिन्तक युवाचार्य महाप्रज्ञ (वर्तमान में आचार्य) जी का नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने जैन साहित्य के आधार पर तनाव को अपने ढंग से समझने और समझाने का प्रयास किया है।
*
'तनाव' का शाब्दिक अर्थ
विभिन्न शब्द कोशों' में 'तनाव' के पर्यायवाची शब्दों के रूप में दबाव, दाब, भार, प्रभाव, तंगहाली, तंगी, विपत्ति, कष्ट, तकलीफ, टान, प्रतिबल, वल, जोर, महत्त्व,
प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी- ५ ।
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२
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बलाघात, बलात्मक, स्वराघात, प्रयत्न आदि शब्द प्राप्त होते हैं। अंग्रेजी में भी तनाव के लिए प्रेशर (Pressure), इफेक्ट (Effect), हार्डशिप (Hardship), डिस्ट्रेस (Distress), टेन्शन (Tension), मेकेनिक्स (Mechanics), इम्फेशिस (Emphasis), इम्पोरटेंस (Importance), फोनेटिक्स (Phonetics), इम्पेलिंग फोर्स (Impelling force) वेट इर्कोट (Weight effort) आदि मिलते हैं। तनाव का पारिभाषिक अर्थ
पी०डी० पाठक के अनुसार- तनाव व्यक्ति की शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दशा है। यह उसमें उत्तेजना और असंतुलन उत्पन्न कर देता है एवं उसे परिस्थिति का सामना करने के लिए क्रियाशील बनाता है। एडवार्ड ए० चार्ल्सवर्थ तथा रोनाल्ड जी० नाथन (Edward A.Charles worth and Ronald G. Nathan) के अनुसार-तनाव के बहुत से अर्थ होते हैं। किन्तु अधिकतर लोग तनाव को जीवन की मांगों (Demands of life) के रूप में समझते हैं। पारिभाषिक रूप में इन मांगों को तनाव-उत्पादक (Stressors) कहते हैं। तनाव की परिभाषा
गेट्स व अन्य के अनुसार- "तनाव, असंतुलन की दशा है, जो प्राणी को अपनी उत्तेजित दशा का अन्त करने हेतु कोई कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।''
ड्रेवर के मतानुसार--- "तनाव का अर्थ है- संतुलन के नष्ट होने की सामान्य भावना और परिस्थिति के किसी अत्यधिक संकटपूर्ण कारक का सामना करने के लिए व्यवहार में परिवर्तन करने की तत्परता।''५
नार्मन टैलेण्ट के शब्दों में- “प्रतिबल (Stress) से ऐसे दबाव का बोध होता है जिससे व्यक्तित्व के पर्याप्त रूप से कार्य करते रहने की योग्यता एक प्रकार से संकटग्रस्त हो जाती है।"६
रोजन एवं ग्रेगरी के अनुसार- "प्रतिबल (Stress) से, विस्तृत रूप से ऐसी बाह्य तथा आन्तरिक अनिष्टकारी व वंचनकारी स्थितियों का बोध होता है, जिनके प्रति व्यक्ति द्वारा समायोजन कर पाना अत्यधिक कष्टकर होता है।"
युवाचार्य महाप्रज्ञ के मतानुसार- "जब किसी भी पदार्थ पर पड़ने वाले दाब से पदार्थ के आकार में परिवर्तन हो जाता है तो उसे तनाव या टान कहा जाता है।"८
इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि तनाव व्यक्ति के सामान्य सुख, चैन पूर्ण जीवन में पैदा होने वाली गड़बड़ या बेचैनी है। कोई भी
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तनाव : कारण एवं निवारण
परिस्थिति जो हमारी सामान्य जीवन धारा को अस्त-व्यस्त कर दे, उसे हम 'तनाव उत्पन्न करने वाली' परिस्थिति कह सकते हैं। तनाव से उत्पन्न शारीरिक स्थितियाँ
पाश्चात्य चिन्तकों चार्ल्सवर्थ और नाथन के अनुसार तनाव के परिणामस्वरूप व्यक्ति की निम्नलिखित स्थितियाँ देखी जाती हैं
१. मन्द पाचन क्रिया (Digestion Slows)- तनाव के कारण पाचन क्रिया मन्द होने से रक्त का प्रवाह मांसपेशियों तथा मस्तिष्क की और बढ़ने लगता है, जो अपच की स्थिति से भी ज्यादा खतरनाक है।
२. तीव्र श्वांस (Breathing gets faster)- तनाव की स्थिति में श्वांस की गति तेज हो जाती है, क्योंकि मांस पेशियों को अधिक आक्सीजन की जरूरत होती है।
३. हृदय गति का बढ़ना (Heart speeds up)- तनाव के कारण हृदय की गति बढ़ जाती है, साथ ही रक्तचाप भी बढ़ता है।
४.पसीना आना (Perspiration increases)- तनाव की स्थिति में व्यक्ति के शरीर से अधिक मात्रा में पसीना आने लगता है।
५. मांसपेशियों में कड़ापन (Muscles tense)- तनाव के कारण मांसपेशियां प्रमुख कार्य के लिए कड़ी हो जाती हैं।
६. रासायनिक प्रभाव (Chemicals action)- तनाव की स्थिति में रासायनिक पदार्थ रक्त में मिलकर उसका थक्का जमा देते हैं ।
७. शर्करा तथा वसा (Sugars and Fats)- तनाव की वजह से रक्त में शर्करा तथा वसा की मात्रा बढ़ जाती है जो कि तीव्र शक्ति उत्पत्र कर उसे कार्य करने के लिए साधन का काम करती है ।
युवाचार्य महाप्रज्ञ ने भी इस सम्बन्ध में कहा है कि तनाव की निरन्तर स्थिति बने रहने पर शारीरिक गड़बड़ी उत्पन्न हो सकती है। इससे शरीर में स्थित दबाव तन्त्र निरन्तर सक्रिय रहता है। दबाव तन्त्र के अन्तर्गत हाइपोथेलेमस (Hypothelemus), पीयूष प्रन्थि (Pituitary gland), एड्रीनल ग्रन्थियां (Adrenal glands) और स्वायत नाड़ी संस्थान का अनुकम्पी विभाग (Sympathetic part of Auto Nervous System) आते हैं। जिसके कारण शरीर में घटित होने वाली शारीरिक स्थितियाँ निम्न प्रकार की हो जाती हैं-१९ १. पाचन क्रिया मन्द या बिल्कुल स्थगित हो जाती है।
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२. लार ग्रन्थियों के कार्य-स्थगन से मुंह सूख जाता है। ३. चयापचय की क्रिया में तेजी आ जाती है। ४. श्वांस तेजी से चलने लगती है तथा हांफने लगते हैं। ५. यकृत द्वारा संगृहीत शर्करा को अतिरिक्त रूप से रक्त प्रवाह में छोड़ दिया जाता
है, जिससे वह हाथ-पैर की मांस पेशियों तक पहुँच जाये। ६. शरीर में अधिक रक्त की आवश्यकता वाले भागों तक उसे पहुँचाने के लिए हृदय
की धड़कन बढ़ जाती है। ७. रक्तचाप बढ़ जाता है। ८. विद्युत रासायनिक एवं स्रावों (Harmons) की ऊर्जा अधिक मात्रा में उत्पन्न होने
लगती है। लेकिन आवश्यकतानुसार कार्य न होने से मांसपेशियों में तनाव के रूप
में प्रतिबद्ध हो जाती हैं। ९. निरन्तर रक्तचाप उच्च रहने से दिल का दौरा या रक्ताघात (Heart attack or Brain
Haemorrhage) हो जाता है। . १०. श्वांस की गति तीव्र रहने से दमा आदि श्वांस की बिमारियाँ उत्पन्न होती हैं। ११. एड्रीनालीन का स्राव बन्द होने से, हृदय की गति कम व रक्तवाहिनियाँ शिथिल ,
हो जाती हैं जिसके परिणाम स्वरूप बेहोशी आ जाती है।
तनाव से उत्पन्न शारीरिक स्थितियों के सम्बन्ध में भारतीय एवं पाश्चात्य चिन्तकों में जो संख्यात्मक भेद है, वह भेद कोई विशेष अर्थ नहीं रखता। यदि देखा जाए तो चार्ल्सवर्थ और नाथन तथा युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा बतायी गयी उपर्युक्त शारीरिक स्थितियाँ एक दूसरे में समावेशित हो जाती हैं। तनाव के कारण
तनाव उत्पन्न करने में कई तत्त्व काम करते हैं— सफलता, असफलता, लोभ, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या, अत्यधिक महत्त्वाकांक्षा आदि। पाश्चात्य चिन्तकों ने भी प्रायः तनाव के दो कारण माने हैं- १२
१. आन्तरिक कारण- तनाव के आन्तरिक कारणों में आन्तरिक प्रवृत्तियां तथा चिन्तन जो हमारे द्वारा अनुगमित होना चाहते हैं, को लिया गया है।
२. बाह्य कारण- तनाव के बाह्य करणों में वे सभी बातें आती हैं जो तनाव उत्पन्न करती हैं, वे इसप्रकार हैं
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(I)
यातायात का अवरुद्ध होना ।
(II) शहर का प्रदूषण या दूषित वातावरण ।
(III) कॉफी का पांचवाँ प्याला ।
(IV) वे दुकानदार, जो जवाब न दें । क्रोधित अधिकारी |
(v)
इनके अतिरिक्त भी कुछ बाह्य कारण और हैं, जो इस प्रकार हैं(I) वे काम, जिनके सम्पत्र होने के आसार नहीं दिखाई देते हैं। (II) वे बच्चे, जो बातों पर कभी ध्यान नहीं देते।
(III) वे व्यक्ति, जो निरन्तर अपनी गलतियों को छुपाने में ही लगे रहते हैं ।
तनाव के कारणों पर प्रकाश डालते हुए डाँ० होम्स (Dr. Holmes) और डॉ० आर० राहे (Dr. R. Rahe) ने भी जीवन शैली के परिवर्तनों के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य दिये हैं, जो इस प्रकार हैं
.१३
क्र.सं.
२.
३.
४.
तनाव : कारण एवं निवारण
५.
६.
७.
८.
९.
१०.
घटना
दम्पति में से किसी एक की मृत्यु
तलाक
चोट या बीमारी
विवाह
कार्य से निष्कासन
सेवानिवृत्ति
लैंगिक समस्याएं
कार्य (व्यवसाय) में परिवर्तन
जीवन की स्थितियों में परिवर्तन
सोने या आहार सम्बन्धी आदतों में परिवर्तन
अंक
१००
७३
५३
उपर्युक्त तालिका में दी गई घटनाओं के अंक सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू नहीं होते, फिर भी इन कारणों से तनाव तो अवश्य ही उत्पन्न होता है, चाहे उसका कितना ही प्रतिशत क्यों न हो। यदि इनका योग ३०० हो जाता है तो उसे महातनाव से ग्रसित माना जाता है। इस तरह अंकों के आधार पर तनाव के कारणों की तीव्रता - मंदता का भी निर्धारण हो जाता है।
५०
४७
४५
३९
२९
२५
१६
जैन दृष्टि में तनावों का मूल कषाय को माना गया है। कषाय 'कष' और 'आय' इन दो शब्दों के योग से बना जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है, १४ जिसका अर्थ
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६
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है- कर्मों का बन्धन। मूलत: कषाय चार ही हैं—क्रोध, मान, माया और लोभ।१५ ये कषायिक वृत्तियाँ अर्थात् माया-लोभ और क्रोध-मान क्रमश: राग तथा द्वेष की जननी हैं।१६ इसीलिए आगमों में क्रोध को क्षमा-शांति से, मान को मृदुता-नम्रता से, माया को ऋजुता-सरलता से और लोभ को तोष-संतोष से जीतने का मार्ग बताया गया है। १७ तीव्रता-मन्दता और स्थायित्व के आधार पर भी आगमों में इन्हें पुन: चार-चार भागों में विभाजित किया गया है- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन।१८ अनन्तानुबन्धी कषाय अनन्त काल तक, अप्रत्याख्यानी कषाय का समय एक वर्ष, प्रत्याख्यानी कषाय का समय चार मास तथा संज्वलन कषाय का समय पन्द्रह दिन माना गया है। जैसे-जैसे कषायिक पर्ते खुलती जाती हैं, वैसे-वैसे अशान्ति, आकुलता एवं तज्जन्य तनावों की परतें स्वयं अनावरित होती जाती हैं।
आज के वैज्ञानिक युग में विज्ञान के द्वारा जितना भी औद्योगिक विकास हुआ है, उसके अनियन्त्रित होने के कारण, मानव जीवन ही असन्तुलित हो गया है। औद्योगिक क्रान्ति के कारण भौतिक अभिवृद्धि तो हुई लेकिन साथ ही आवश्यकताएं भी असीमित हो गईं, जिससे लालसा, लोभ, तृष्णा भी बढ़ी और तनावों का विकास हुआ, क्योंकि इच्छाएं अनन्त हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा भी गया है- इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं। १९ तृष्णा की उपस्थिति में शांति नहीं मिल सकती है। इच्छाएं-आकांक्षाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं, जिससे नये-नये आविष्कार होते जा रहे हैं। किसी ने कहा भी हैआवश्यकता आविष्कार की जननी हैं (Necessity is the mother of Invention)। आवश्यकता और आविष्कार का क्रम निरन्तर चलता रहा, जिसका दुष्परिणाम विश्वयुद्ध के रूप में हमारे सामने आया। आज ऐसे-ऐसे युद्ध आयुधों जैसे—एटम बम, हाइड्रोजन बम, मेगाटन बम और डूम्स डे का अविष्कार हो चुका है, जो कुछ ही क्षणों में सम्पूर्ण विश्व को नष्ट कर दें। धन, सत्ता और यश की लिप्सा में मानव पागल हो रहा है। अत: सम्पूर्ण विश्व ही तनाव से ग्रसित है। जैसे-जैसे लाभ होता है, लोभ की वृत्ति बढ़ती है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा गया है- 'ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है। लाभ लोभ को बढ़ाने वाला है। दो मासा सोने से होने वाला कपिल का कार्य लोभवश करोड़ों से भी पूरा न हो सका।'२० दशवैकालिक के अनुसार- क्रोध से प्रीति का, मान से विनय का, माया से मित्रता का और लोभ से सभी सद्गुणों का नाश होता है।२१ तृष्णा, लोभ, लिप्सा, स्वार्थपरायणता तनावों के प्रमुख कारणों में से हैं। साध्वी कनकप्रभा के शब्दों में-"विनाश के विभिन्न उपकरणों के भार से लदा विश्व कराह रहा है एवं पेचीदा राजनैतिक स्थितियां उसे और भी उलझा रही हैं। सत्ता का व्यामोह, विस्तारवादी मनोवृत्ति और अस्मिता का पोषण, इनसे आक्रान्त होकर विश्वचेतना उस चौराहे पर खड़ी है, जिसकी कोई भी राह निरापद नहीं है। २२
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तनाव : कारण एवं निवारण तनाव के प्रकार - तनाव के प्रकारों को व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं विश्वव्यापी रूपों में विभक्त कर सकते हैं, जो इस प्रकार हैं
व्यक्तिगत तनाव- प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति तनाव से ग्रसित हैं। चाहे मिल मालिक हो, मजदूर हो, व्यापारी हो, कर्मचारी हो, प्रशासक हो, सेठ हो, वकील हो अथवा अध्यापक हो-सभी वर्गों के लोग किसी न किसी कारण से तनावयुक्त जीवन जी रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने से उच्च-स्तर के व्यक्ति को देखता है, उसकी सुख-सुविधाओं को देखकर उन्हें प्राप्त करने में जुट जाता है। जिसके कारण उसका दिन का चैन व रात की नींद तक हराम हो जाती है। नींद लेने के लिए भी औषधियों का सेवन करना पड़ता है। यदि वह सुविधाएं प्राप्त कर भी लेता है तो कभी टेलीफोन की घंटी उसकी नींद में व्यवधान डाल देती है। धन मिलने पर भी सुख मिल जाये, यह आवश्यक नहीं है। असन्तोष-क्लेश के कारण वह अस्वस्थ हो जाता है, रक्तचाप जैसी बीमारी का शिकार हो जाता है। अपने उपलब्ध सुखों को भूलकर बाह्य जगत् में व्यक्ति उसको ढूँढ़ता फिरता है, ठीक उसी प्रकार जैसे मृग अपनी नाभि में स्थित कस्तरी की सुवास को वन-वन में खोजता है, पर्वत और कन्दराओं में ढूँढ़ता है, लेकिन अपने भीतर नहीं झाँक पाने के कारण कष्ट पाता रहता है। इसी सन्दर्भ में कबीरदासजी ने भी कहा है-२३
"कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूं? बन माहि।
तैसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं।।" उसीप्रकार मानव भी लोभ के वशीभूत, सुख की खोज में अमूल्य मानव भव को तनाव से ग्रसित कर लेता है, लेकिन उसे सुख नहीं मिल पाता है। ____ पारिवारिक तनाव- लोभ की वृद्धि के कारण ही परिवार में तनाव उत्पन्न होता है। पिता-पुत्र में, भाई-भाई में, सास-बहू में और यहां तक कि पति-पत्नी में भी लोभ व अविश्वास उत्पन्न होने के कारण प्रतिदिन लड़ाई-झगड़ा, मनमुटाव, द्वेष, ईर्ष्या आदि के कारण तनाव बढ़ता जाता है। यदि परिवार में सन्तोष व्याप्त हो तो तनाव की स्थिति ही उत्पन्न नहीं होती है।
विश्वव्यापी तनाव- व्यक्तिगत और पारिवारिक तनावों का विस्तृत रूप ही समाज और विश्व में देखने को मिलता है। असन्तोष, लोभ, अविश्वास ही संघर्ष उत्पन्न करने के मूलभूत कारण होते हैं। आज सत्ता और समृद्धि का मोह, छोटे राष्ट्रों का बड़े राष्ट्रों की तरह बनने की होड़, बड़े राष्ट्रों में शक्ति विस्तार की भावना, साम्राज्यवाद की स्पर्धा जैसे अनेक कारण एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र के प्रति संदिग्ध बना रहे हैं, जिसके कारण विश्व में तनाव बढ़ रहे हैं।
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युवाचार्य महाप्रज्ञ ने भी तनाव के तीन प्रकार बताये हैं- शारीरिक तनाव, मानसिक तनाव और भावनात्मक तनाव।२४ प्रत्येक व्यक्ति इन तनावों से ग्रसित है। ये तनाव निम्न रूप हैं
शारीरिक तनाव- जब व्यक्ति शारीरिक श्रम करते-करते थक जाता है तो मांसपेशियां विश्राम चाहती हैं। यदि पूर्णरूपेण विश्राम नहीं मिल पाता है तो शारीरिक तनाव उत्पन्न हो जाता है।
___ मानसिक तनाव- इसका मुख्य कारण है- अधिक चिन्तन या सोचना। कुछ लोग तो इस बीमारी से इतने ग्रसित हो गये हैं कि बिना उद्देश्य के भी लगातार कुछ न कुछ सोचते रहते हैं और इसी को अपने जीवन की सफलता मानते हैं। अनावश्यक चिन्तन, मनन के कारण ही मानसिक तनाव उत्पन्न होता है।
भावनात्मक तनाव- इस तनाव के मूलकारण हैं—आर्त और रौद्र ध्यान।२५ जो वस्तु प्राप्त नहीं है, उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना, उसी में निरन्तर लगे रहना आर्त्त ध्यान है। इसमें व्यक्ति मनोनुकूल वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है तथा अप्रिय या मन के विपरीत वस्तु से छुटकारा पाने का भी प्रयत्न करता रहता है। इसी कारण भावनात्मक तनाव उत्पन्न होता है। रौद्र ध्यान भी इसका एक प्रमुख कारण है। मन में निरन्तर संकल्प-विकल्प की स्थिति बनी रहती है। कभी हिंसा की भावना आती है तो कभी प्रतिशोध की। घटना कुछ भी नहीं होती लेकिन बदले की भावना लम्बे समय तक चलती रहती है। व्यक्ति अपनी पूरी शक्ति इसी में लगा देता है और यही तनाव का कारण होता है।
रौद्र ध्यान से उत्पन्न भावनात्मक तनाव चार स्थितियों में उत्पन्न होता है-२६ (I) हिंसानुबन्धी हिंसा का अनुबन्ध, (II) मृषानुबंधी - झूठ का अनुबन्ध, (IV) स्तेयानुबन्धी - चोरी का अनुबन्ध और, (v) संरक्षणानुबंधी - परिग्रह के संरक्षण का अनुबन्ध ।
ये चारों ही स्थितियाँ तनाव उत्पन्न करती हैं। शारीरिक तनाव एक समस्या है तो मानसिक तनाव उससे उग्र समस्या है और भावनात्मक तनाव तो विकट एवं भयंकर समस्या है। इसका परिणाम मानसिक तनाव से भी ज्यादा घातक है।
चार्ल्सवर्थ और नाथन ने भी अपनी पुस्तक “सट्रेसमैनेजमेंट' (Stress Management) में तनाव के प्रकारों का उल्लेख किया है। जिनका यहां पर केवल नामोल्लेख किया जा रहा है। तनाव के ये प्रकार निम्नलिखित हैं- २७
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तनाव : कारण एवं निवारण
भावनात्मक तनाव (Emotional), पारिवारिक (Family), सामाजिक(Social), परिवर्तनात्मक (Change), रासायनिक (Chemical), कार्य का तनाव (Work), निर्णयात्मक (Decision), रूपान्तरित (Commuting), भय (Phobic), शारीरिक (Physical), बीमारी (Disease), वेदना (Pain), तथा वातावरण (Environmetal) सम्बन्धी तनाव।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी चिन्तकों ने तनाव के अलग-अलग प्रकार बताये हैं। संख्या की दृष्टि से समानता न होते हुए भी कुछ प्रकार एक दूसरे से मिलते जुलते हैं और कुछ बिल्कुल भिन्न हैं। तनाव-मुक्ति के उपाय
उपर्युक्त वर्णित तनावों के कारणों एवं प्रकारों को दूर करके व्यक्ति तनाव से मुक्त हो सकता है, क्योंकि जब व्यक्ति ही तनाव रहित हो जायेगा तो परिवार, समाज व विश्व अपने आप तनाव मुक्त हो जायेगा। आचार्य तुलसी ने भी इस सन्दर्भ में कहा है कि२८
"सुधरे व्यक्ति समाज व्यक्ति से राष्ट्र स्वयं सुधरेगा। 'तुलसी' अणु का सिंहनाद, सारे जग में प्रसरेगा। मानवीय आचार-संहिता में अर्पित, तन-मन हो।
संयममय जीवन हो।।" यहाँ पर कुछ तनाव-मुक्ति के उपायों का उल्लेख किया जा रहा है जो इस प्रकार हैंमनोवैज्ञानिक विधि द्वारा तनाव मुक्ति
मनोवैज्ञानिकों ने तनाव कम करने के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दो प्रकार की विधियों का वर्णन किया है। कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार- तनाव कम करने की ये विधियाँ, व्यक्ति को अपने वातावरण से बहुत समय तक समायोजन करने या न करने के लिए उपयुक्त हो सकती हैं पर इनका उद्देश्य उसके कष्ट की भावना को सदैव कम करना है।२९ ये विधियाँ इस प्रकार हैं
१. प्रत्यक्ष विधियाँ (Direct methods of Tension Reduction)- प्रत्यक्ष विधियों का प्रयोग विशेष रूप से समायोजन की किसी विशेष समस्या के स्थायी समाधान के लिए किया जाता है।३० ये निम्न हैं
(I) बाधा का विनाश या निवारण (Destroying or Removing the Barrier)- इसके अन्तर्गत व्यक्ति उस बाधा का निवारण करता है जो उसके उद्देश्य
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पूर्ति में बाधक बनती हैं। जैसे एक हकलाने वाला व्यक्ति अपने दोष से मुक्त होने के लिए मुंह में पान डालकर बोलने का प्रयास करके उसमें सफलता प्राप्त करता है।
(II) अन्य उपाय की खोज (Seeking another path)- उद्देश्य प्राप्ति में आने वाली बाधा का निवारण करने में जब व्यक्ति असफल हो जाता है तो और किसी उपाय की खोज करने लगता है जिससे उसे सफलता मिल सके। उदाहरणार्थ पेड़ पर लगे फल हाथ से नहीं तोड़ पाने के कारण बच्चे उसे डंडे से तोड़ लेते हैं।
(III) अन्य लक्ष्यों का प्रतिस्थापन (Substitution of other Goals)- जब मूल लक्ष्य में ही सफलता प्राप्त नहीं हो पाती है तो व्यक्ति अपना लक्ष्य ही बदल देता है तथा दूसरे लक्ष्य को निर्मित कर लेता है। जिसप्रकार बच्चे वर्षा के कारण खेल के मैदान में खेलने नहीं जा पाते हैं तो घर में ही दूसरा खेल खेलने लगते हैं।
(IV) व्याख्या व निर्णय (Analysis, Decision)- जब व्यक्ति के सामने दो समान रूप से वांछनीय, पर विरोधी इच्छाएँ होती हैं तो वह पूर्व अनुभवों के आधार पर सोच-विचार कर अन्त में किसी एक का चुनाव करने का निर्णय कर लेता है। जिस प्रकार एडवर्ड अष्टम के समक्ष वह इंग्लैण्ड का राजा रहे या मिसेज सिम्पसन से विवाह करे का प्रश्न उभरा था। तब उन्होंने राजपद का त्याग कर मिसेज सिम्पसन से विवाह करने का निर्णय लिया था।
२. अप्रत्यक्ष विधियाँ (Indirect Methods of Tension Reduction)अप्रत्यक्ष विधियों का प्रयोग केवल दुःखपूर्ण तनाव को कम करने के लिए किया जाता है।३१ ये विधियां निम्न प्रकारेण हैं
(1) शोधन (Sublimation)-- जब व्यक्ति की काम प्रवृत्ति तृप्त न होने के कारण उसमें तनाव उत्पन्न करती है, तब वह कला, धर्म, साहित्य, पशुपालन, समाजसेवा आदि में रुचि लेकर अपने तनाव को कम करता है।
(II) पृथक्करण (Withdrawal)- इसके अन्तर्गत व्यक्ति अपने आपको उस स्थिति से पृथक कर लेता है जिसके कारण तनाव उत्पन्न होता है। जैसे- जब कोई किसी का मजाक उड़ाता है तो वह उन लोगों से मिलना-जुलना ही बंद कर देता है।
(II) प्रत्यावर्तन (Regression)- व्यक्ति अपने तनाव को कम करने के लिए वैसा ही व्यवहार करने लगता है जैसा वह पहले करता था। जैसे- जब घर में दो बालक हो जाते हैं, तब बड़ा बालक माता-पिता का उतना ही प्रेम पाने के लिए छोटे बच्चे की तरह घुटनों से चलना, हठ करना आदि क्रियाएँ करने लगता है।
(IV) दिवास्वप्न (Day-Dreaming) – तनाव को कम करने के लिए व्यक्ति कल्पना जगत् में विचरण करने लगता है।
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तनाव : कारण एवं निवारण
(V) आत्मीकरण (Identification ) - व्यक्ति इस विधि में किसी महान् पुरुष, अभिनेता, राजनीतिज्ञ आदि के साथ एक हो जाने का अनुभव करता है। बालक अपने पिता से व बालिका अपनी माता से तादात्म्य स्थापित करके उनके कार्यों का अनुकरण कर प्रसन्न होते हैं, जिससे उनका तनाव कम हो जाता है।
(VI) निर्भरता (Dependence ) — तनावों को कम करने के लिए व्यक्ति अपने आपको किसी दूसरे पर निर्भर कर अपने पूर्ण जीवन का दायित्व उसे सौंप देता है। जिस प्रकार व्यक्ति महात्माओं के शिष्य बनकर उनके आदेशों व उपदेशों का पालन कर जीवन-यापन करते हैं।
११
' (VII) औचित्य स्थापन ( Rationalisation ) - व्यक्ति वास्तविक कारण न बताकर ऐसे कारण बताता है जो अस्वीकारे न जायँ और इसप्रकार वह अपने कार्य के औचित्य को सिद्ध करता है। जिसप्रकार देर से आफिस आने पर व्यक्ति सही बात न बताकर बस नहीं मिलने या ट्रेफिक जाम की बात कहता है ।
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(VIII) दमन (Repression ) - इसमें व्यक्ति तनाव कम करने के लिए अपनी इच्छा का दमन कर देता है।
(IX) प्रक्षेपण (Projection ) — व्यक्ति अपने दोष को दूसरे पर आरोपित कर तनाव कम कर लेते हैं। जैसे मिस्त्री द्वारा बनाये गये मकान की दीवार यदि ढह जाती है तो वह कहता है कि सीमेन्ट ही खराब था ।
(X) क्षतिपूर्ति (Compensation ) - एक क्षेत्र की कमी को उसी क्षेत्र में या दूसरे क्षेत्र में पूरा करके व्यक्ति अपने तनाव को कम कर लेता है। जैसे— पढ़ने-लिखने में कमजोर बालक रात-दिन मेहनत करके अच्छा छात्र बन जाता है या खेलकूद में ध्यान देकर उसमें यश प्राप्त कर लेता है।
अध्यात्म द्वारा तनाव मुक्ति
भौतिक विकास के फलस्वरूप उत्पन्न तनावों से त्रस्त मानव आज अध्यात्म की ओर अग्रसर हो रहा है। अब वह जान रहा है कि अध्यात्म अर्थात् धर्म की शरण में ही शांति संभव है। आज वैज्ञानिक विकास पर अध्यात्म का नियन्त्रण आवश्यक है । ३२ धर्म में रत रहकर या अध्यात्म साधना द्वारा तनाव मुक्त हुआ जा सकता है। कहा भी गया है- 'एको धम्मो ताणं- अर्थात् एकमात्र धर्म ही तिराने वाला है । ३३
आत्मसन्तोष एवं आत्मजागृति द्वारा तनावमुक्ति
लोभ का त्याग किये बिना संतोष की प्राप्ति नहीं हो सकती है और सन्तोष ही शान्ति का एकमात्र उपाय है। कहा भी गया है
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गोधन, गजधन, वाजिधन, और रतनधन खान । जब आवे सन्तोषधन, सब धन धूरि समान ।।
सन्तोष के साथ-साथ आत्मजागृति का होना आवश्यक है। जब तक दृष्टि परिवर्तित नहीं होगी, तनाव मुक्ति संभव नहीं है। जब व्यक्ति अपने भीतर में स्थित हो जायेगा, भीतर छुपी अपार सुख राशि को प्राप्त कर लेगा तब वह तनाव से स्वतः मुक्त हो जायेगा । श्री योगीराज डॉ० बोधायन के अनुसार "अपनी सारी परेशानी का कारण व्यक्ति स्वयं है । कोई दूसरा दुःख नहीं देता है। हम स्वयं दुःख को ग्रहण करते हैं। हमें स्वयं ही इसे त्याग कर तनाव दूर करने होंगे। ३४ आत्मा में अनन्त शक्ति होती है। सुख-दुःख उसी के द्वारा होते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा भी गया है— आत्मा ही दुःख और सुख को देने वाला है । यही मित्र और शत्रु है । ३५ जो आत्मा है, वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है। सुख की आशा में दूसरे को जानने में रत रहना व्यर्थ है । अपने को जानना ही सुख है । ३६ भगवान् महावीर ने भी कहा है जो एक आत्म तत्त्व को पहिचान लेता है, वह सब कुछ जान लेता है । ३७ जैन आगमों में तो आत्मा को ही परमात्मा माना गया है । ३८
अतः तनाव मुक्ति के लिए आत्मशक्ति को जागृत करना होगा। जब आत्मा के भीतर छुपे सुख को व्यक्ति प्राप्त कर लेगा तो तनाव मुक्त ही नहीं वरन् परम पद अर्थात् मोक्ष को भी प्राप्त हो जायेगा ।
समता द्वारा तनाव मुक्ति
आत्म-शक्ति को जान लेने के बाद समता का विकास तो स्वतः हो जाता है क्योंकि समता आत्मा का ही गुण है। समतामय जीवन हो जाने पर तनाव स्वयं दूर भाग जायेंगे । संयमित व्यक्ति में राग-द्वेष की भावना नहीं रहती है। उसके लिए सभी प्राणी समान होते हैं। वह किसी को किसी भी प्रकार का दुःख नहीं देना चाहता हैं। इस प्रकार राग- -द्वेष कम हो जाने पर तनाव स्वतः ही खत्म हो जायेगा ।
ध्यान और योग द्वारा तनाव मुक्ति
•
ध्यान से आत्मिक शांति प्राप्त होती है। विषयकषायों की मन्दता व मन, वचन, काय के योगों पर नियन्त्रण होना ही ध्यान की सफलता है। मन की एकाग्रता ही ध्यान है। ३९ स्थिर चिन्तन, मन की सुलीन दशा और चित्त की एकाग्रता ही ध्यान है क्योंकि तनाव का प्रमुख कारण मन है और मन को ध्यान द्वारा ही नियन्त्रित किया जा सकता है । महर्षि पतंजलि ने भी कहा है कि चित्त वृत्ति का निरोध ही योग है" और अपने अष्टांग योग में उन्होंने ध्यान को समाधि से पहले स्थान दिया है । ४२ जब ध्यान के द्वारा मन एकाग्र हो जायेगा तो जीवन स्वतः ही तनाव मुक्त हो जायेगा ।
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तनाव : कारण एवं निवारण
कायोत्सर्ग द्वारा तनाव मुक्ति
कायोत्सर्ग का प्रयोग तनाव मुक्ति का प्रयोग है। कायोत्सर्ग में शरीर की शिथिलता व ममत्व के विसर्जन का अभ्यास किया जाता है, जिससे शरीर सर्वथा हल्का व तनाव रहित हो जाता है । मानसिक बोझ कम हो जाता है। कायोत्सर्ग तनाव मुक्ति का अचूक प्रयोग है, जो इसका प्रयोग करता है वह तनाव मुक्त हो जाता है। ऐसा कभी नहीं होता है कि व्यक्ति कायोत्सर्ग करे और तनाव मुक्त न हो। ४३
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चार्ल्सवर्थ और नाथन ने भी कायोत्सर्ग को तनाव मुक्ति का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग बताया है। उन्होंने अपनी पुस्तक “स्ट्रेस मैनेजमेंट" (Stress Management) में इसके बारे में विस्तृत चर्चा की है । ४४
प्रेक्षाध्यान द्वारा तनाव मुक्ति
तेरापंथ धर्मसंघ के दशम आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने जैन आगमों का मंथन करके ध्यान की एक अभिनव प्रक्रिया प्रेक्षाध्यान को जन-समूह के सामने प्रकाशित किया है। यह प्रक्रिया उपादान को जानने का अभ्यास है। जो व्यक्ति प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया से गुजरता है वही चेतना को जगाने वाले उपादान का विकास करता है। ४५ तनावों से मुक्ति पाने के लिए वे सरल उपाय बताते हैं कि आज का जीवन ही तनावग्रस्त है। प्रतिक्षण तनाव उत्पन्न करने वाली घटनाएं घटती रहती हैं। उस तनाव को विसर्जित करने का एकमात्र उपाय है- दीर्घ श्वांस प्रेक्षा । यदि कोई व्यक्ति १५-२० मिनट तक दीर्घ श्वांस प्रेक्षा का प्रयोग करता है तो पूरे दिन भर का तनाव दूर हो जाता है। ४६ श्वांस के माध्यम से किस प्रकार तनाव रहित हुआ जा सकता है, इसकी चर्चा चार्ल्सवर्थ और नाथन ने भी की है । ४७ प्रेक्षाध्यान बहिर्जगत् से अन्तर्जगत् की ओर ले जाने वाला प्रयोग है; जो तनाव से ग्रसित व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के लिए परमावश्यक है।
स्वाध्याय और सामायिक (समभाव) द्वारा तनाव मुक्ति
सत्साहित्य का अध्ययन करने से अच्छे विचार मन में आते हैं। अपने हित-अहित का ज्ञान होता है। स्वाध्याय से व्यक्ति स्वयं को पहचान कर तनाव मुक्त हो सकता है। आचार्य श्री हस्तीमल जी के अनुसार "जीवन की विषमता और मन की अस्वस्थता से मुक्ति पाने का मार्ग स्वाध्याय है । " ४८ इसी में आगे कहते हैं "घर-घर, कुटुम्ब - कुटुम्ब और जाति-जाति में लड़ाई झगड़े, कलह, क्लेश, और वैर-विरोध चल रहे हैं, वे स्वाध्याय से ही दूर हो सकते हैं । ४९ सामायिक से ही समताभाव आता है। सामायिक के बारे में उपाध्याय अमर मुनि का कहना है- “सामायिक बड़ी ही महत्त्वपूर्ण क्रिया है । यदि यह ठीक रूप से जीवन में उतर जाए तो संसार सागर से बेड़ा पार है' अर्थात् व्यक्ति तनाव मुक्त जीवन यापन कर सकता है।
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श्रमण/जनवरी-मार्च १९९७
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अहिंसा द्वारा तनाव मुक्ति
जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है— अहिंसा । व्यक्तिगत तनावों के साथ-साथ विश्वव्यापी तनाव भी इससे दूर हो सकते हैं। अहिंसा से दया, दान, परोपकार, सहनशीलता, सहिष्णुता, प्रेम की उदात्त भावनाएं जागृत होती हैं। अहिंसा द्वारा सम्पूर्ण विश्व में एकता और शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है। आज महात्मा गांधी और उनकी अहिंसा विश्वविख्यात है।
अपरिग्रह से तनाव मुक्ति
अहिंसा को ग्रहण करने वाला परिग्रह से स्वतः मुक्त हो जाता है। अपरिग्रह की भावना से तृष्णा शांत हो जाती है, जिससे सन्तोष प्राप्त होता है और स्वतः ही तनाव समाप्त हो जाते हैं क्योंकि अपरिग्रह का अर्थ ही है- पदार्थ के प्रति ममत्व या आसक्ति का न होना । वस्तुतः ममत्व या मूर्च्छा भाव से संग्रह करना परिग्रह कहलाता है अर्थात् मूर्च्छा ही परिग्रह है । ५१ परिग्रह को जैन आगम में एक ऐसा वृक्ष माना गया है, जिसके स्कन्ध अर्थात् तने लोभ, क्लेश और कषाय हैं । ५२ अतः अपरिग्रह की भावना व्यक्ति को तनाव रहित कर सकती है।
अनेकान्त द्वारा तनाव मुक्ति
अनेकान्त के सिद्धान्त से दुराग्रह समाप्त होते हैं । इस सिद्धान्त से एक दूसरे को समझने का प्रयास करने से तनाव दूर होंगे। इसी सन्दर्भ में साध्वी कनकप्रभा का कहना है- " वर्तमान के सन्दर्भ में भी स्यादवाद की अर्हता निर्विवाद है। इसमें वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सभी समस्याओं का सुन्दर समाधान सन्निहित है। जैन दर्शन की यह मान्यता सम्पूर्ण विश्व के लिए एक वैज्ञानिक देन है । ५३ अनेकान्तिक दृष्टि का दैनिक जीवन में यदि व्यवहार होने लगे तो निश्चय ही व्यक्ति, समाज व राष्ट्र में व्याप्त तनाव- द्वन्द समाप्त होकर समन्वय, स्नेह, सद्भावना, सहिष्णुता तथा उपशम-मृदुता जैसे उदात्त गुणों का प्रादुर्भाव होगा, जो निश्चय ही जीवन दर्शन को एक नई दिशा देगा।
सादा जीवन उच्च विचार से तनाव मुक्ति
प्रत्येक व्यक्ति उच्चस्तरीय जीवन जीना चाहता है। अपने से ऊंचे स्तर वाले लोगों की नकल करने से इच्छाएं बढ़ती हैं, लेकिन उनकी पूर्ति न कर पाने के कारण वह मानसिक तनावों से ग्रसित रहता है। अतः सादा जीवन जीने से इन तनावों से मुक्त हुआ जा सकता है।
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तनाव : कारण एवं निवारण
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भावनाओं से तनाव मुक्ति
भोजन-भजन में सात्त्विकता होने से प्राणी-प्राणी का हृदय मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावों से आप्लावित रहता है। जैन धर्मानुसार मैत्री, प्रमोद से मन में प्रसन्नता, निर्भयता और आत्मिक आनन्द का संचार होता है। करुणा मानवीय संवेदन के प्रति जागरुकता तथा सहानुभूति और माध्यस्थ भावना व्यक्ति में तटस्थता प्रदान करती है, हीन भावनाओं, निराशाओं, राग-द्वेषात्मक विकल्पों से पीड़ित मन को शक्ति प्रदान करती है।५४ निश्चय ही मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावनाएँ जीवन को पूर्णता की ओर ले जाती हैं। जिससे मानव तनाव-रहित हो समस्त सदगुणों का उद्भव अपने जीवन में करता है। चिन्तन रहितता से तनाव मुक्ति
__अधिक सोचना या चिन्तन करना ही मानसिक तनाव का प्रमुख कारण है। अतीत का चिन्तन और भविष्य की कल्पना ही तनाव को उत्पन्न करती है।५५ तनाव से मुक्त होने का अर्थ है वर्तमान में जीवन यापन करना। अतीत के चिन्तन व भविष्य की कल्पना को छोड़ना होगा। तभी मन को विश्राम मिलेगा व तनाव दूर होगा।५६ चिन्ता रहित होकर ही आनन्दमय जीवन जिया जा सकता है। इन्द्रिय संयम द्वारा तनाव मुक्ति
सभी इन्द्रियां अपना-अपना पोषण चाहती हैं। यदि इनपर नियन्त्रण न किया जाये। तो इनकी इच्छा, लालसा बढ़ती चली जायेगी, जिसका कोई अंत नहीं है। इसीलिए तनावों की वृद्धि जारी रहती है। जो व्यक्ति पाँच इन्द्रियों और मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह तनाव मुक्त हो जाता है। भगवान् महावीर ने कहा भी है
एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस।
दसहा उ जिणिताणं, सव्य सतु जिणामह।। ५७ इसप्रकार पाँच इन्द्रियाँ, मन और चार कषाय- इन दस को जीतने वाला आत्मिक शत्रुओं को जीत कर तनाव मुक्त हो जाता है। कषाय मंदता और तनाव मुक्ति
कषाय यानि क्रोध, मान, माया और लोभ के वश में मानव तनाव ग्रस्त रहता है। इसके विपरीत इनकी मंदता ही तनाव मुक्तता है। कषाय आत्मा के शत्रु हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में तो कषाय को अग्नि कहा गया है।५८ इनको जीतने का उपाय दशवैकालिक सूत्र में बताते हुए कहा गया है
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उवसमेण हणे कोहं, मद्दवया जिणे।
मायं चाज्जव भावेणं, लोभं संतोषओ जिणे।। अर्थात् क्रोध को उपशम से, मान को मृदुता से, माया को सरलता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिए। संकल्प दृढ़ता से तनाव मुक्ति
संकल्प में अनन्त शक्ति है। दृढ़ संकल्प के द्वारा मुश्किल से मुश्किल कार्य भी आसान हो जाता है। मुनि मोहन लाल शार्दूल ने भी कहा है - “मनुष्य के संकल्प में अपरिमित शक्ति होती है। जब वह संकल्प बल को संजोकर किसी अनुष्ठान के लिए प्रस्तुत होता है तो कुछ भी असंभव नहीं रह जाता है। मनुष्य जब सुदृढ़ निर्णय करके बंधन तोड़ना चाहे तो वह प्रत्येक बंधन तोड़ सकता है, इसमें कोई संशय नहीं।६० अत: मानव दृढ़ संकल्पित हो तनावों से अवश्य ही मुक्त हो सकता है। संयमित आहार से तनाव मुक्ति
कहा गया है "जैसा खाये अन्न, वैसा होगा मन"। व्यक्ति का भोजन यदि तामस व राजस की अपेक्षा सात्विकता से ओत प्रोत है तो उसके आचार-विचार में भी शुद्धता, निर्मलता और भव्यता परिलक्षित होगी। क्योंकि हमारे मन का सम्बन्ध हमारे आहार से होता है। हम जैसा आहार लेंगे, हमारे वैसे ही विचार होंगे। अखाद्य और अपेय पदार्थ आत्मतत्त्व को अपकर्ष की ओर ले जाते हैं। जिससे हमारे शरीर के मुख्य अंगों (हृदय, मस्तिष्क आदि) पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसीलिए कहा गया है कि तनाव जैसी भंयकर स्थिति से बचने के लिए मन की स्वस्थता अनिवार्य है और मन तभी स्वस्थ रह सकता है जब, निरामिष, परिमित, संतुलित एवं वासनाओं को उद्दीप्त न करने वाले पदार्थ यानि सात्विक भोजन ही ग्रहण किये जायं।६१ ___प्रस्तुत आलेख में संक्षेप में तनाव मुक्ति के कुछ उपाय बताये गये हैं, जिससे हम सर्वथा तनाव मुक्त हो सकते हैं। सही ढंग से यदि इन्हें जीवन में उतारा जाय तो मानव जीवन से तनाव शब्द ही गायब हो जायेगा। जब व्यक्ति संयमित जीवन यापन करने लगेगा तो व्यक्ति ही नहीं वरन् परिवार, समाज, राष्ट्र और यहां तक कि विश्व भी तनाव मुक्त हो जायेगा। सन्दर्भ ग्रन्थ सूची१. डॉ० हरदेव बाहरी, अंग्रेजी-अंग्रेजी हिन्दी कोश, ज्ञानमण्डल लिमिटेड,
वाराणसी, प्रथम संस्करण १९९५ ई० सन्, पृष्ठ १०८३।
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तनाव : कारण एवं निवारण
Websters Encyclopedic Unabridged Dictionary, Random House Value Publishing Inc. New Jersey, First Edition 1983, Page 1406. २. पी०डी० पाठक, शिक्षा मनोविज्ञान, विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा, तीसवां
संस्करण, १९९६ ई० सन्, पृष्ठ ४१२ ।
३.
४.
६.
७.
८.
९.
Edward A. Charlesworth and Ronald G. Nathan, Stress Management, Souvenir Press Ltd. London, Ist Edition 1986, Page 18. Tension is a state of disequilibrium, which disposes the organism to do something to remove the stimulating condition.
Gates & Others, Educational Psychology, Page 301.
Tension means a general sense of disturbance of equilibrium and of readiness to alter behaviour to meet some almost distressing factor in the situation.
: १७
Drever Dictionary, A Introduction to Psychology of Education, Page-296.
Norman Tallent, Psychology of Adjustment, Nostrand (नासट्रेन्ड) Ist Edition, page 461.
Stress may be defined broadly as the external stimulus conditions, noxious or depriving which demand very difficult adjustment-Rosen and Gegary.
डॉ० एच० के० कपिल, आधुनिक नैदानिक मनोविज्ञान, हर प्रसाद भार्गव, आगरा, प्रथम संस्करण, १९९१-९२, पृष्ठ ३०४।
युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान: कायोत्सर्ग, जैन विश्व भारती, लाडनूं, तृतीय संस्करण १९८९, ई० सन्, पृष्ठ- १ ।
Edward A. Charlesworth and Ronald G. Nathan, Stress Management, London, Page 4.
१०. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान: कायोत्सर्ग, लाडनूं, पृष्ठ - २ |
१९. वही,
-
पृष्ठ ३।
१२. Charlesworth and Nathan, Stress Management, London, Page 20.
१३. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान: कायोत्सर्ग, लाडनूं, पृष्ठ- ५१
१४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (खण्ड २) जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, तृतीय संस्करण १९९२ ई० सन्, पृष्ठ ३३ ।
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१५. कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववड्डणं ।
वमे चत्तारि दोसे उ इच्छंतो हियमप्पणो ।।
:
दशवैकालिक, वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, वि०संवत् २०२०, ८ / ३६ |
१६. माया- लोभेहिंतो रागो भवति ।
कोह माणेहिं तो दोसो भवति । । - निशीथ चूर्णि, गाथा १३२ ।
उपाध्याय अमरमुनि, सूक्ति त्रिवेणी, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, प्रथम संस्करण १९६८ ई० सन्, पृष्ठ २२२ ।
१७. उवसमेण हणे कोहं माणं भद्दवया जिणे ।
मायं चज्जवभावेण लोभं संतोसओ जिणे ||
-
दशवैकालिक, आचार्य तुलसी, कलकत्ता, विक्रम संवत् २०२०, ८/३८| १८. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (खण्ड- २), जिनेन्द्र वर्णी, दिल्ली, पृष्ठ- ३४ । १९. इच्छा हु आगास समाअणंतिया |
उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी श्री चन्दना, वीरायतन प्रकाशन, आगरा, प्रथम संस्करण १९७२, ९/४८ ।
२०. जहा लाहो तहा लहो, लाहा लोहो पवड्डई ।
दो मास कपं कज्जं, कोडिए वि न निट्ठियं ।। उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी श्री चन्दना, आगरा, ८/१७। २१. कोहो पीई पणासेइ, माणो विणय नासणो ।
माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्व विणासणो || दशवैकालिक, आचार्य तुलसी, कलकत्ता, ८ / ३७|
२२. साध्वी कनकप्रभा, महावीर व्यक्तित्व और विचार, आदर्श साहित्य संघ, चुरू, पृष्ठ ८० ।
२३. डॉ० माता प्रसाद गुप्त, कबीर ग्रन्थावली- साखी, प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा, प्रथम संस्करण, १९६८, ५३/१।
२४. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान : कायोत्सर्ग, लाडनूं, पृष्ठ १८
२५. तत्त्वार्थसूत्र, पं० सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, तृतीय संस्करण १९७६, ९/२९।
२६. हिंसाऽनृतस्तेय विषय संरक्षणेभ्यो रौद्रभविरतदेशविरतयो; ।।
-
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तनाव : कारण एवं निवारण
तत्त्वार्थसूत्र, पं सुखलाल संघवी, वाराणसी,९/३६। २७. Charlesworth and Northan, Stress Management, Page 20. २८. आचार्य तुलसी, नन्दन निकुंज, आदर्श साहित्य संघ चुरु, पृष्ठ-२५४। २९. Gates and others, Educational Psychology, Page 692. 30. Direct methods are typically employed to solve a particular adjust
ment problem once and for all, Ibid. ३१. Indirect methods areemployed solely for the alleviation of unplesant
tension. Ibid. ३२. साध्वी कनकप्रभा, महावीर, व्यक्तित्व और विचार, चुरु । ३३. उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी श्री चन्दना, आगरा, १४/४० । ३४. श्री योगीराज डॉ०बोधायन, ध्यान योग से तनाव मुक्ति, पृष्ठ २० । ३५. अप्पाकत्ता विकत्ता य, सुहाण य दुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ ।।
उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी श्री चन्दना, आगरा, २०/३७। ३६. जे आया से विण्णया। जे विण्णाया से आया ।
आचारांगसूत्र, (प्रथम श्रुतस्कन्ध), युवाचार्य मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण १९८० ई० सन्, ५/६/१७१ । ३७. जे एगं जाणइ - से सव्वं जाणइ। वही, ३/४/१२९। ३८. अप्पा विय परमप्पा। भावपाहुड़, आचार्य कुन्दकुन्द।। ३९. चित्तस्सेगया हवइ झाणं।
आवश्यक नियुक्ति, हरिभद्र सूरि, श्री भेरूलाल कनैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई, प्रथम संस्करण विक्रम संवत् २०३८, १४६३, पृष्ठ १८८।। ध्यान तु विषये तस्मित्रेकप्रत्यय सन्तति। पं० हरगोविन्द शास्त्री, अभिधान चिंतामणि, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, प्रथम
संस्करण १९६४ ई०, १/८४। ४०. श्रीचन्द सुराणा 'सरस', ध्यान योग : रूप और दर्शन, जयपुर, पृष्ठ २२ । ४१. योगश्चित्तवृत्ति निरोधः ।
ब्रह्मलीन मुनि, पातंजलयोग दर्शन, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी चतुर्थ संस्करण १९९०ई०सन्, १/२।
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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
४२. यमनियमाऽसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाध्योऽष्टावङ्गानि।। वही, २/२९। ४३. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान : कायोत्सर्ग, लाडनूं ।। ४४. Charlesworth and Nathan, Stress Management, London, page 39. ४५. युवाचार्य महाप्रज्ञ, मन का कायाकल्प, आदर्श साहित्य संघ, चुरु, पृष्ठ ६७। ४६. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान : श्वासप्रेक्षा, लाडनूं, चतुर्थ संस्करण १९८९
ई० सन् । ४७. Charlesworth and Nathan, Stress Management, London, Page 60. ४८. आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज, गजेन्द्र व्याख्यान मुक्ता, पृष्ठ-१। ४९. वही, पृष्ठ १९६। ५०. सामायिकसूत्र, उपाध्याय अमरमुनि, पृष्ठ २८४। ५१. मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।
दशवैकालिक, सं० आचार्य तुलसी, कलकत्ता, ६/२० । ५२. प्रश्नव्याकरणसूत्र, सं०अमरमुनि जी महाराज, सन्मति ज्ञानपीठ,आगरा, ५/१७। ५३. साध्वी कनकप्रभा, महावीर व्यक्तित्व और विचार, चुरु, पृष्ठ ४४। ५४. सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम् ।
मध्यस्थ - भाव विपरीत वृतौ, सदा ममात्मा विदधातु देव । श्रावकाचार, अमितगति, अनन्तकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला न०२, बम्बई,
प्रथम संस्करण १९९२ ई० सन्, १३/९९। ५५. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान : कायोत्सर्ग, लाडनूं, पृष्ठ १८। ५६. युवाचार्य महाप्रज्ञ, किसने कहा मन चंचल है, लाडनूं, पृष्ठ १३६। ५७. उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी श्री चन्दना, आगरा, २३/३६। ५८. कसाया अग्गिणो वुत्ता।
- उत्तराध्ययनसूत्र- साध्वी श्री चन्दना, आगरा, २३/५३। ५९. दशवैकालिक, सं० आचार्य तुलसी, कलकत्ता, ८/३८। ६०. मुनि मोहनलाल शार्दूल, जैन दर्शन के परिपार्श्व में, लाडनूं, द्वितीय संस्करण
१९८९ ई० सन्, पृष्ठ १४३ । ६१. मुनि महेन्द्र कुमार व जेठालाल झवेरी, प्रेक्षाध्यान : स्वास्थ्य विज्ञान, लाडनूं,
प्रथम संस्करण १९८४।
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श्रमण
योगनिधान
( जैन आयुर्वेद पर १३वीं शती की दुर्लभ प्राकृत रचना)
कुन्दन लाल जैन
जैन वाङ्मय में आयुर्वेद से सम्बन्धित बहुत ही कम साहित्य उपलध है । यद्यपि समन्तभद्र और मूज्यपाद जैसे भिषगाचार्यों ने कई कृतियों का सृजन किया था पर उनमें से आजकल विरली ही रचना उपलब्ध है और यदि उपलब्ध भी है तो प्रकाशित नहीं है । उदाहरण के लिए आचार्य समन्तभद्र के सिद्धरसायनकल्प पुष्पायुर्वेद तथा अष्टांगसंग्रह ग्रन्थों में से कोई भी आज उपलब्ध नहीं है। पूज्यपाद स्वामी के कल्याणकारक का पता नहीं चल रहा है वैसे उनकी शालाक्यतंत्र, निदानमुक्तावली, नाड़ीपरीक्षा आदि ग्रन्थों का इतिहास में उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त पात्रकेसरिकृत शल्यतंत्र, सिद्धसेनकृत विष एवं उग्रग्रहमनविधि तथा वाग्भट्टकृत अष्टांगहृदय (प्रकाशित ) का ज्ञान आयुर्वेद विशेषज्ञों को प्राप्त है।
अभी हाल में हमें एक बृहत्काय गुटका प्राप्त हुआ है जिसमें लगभग ११८ छोटी बड़ी प्रकाशित, अप्रकाशित एवं अज्ञात जैन रचनाओं का विशाल संग्रह संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा में निबद्ध है। इन अज्ञात अप्रकाशित कृतियों के बारे में हम कभी भविष्य में विस्तृत एवं प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत करेगें। प्रस्तुत निबन्ध में हम केवल आयुर्वेद से सम्बन्धित श्री हरिपालकृत 'योगनिधान' और अज्ञातकृत 'प्राकृतवैद्यक' नामक कृतियों की चर्चा करेगें। इनका रचनाकाल पौष सुदि अष्टमी सं० १३४१ तदनुसार १२८४ ई० है ।
प्रस्तुत गुटके में ४६४ पत्र हैं तथा पत्रों की लम्बाई २५ से०मी० तथा चौड़ाई १६/, से०मी०है। प्रत्येक पत्र पर पक्तियों की संख्या १५ है तथा प्रत्येक पंक्ति में अक्षरों की संख्या ३२-३४ है । गुटके की लिपि अति सुन्दर और अत्यधिक सुवाच्य है, काली और लाल स्याही का प्रयोग किया गया है। बीच के कुछ पत्र अत्यधिक जीर्ण शीर्ण हो गये हैं। किसी तरह पानी में भीग जाने के कारण कुछ पत्र परस्पर चिपक गए हैं जिनको
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२२ :
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
बड़ी सावधानी और परिश्रम से पृथक्-पृथक् करना पड़ा है पर कुछ तो अभी भी चिपके पड़े हैं जिन्हें ठीक करना होगा।
बड़े खेद की बात है कि गुटके के संरक्षकों अथवा पाठकों की लापरवाही और प्रमाद के कारण इस बहुमूल्य निधि के आदि अंत के पत्र प्राप्त नहीं हैं। अंतिम पत्र का अभाव बहुत ही अधिक खटका रहा है, तथा लोगों की अज्ञता, मंदबुद्धि एवं प्रमत्तता पर क्षोभ भी आ रहा है। इस पत्र से गुटके के लिपिकाल व लिपिकर्ता का पता चल जाता। सम्भव है जिस मुनि या भट्टारक की प्रेरणा से लिखवाया गया होगा उनका भी उल्लेख हो। जिस श्रेष्ठी या श्रावक का आर्थिक योगदान रहा हो उसका भी उल्लेख हो, किसी व्रतोद्यापन या मुनि, श्रावक, भट्टारक के अध्ययन हेतु लिखा गया था उसका भी प्रमाण मिल जाता पर अब तो पछताने और हाथ मलने के अतिरिक्त कर ही क्या सकते हैं। गुटके का ऐतिहासिक मूल्य तो समाप्त हो गया है। लोगों की इस प्रमत्तता पर रोना आता है, इसी तरह ही हमने अनेकों दुर्लभ ग्रन्थ खो दिए हैं। इस गुटके की लिपि से अनुमान लगता है कि सम्भवत: यह सं०१५०० के आसपास का लिखा होना चाहिए, हमने हजारों पाण्डुलिपियों का अध्ययन किया है और Discriptive Catalogue तैयार किए हैं, "दिल्ली जिन ग्रन्थ रत्नावली" नाम से उनमें से एक भाग प्रकाशित भी है, पर इस गुटके में लिपिकर्ता ने जैसा विराम चिन्हों का प्रयोग किया है वैसा अन्यत्र नहीं मिला, इससे पाठकों को सही और शुद्धवाचन में सहायता मिल सके इसके लिए एक अच्छा प्रयास किया गया है जो सचमुच ही अत्यन्त सराहनीय और अभिनन्दनीय है। इन विराम चिन्हों से प्रतिलिपि सही, शुद्ध और प्रामाणिक तथा स्पष्ट हो सकी है।
प्रस्तुत रचना प्राकृतवैद्यक को लिपिकार ने 'पराकृत वैद्यक' लिखा है जो गुटके में पत्र सं० ३९१ से प्रारम्भ होकर ४०७I पर समाप्त होती है, बीच में पत्र सं०४०२ पर भी 'इति पराकृत वैद्यक समाप्तम्' लिखा है तथा ‘णमिऊण वीयरागं...... लिखकर योगनिधान नामक रचना के आरम्भ की सूचना देता है। इससे विदित होता है कि प्राकृत वैद्यक और योगनिधान नाम की दो भिन्न-भिन्न कृतियाँ हैं; यह भी सम्भव है कि प्राकृतवैद्यक एक ही प्रमुख रचना हो और योगनिधान नाम से इसी का दूसरा अध्याय हो? पर यदि यह उसका अध्याय माना जाय तो योग निधान में पृथक् मंगलाचरण की क्या आवश्यकता थी, अत: हमारा तो स्पष्ट अभिमत है कि प्राकृतवैद्यक और योगनिधान दो पृथक्-पृथक् रचनाएँ हैं और आयुर्वेद से सम्बन्धित क्रमश: २७५+ १०८ गाथाओं में निबद्ध है। अत: हम यहाँ योगनिधान की ही चर्चा करेगें। यद्यपि योगनिधान में रचनाकार तथा रचनाकाल आदि का कोई उल्लेख नहीं है, पर प्राकृतवैधक के साथ जुड़ी है, अत: इसके कर्ता भी श्री हरिपाल ही हैं। शैली, शब्दावली, गाथा का स्वभाव आदि सब मिलते जुलते हैं।
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योगनिधान : २३ योगनिधान में १०८ गाथाएँ हैं जो आठ अध्यायों में विभाजित हैंप्रथम अध्याय उमारिनासन नाम से है जिसमें चार ४ गाथाएँ हैं। दूसरा अध्याय स्त्रीगर्भ नाम से है जिसमें तेईस २३ गाथाएँ हैं। तीसरा अध्याय हर्षनासन नाम से है जिसमें बारह १२ गाथाएँ हैं। चौथा अध्याय राघणिनासन नाम से है जिसमें पाँच ५ गाथाएँ हैं। पांचवाँ अध्याय कामलनासन नाम से है जिसमें उन्नीस १९ गाथाएँ हैं। छठा अध्याय सूलनासन नाम से है जिसमें दस १० गाथाएँ हैं। सातवाँ अध्याय उकारिकानासन नाम से है जिसमें चार १० गाथाएँ हैं। इसमें हिक्कानासन की दो गाथाएँ भी सम्मिलित हैं। आठवाँ अध्याय फुटकर जिसमें इकतीस ३१ गाथाएँ हैं।।
कुल १०८ इस तरह कुल एक सौ आठ गाथाओं में योगनिधान निबद्ध है। इसमें विभिन्न रोगों के शमन हेतु मन्त्रों का भी उल्लेख है जिनके जाप से रोग नष्ट हो जाते हैं। इसमें गर्भ निरोधक औषधि से सम्बन्धित गाथा भी है।
__ योगनिधान के प्रारम्भ में जो मंगलाचरण किया गया है उससे कवि के जैन मतालंबी होने का संकेत मिलता है यथा :
णमिऊण वीयरायं जोयविसुद्धं तिलोय उद्धरणे।
जोयणिहाणं सारं वज्जरिमो मे समासेण।। वीयराय (वीतराग) शब्द स्पष्टत: जैन परम्परा का सूचक है। इसकी सहयोगी रचना प्राकृतवैधक का मंगलाचरण, जिसमें जिनेन्द्र भगवानरूपी वैद्य को नमन किया है, निम्नप्रकार है -
णमिऊण जिणोविज्जो भवभमणे वाहि केउणसमत्यो। पुणुविज्जयं पयासमिजं भणियं पुव्वसूरीहिं ।। आगे गाथाबद्ध रचना का उल्लेख करते हुए कवि अपना नाम निर्दिष्ट करता है:गाहाबंधे विरयमि देहीणं रोय णासणं परमं। हरिवालो जं बुल्लइतं सिज्झइ गुरुं पसायणं ।।
उपर्युक्त मंगलाचरण से कवि के जैन धर्मानुयायी होने में कोई सन्देह नहीं रहता है। रचना की समाप्ति करते हुए कवि अपनी अज्ञता और मंदबुद्धि के लिए बुद्धिमन्तों
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से क्षमा याचना करते हुए विनय प्रकट करता है :
हरिवालेण य रयियं पुव्व विज्जो हि जं जिणिद्दिवं । बुहयण तं महु खमियहु हीण हियो जं जिकव्वोय ।। २५६ ।। कवि रचनाकाल का उल्लेख करते हुए लिखता है :
२४ :
विक्कम णरवइ काले तेरसय गयाइं एयताले (१३४१) सियपोसट्ठमि मंदो विज्जय सत्यो य पुण्णो या ।। २५७ ।। इति प्राकृत वैद्यकं समाप्तम् ।
विस्मय की बात है कि कवि जैन होते हुए भी मधु और मूत्र के प्रयोगों का उल्लेख बहुलता से करता है, नरमूत्र का प्रयोग भी लिखा है। हो सकता है कवि के आगे आयुर्वेदीय सिद्धान्तों का महत्त्व अधिक रहा हो और धार्मिक दृष्टि गौण कर दी हो, यह भी सम्भव है। स्थान भेद के कारण उपर्युक्त प्रयोग ज्यादा अनुचित न समझे जाते हों। अभी पं० मल्लिनाथ शास्त्री की पुस्तक से ज्ञात हुआ कि तमिल प्रान्त में बहु बीज के कारण लौकी (घिया) अभक्ष्य मानी जाती है, जबकि उत्तर भारत में वह मुनि आहार के लिए उत्तम शाक माना जाता है। इसी प्रकार श्वेताम्बर ग्रन्थों में मूत्र चिकित्सा के उल्लेख भी मिलते हैं। हो सकता है ऐसा ही कोई मतभेद उपर्युक्त प्रयोगों के सम्बन्ध में रहा हो ।
आयुर्वेद के विशेषज्ञ विद्वान् प्रस्तुत रचना को ध्यान से पढ़ें और उसमें उल्लिखित नुस्खों का अनुसंधान कर मानव कल्याण के लिए औषधि निर्माण करें। अतः हम योगनिधान की मूल गाथाओं को अविकल रूप से यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रस्तुत रचना के अनुवाद या प्रयोगादि कार्यों, औषधि निर्माण हेतु लेखक की लिखित अनुमति अनिवार्य है।
अथ योगनिधानं आरभ्यते
णमिऊण वीयरायं जोयविसुद्धं तिलोय उद्धरणं । जोय निहाणं सारं वज्जरिमो मे समासेण ।। १ ।। किसिणमिलावइ पुल्लोकुट्टं घसिऊण पावणे दिणे । णासइ उमारि दोसो पच्छेहिं तिसत्त रत्ते हिं ।। २ ।। चवलम्मि एक्कभायं सेफदमूलम्मि भव सहेयम्मि । उह जलेणय णासो उम्मारि पणासई सिंफद मूलं तोरीविणिवतोएण णावणे दिणे । फाडिवि कफणि पवरं उवारि पणासणं होइ ।। ४ ।
दिट्ठ || ३॥
इति योगनिधाने उमारि णासनोऽध्यायः ।
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योगनिधान
:
२५
वणनारियली मूलं गोजल पिट्ठम्मि अवह तक्केहिं । णासे पाणे दिण्णं रत्तं पयरं पणासेइ ।।५।। दिढेरत्तविरे ये णियमणि खेडं ण किंपि कायव्वं । वलहाणि रक्खणत्थं करं वयं भोयणं देह ।।६।। पालासियाण कंदं पाटा रोहेउयम्मि कटिऊणं । पीयंतह तीयदिणे पयरपवाहं पणासेइ ।।७।। दुद्धरुहाएमूलं गुडधियकणकाण लप्पसी कुणह । अवहरइरत्तपयरं खज्जतो सत्तरत्तेहिं ।।८।। पियसिंदूरीमूलं पीसिवि पुव्योत्तलप्पसी कुणह । सा असिया सत्तिहिं पंडुर पयरं पणासेइ ।।९।। तिणि दिणा रिउकाले जं घिघसय णायकेसरं पीयं । णारी लहेइ पुत्तं खीर सहा भोयणो भुत्तो ।।१०।। मोर सिहाणयमूलं खीरे पीएण गम्भु तिय लहइ । वडुवा अह ऊंग जडा जोणि धरिय लहु पसवए वाला।।११।। अपमग्ग जडासारीउ उप्पाडिय जइ विउप्पडइ । तिय नामे ता पुरिसो अहतुट्टइ ठीकरी होइ ।।१२।। पुणुणवजड जड्डारियतेले भिंगेवि जोणिमुह धरए । तक्खणि गम्भं पाडइ जीवो मुक्को अमुक्को वा ।।१३।। सोलसिएपत्तरसं पुराणगुड तहिय माणेण । णारी पसवण काले जोणी पीडा णिवरेइ ।।१४।। गिरिकणियाइ मूलं कडिवढे गम्भु न पडइ । पाढा अह अपमग्गे मूलं जोणि धरि सुक्ख पसवेइ ।।१५।। अहिकंचू पुडद8 चुण्णं करिऊण मक्खिएप्प । सहतेणय अंजिय चक्खू सिंघेणय पसवए णारी ।।१६।। सुखखीर सिरे दिण्णं हत्थे वद्धव भूलं सरपुंखा । णह सल्लोवि पयासइ दइया सुक्खेण पसवेइ ।।१७।। गम्भु झरइ जा गुव्विणि गम्भं धारेइ साणियमा । पारेवयापुरीसं तंदुल तो एण पायव्वं ।।१८।। पिप्पलिगुड मयणहला दंती जवखार तुंबि बीजाई। सुखखीरेकय वत्ती जोणि धरि एसु पुफ्फयं होइ।।१९।। अपमग्गमूल पिट्ठा जोणि भिंतरे सु पेसियं तेण । होइ पसूई णारी पीडा सव्वं णिवारेइ ।।२०।।
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२६ :
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खीरु विरालिय कंदं दिणसत्तं पियए थण वेयणा हरइ। कुरंटउ जड दंति चव्विव्वि लेविए अहवा ।। २१।। दुधु वढ़इ गोवरि लिवि तणु सुक्का झडेइ वरुणतरुपत्तं । घिय सहियं उवढिय पनियकाए तणु थणणो दोसयं होहिं ।।२२।। णीलोप्पल भहुजट्ठी अभया पीसेवि सीयल जलेण । जा पियइ सत्तरत्ते गम्भ धारेइ पडमाणं ।। २३।। लंगलियाएकंदं पीसिवि णाहीय लेवणे दिण्णे। जा होइगूढ़गम्भा सा सिग्धं पसवइ सुहेण ।। २४।। अपमग्गा दहि पीए वंझाया सुगम्भु धीरेइ । तं पत्ते पयमाणे पयरं वारे इ णिम्भंतं ।। २५।। बडजड अग्गे कोपल सुहम रत्ताई महुधिए णारी। पुरिसालिंगण काले सुहदिणि पाणे वहुसुवा होहिं ।।२६।। सिय चंदण तंदुल जलि पाणेण णारीय पयरुवारेइ । आम पए दिण सत्तं भत्तं भुत्तएण धारए गम्भं ।। २७।।
इति योगनिधाने स्त्रीगर्भोऽध्यायः
सियगिरि कणिय मूलं वीयं वा तोय पीसेय । णासे दिण्णं पाडिवि सिंभं सणिवाय णिवारणं कुणइ ।।२८।। तेहुव महुवा सारं हय गंधा इंदवारुणी मूलं । हरिणा पिट्ठो णासं पण्णंतो हरइ सणवायं ।। २९।। विस्साणलु सुगुरी चं पुक्खर मूलं च लहुवरिंगिणिया । मरुपित्तं सणवायं णासइ चउ कत्थ पाणेण ।।३०।। णरमुत्ते गोमुत्ते छायलमुत्तेण तयतयं सत्ते। णिंवय खंडं भेड विच्छाया मुक्कं च कारेह ।।३१।। वासि कपूरिण परियं सणिवाए गहिय उठि जमकाले । घसि जलणासं दिण्णं सोवि णरो भल्लओ होइ ।।३२।। बब्बूलमूल कडिया कणे धरियावि सव्व कालम्मि । णासेइ हरिस दोसो जह तिमिरोतरणि किरणेहि ।। ३३ ।। घोसंडियफल पणए महुणा सह लेवियाई हरिसाइं । गलिवि पडंति णिम्भंतं तुसार रासी जहागिंभे ।। ३४।। पंचंग देवदाली वफ्फिवि तोएण वाफ सेएण । सुक्किवि पडंति हरिसा फलणि वहंजह कुवाएण ।।३५।।
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योगनिधान तक्कसमं पीयंतो सूवरकंदो य मूसलीकंदो । इक्कोविहरइ हरिसाइक्को वि चितावली मूले ।। ३६ ।। अइ कोमल विल्लहला साहा कालेहि सेइजोणिव्वं । रत्तभवाजे हरिसा समयंति कुडं ण पीडति ।। ३७।। आहालिम सह सक्कर टंकण समभाय गुलिय समभायं । पाणेणय णिम्भंतं दोसोहरिसो पणासेइ ।।३८।। विस्समिरी सुरदारो चउ चउ भायाइं तिहल छहभाय । चारि तजि इग पीपलि विउण गुडेहरिस णासेइ ।। ३९।।
इति योगनिधाने हर्षनासनोऽध्यायः। ॐ ह्रीं अमृतदंष्ट्राया राघणि सरिताडिते स्वाहा । राघणि मंत्रजाप्य १०८ अइजुणे किंवजडा सीयल जलपियं च राघणी णासं । अह णेगडि अउसेसं पत्तापी यावि राघणी हणइ ।।४।। तइदिण देक जडाया पाणिय घसियावि तंवपत्तेण । णासइ राघणि वाया अहवहु विवहाइं दिज्जए इक्का ।। ४१।। दुविहं राघणि दोसं रसमूलं वाय जव तह चेव । वायभवाए भणियं रसमूलकयं भणिस्सामि ।। ४२।। गुंपरुपएसडद्धं पोखररमणी सुअंगुल छहाओ। पच्छविगोरं भरिसो दीवडभरियं मिवंधह ।।४३।। छीडिज्जह तीयदिणे तत्थवणं पडइ पिंडेहिं । णासइ राघणि दोसो रस भइओणत्थि संदेहो ।।४४।।
इति योगनिधाने राधणिनासनोऽध्यायः कमलि णरो जो रहिओ तहव पयाणम्मि सुहय बेढ़िय । सउजह तह मंते हिं जल उरीय कंस ए उद्दे ।।४५।। पच्छा सु पुण्णसुवियातत्थवि ठविऊण ठवहि सिज्जतले। झंपि बिरयणी वसियं तत्तोयं रंतुडं होइ ।।४६।। इमिणा विहिणा पुणउ किज्ज तंहं वासरेहि सत्तेहिं । फिट्टइ कामल दोसो णिहिट्ठ पुव्व पुरे सेहि ।। ४७।। मंतो जंहा ब्राह्मणु ब्राह्मणकउ वेटउ ब्राह्मण की दोहली इण्ह मारे । दोहली लोयेजु पापु होइते पलि लीजहि अमुका अमेधुकरहि ।।४८।। सिंचिवि घिएण सुत्तं कंसय रोडंम्मि चेदियंतेण । ठविऊण तत्थरवीरं मंतेणा णोणखविज्जा ।। ४९।।
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फिट्टइ कामल दोसो वारासत्तेहिं सूखारेहिं । दज्झइ तत्थण सुत्तं मंत पहावेसु णिभ्भंतं ।। ५०।। मंत्रो जहा। वायुवरुणआदित्यादिभ्यो नमः अनयास्थित्या द्वितीयमंत्रो जहा। जिणि सरजालि हिं अंब छायउ ; जिणि वाणिहिं खंडवणुदहा यउ। अज्जुणु कहियइ इंदं दहं पुत्तु, तसुणामिण वंधिज्जइ सुत्तु । रक्खिज्जहि पिहउबंधिज्जहि, पिहिमिहे पायउ भूलउ मुद्धरणुकरेइ । कंसहउ तेण हरषिउ गणियातं तु न देइ। सूत्रतंतु वार २१ कटोकंवेष्टयेत्। अनयास्थित्यातृतीयमंत्रो जयः। अज्जुनि ब्रह्मि उपाइइहु पदभिपती ठी छां छीं छू फट् स्वाहा ।।५१।। गहिऊण कसण चणयाण चउरो अहिमंतऊण मंतेण । खावहि कामल गहिओ सत्तावीसाइं वाराई ।। ५२।। इमिणा विहिणा असिया अट्ठोत्तरुसउचणककसणाई । इक्केणवदिवसेहिं कामल दोसो समोसाइ ।।५३।। मंत्रोजहा रिचिकिचि स्वाहा कसण चणयाण मुट्ठी इक्कागहिऊण दाहिणे हत्थे। मंतोमणिकण पुणो तं हत्थे वामए खिमहा ।।५४।। वामाओ दाहिणाए दाहिण हत्था वामओ पुणओ। अणया विहिणाचणया अहिमंतिवि सत्तवाराइं ।।५५।। सा चणयाणयमुट्ठी कामल गहियस्स भक्खणेदिणे। वासरतएहि असिया कामल दोसो णिवारेइ ।।५६।। मंत्रोजहा (था) अमुकस्स कामलो अडअड स्वाहा। सिद्धनाथदेवी की आज्ञा कामलो नासं गच्छत् "पंचंगदेवदाली काढिवि तोएण तेण पहाविज्जा सा सुंघंत असंतो कामलदोसो पणासेइ ।। ५७।। तिहलाजुत्तं तिक्खं अमरीजुत्तं पिवेइ जो तस्स । फिट्टइ कामलदोसो तहसो को पुडुरोयम्मि ।। ५८।। कइवाइयाण भाजी पियसिद्धा अणुदिणु असंताण। णासइ कामल वाओ णिम्भंतं सत्तरत्तेहिं ।। ५९।। ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रः ल्वह ल्वह क्षः लक्ष्मी स्वाहाअनेन मंत्रेण चनका मक्षिमंत्रिदीयते वा (२१)
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योगनिधान
जाप्यदेयं चणे कामल दोषं नासयति नात्र संदेहः । सरपुंखा पंचगा छाया सुक्कम्मि उण्ह जल कढ़िया । पहाणं तेण करतो कामल दोसो पणासेह ।। ६० ।। तक्क सहा अपमग्गा मूलं तंदुल जलि तिपनि मूलाई । पिय खंड सह धत्ती खद्धा कामल पहणेइक्किक्का । । ६१ । । च अभया छह अवेर धत्ती कडुवाई पिप्पिली मूढं । एक्केक्कभाय सहिया जमाइणि दाडिम केसेरओ पत्तो ।। ६२ ।। कलय रउ वय सउंचलु तिणिवि भायाइं गुलहं चालीसा । हरिसा कामल पंडु खद्धा गुलिया भयंदरो हणइ ।। ६३ । । इति योगनिधाने कामल नासनोऽध्यायः
:
संदेहो ।। ६६ ।।
अहिंमंतिऊणतोयं इमिणा मंत्रेण सत्त वाराई । पाविज्जइ दूव जले तक्खणि सूलं णिवारेइ ।। ६४ । । मंत्रो जहा हिमवंत स्यो जरे पार्श्वे अस्वकमेमिहाक्रमः । तत्र सूल समुत्पण्णेतत्रैव विलयं गतः । । ६५ ।। अहि मंतिऊण तोयं अणया विज्जाइं सत्तवाराई । अवहरइ उदर सूलं तोए पीए ण बंझकंकोलीकंदो मसिणा पीसेवि सुरहि रसवाय भूय सूला णासंति हि अभयाइक्को भाओ तिड्डू भायाइं कुणहु अछाई । उन्हजलेणय पीयं गुदसूलं णिवारणं कुणइ । । ६८ ।। रामठ सठंचलु सूंठी पुक्खरमूलम्पि मेलि सम सव्वे । उपजलेणय पीयं सव्वे सूला णिवारेइ ।। ६९ ।। अभयामलयविडंग्गतइतइभाया णिसोय गुलदूदह ।
दुद्धेण । पाणभत्तेहिं ।। ६७।।
गुलिया मक्खिय माणं सूलो हरणं विरेय करणं च ।। ७० ।। तुंवर अभया पुक्खरु सउंचल सिंघउ विडोवि जवखारं । जवयणि रामठ गंयकण तक्खणि सूलं अठवटं हणइ ।। ७१ । । वस्तु२ १ तुंवर अभया रामठ पुक्खरु सिंधव सउंचलु किठ्ठसहियं । उन्होदय कयपाणं आववधं अरुइ सूल णासेइ ।। ७२ ।। घणपत्त एल धत्ता विवुह विडंग सव्व वसुभाया । सक्कर पुणु समभाया दिट्ठीसूलं
विणासेइ । । ७३ ।।
इति योगनिधाने सूल नासनोऽध्यायः
२९
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३० :
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णासेइ गरुव हिक्का दारुण गरुव ण जाइ सोढव्वं । महुणा लेहिज्जंतो इक्को कडुरोहिणी चुण्णो ।।७४।। खासो विजाइ णासं चिरकाल पवट्टियावि जा हिक्का। णलिया जंतेहि फुडकूलडी धूप पिवंतस्स ।।७५।।
इति योगनिधाने हिक्का नासनोऽध्यायः . समिसं अंतर छल्ली कत्थं किज्जाय पिप्पलायं च । काढ़ि विसीयल काउं पीए उकारिया हरए।।७६।। जंबूदल भगोलं अह घरहरी सुतत्त काऊणं । खिप्पिवि जलितं तोयं पीयंतो कारिया जाइ ।।७७।।
इति जोग निधाने उकारिका नासनोऽध्यायः
वण वाया घय वसउ जर कप पित्ताइं णट्ठ णिद्दाई। पुण रवि लहेइ णिछा सेवंतहं अमरवल्लीहिं ।।७८।। अहं चिंताय भउत्तणि अहवा पीयंतु माणुसी दुद्धं । तेणवि भरंतु णयणे णट्ठा गिंदा पुणो होइ ।।७९।। सज्जरसं घयखंडं अइसारंसु लेहणेसु दिणोण । तक्खणि गहेइ मुट्ठी तम णिवह उदय अक्केण ।।८।। सज्जरसं हरियालं घय खंड अइसरेण दिण्णेण । तक्खणि गहेइ मुट्ठी तम णिवहं जह मयं केठ ।।८१।।चंद्रोदय गोपय घियकर सद्धं करिसद्ध ववूल छल्लि कत्थंस्। तिहिं दिवसहिं पीयंतो आभासउ मुट्ठिहिलेइ ।।८।। धत्तीभालू मिरिया दहिय समेयंपि पीयमाणस्स । तक्खणि गहेइ मुट्ठी अइसारं णत्थि संदेहो ।। ८३।। हरिवारुणि चडलेहणि जलणेणावि हणइ दुक्खवंतं । पुणुसेरहि दहिमत्थो तं पीए पुणुवि पीवेउ ।। ८४।। कडुतुंविणि कुमिंडा (तुमिंडा) तोरइखीरेण वीयवेक रसा। वेकरस विराली इगकरसा रत्ति या खंडा ।। ८५।। खीर सहातइ सत्तातं चुण्णं पाणएण रविउदए । दूष(ख)वता पिणासइ पत्योधरिएण जुत्तेण ।।८६।। अद्धक रसजवखारं धत्ती कर सम्मि टंकणं पायं । वट्टिवि धरेह चुष्णं टंके पाहाण भेएण ।।८७।।
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योगनिधान
णासए तुरियं ।
।। ९४।।
क्किर समाण खद्धं दूखवतं गिंभेणय तक्क सहा पुणु पय सह लेवितं हाइ ।। ८८ ।। अह दक्खा (रका) गोथणिया कटिया कर सोवि सक्करा सहिया । पीयंतोवि णासइ तलयं मुत्तकिच्छाया ।। ८९ ।। अभया पलास छल्ली गोखरुव जवासउवि वडवत्ती । महुकरिसाटयणासइ खीणंडा होइ (य) मुत्त* रया ।। ९० ।। कंदविरालिय चुण्णं घयतेले तक्क सहवि मेलेह । तं भक्खिज्जइ णूणं भुत णिरोहो णिवारेइ ।। ९९ ।। अहलक कोडी मूलं कत्थं कट्टेवि लेह चउभायं । सियलं करेवि पीयं मुत्त दो सो पणासेइ ।। ९२ । । कंजिय सीणा केसू उरिवद्धा मुत्त थंभ वारेइ । अहजेठ्ठा घयपक्वा थंमइ मुत्ता गिरोहोय ।। ९३ ।। सोतकंच्चूर दिण्णं अह वद्यरिय उरिवद्ध कंजीए । अहकोट्ठाणयमद्दी भुजथंभहरा पत्था धादई सेहा पित्त पमेहाइ महुसहा हरए । अह छिण्णा सामरिमहु जिस धत्ती रस महो अहवा ।। ९५ ।। मूसलि जलतरु चुण्णं कुम्हेण वीयाइं रत्तखंडं च । छिण्णोभवसम चुण्णं कोरय भंडेण धारेह । । ९६ । । आम पए सह पाणं रत्तं किण्हं च अहव सेयं च । अठ्ठ दसा परमेहा णासंतहं णत्थि संदेहो । । ९७ ।। धारेसुखीर अपमग्ग पीयविसा भूणिंवो मोथ पडियउं । अभया छलपल गुल सह गुलिया भक्खंतो हरिस करिसेइ । । ९८ ।। सुंठी वेमिरिया वसु चित्तय सूरणोवि खंड दहिया । अडवीस गुलं गुलिया दुस्सह हरिसाइं अवहरइ ।। ९९ ।। विणिपल्लई णिसोया हरडइ सविडंग आंवला तिण्णि । वारह पल गुल गुलिया हरिसाइं सयाइ फेडेड़ ।। १०० ॥ विस्सासह जव खारं चुण्णं सह तक्क पीय हरस हरो । कोमल अइवेलहला अह सययं गक्खतं हरए । । १०१ । । तिला पटोल विसाला पडिकरसं तायमाणु पडिअद्धं ।
सोंठि सहाट्य नासइ गुज्झ हरिस कोठ (ढ) सो जोय ।। १०२ ।। सुरजव विसाल पिप्पलि चित्तय अपमग्ग वीय भूणिंवो । सिंधव सह दूण गुला गुलिया गुदहिरस णासेइ । । १०३ ॥ मूलनिरोधः जाति।
३१
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३२ :
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
धादइ लोह अतीसा मोथ समह आवले हएवालो। मुहिदंते वहिरत्तं अइसारं णासए णूणं ।।१०४।। तेणू धणा जवाइणि दाडिम जीरा सकक्क्डासिंगी। तज सिंधव अहिकेसरि घण पत्ता एल तित्तिडिया ।।१०५।। सव्व समं तवखीरं पुणु सव्व समायं खंड मेलेह । तालू णय रोय हरं वलं च पुद्धिं च वंधेइ ।।१०६।। किंवदला आमलिया पाणियपिट्ठाय मोथया करह । णिव्वाही णिणासइ खज्जता रोय महिएण।।१०७।। विहइजडभयणवासा पीपलि खारेण गुलिय दिण सत्ता। खद्धेसु जोणि धरिए फुल्ल पवाहो गओ होइ ।।१०८।।
इति पराकृत (प्राकृत) वैद्यकं समाप्तम्
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श्रमण
सूक्तिकाएँ डॉ० सुरेन्द्र वर्मा
(१)
अंक-अक्षर नेत्र हैं ये दो, देखा करो इनसे!
(४) अप्रिय सहो कहो मत अप्रिय दुश्मन को भी
(२)
अंधकार में जो भी है जीता, अंधा । है वह पुरुष
(५)
अवसर को जिसने पहचाना है क्षण वो
(३) अनगिनत गुण-धर्म हैं, वस्तु लेकिन एक
(६) आत्मतुला में तोलो, दुःख सबके एक सरीखे
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(७) आज्ञा पालन नहीं करे जो, मुनि दरिद्र होता
(११)
काम न आया जन-धन संग्रह काल आखिरी
(८) एक-दूसरे पर निर्भर हम अंधे-लंगड़े
(१२) कितनी मौतें भोगी मैंने, जीवन एक इसी में!
(९)
कर लालच धंसता-दलदल में प्यासा हाथी
(१३)
कृतज्ञ-भाव को जिंदा रक्खो, जल्दी मर जाता है
(१०) काम आग्रही पुरुष कामासक्त कैसे तरे वो!
(१४) क्रोध-लोभ औ. माया-मोह, सबका स्वाद कसैला
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(१५) क्या, कैसे, कब? उत्तर को बेचैन सभी चिंतक!
(१९)
जब कुम्हार के चाक चढ़े, होवे पावन मिट्टी
(१६) गोल मेज में कोण नहीं, हो जाती बात सरल
(२०) जिन्दगी : रेत पर खींची गई है इक लकीर
(१७)
चलनी-सा ये चित्त अस्थिर, चाहे सब भरना
(२१)
जिसने जीता स्वयं 'आप' को, हुआ हिमालय सा
(१८) छंट जाती है भीड़ पास से, धन क्षय होने पे!
(२२) जीव जन्तु को दुःख देता है, यह मन आतुर
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(२३) जीवन प्रिय है सभी प्राणियों को यदि, हिंसा क्यों?
(२७) जो उदार है, फलदायी वृक्षों सा वैभवशाली
(२४) जीवन पूँजी है, मत ख!-इसे निवेश करो
(२८) जो कलुषित न हो कषायों से, है कुशल वही
(२५) जीर्ण पत्र को बन जाने दो खाद, मूल्यवान वो!
(२९) जो नहीं छूटेछुटाए, ढीठ ऐसी मोह है हिंसा
(२६) जो अहिंसक, मृत्यु-भय उनको भला क्यों कर
(३०) जो रखें रति अरति में केवल, वे विरत हैं
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(३१) जोड़े कितने साज औ' सामाँ, सधे नहीं लेकिन
(३५) दिया दूसरों ने जो मान, उसका क्या अभिमान!
(३२)
तार बात के टूट न जाएँ, मत तानों इतना
(३६) दुःखदायी है परिमार्जित पर करता दुःख
(३३) तुतलाते ये बच्चों के स्वर, वंशी से बजते हैं
(३७) दुःख देते हैं स्वयं परस्पर ही आतुर जन
(३४) तू स्वयं ही मित्र अपना, किसे खोजता फिरे
(३८)
दुःख-सुख के बीच पलता द्वन्द्व, पार जाना है
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(३९) दुःख हरे जो दूसरों का, पुरुष होता है वही
(४३) न बाँधो रिक्त मंसूबे, चलोगे तो मिलेंगे रास्ते
(४०) दृष्टियाँ होती अनेक, निरर्थक हैं पूर्व-ग्रह
(४४)
नहीं गया जो पहना-ओढा, वस्त्र भला वो कैसा!
(४१) द्वन्द्व में मन फँसा हो यदि, करे कैसे स्मरण?
(४५)
नहीं चाहता दुःख कोई भी, सुख सबको प्यारा
(४२) धरती पर यदि टिके रहो तो, नभ छू लोगे
(४६) नहीं मिलेगा ईश्वर बना-बनाया बनना होगा
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(४७) निर्मल करो अंतर्मन, करुणा से भीगने दो
(५१)
पालकी कोई
उठाए: और बैठे पालकी कोई
(४८) निरख सूर्य का उदय, काँपती ओस पत्र पे
(५२) प्रेम वंचित पुरुष, मरुस्थल में वृक्ष सूखा
(४९)
पद्म पत्र पे पड़ी बूंद पानी की, क्षण में मिटी
(५३) प्यार रहित है काम, आलिंगन मृत देह का
(५०)
पहले बनो मनुष्य, मोक्ष तब मिल जाएगा
(५४) बिकता होता प्यार कहीं तो लेता उसे खरीद!
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८ :
(५५)
भय ग्रसित जीवन विरोधी है मरण- हिंसा
(५६)
भले तर्क का द्वार बंद हो, आँख झरे करुणा
(५७)
भौतिक सुख के लिए भटकना
है पाना दुःख
(५८)
मन द्विविधा में रहे अगर तो समता साधो
(५९)
मन प्रमत्त करता मनमानी,
कैसा अज्ञानी?
(६०)
मन में पड़ी सदियों पुरानी, ये ग्रंथि है- हिंसा
(६१)
मरता वो है, जो प्रमत्त है, यत्न नहीं करता
(६२)
मानव नेत्रों उससे सूर्य
चमक पाता
"
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(६३) मार सका जो खुद को, वो अमर हुआ समझो!
(६७) मृत्यु भय से मुक्ति पाओ, सार्थक जीवन जियो
(६४) मिल-जुल के रहते हैं कषाय मौसेरे भाई
(६८) मृत्यु हेतु तो कोई भी क्षण नहीं अनवसर!
(६५) मुक्त हुआ वो पार किया जिसने दलदल को
(६९) मेघ रीतते, इसीलिए तो फिरफिर भरते!
(६६) मृत्यु नींद है, जागना है नींद से जीवन, अहो!
(७०)
मैत्री भाव को अभिव्यक्ति देना, है क्षमा करना
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(७१)
मौत पर है एक तीखी टिप्पणी यह जिन्दगी!
(७५) लोग सारे जो जरुरतमन्द हैं, तेरे पड़ोसी
(७२) यदि शरीर करता शरारतें कौन अजूबा!
(७६) विरत हुआ जो आसक्ति से, वही कुशल होता
(७३) रहता नहीं भूखा, बाँट जो खाता काक समान
(७७) विषय भोग सब कष्ट-विहीन वृक्ष केले से!
(७४)
लाभ-अलाभ तो होता ही रहता, क्यों हर्ष-शोक!
(७८) विषय सभी संसार हैं, विषयरूप संसार!
१० :
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(७९) शक्ति पंख में आते ही, उड़ जाता बाल विहग
(८३) सच सकल पर झूठ हैं आधे अधूरे सब!
(८०) शर अवक्र घायल करे, वक्र तंबूरा शांत!
(८४) सदा जागते सजग आत्मविद्, सोते अज्ञानी
(८१) शिशु चिड़िया को मोह रहा कब फूटे अंडे से!
(८५)
सबको तोलो आत्मतुला से, मत पालो संशय
(८२) संतुलित है तुला की डंडी, कभी झुकती नहीं
(८६) सबको मीठी नींद मिली, वंचित रहा दरिद्र
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(८७)
सभी ओर वे भय से हैं आक्रांत जो प्रमत्त हैं !
(८८)
सम्यक दर्शन
ज्ञान, चरित्र- तीनों उत्तम मित्र
(८९)
सात रंग की
भंगिमाएँ सात, सभी सच हैं!
(९०)
साथी सुख दुःख में कोई देता नहीं दिलासा!
: १२ :
औं'
あ
( ९१ )
सुख का अर्थी भोगे दुःख केवल, क्या अनर्थ है?
(९२)
सुख हमारे, भागती सी शाम की
परछाइयाँ !
(९३)
सोने की हो, या लोहे की, यदि बेड़ी
है, बाँधेगी ही
(९४)
स्वर्ग को भी
जो करे कलवित, नरक, हिंसा
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(९५) हम दोनों ही सही-गलत, फिर झगड़ा कैसा!
(९८) क्षण भर का सुख पाने को, नर सतत दुःखी!
(९६) हिंसा करती आतंकित, है अशुभ इसे झटको
(९९) क्षरित होते पत्र को देखो, क्षण को पहचानो
(९७) हों नहीं स्वप्न यदि, कैसे जी पावें व्याकुल जन
(१००) त्रुटि को 'छोटी' आग 'ज़रा सी मत मानो, फैलेगी
2) सुरेन्द्र वर्मा १०, एच०आई०जी, १-सर्कुलर रोड,
इलाहाबाद
: १३ :
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श्रमण
दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त
डॉ०अशोक कुमार सिंह जैनपरम्परा में प्राचीन काल से ही जन-जन के अन्तर्मानस में धर्म, दर्शन और अध्यात्म के सिद्धान्तों को प्रसारित करने की दृष्टि से प्रसिद्ध कथाओं, विशेषत: धर्मकथाओं का आश्रय लिया गया है। जैन धर्मकथा साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें सत्य, अहिंसा, परोपकार, दान, शील आदि सद्गुणों की प्रेरणायें सनिहित हैं। धर्मकथा के विषय का प्रतिपादन करते हुए आचार्य हरिभद्र ने भी कहा है- “धर्म को ग्रहण करना ही जिसका विषय है, क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिञ्चन्य, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य की जिसमें प्रधानता है, अणुव्रत, दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्ड विरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोग तथा अतिथिसंविभाग से जो सम्पन्न है, अनुकम्पा, अकामनिर्जरादि पदार्थों से जो सम्बद्ध है, वह धर्मकथा कही जाती है।"१
प्राकृत गाथा-निबद्ध नियुक्तियों में सङ्केतित दृष्टान्त कथायें भी धर्मकथायें हैं। अधिकरण अर्थात् पाप के दुष्परिणाम, क्षमा का माहात्म्य और चारों कषायों, क्रोध, मान, माया और लोभ के दुष्परिणामों को बताने वाली कथाओं का सङ्केत कर अधिकरण, कषायादि से विरत रहने, क्षमा आदि धर्मों का पालन करने की प्रेरणा दी गई है।
दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में अधिकरण अर्थात् कलह, पाप, दुष्प्रवृत्ति आदि सम्बन्धी द्विरुक्तक, चम्पाकुमारनन्दी और चेट द्रमक के दृष्टान्तों में असंयमी या गृहस्थ जनों में परस्पर कलह और शत्रुता के कारण वध, खलिहान जलाने तथा युद्ध में बन्दी बनाने जैसे प्रतिशोधात्मक कृत्य किये जाते हैं। फिर भी जब एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष से क्षमायाचना की जाती है तो दूसरा पक्ष उसके शत्रुतापूर्ण कृत्यों और अक्षम्य अपराध को अनदेखा कर क्षमा प्रदान कर देता है।
इन दृष्टान्तों द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि जब असंयमी लोग भयङ्कर अपराधों के लिए क्षमायाचना और क्षमादान कर सकते हैं तब संयमी साधु तो अवश्य १. प्रवक्ता - पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी।
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४८ :
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
ही अपने प्रति किये गये अपराधों को क्षमा कर सकते हैं और स्वकृत अपराधों के लिए दूसरों से क्षमा माँग सकते हैं।
उपर्युक्त दृष्टान्तों के अतिरिक्त कषाय के दुष्परिणाम को बताने वाले चार दृष्टान्त-सङ्केत प्राप्त होते हैं। इनमें अनन्तानुबन्धी क्रोध कषाय से सम्बन्धित हल जोतने वाले मरुत, अनन्तानुबन्धी मानविषयक श्रेष्ठिपुत्री अच्चंकारिय भट्टा, अत्यधिक माया कषाय से युक्त पाण्डुरार्या तथा लोभी श्रमण आर्यमङ्ग के दृष्टान्त प्राप्त होते हैं। इस नियुक्ति में सङ्केतित दृष्टान्तों को इसप्रकार सूचीबद्ध कर सकते हैं :
१. अधिकरण अर्थात् कलह सम्बन्धी दृष्टान्त। 1. द्विरुक्तक वृत्तान्त, II. चम्पाकुमारनन्दी, III. भृत्य द्रमक, २. कषाय से सम्बन्धित दृष्टान्त। I. क्रोध कषायविषयक मरुत दृष्टान्त, II. मानकषाय विषयक अच्चंकारिय भट्टा दृष्टान्त। III. माया कषाय विषयक पाण्डुरार्या दृष्टान्त, IV. लोभ कषाय विषयक आर्य मङ्ग दृष्टान्त।
निर्यक्ति साहित्य में कथाओं को, उनके प्रमुख पात्रों के नाम-निर्देश के साथ एक, या दो या कभी-कभी तीन गाथाओं में कथा के मुख्य बिन्दुओं के कथन द्वारा इङ्गित किया गया है। कथा का पूर्ण स्वरूप परवर्ती साहित्य से ही ज्ञात हो पाता है, वह भी मुख्यत: चर्णि साहित्य से, निशीथभाष्यचूर्णि और दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि' में उपर्युक्त कथायें उक्त क्रम से उपलब्ध हैं। निशीथभाष्यचूर्णि में यह कथा विस्तृत रूप में वर्णित है जबकि दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि में ये कथायें संक्षिप्त रूप में वर्णित हैं। इन दोनों चूर्णियों के अतिरिक्त यथाप्रसङ्ग बृहत्कल्पभाष्य और आवश्यकचूर्णि' में भी ये कथायें प्राप्त होती हैं। उक्त चूर्णियों में प्राप्त विवरणों के आधार पर ही इन कथाओं का स्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है
१. अधिकरण सम्बन्धी द्विरुक्तक दृष्टान्त°
एगबइल्ला भंडी पासह तुम्भे डज्झ खलहाणे । हरणे झामणजत्ता, भाणगमल्लेण घोसणया ।।९१।।
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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त : ४९
अप्पिणह तं बइल्लं दुरुतग्ग! तस्स कुंभयारस्स ।
मा भे डहीहि गामं अन्नाणि वि सत्त वासाणि ।।९।। एक कुम्हार मिट्टी के बर्तनों से भरी बैलगाड़ी लेकर द्विरुक्तक (दो अर्थी भाषा बोलने वाले) नाम के समीपवर्ती गाँव में पहुँचा। कुम्हार का एक बैल चुराने के अभिप्राय से द्विरुक्तकों ने कहा--- हे! हे! लोगों! आश्चर्य देखो! एक बैलवाली गाड़ी है। इस पर कुम्हार बोलों-हे लोगों! देखो! इस गाँव का खलिहान जल रहा है और उसने गाड़ी गाँव के बीच ले जाकर खड़ी कर दी। मौका देखकर गाँव वालों ने उसका एक बैल चुरा लिया। बर्तन बिक जाने के बाद वापस आकर उसने गाँव वालों से बैल वापस देने की बार-बार याचना की। गाँव वालों ने कहा- तुम एक ही बैल के साथ आये हो। बैल वापस न मिलने से क्रुद्ध कुम्हार शरदकाल में गाँव वालों के धान्य से भरे खलिहान को लगातार सात वर्ष तक आग लगाता रहा। आँठवें वर्ष गाँव वाले इकट्ठे होकर घोषणा करवाये कि जिसके प्रति भी हमने अपराध किया है, वह हमें क्षमा करे, परिवार सहित हमारा नाश न करे। तब कुम्हार बोला- बैल मुझे वापस दो। बैल मिल जाने पर उसने गाँव वालों को क्षमा कर दिया।
यदि उन असंयत अज्ञानी लोगों द्वारा स्वकृत अपराध हेतु क्षमा माँगी गयी और उस असंयमी कुम्हार ने क्षमा भी कर दिया, तो पुन: संयत ज्ञानियों द्वारा भी अपने प्रति किये गये अपराध के लिए पर्युषण पर्व में अवश्य क्षमा कर देनी चाहिए। ऐसा करने से संयम आराधना होती है।
२. चम्पाकुमारनन्दी या अनङ्गसेन दृष्टान्त
चंपाकुमारनंदी पंचऽच्छर थेरनयण दुमऽवलए । 'विह पासणया सावग इंगिणि उववाय णदिसरे ।१९३।। बोहण पडिमा उदयण पभावउप्याय देवदत्ताते । मरणुयवाए तायस, ण यणं तह भीसणा समणा ।।९४।। गंधार गिरी देवय, पडिमा गुलिया गिलाण पडियरेण । पज्जोयहरण दोक्खर रण गहणा मेऽज्ज ओसवणा ।।९५।। दासो दासीवतितो छत्तट्टिय जो घरे य वत्थव्वो ।
आणं कोवेमाणो हंतव्यो बंधियव्वो य ।।९६।। जम्बूद्वीप में चम्पा नगरी निवासी स्वर्णकार कुमारनन्दी अत्यन्त स्त्री-लोलुप था। रूपवती कन्या दिखाई पड़ने पर धन देकर उससे विवाह कर लेता था, इस तरह उसने पाँच सौ स्त्रियों से विवाह किया था। मनुष्यभोग भोगते हुए वह जीवन यापन कर रहा था। इधर पञ्चशैल नाम के द्वीप पर विद्युन्माली नामक यक्ष रहता था। हासा और प्रभासा उसकी
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श्रमण / जनवरी - मार्च / १९९७
दो प्रमुख पत्नियाँ थीं । भोग की कामना से वे विचार कर रही थीं तब तक कुमार नन्दी दिखाई पड़ा। कुमार नन्दी को अपना अप्रतिम रूप दिखाकर वे छिप गईं । मुग्ध कुमार नन्दी द्वारा याचना करने पर वे प्रकट हो बोलीं पञ्चशैल द्वीप आओ और वे अदृश्य हो गईं। नाना प्रकार से प्रलाप करते हुए वह राजा के पास गया। राज- - उद्घोषक से उसने घोषणा करवायी कि उसे ( अनङ्गसेन को ) पञ्चशैल द्वीप ले जाने वाले को वह करोड़ मुद्रा देगा। एक वृद्ध नाविक तैयार हो गया । अनङ्गसेन उसके साथ नाव पर सवार होकर प्रस्थान किया। दूर जाने पर नाविक ने पूछा- क्या जल के ऊपर कुछ दिखाई दे रहा है। उसने कहा नहीं। थोड़ा और आगे जाने पर मनुष्य के सिर के प्रमाण का अत्यधिक काला बन दिखाई पड़ा। नाविक ने बताया कि धारा में स्थित यह पञ्चशैल द्वीप पर्वत का वट वृक्ष है। यह नाव जब वटवृक्ष के नीचे पहुँचे तब तुम इसकी साल पकड़कर वृक्ष पर चढ़कर बैठे रहना । सान्ध्यवेला में बहुत से विशाल पक्षी पञ्चशैल द्वीप से आयेगें। वे रात्रि वटवृक्ष पर बिताकर प्रात:काल द्वीप लौट जायेंगे। उनके पैर पकड़कर तुम वहाँ पहुँच जाओगे ।
५० :
वृद्ध यह बता ही रहा था कि नौका वटवृक्ष के पास पहुँच गयी, कुमारनन्दी वृक्ष पर चढ़ गया। उपरोक्त रीति से जब वह पञ्चशैल द्वीप पहुँचा, दोनों यक्ष देवियों ने कहाइस अपवित्र शरीर से तुम हमारा भोग नहीं कर सकोगे। निदानपूर्वक बालमरण तप कर यहाँ उत्पन्न होकर ही हमारे साथ भोग कर सकोगे। देवियों ने उसे सुस्वादु पत्र - पुष्प, फल और जल दिया। उसके सो जाने पर उन देवियों ने सोते हुए ही हथेलियों पर रखकर उसे चम्पा नगरी में उसके भवन में रख दिया। निद्रा खुलने पर आत्मीयजनों को देखकर वह ठगा सा दोनों यक्ष देवियों का नाम लेकर प्रलाप करने लगा। लोगों के पूछने पर कहता- पञ्चशैल के विषय में जो वृत्त सुना था उसको देखा और अनुभूत किया।
श्रावक नागिल उसका समवयस्क था। नागिल ने कहा कि जिनप्रज्ञप्त धर्म का पालन करो जिससे सौधर्म आदि कल्पों में दीर्घकाल तक स्थित रहकर वैमानिक देवियों के साथ उत्तम भोग करोगे। इन अल्पकालीन स्थिति वाली वाणव्यन्तरियों के साथ भोग करने से क्या ? फिर भी उसने निदान सहित इंगिनीमरण स्वीकार किया। कालान्तर में वह पञ्चशैल द्वीप पर विद्युन्माली नामक यक्ष हुआ और हासा - प्रभासा के साथ भोग करते हुए विचरण करने लगा ।
-
नागल श्रावक भी श्रमण व्रत अङ्गीकार कर, आलोचना और प्रतिक्रमण कर समय व्यतीत करते हुए अच्युतकल्प में सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ।
किसी समय नन्दीश्वर द्वीप में अष्टाह्निका की महिमा के निमित्त सभी देव एकत्रित हुए। समारोह में देवताओं द्वारा विद्युन्माली देव को पटह (नगाड़ा) बजाने का दायित्व सौंपा गया। अनिच्छुक उसे बलात् लाया गया। पटह बजाते हुए उसे नागिल देव ने देखा। पूर्व जन्म के अनुराग के कारण प्रतिबोध देने हेतु नागिल देव उसके समीप आकर पूछा
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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त : ५१
मुझे जानते हो। विद्युन्माली ने कहा- आप शक्रादि इन्द्रों को कौन नहीं जानता है? तब देव ने कहा इस देवत्व से भिन्न पिछले जन्म के विषय में पूछता हूँ। विद्युन्माली के अनभिज्ञता प्रकट करने पर देव ने कहा कि मैं पूर्वभव में चम्पा नगरी का वासी नागिल था। तुमने पूर्वभव में मेरा कहना नहीं माना इसलिए अल्पऋद्धिवाले देवलोक में उत्पन्न हुए हो। विद्युन्माली ने पूछा- मुझे क्या करना चाहिए? अच्युत देव ने कहा- बोधि के निमित्त जिन-प्रतिमा का अवतारण करो। विद्युन्माली देवता की कृपा से चुल्लि हिमवंत पर जाकर गोशीर्षचन्दन की लकड़ी की प्रतिमा लाया। उसे रत्ननिर्मित समस्त सर्वाभूषणों से विभूषित किया और गोशीर्षचन्दन की लकड़ी की पेटी के मध्य रख दिया और विचार किया इसे कहाँ रखू।
___ इधर एक वणिक की नौका समुद्र-प्रवाह में फँस गयी और छ: मास तक फँसी रही। भयभीत और परेशान वणिक् अपने इष्ट देवता के नमस्कार की मुद्रा में खड़ा रहा। विद्युन्माली ने कहा- आज प्रात: काल यह वीतिभय नगर के तट पर प्रवाहित होगी। यह गोशीर्षचन्दन की लकड़ी वहाँ के उदायन राजा को भेंटकर इससे नये देवाधिदेव की प्रतिमा निर्मित करने के लिए कहना। देवकृपा से नौका वीतिभय पत्तन पहुँची। वणिक् ने राजा के पास जाकर देव के कहे अनुसार निवेदन किया। राजा ने भी नगरवासियों को एकत्र किया और वणिक् से ज्ञात-वृत्तान्त कहा। वणकुट्टग से प्रतिमा बनाने के लिए कहा गया। ब्राह्मणों ने देवाधिदेव ब्रह्म की प्रतिमा बनाने के लिए कहा। परन्तु कुठार से लकड़ी नहीं कटी। ब्राह्मणों ने कहा- देवाधिदेव विष्णु की प्रतिमा बनवाओ, फिर भी कुठार नहीं चली और इस प्रकार स्कन्ध रुद्रादि देवगणों का नाम लेने पर भी शस्त्र कार्य नहीं किया, सभी खिन हुए।
रानी प्रभावती ने राजा को आहार के लिए बुलाया। राजा के नहीं आने पर प्रभावती देवी ने दासी भेजा। राजा के विलम्ब का कारण बताया। दासी से वृत्तान्त ज्ञात होने पर रानी ने विचार किया मिथ्यादर्शन से मोहित ये लोग देवाधिदेव से भी अनभिज्ञ हैं। प्रभावती स्नान कर कौतुक मङ्गलकर, शुक्ल परिधान धारणकर हाथ में बलि, पुष्प-धूपादि लेकर वहाँ गयी। प्रभावती ने बलि आदि सब कृत्य कर कहा- देवाधिदेव महावीर वर्द्धमान स्वामी हैं, उनकी प्रतिमा कराओ। इसके बाद कुठार से एक प्रहार में ही उस लकड़ी के दो टुकड़े हो गये। उसमें रखी हुई सर्वालङ्कारभूषिता भगवान् की प्रतिमा दिखाई पड़ी। घर के समीप निर्मित मन्दिर में राजा ने उस मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी।
कृष्णगुलिका नामक दासी मन्दिर में सेविका नियुक्त की गई। अष्टमी और चतुर्दशी को प्रभावती देवी भक्तिराग से स्वयं ही मूर्ति की पूजा करती थीं। एक दिन पूजा करती हुई रानी को राजा के सिर की छाया नहीं दीख पड़ी। उपद्रव की आशङ्का से भयभीत रानी ने राजा को सूचित किया। रानी ने उपाय सोचा कि जिनशासन की पूजा से मरण का भय नहीं रहता है।
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एक दिन प्रभावती ने स्नान-कौतकादि क्रिया के बाद मन्दिर जाने हेत् शुद्ध वस्त्र लाने का दासी को आदेश दिया। उत्पात-दोष के कारण वस्त्र कुसुंभरंग से लाल हो गया। प्रभावती ने उन वस्त्रों को प्रणाम किया परन्तु उसमें रङ्ग लगा हुआ देखकर वह रुष्ट हो गई और दासी पर प्रहार किया, दासी की मृत्यु हो गयी। निरपराधिनी दासी के मर जाने पर प्रभावती पश्चात्ताप करने लगी कि दीर्घकाल से पालन किये गये मेरे स्थूलप्राणातिपातव्रत खण्डित हो गये, यही मुझ पर उत्पात है।
प्रभावती ने प्रव्रज्या-ग्रहण की आज्ञा हेतु राजा से विनती की। राजा की अनुमति से गृहत्यागकर उसने निष्क्रमण किया। छ: मास तक संयम का पालन कर, आलोचना और प्रतिक्रमण कर मृत्यु के पश्चात् वैमानिक देवों के रूप में उत्पन्न हुई।
राजा को देखकर, वह पूर्वभव के अनुराग से अन्य वेश धारण कर जैनधर्म की प्रशंसा करती है। तापस भक्त होने के कारण राजा उसकी बात स्वीकार नहीं करता था। (प्रभावती) देव ने तपस्वी वेश धारण किया। पुष्पफलादि के साथ राजा के समीप जाकर उसे एक बहुत ही सुन्दर फल भेंट की। वह फल अलौकिक, कल्पनातीत और अमृतरस के तुल्य था। राजा के पूछने पर तपस्वी ने, निकट ही तपस्वी के आश्रम में ऐसे फल उत्पन्न होने की सूचना दी। राजा ने तपस्वी-आश्रम और वृक्ष दिखाने का तपस्वी से अनुरोध किया।
मुकुट आदि समस्त अलङ्कारों से विभूषित हो वहाँ जाने पर राजा को वनखण्ड दिखाई पड़ा, उसमें प्रविष्ट होने पर आश्रम दिखाई पड़ा। आश्रम के द्वार पर राजा को ऐसा आभास हुआ मानो कोई कह रहा है- “यह राजा अकेले ही आया है। इसका वध कर इसके समस्त अलङ्कार ग्रहण कर लो। भयभीत राजा पीछे हटने लगा। तपस्वी भी चिल्लाया— दौड़ो-दौड़ो, यह भाग रहा है, इसे पकड़ो। तब सभी तपस्वी हाथ में कमण्डल लेकर मारो-मारो, पकड़ो-पकड़ो कहते हुए दौड़े। राजा भागने लगा।
भयभीत हो कर भागते हुए राजा को एक विशाल वनखण्ड दिखाई पड़ा। उसमें मनुष्यों का स्वर सुनाई पड़ा। उस वनखण्ड में प्रवेश करने पर राजा ने चन्द्र के समान सौम्य कामदेव के समान सौन्दर्ययुक्त, बृहस्पति के समान सर्वशास्त्र विशारद, बहुत से श्रमणों, श्रावकों, श्राविकाओं के समक्ष, धर्म का प्रवचन करते हुए एक श्रमण को देखा। राजा 'शरण-शरण' चिल्लाते हुए वहाँ गये। श्रमण ने कहा- भयभीत मत हो। ‘छोड़ दिये गये यह कहते हुए तपस्वी भी चला गया, राजा भी आश्वस्त हो गया। श्रमण से धर्म प्रवचन सुनकर राजा ने धर्म स्वीकार कर लिया।
परन्तु यथार्थ में राजा अपने सिंहासन पर ही बैठा था, वह कहीं गया ही नहीं था। उसने सोचा यह क्या है? आकाशस्थित (प्रभावती) देव ने बताया, यह सब (चमत्कार) मैंने तुझे प्रतिबोध देने के लिए किया था। 'तुम्हारा धर्म निर्विघ्न हो' यह कहकर देव
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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त : ५३ अन्तर्ध्यान हो गये। समस्त नगरवासियों के मध्य घोषणा हुई, वीतिभय नगर में देव द्वारा अवतीर्ण प्रतिमा है।
गान्धार जनपदवासी एक श्रावक ने संकल्प किया कि सभी तीर्थङ्करों के पंचकल्याणकों-जन्म, निष्क्रमण, कैवल्यप्राप्ति, निर्वाणभूमियों आदि का दर्शन करने के पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा। यात्रा के दौरान उसने वैताढ्य गिरि की गुफा में वर्तमान ऋषभादि तीर्थङ्करों की रत्ननिर्मित स्वर्ण प्रतिमाओं के विषय में एक साधु के मुख से सुना। अत: दर्शन की इच्छा से वहाँ गया स्तव एवं स्तुतियों से स्तवन करते हुए, अहोरात्र निवास करते हुए उसके मन में रत्नों के प्रति थोड़ा भी लोभ नहीं हुआ। उसके निर्लोभ से तुष्ट होकर प्रत्यक्ष हो देव ने उससे वर माँगने के लिए कहा। तब श्रावक ने कहाकाम भोग से निवृत्त मुझे वरदान से क्या प्रयोजन?
'मोहरहित देवत्व का दर्शन है', यह कहकर देवता ने यथाचिन्तित मनोरथों को पूर्ण करने वाली आठ सौ गुलिकायें प्रदान की। फिर श्रावक वीतिभय नगर में विद्यमान देव द्वारा अवतारित समस्त अलङ्कारों से विभूषित प्रतिमा के विषय में सुनकर, उसके दर्शनार्थ वहाँ गया। प्रतिमाराधन के लिए कुछ दिन तक मन्दिर में रुका और बीमार पड़ गया। प्रव्रज्याभिलाषी मेरे लिए ये गलिकायें निष्प्रयोजन हैं यह सोचकर उसने गुलिकायें मन्दिर की दासी कृष्णगुलिका को दे दी और वहाँ से प्रस्थान किया।
कृष्णगुलिका ने, गुलिकाओं की शक्ति-परीक्षा के लिए यह संकल्प कर एक गुलिका खा लिया कि मैं उदात्त कनकवर्णा, सुन्दर रूप वाली और ऐश्वर्यवाली होऊँ। उससे वह देवियों के समान कामरूपवाली, परावर्तित वेशवाली, उदात्त कनकवर्णवाली, सुन्दर रूप वाली और सुभगा हो गयी। लोगों में चर्चा होने लगी कि देवताओं की कृपा से कृष्णगलिका कनकवर्णा हो गयी इसका नाम स्वर्णगुलिका होना चाहिए और वह इसी नाम से प्रसिद्ध हो गयी। अलौकिक शक्ति के प्रति विश्वास उत्पन्न हो जाने पर उसने एक गुलिका मुख में रखकर कामना की कि प्रद्योत राजा मेरे पति हों।
वीतिभय से उज्जयिनी अस्सी योजन (३२० कोस) दूर होने पर भी अकस्मात् राजसभा में राजा प्रद्योत के सम्मुख एकपुरुष कथा कहने लगा- वीतिभय नगर में देवता द्वारा अवतारित प्रतिमा की सेविका कृष्णगुलिका देवकृपा से स्वर्णगुलिका हो गई है। अत्यधिक सौभाग्य तथा लावण्य से युक्त वह बहुत से लोगों द्वारा पार्थित की जाने लगी है।
वार्ता सुनकर प्रद्योत ने स्वर्णगुलिका को लाने हेतु उदायन के पास दूत भेजा कि इसे स्वर्णगुलिका के साथ वापस करो। दूत के पहुँचने पर उदायन ने यथोचित सत्कार नहीं किया। अपने प्रस्ताव का अनुकूल उत्तर न मिलने पर प्रद्योत ने युद्धदूत भेजायदि स्वर्णगुलिका नहीं भेजोगे तो युद्धार्थ आ रहा हूँ। वह दूत स्वर्णगुलिका से भी मिला। उसने कहा यदि प्रतिमा वहाँ जायेगी तभी मैं जाऊँगी, अन्यथा नहीं जाऊँगी। दूत के लौट
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आने पर प्रद्योत अपने अनलगिरि हाथी-रत्न पर सवार होकर युद्ध के लिए सुसज्जित हो कवच धारण कर गुप्त रूप से प्रदोषवेला में नगर में प्रविष्ट हुआ। वहाँ वसन्त काल में कृत्रिम प्रतिमा निर्मित करवाकर, उसे सजाकर उच्चस्वर में गीत गाते हुए देवतावतारित प्रतिमा लाने के लिए राजभवन में निर्मित मन्दिर में प्रविष्ट हुआ। छल से कृत्रिम प्रतिमा को मन्दिर में स्थापित किया और देवतावतारित प्रतिमा का हरणकर चला गया।
जिस रात्रि अनलगिरि वीतिभय नगर में प्रविष्ट हुआ, गन्धहस्ति के गन्ध से उसके प्रवेश के विषय में लोगों को ज्ञात हो गया। महामन्त्री ने विचार किया, निश्चय ही अनलगिरि हाथी-स्तम्भ नष्ट कर आया हुआ है अथवा दूसरा कोई वनहस्ती आया हुआ है। प्रात:काल अनलगिरि के आने के लक्षण दिखाई पड़े। राजा को बताया गया कि प्रद्योत आकर वापस चला गया। स्वर्णगुलिका की खोज करवाने पर ज्ञात हुआ कि उसके निमित्त ही प्रद्योत आया था। मन्दिर में विद्यमान प्रतिमा की सत्यता की परख के लिए, कि यह देवतावतारित प्रतिमा है या उसकी प्रतिमूर्ति, उस पर पुष्प रखे गये। मूल प्रतिमा के गोशीर्षचन्दन की शीतलता के प्रभाव से पुष्प मलिन नहीं होते थे। राजा स्नान करने के पश्चात् मध्याह्न में देवायतन गये और पूर्व कुसुमों को म्लान हुआ देखकर राजा ने जान लिया कि मूल प्रतिमा का हरण हो गया है। क्रोधित उदायन ने चण्डप्रद्योत के पास दूत भेजा कि दासी को भले ही हर ले गये किन्तु प्रतिमा वापस भेज दो। चण्डप्रद्योत की ओर से सकारात्मक उत्तर न मिलने पर उदायन ने समस्त साधनों एवं सेनाओं के साथ प्रस्थान किया। ग्रीष्म का समय होने से मरु जनपद में यात्रा करते हुए जलाभाव से समस्त सेना प्यास से व्याकुल हो गयी। समस्या के निवारण के लिए उदायन राजा ने प्रभावती देव की आराधना की। देव के शासन में कम्प उत्पन्न हुआ। देव द्वारा अवधिज्ञान का प्रयोग करने पर उदायन राजा की आवृत्ति दिखाई पड़ी। देव ने तुरन्त आकर बादलों से जलवर्षा करवायी जिससे देवता द्वारा निर्मित पुष्कर में जल एकत्र हो गया। इस देवकृत पुष्कर को ही अज्ञानी लोग पुष्करतीर्थ कहने लगे।
उज्जयिनी पहुँचकर उदायन राजा ने प्रद्योत को घेर लिया और अधिसंख्य लोगों की उपस्थिति में उससे कहा- तुमसे हमारा विरोध है। हम दोनों ही युद्ध करेंगे, शेष जनों को मरवाने से क्या? प्रद्योत ने इसे स्वीकार कर लिया। बाद में दूत के माध्यम से सन्देश भिजवाया-किस प्रकार युद्ध होगा- रथों से, हाथियों से या अश्वों से। उदायन ने कहा तुम्हारे अनलगिरि जैसा उत्तम हाथी मेरे पास नहीं है, तब भी तुझे जो अभीष्ट है उससे युद्ध करो। प्रद्योत ने कहा- रथ से युद्ध करेगें। निश्चित दिन उदायन रथ पर उपस्थित हुआ जबकि प्रद्योत अनलगिरि हाथी-रत्न के साथ। शेष सेनापति, सैन्यसमूह दर्शक मात्र था, तटस्थ था।
। युद्ध आरम्भ होने पर उदायन ने हाथी के चारों पैरों को बींध दिया। हाथी गिर पड़ा, उज्जयिनी पर उदायन का अधिकार हो गया। स्वर्णगुलिका भाग गई। देवताधिष्ठित प्रतिमा
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को पुन: वहाँ से लाना सम्भव नहीं हुआ। प्रद्योत के ललाट पर “दासीपति" यह नाम अङ्कित करवाया गया।
उदायन प्रद्योत को बन्दी बनाकर लाया। उसके वापस आते-आते वर्षाकाल आ गया। पर्युषण पर्व आरम्भ होने पर उसने दूत द्वारा प्रद्योत से पूछवाया कि वे क्या आहार ग्रहण करेंगे। दूत द्वारा अप्रत्याशित रूप से पूछने पर प्रद्योत आशङ्कित हो गया कि जान का खतरा है। दूत ने शङ्का-निवारण किया कि श्रमणोपासक राजा आज पर्युषणा का उपवास रखते हैं इसलिए तुम्हें इच्छित आहार प्रदान करेंगे। प्रद्योत को दुःख हुआ कि पापकर्म युक्त होने के कारण पर्युषण का आगमन भी नहीं जान पाया। उसने उदायन से कहलवाया कि वह भी श्रमणोपासक है और आज आहार नहीं ग्रहण करेगा। तब उदायन ने कहाश्रमणोपासक को बन्दी बनाने से मेरा सामायिक शुद्ध नहीं होगा और न ही सम्यक् पर्युशमन होगा। इसलिए श्रमणोपासक को बन्धन से मुक्त करता हूँ और सम्यक् क्षमापणा करूँगा। उसने प्रद्योत को मुक्त कर दिया और ललाट पर जो अङ्कित था उस पर स्वर्णपट्ट बाँध दिया। उसके बाद से वह पट्टबद्ध राजा के रूप में प्रख्यात हो गया।
इसप्रकार यदि गृहस्थ भी वैरवश किये गये पापों का उपशमन कर सकते हैं, तो पुनः सर्वपाप से विरत श्रमणों को तो अच्छी प्रकार से उपशमन करना चाहिए।
३. भृत्य द्रमक का वृत्तान्त'
खद्धाऽऽदाणियगेहे पायस दट्ठण चेडरूवाइं । पियरो भासण खीरे जाइय लद्धे य तेणा उ ।।९७।। पायसहरणं छेत्ता पच्चागय दमग असियए सीसं।
भाउय सेणावति खिंसणा य सरणागतो जत्थ ।।९८।। एक द्रमक नामक नौकर का पुत्र, स्वामी के घर में बना क्षीरान देखकर, उसे माँगने लगा। नौकर गाँव में से दूध और चावल माँगकर लाया और पत्नी को क्षीरान बनाने के लिए कहा। निकट के गाँव में ठहरा हुआ चोरों का दल गाँव लूटने के लिए आया और उस गरीब के घर से क्षीरान से भरी थाली उठा ले गया, नौकर खेत पर गया हुआ था। खेत से तृण काटकर लौटते समय वह यह सोचते हुए घर आया कि आज बच्चे के साथ क्षीरान खाऊँगा। बच्चे ने क्षीरान्न की चोरी के बारे में बताया। द्रमक तृण-पूल रखकर क्रोध से भरकर चला। चोरों के सेनापति के सामने क्षीसत्र की थाली देखा। सेनापति अकेला था, चोर दुबारा गाँव में चले गये थे। द्रमक ने तलवार से उसका सिर काट लिया। सेनापति का वध हो जाने से चोर भी भाग गये। सेनापति का छोटा भाई नया सेनापति बना। सेनापति की माँ, बहन और भाभी उसकी निन्दा करती थीं- भाई के वैरी के जीवित रहने पर तुम्हारे सेनापतित्व को धिक्कार है। सेनापति क्रोध में भरकर गया और द्रमक को
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जीवित पकड़कर लाया। द्रमक से पूछा- हे! हे! भ्रातृवैरी! किस अस्त्र से तुम्हें मारूँ। द्रमक ने उत्तर दिया-जिससे शरणागत पर प्रहार करते हैं उससे प्रहार करो। द्रमक के इस उत्तर पर वह सोचने लगा- शरणागत पर प्रहार नहीं किया जाता है और उसने द्रमक को मुक्त कर दिया।
यदि धर्म के उस अज्ञानी ने भी मुक्त कर दिया तो पुन: परलोक से भयभीत वात्सल्य के जानकार क्यों न सम्यक्त्व का पालन करेगें।
(२) कषाय विषयक दृष्टान्त क्रोध
कषायविषयक मरुक या मरुत दृष्टान्त । अवहंत गोण मरुए चउण्ह वप्पाण उक्करो उवरि । छोढुं मए सुवट्ठाऽतिकोवे णो देमो पच्छित्तं ।।१०३।।
मरुक नामक व्यक्ति अपने बैल को जोतने के लिए खेत पर ले गया। जोतते-जोतते बैल थककर गिर पड़ा और उठ न सका। तब मरुक ने उसे इतना मारा कि मारते-मारते पैरा या चाबुक टूट गया, तब भी बैल नहीं उठा। अन्य लकड़ी न मिलने पर मरुक लाठी से मारने लगा। एक लाठी से मारा, फिर दो लाठियों से मारा, इसतरह चार लाठियों से इकट्ठ मारा, तब भी बैल न उठा और अन्तत: मार खाकर बैल मर गया।
गोवधजनित पाप की विशुद्धि के लिए वह धिग्जातीय मरुक किसी ब्राह्मण के पास गया। सारी बात बताकर उसने अन्त में कहा कि आज भी बैल के ऊपर मेरा क्रोध शान्त नहीं हुआ। ब्राह्मण ने कहा- तुम अतिक्रोधी हो, तुम्हारी शुद्धि नहीं है, तुम्हें प्रायश्चित्त नहीं दूंगा।
इसप्रकार साधु को भी क्रोध नहीं करना चाहिए। यदि क्रोध उत्पन्न भी हो तो वह जल में पड़ी लकीर के समान हो, जो क्रोध पुनः एक पक्ष में, चातुर्मास में और वर्ष में उपशान्त न हो उसे विवेक द्वारा शान्त करना चाहिए।
मान कषाय विषयक अच्वंकारिय भट्टा दृष्टान्त १ वणिधूयाऽच्चंकारिय भट्टा अट्ठसुयमग्गओ जाया । वरग पडिसेह सचिवे, अणुयत्तीह पयाणं च ।।१०४।। णिवचिंत विगालपडिच्छणा य दारं न देमि निवकहणा । खिंसा णिसि निग्गमणं चोरा सेणावई गहणं ।।१०५।।
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दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति में इङ्गित दृष्टान्त
नेच्छइ जलूगवेज्जगगहण तम्मि य अणिच्छामि । गाहावइ जलूगा धणभाउग कहण मोयणया ।। १०६ ।। सयगुणसहस्स पागं, वणभेसज्जं वतीसु जायणता तिक्खुत्त दासीभिंदण ण य कोव सयं पदाणं च ।। १०७ । ।
1
क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर में जितशत्रु राजा था, धारिणी देवी उसकी रानी और सुबुद्धि उसका मन्त्री था। वहाँ धन नामक श्रेष्ठी था, भट्टा उसकी पुत्री थी। माता-पिता
सब परिजनों से कह दिया था भट्टा जो भी करे, उसे रोका न जाय, इसलिए उसका नाम 'अच्चकारिय” भट्टा पड़ा, वह अत्यन्त रूपवती थी। बहुत से वणिग्परिवारों ने उसका वरण करना चाहा। धनश्रेष्ठि उससे कहता था कि जो इसे इच्छानुसार कार्य करने से मना नहीं करेगा उसे ही यह दी जायगी, इसप्रकार वह वरण करने वालों का प्रस्ताव अस्वीकार कर देता।
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अन्त में एक मन्त्री ने भट्टा का वरण किया। धन ने उससे कहा- यदि अपराध करने पर भी मना नहीं करोगे, तब दूँगा । मन्त्री के शर्त मान लेने पर भट्टा उसे प्रदान कर दी गई। कुछ भी करने पर वह उसे रोकता नहीं था।
५७
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वह अमात्य राजकार्यवश विलम्ब से घर लौटता था, इससे भट्टा प्रतिदिन रुष्ट होती थी। तब वह समय से घर आने लगा। राजा को दूसरों से ज्ञात हुआ कि यह पत्नी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है । एक दिन आवश्यक कार्यवश राजा ने रोक लिया । अनिच्छा होते हुए भी उसे रुकना पड़ा। अत्यन्त रुष्ट हो भट्टा ने दरवाजा बन्द कर लिया। घर आकर अमात्य ने दरवाजा खुलवाने का बहुत प्रयास किया फिर भी जब भट्टा ने नहीं खोला तब मन्त्री ने कहा- तुम ही स्वामिनी होओ।
रुष्ट हो वह द्वार खोलकर पिता के घर की ओर चल पड़ी। सब अलङ्कारों से विभूषित होने के कारण चोरों ने रास्ते में पकड़कर उसके सब अलङ्कार लूट लिये और उस सेनापति के पास लाये । सेनापति ने उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा, वह सहमत नहीं थी । विवश हो सेनापति ने उसे जलूक वैद्य के हाथ बेच दिया। वैद्य ने भी उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा । भट्टा पत्नी बनने के लिए सहमत नहीं हुई। भट्टा क्रोध में जलूक के प्रतिकूल वचन बोलती, उसकी इच्छा के विपरीत कार्य करती। वह शीलभङ्ग नहीं करना चाहता था । भट्टा रक्तस्राव के कारण कुरूप हो गई। इधर उसका भाई कार्यवश वहाँ आया। धन देकर उसे छुड़ाकर ले आया, वमन और विरेचन द्वारा पुनः उसे रूपवती बनाकर मन्त्री के पास लाया। अमात्य ने स्वीकार कर लिया।
भट्टा ने क्रोध पुरस्सर मान के दोष देखकर अभिग्रह किया मैं मान अथवा क्रोध कभी नहीं करूँगी।
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माया कषाय विषयक पाण्डुरार्या दृष्टान्त
पासत्यि पंडरज्जा परिण्ण गुरुमूल णाय अभिओगा । पुच्छति च पडिक्कमणे, पुव्वन्भासा चउत्थम्मि ।।१०८।। अपडिक्कम सोहम्मे अभिओगा देवि सक्कतोसरणं ।
हत्यिणि वायणिसग्गो गोतमपुच्छा य वागरणं ।।१०९।। पाण्डुरार्या नामक शिथिलाचारिणी साध्वी पीत संवलित शुक्ल वस्त्रों से सदा सुसज्जित रहती थी। इसलिए लोग उसे पाण्डुरार्या नाम से जानते थे। वह विद्यासिद्धा थी और बहुत से मन्त्रों की ज्ञाता थी। लोग उसके समक्ष करबद्ध सिर झुकाये बैठे रहते थे। उसने आचार्य से भक्तप्रत्याख्यान कराने के लिए कहा। तब गुरु ने सब प्रत्याख्यान करा दिया। भक्तप्रत्याख्यान करने पर वह अकेली बैठी रहती थी। उसके दर्शनार्थ कोई नहीं आता था। तब उसने विद्या द्वारा लोगों का आह्वान किया। लोग पुष्प-गन्धादि लेकर उसके पास आना आरम्भ कर दिये। साध्वी और श्रावक-श्राविका वर्ग दोनों से पूछा गया कि क्या उन्हें बुलाया गया है? लोगों ने अस्वीकार किया। पूछने पर वह बोली मेरी विद्या का चमत्कार है। आचार्य ने कहा- त्याग करो। उसके द्वारा चामत्कारिक कार्य छोड़ने पर लोगों ने आना छोड़ दिया। आर्या पुनः एकाकिनी हो गई। तब चमत्कार द्वारा पुनः बुलाना आरम्भ किया। आचार्य द्वारा पूछने पर वह बोली कि पूर्व अभ्यास के कारण आते हैं। इस प्रकार बिना आलोचना किये ही मृत्यु प्राप्त कर वह सौधर्म कल्प में ऐरावत की अग्रमहिषी उत्पन्न हुई। भगवान् महावीर के समवसरण में हस्तिनी का रूप धारण कर आई। कथा के अन्त में उच्चस्वर से शब्द की। पूछने पर उठी। भगवान् ने पूर्वभव कहा। इसलिए कोई भी साधु अथवा साध्वी ऐसी दुरन्ता माया न करे।
लोभ कषाय विषयक आर्य मङ्गु दृष्टान्त
महरा मंग आगम बहुसय वेरग्ग सङ्कपयाय ।
सातादिलोभ णितिए, मरणे जीहा य णिद्धमणे ।।११०।। बहुश्रुत आगमों के अध्येता, बहुशिष्य परिवार वाले, उद्यत बिहारी आचार्य आर्यमङ्गु विहार करते हुए मथुरा नगरी गये। वस्त्रादि से श्रद्धापूर्वक उनकी पूजा की गई। क्षीर, दधि, घृत, गुड़ आदि द्वारा उन्हें प्रतिदिन यथेच्छ प्रतिलाभना प्राप्त होती थी। साता सुख से प्रतिबद्ध हो विहार नहीं करने से उनकी निन्दा होने लगी। शेष साधु विहार किये। मङ्गु आलोचना और प्रतिक्रमण न करते हुए श्रामण्य की विराधना करते हुए मरकर अधर्मी व्यन्तर यक्ष के रूप में उत्पत्र हुए। उस क्षेत्र से जब साधु निकलते और प्रवेश करते थे तब वे यक्ष प्रतिमा में प्रवेशकर अत्यधिक दीर्घ आकार वाली जिह्वा निकालते। श्रमणों द्वारा पूछने पर कहते- मैं साता सुख से प्रतिबद्ध जिह्वादोष के कारण अल्प ऋद्धि वाला
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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त : ५९ होकर इस नगर में व्यन्तर उत्पन्न हुआ हूँ। तुम्हें प्रतिबोधित करने के लिए यहाँ आया हूँ। इसलिए तुम ऐसा मत करना। कुछ लोग इस कथा को इसप्रकार भी कहते हैंजब श्रमण आहार लेते हैं तब वह समस्त अलङ्कारों से विभूषित हो दीर्घ आकार वाला हाथ गवाक्ष द्वार से साधुओं के आगे फैलाता है।
साधुओं द्वारा पूछने पर कहता है- यह मैं आर्य मङ्गु ऋद्धि और जिला लोभ से अत्यधिक प्रमाद वाला होकर मरणोपरान्त लोभ दोष से अधर्मी यक्ष हुआ हूँ। इसलिए तुम लोग इसप्रकार लोभ मत करना।
सन्दर्भ सूची
समराइच्चकहा, (प्राकृत) आचार्य हरिभद्र हिन्दी अनु० डॉ०रमेशचन्द्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन (ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्रा० ग्र० २१) दिल्ली, १९९३, पूर्वार्द्ध, पृ०-४। दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति (मूल) संपा० विजयामृतसूरि, 'नियुक्ति संग्रह' हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला १८९, लाखाबावल, शान्तिपुरी, सौराष्ट्र १९८९, गाथा ९०-११०, पृ० ४८५-८६। निशीथभाष्य चूर्णि, संपा० आचार्य अमरमुनि, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली
एवं सन्मति ज्ञानपीठ, वीरायतन, राजगृह (ग्र०स०५), भाग ३, पृ०१३९-१५५ । ४. दशाश्रुतस्कन्धमूलनियुक्तिचूर्णिः -- मणिविजयगणि ग्रन्थमाला सं०१४, भावनगर, .
१९५४, पृ० ६०-६२। बृहत्कल्पभाष्य, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, १९३३-४२। आवश्यकचूर्णि - ऋषभदेव केसरीमल, रतलाम १९२८-९, दो खण्ड। निशीथभाष्य चूर्णि, पूर्वोक्त, पृष्ठ १३९, एवं दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि - पूर्वोक्त,
पृ०-६०। ८. वही, पृ० १३९-१४७ एवं वही, पृ० ६०। ९. वही, पृ० १४७-१४८ एवं वही, पृ० ६१। १०. वही, पृ० १४९-१५० एवं वही, पृ० ६१। ११. वही, पृ० १५०-१५१ एवं वही, पृ० ६१। १२. वही, पृ० १५१-१५२ एवं वही, पृ० ६१। १३. वही, पृ० १५२-१५३ एवं वही, पृ० ६२।
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श्रमण
अणगार वन्दना बत्तीसी
(मुनि चन्द्रभान)
डॉ० (श्रीमती) मुन्नी जैन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी में उपलब्ध हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में छोटे-बड़े सहस्रों शास्त्र (ग्रन्थ) विद्यमान हैं। इनमें आगम आदि ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेक छोटे-छोटे लेकिन अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ पच्चीसी, बत्तीसी, सवैया, शतक आदि नाम से हैं। इस तरह के काव्य-रचना की जैन साहित्य में प्राचीन परम्परा रही है। . कवि बनारसीदास की सूक्तिमुक्तावली, ज्ञानपच्चीसी, अध्यात्मबत्तीसी, शिवपच्चीसी, भैयाभगवतीदास की पुण्यपच्चीसिका, अक्षरबत्तीसिका, वैराग्यपच्चीसिका, बुधजन कवि की सतसई, भूधर कवि का जैनशतक इत्यादि अनेक काव्य प्रकाशित हैं, जिनके द्वारा कवियों ने जैन आचार, नीति एवं सिद्धान्तों और स्तुतियों को प्रस्तुत किया है।
इस तरह की सभी छोटी-बड़ी रचनाओं को डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने 'प्रकीर्णक साहित्य' के अन्तर्गत माना है।
प्रकीर्णक काव्य के रचयिता जैन आचार्यों और कवियों ने मानव का परिष्कार करने के लिए धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक आदि आदर्शों की सरस विवेचना की है। उन्होंने मानव को व्यष्टि के तल से उठाकर समष्टि के तल पर प्रतिष्ठित किया है। बहिर्जगत् के सौन्दर्य की अपेक्षा अन्तर्जगत् के सौन्दर्य का इन्होंने प्रकीर्णक काव्यों में विशेष निरूपण किया है। जैन प्रकीर्णक काव्य के निर्माताओं ने अपार भाव-भेद की निधि को लेकर प्राय: श्रेष्ठ काव्य ही रचे हैं, जो युग-युग तक सांस्कृतिक चेतना प्रदान करते रहेंगे।
__ काव्य के सत्यं, शिवं और सुन्दरं इन तीनों पक्षों में से जैन प्रकीर्णक काव्यों में शिवत्व-लोकहित की ओर विशेष ध्यान दिया गया है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि सत्यं
हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन : भाग १, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम
संस्करण, १९५६, पृष्ठ १७९-८०। २. वही, पृष्ठ ८०-८१ ।
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और सुन्दरं की अवहेलना की गयी है। इन काव्यों में सौन्दर्य और सत्य की स्वाभाविकता इतनी प्रचुर मात्रा में पायी जाती है, कि उनसे उदात्त भावनाओं का संचार हुए बिना नहीं रहता।'
मुनि चन्द्रभान द्वारा रचित 'बत्तीस सवैया' के माध्यम से जो 'अणगार वंदना' प्रस्तुत की गयी है, वह अत्यन्त भावपूर्ण एवं मार्मिक है। इस लघु रचना में कवि ने अणगार अर्थात् जैन श्रमण (मुनि) का गुणानुवाद कर उनके प्रति अपनी परमभक्ति प्रकट की है, जो अणगार की उत्कृष्ट आध्यात्मिक जीवन शैली को सहज, सरल एवं भावपूर्ण रूप से प्रस्तुत करती है। इस लघु पाण्डुलिपि में कुल ३ पत्र हैं, जिनकी लम्बाई १०१/," चौड़ाई ५" है। प्रत्येक पत्र के दोनों ओर लिखा गया है। प्रत्येक पत्र में करीब १६ पंक्तियाँ हैं, अंतिम पत्र के दूसरी ओर १३ पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक पंक्ति में १८-२० (लगभग) शब्द हैं। पाण्डुलिपि के आदि में 'अथ ३२ सवैये लिख्यते' लिखा है तथा अंत में मात्र कवि का नाम आया है, परन्तु संवत् आदि की कोई जानकारी नहीं दी गई है। लिखावट सुन्दर एवं सहज पठनीय है।
अणगार अर्थात जिसने अन्त:करण से संसार के घर-बार रूपी सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग करके साधना-तपश्चरण का मार्ग अपना लिया, वह श्रमण है।
वस्तुत: जैनधर्म में दो प्रकार के आचार प्रतिपादित हैं- १. सागार (श्रावक) तथा २. अनगार (श्रमण) रूप। इनमें सागार, परिग्रह (जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं हेतु) सहित श्रावक होता है तथा समस्त परिग्रह रहित श्रमण, साधु अनगार कहा जाता है।
मूलाचार (९/२०) में अनगार के पर्यायवाची १० नाम बताये गये हैं- १. श्रमण, २. संयत, ३. ऋषि, ४. मुनि, ५. साधु, ६. वीतरागी, ७. अनगार, ८. भदन्त, ९. दान्त, १०. यति।
बत्तीस सवैये की अणगार वन्दना में कवि ने हिन्दी परिवार की विविध भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है। वस्तुत: हिन्दी मात्र एक भाषा ही नहीं अपितु वह भाषा समूह है जिसके अन्तर्गत ब्रज, राजस्थानी, ढुंढारी, मरु-गुर्जर आदि भाषायें सम्मिलित हैं, जो अपभ्रंश के परवर्तीकाल की हैं, जिन्हें एक सम्मिलित नाम ‘पुरानी हिन्दी' से जाना जाता है।
कवि की इस रचना में कहीं-कहीं पंजाबी (आत्मा दा सारे काज) का भी पुट मिलता है। राजस्थानी, गुजराती तथा देशी शब्दों का विपुलता से प्रयोग हुआ है। मन्त्र-तन्त्र, १. वही, पृष्ठ १८१॥ २. समणोत्ति संजदोत्ति य रिसि मुणि साधुत्ति वीदरागो त्ति ।
णामादि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतेत्ति ।। मूलाचार ९/१२० ।
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सम्म-गम्म, धर्म-कर्म, खप्प-तप्प आदि द्वित्वरूप शब्दों से छंद की तुकबंदी हुई है। इसी तरह वेण, सेण, जेण, नैण, रैण, हेण आदि शब्दों में 'ण' का अधिक प्रयोग हुआ है। उर्दू शब्द तसलीम (२७वें पद) से उर्दू का प्रभाव भी परिलक्षित होता है।
इस तरह भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से यह रचना सहज, सरल और सुन्दर है तथा छन्द की दृष्टि से यह मनहर छंद (वर्णिक) के अति निकट प्रतीत होती है जो सरस, मनोहर और गेयरूप है।
इस क्रम में आगे भी इस तरह की अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाओं को प्रकाशित करने का प्रयास किया जायेगा। इस पाण्डुलिपि के सम्पादन में प्रो०सागरमल जैन का सहयोग प्राप्त हुआ है जिसके लिये मैं उनकी हृदय से आभारी हूँ।
अथ ३२ सवैये लिख्यते - (अणगार वंदना) - मुनि चन्द्रभाणकृत
पाप पंथ परहरे, मोक्ष पंथ पग धरे, अभिमान नहीं करे , निंदा कुं निवारी है । संसार को छोड्यो संग, आलस नहीं छे अंग, ग्यान सेती राखे रंग, मोटा उपगारी है। मन माहि निरमल, जेहु है गंगा रो जल, काटै है करम दल, नौ तत्त्व धारी है। संजम की करे खप, वाराभेदी तपे तप्प, ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है ।।१।। ज्ञान करी भरपूर, विकथा सुं रहे दूर, तपस्य करण सूर, मोटा अणगारी है। तरण तारण जाहाज, आत्मा दा सारे काज, दोष सेती आणै लाज, गुणा का भंडारी है। छोडे सब खोटी मत, चोखी राखे समकित , निरवद बोले सत, पाप परिहारी है। विरक्त रहे सदा, लोभ नहीं धरे कदा, ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है।।२।। तन सहे शीत ताप, जिन जी का जपे जाप , कर्मदल देवे कांप, बहुत बिचारी है। छोड दिया धन-धान्य, भावे है विशुद्ध ध्यान ,
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आरंभ (हिंसा) रहित ।
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कुमता कुं वीदारी है। सूने घर समधार, न करे देह की सार , शील पाले खग धार विष दूर टाली है । राग-द्वेष मल धोये, निरमल हुवा धोई, ऐसे अणगार ताको वंदना हमारी है ।।३।। अखंड आचार पाले, दोष सब दूर टाले , जनम मरण गाले, ममता कु मारी है। तप कर तन गाले, नारी सामो नहीं निहाले, विषे दिष्ट पाछे वाले, आत्मा सुधारी है। छोड दीया रंग-राग, नहीं करे परमाद' , चाखे अनभो२ स्वादि, उग्ग विहारी है। वसि करे तन मन, जालत करममल, ऐसे अणगार ताको वंदना हमारी है ।।४।। ज्ञान ध्यान रहे लीन, जिम नीर माहिं मीन, परवचन रसि पीन, सुध गुणधारी है। इंद्री पाँच बस कीन, भया घणा परवीन, देव गुर धर्मचीन, विसुध वीचारी है। देह ने पीडत पनी होवे नहीं हीन दीन , करम करे छीन, धरम का वोपारी है। जथा-तथा पंथ चीन, मुक्ति का डंका दीन , ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है।।५।। परीसा' उपना धीर, होवे नहीं दिलगीर , सेठा रहे सूरवीर, द्वेष ना लिगारी है। ममता नहीं शरीर, परतणी जाणे पीड, सुजतणा पीवे नीर, पाप परिहारी है। मारन करम मीर, तपस्या का वहे तीर , राखे नहीं तकसीर, आत्मा को तारी है।
प्रमाद।
२. ३. ४.
अनुभव। प्रवचन। परीषह।
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मनु पंच राखै चीर, कौडी नहीं एक तीर, ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है ।।६।। जिणजी को लीयो धर्म, मेट दीयो मिथ्यातम, काम - भोग दीये वम, तजी रीद्ध सारी है । साकार टाकार सम, गाली बोल्या खाये गम, दोधी छै आत्मा दम, खिमा गुण भारी है । वीस दोय परीसा' गम, काट दीया निज कर्म, जाको काहा करे जम, कुगति कुठारी है। सिद्धान्त में रहै रम, चाले नहीं धमधम्म, ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है ।।७।। मुगति को लहे मग, जोय जोय मेले पग, मन में ना राखे दग, तजी सब नारी है। दुरजन नर मग्ग, गाली बोले मुख अग्ग, देवे नहीं दगा, खिमता अपारी है। ज्ञान ध्यान रहे लग्ग, गुण को न ही है थग्ग, उपदेस न्यारे जग्ग, कुमतने मारी है । तपस्या को डाल्या खग्ग, मारी है ने कर्म ठग्ग, ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है ।।८।। निरवद बोलै वैण, सकल जीवा रा सैण, चारित्र में पावे चैन, जगत हितकारी है । साचो जाणै मत जेण, वीजा सहु माने फैन, उपदेश देवै ऐन, माया सब डारी है । बस राखै निज नैण, नार सब जानै बैन, निरदोष लेवे लेण, सुध ब्रह्मचारी है । ध्यान धरे दिन रैण, समो जाको केहण रहेण, ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है ।। ९ । । करणी करे कठण, दुरबल करे तन, ऊतारे है कर्म रण, चौकडी घटाई है ।
बाईस परीषह ।
सहन करना।
खिमता- क्षमा ।
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अधको न खावे अन्न, तप करै दाहे तन, कोडी नही एक कन्न, छती रीध छाँडी है। मारीयो दुष्टमन, लीया वीस सत्त गुण, हुवे नही कृतघन,१ सुदिष्ट निहारी है। भलो उपदेश दीन, जुगत से तारे जन, ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है ।।१०।। कीरीया कवाण कीध, दया तणा वंध दीध , सांच की फणंद सीद्ध, बहोत करारी है। तपस्या का कीया वाण, ईरजा निसान जान, वाजा है, मधुर वाण, ध्यान की कटारी है। समकत सेल डाल, धीरज की धरी ढाल, ग्यान घोड़े चढ्या लाल, खिमा तलवारी है। सील सेना लेई लार, कर्म सुं करे राड , ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है ।।११।। अकल बहुत उंडी, साचो पंथ लियो ढूंढ़ी, रात-दिन जाकी हुंडी, प्रभु जी सकारी है । ग्यान तणी रही पीक, भिन-भिन करी ठीक, सदा रहे है निरभीख, माया सब विडारी है। बेयालीस दोष टाल, निरदोस लेवै आहार , संजम का वहै भार, रंजन लिगारी है । तपतेज रह्या दीप परीसा कु लीया जीत , ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है।।१२।। तजीया चंपेल तेल, मन सब दीया मेल्ह , विषे रुप विषवेल, उरथी उपारी है। रात-दिन ग्यान रेल, बढे सदा धर्म वेल , खेलत उत्तम खेल, साधु सुवीचारी है। ठगारी कुमत ठेल, पांचो मल दीया पेल , पंडताइ रेल-पेल, अकल अपारी है साही नै संजम सेल, हणत करम हेल
१. कृतघ्न। २. ईर्या। ३. परीषह।
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ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है ।। १३ ।। भावहेत ग्यान भेट, मिथ्यातम दीये मेट, सुरत लगाई सेट्ठ, खिमा गुण भारी है । ससी जेम दिष्ट सोम, हुवे नही प्रतिलोम, देख-देख चाले भोम, दया अधिकारी है । दिखावत सुध राह, मेट दीया भवदाह, सकल जीवांरा नाह, पाप परिहारी है । भिनभिन भाखे भेद, मूलनही करे छेद, ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है ।। १४ ।। दिल साफ निस दिन, भजत है भगवान, मिथ्यासुत न आणे मन, ईसा एकतारी है । अधिका न खाए अन्न, तप करै दाहै तन, कोडी नहीं एक कन्न, छती रिद्ध छाडी है । धारत धर्म ध्यान, छोडे नहीं एक छीन, गौतम उपमा दीन, धीर गुणकारी है ।
भलो उपदेस भने, जुगत सुं तारै जन, ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है ।। १५ ।। मिथ्या मोह अने भूल, हिंस्या तजे लघु थूल, झूठ नहीं बोले भूल, तजी सब चोरी है । परहरै मैथुन, नौ विध तजे धन रती नहीं भखै अन्न, धर्म का धोरी है । सुगुरा की घरी साख, कुपंथन भरे विख, भवरां जेम लहे भिख, छोडी सब चोरी है । विरक्त रहै सदा, लोभ नहीं धारै कदा,
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ऐसे अणगार ताको, वन्दना हमारी है ।। १६ ।। परछन परगट, मारे नहीं काया षट कुज' रुख दियो कंट, सत सम सैरी है । वरजी ने मन वट, अने मूल मद अठ, काया सौ तजो कपट, ग्रन्थ पास गेरी है । विचरत जोग वट, नभ पर जेम नट सेती भव तट, आत्मा उजारी है ।
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तप
मंगलग्रह |
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घणो साफ कर घट, रहे जिन नांव रट , ऐसे अणगार ताकुं, पांव धोक मोरी है ।।१७।। ग्यान घोड़े असवार, हुवा संत अणगार , सीज्झाय एवांजा सार, वीध सजायने । संजम सेनाए घोष, इके करहा छे ठोप दया अवध अनोप, कर्म खपायनै । दान-सील-तप भाव, चारो मोट उमराव , साथ हुवा समभाव, मन में उमायने । मुक्ती के लारे माए, जंग करी बैठा जाए , ऐसे अणगार ताकुं, बहुं सिर निवायने ।।१८।। काटन कर्मदल, छोड़ दिया साहुबल , परहरे फुल जोवे नहीं आरसी । अंत कुल, प्रांत कुल, परीसा अप्रबल , उपना रहै आंचल, सोइ कारज सारसी । मेटी मिथ्या महामल्ल, ग्यान तणी अटकल , सीखाइनें परतणी, संका' सब टारसी। आणीने संतोष जल, मेट दीनी लोभ डाल , ऐसे गुरु धारो जीव, तरे सोई तारसी ।।१९।। संसारनी तजी लीन,सिद्धंत में रहे करे कील , सांच मन पाले शील, नहीं जोवे नार सी। दुर्बल करी देह, गीरु वा गुणां राजहे , न्याती हुंती लज्या नेह, माया जाणे छारसी । आत्मा रा टाले दोष करमां रा करे सोख , मुकत का डंका मुनी, वेग ही वजावसी । देइ नीर दोख दांन, मुल नहीं करे मांनं , ऐसे गुरु धारो जीव, तरे सोइ तारसी ।।२०।। भाव नींद गई भाग, जंबु जिम उठ जाग , विधि सं लीयो वैराग, छती रिद्ध छोड़ीने । मोह तणी तजे आग, रंच पे न धरे राग ,
जग तिन दीयो त्याग, मोह दल मोडने। १. शंकाएँ। २. सिद्धान्त।
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बझाड भीतर आग, दील रा मेटत दाग , लवलेस नहीं लाग, तप तन तोडनें । बस करे मन वाग, मेलत मुगत माग । ऐसे अणगार ताकू, वंदु कर जोड़ने ।।२१।। सिद्धांतना वैन सुंणी, माया तजी हुवा मुनी, गिरवान होत मुनी, अंग में हुलासता । भिन भिन ज्ञान भणी, चोखा गुण लेत मुनी , दया करें त्यारे दूनी, भला बैण भासता । पर कित पाप हणी, घट में अकल घणी, धीरे जिनराजा धणी, और नहीं आसता। गीतनाद तु छगुनी, बाल देवै कामनी । ऐसा अणगार मनी, सख लेहे सासता' ।।२२।। अंग धरी उछरंग, सुंदरी को तजो संग, भाव नहीं करे भंग, कुल सोभा करसी। आगम अर्थ अंग, चित माहि धरे चंग, ज्ञान जिसो तोय गंग, दया मग्ग वारसी। राचत संजम रंग, आरत न धरै अंग , जोरावर करै जंग, पाप परिहरसी। लीयो फिर जैन लिंग, रहे सदा एक रंग, ऐसे अणगार मुनी, वेग सीव वरसी ।।२३।। झीणो जिणमत झाल, सोधियो भीतर साल, मुनी भए तजमान, चित जपै चंगनो । लागो ग्यान रंग लाल, चाले रिख तणी चाल , सखरा लेवे सुवाल, निखरा निकेदणो। अनोपम ग्यांन आल, खेलत उतम ख्याल , वेग सेव करी वाल, नमी नाभिणंदणो। घणी दठ घाव घाल, पाप रिपु देत पलाय, ऐसे अणगार ताकुं वार-वार वंदणो ।। २४।। उर सुं गयो अंधेर, ग्रंथ रास देइ गेर , चाह नहीं धरै फेर, सुर वीर सत में।
मन दी जाणे फेर, शत्रु अघ परसर , शाश्वत।
१.
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मुनी
जिनमत में ।
घोर काल दियो घेर,
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हणात है हेर हेर, साही सत समसेर, जम हुं कुं कीयो जेर, चतुराइ चित में । भगवंत वैणभेर, बजावत घेर- घेर, ऐसा अणगार इस गछ सिव गति में ।। २५ । । परम धरम पाम, वरजी ने भाव वाम । हणत ही यारी हाम, उर तजे दाम कुं । । गछत नगर गाम, थिर नहीं एक ठाम, जतनां सु राखे जाम, कांनी करै काम कुं । घोर नारकी री धाम, तप करी टालें ताम, निस दिन सीर नाम, सुमरत श्याम कुं । सूर पणे संग्राम, करीने सुधारे काम, ऐसा अणगार इसि मध्यावे शिवधाम कुं ।। २६ । । कुमत जंजीर काट, वहे शिवपुर वाट थिरकनें नर थाट, पंथ धरी तजे घट, आणै नहीं ओचाट, उरमत देइ दाट, माया थिरकने नर थाट, हीयो ताको हेम है । खिमता छडी नो साट, कर्म रिपु देवे काट ऐसे अणगार ताकुं, मेरी तसलीम है ।। २७ ।। सहु मेट दइ संक, फय करी फंक, वरजीने मन वंक, तज दीनी रीसकुं । परहर काम पंक, फेर नहीं करे पंक रात दिन करे रंक, काटे है कलेसकुं । अरीतणो खोवे अंक, टालो नहीं करे टंक, देत है मुगत डंक, जपी जगदीस कुं । अंजन मंजन अंख, सोभे जिम उट्ठ संख, ऐसा अणगार ताकुं, पाय धरु सीसकुं ।। २८ । । समकत लहे सुध, वहोत घट भइ बुध, रिंट जिम तजी रिध, ममता मिटाइने । दिल साफ जेम दूध गिरवा गुणाएनिध,
सुरत असीम है । परगट सेवें घट निर्मल नेम है ।
दया तणा माट
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विद्या भणे बहु-विध, आलस उडायने । मारदेत मोह मद, कार नहीं लोपे कद , हेत कथा कहे हद, काटी हे कषाय कुं । पूजीने परमपद, रिपु कर देत रद , ऐसा अणगारताकुं बहु सिरनायने ।।२९।। बुझइ भीतर झाल, काट दीयो मोह जाल , सिधंत' के चले ढाल, पुली ज्ञान जोत है । माया नहीं राखें भूल, कापी हीन दल कुल , भव जीवां तणी हूल, टाले मिथ्या छोत है । अंगथी आलस छोड, गाँव पर ठौर-ठौर , जिण वेण तणो जोर, करत उद्योत है । सरपणे संग्राम, करी ने सुधारे काम , ऐसा अणगार ताकुं म्हारी डंडोत है ।।३०।। जगत की तजी बुध, तारवाने बहु सुध , अखंडित
जोत सैण जेम देत सीख, भगवान तहां वीख , मीठी जाणे मुख दीख, मिथ्यातम खोत है । प्रभु जी सुधरे प्रीत, गावे रुद्रा गुण गीत , मांहे बाहर एक रीत, तज्या सब तोत है । सुरत मुकत माये, और पीव वंछै नाहीं , ऐसा अणगार ताकुं, हमरी डंडोत है ।।३१।। ऐसा संत अणगार नमो सब नर-नार , तारण-तरण हार मोटा गुण पाल है । सांची सीख देत सुल, कुपंथ न पडे भूल , मुकत मे रह्या झूल, समकत अंत है । सब दयावती संसार गाया गुणगार , आगमा रे अनुसार भणै सेह जात है। भणै मुनि चन्द्रभाण, सुणो होखे विवेकवान ,
बतीस उलट आंण, भण्यां दुखजात है ।।३२।। १. सिद्धान्त। २. स्थान-स्थान। ३. वंदना अर्थ में।
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श्रमण
"जैन चम्पूकाव्य" एक परिचय
डॉ० राम प्रवेश कुमार
मानव जाति के अनुभूत कार्यों अथवा उसकी अन्तर्वृत्तियों की समष्टि को काव्य कहते हैं। उदाहरणार्थ किसी व्यक्ति का अन्त:करण उसके अनुभव, उसके विचार, उसकी भावना और उसकी कल्पना को रक्षित रखता है। इसी रक्षित भण्डार की सहायता से वह नये अनुभव और नई भावनाओं का तथ्य समझता है। काव्य जातिविशेष का मस्तिष्क है जो उसके पूर्व अनुभव, ज्ञान, विचार, कल्पना और भावना को रक्षित रखता है और उसी की सहायता से उसकी वर्तमान स्थिति का अनुभव प्राप्त किया जाता है। जिस प्रकार ज्ञानेन्द्रियों के बिना मस्तिष्क की सहायता और सहयोगिता के अर्थ अस्पष्ट और निरर्थक होते हैं वैसे ही काव्य के बिना- पूर्व संचित ज्ञान-भण्डार के बिना, मानव जीवन की कतई सार्थकता नहीं।
काव्य के अन्तर्गत केवल उन्हीं रचनाओं की गणना होती है जिनमें कविता का मूल-तत्त्व विद्यमान हो ऐसी रचनाएँ गद्य-पद्य दोनों में हो सकती हैं। वास्तव में कविता के विशिष्ट गुणों से युक्त कथन को चाहे पद्य हो या गद्य हो, काव्य कहना अधिक युक्तिपूर्ण है। परन्तु कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं जो गद्य और पद्य दोनों में होती हैं, जिसे “मिश्रकाव्य' या "चम्पू' कहते हैं। काव्य के संक्षेप में तीन भेद किये गये हैं- पद्य, गद्य, मिश्र। वाग्भट ने काव्यानुशासन में इसके लिए लिखा है- “तच्च पधगद्यमिश्रभेदैस्त्रिधा' (अध्याय प्रथम, पृष्ठ-१५)। यहाँ "तत्'' पद का अर्थ काव्य है। काव्य की विशाल परिधि के अन्दर चम्पू की क्यारियाँ सौन्दर्य के फूलों से लद जाती हैं। अत: चम्पू काव्य की आत्मा को अधिक चित्रात्मकता प्रदान करता है।
आठवीं शताब्दी में महाकवि दण्डी ने काव्य का लक्षण इस प्रकार किया है"गद्यपद्यमयी काचिच्चम्पूरित्यपिविद्यते' काव्यादर्श पृष्ठ-८ श्लोक ३१॥ दण्डी के बाद हेमचन्द्र ने १२वीं शताब्दी में और वाग्भट ने १४वीं शताब्दी में अपने-अपने काव्यानुशासन में “गद्यपद्यमयी साङ्का सोच्छ्वासा चम्पू:' (८/९) यह लक्षण किया है। *. अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, ए०एम०कालेज, गया (बिहार)।
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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
चम्पूकाव्य सबसे पहले ई०सन् ९१५ में त्रिविक्रमभट्ट द्वारा रचा गया, जिसका नाम है नलचम्पू। इसी का दूसरा नाम दमयन्ती कथा भी है। इस चम्पू में ७ उच्छ्वास हैं और प्रत्येक उच्छ्वास के अन्त में “हरचरण सरोज' पद लिखा गया है। यद्यपि हेमचन्द्र के सामने सोमदेव सूरि (ई० ९५९) का यशस्तिलक भी था, तथापि उन्होंने इसके अनुसार चम्पू का लक्षण नहीं बनाया। बाद में विद्वानों ने सोमदेव का ही अनुगमन किया। फलतः किसी अन्य चम्पू में अंक नहीं हैं। अधिकांश चम्पुओं में आश्वास हैं। कविराज विश्वनाथ ने साहित्य-दर्पण में- “गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते'' (षष्ठ परिच्छेद, पृष्ठ ३२६) यह लक्षण किया है।
चम्पू की मधुरता सभी काव्यों से निराली होती है। महाकवि हरिचन्द्र ने जीवन्धर चम्पू में लिखा है :
गद्यावलिः पद्यपरम्परा च प्रत्येकमप्यावहति प्रमोदम् ।
हर्षप्रकर्ष तनुते मिलित्वा द्राग्बाल्यतारुण्यवतीव कान्ता।। पृष्ठ-२। अर्थात् गद्य और पद्य, दोनों ही आनन्ददायक होते हैं, किन्तु जब दोनों मिल जाते हैं तो वयःसन्धि में स्थित नवयुवती के समान बहुत अधिक आनन्द प्रदान करते हैं। यही कारण है कि जो बाद में अनेक चम्पू रचे गये- नलचम्पू (ई०९१५), यशस्तिलकचम्पू (ई०९५९), चम्पूरामायण (ई०१०५०), जीवन्धरचम्पू (ई०१२००), चम्पूभारत (ई० १२००), पुरुदेवचम्पू (ई० १३००), भागवतचम्पू(ई० १३४०), आनन्दवृन्दावनचम्पू (ई०१६ शतक), पारिजातहरणचम्पू (ई०१५९०), नीलकण्ठचम्पू (ई०१६३७), विश्वगुणादर्शचम्पू (ई०१६४०) और गजेन्द्रचम्पू (ई० १८५०) इत्यादि।
जैनचम्पू
___ यशस्तिलकचम्पू, जीवन्धरचम्पू और पुरुदेवचम्पू ये तीन चम्पू ही अभी तक प्रकाशित हो सके हैं। इन तीनों के रचयिता दिगम्बर जैन थे। भण्डारों में खोजने पर अभी और भी दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा रचित चम्पू उपलब्ध हो सकते हैं।
विषय और आधार
पहले चम्पू में राजा यशोधर, दूसरे में जीवन्धर और तीसरे में भगवान् आदिनाथ का वर्णन है! जिस प्रकार जैनेतर काव्य रामायण, महाभारत और अठारह पुराणों के कथानकों के आधार पर बनाये गये हैं. उसी प्रकार जैन काव्य जैन पुराणों के कथानकों के आधार पर निर्मित हैं। उक्त चम्पुओं का आधार भी जैन पुराण है। दूसरे और तीसरे चम्पू का आधार स्पष्टत: जिनसेन का महापुराण है। जीवन्धर की कथा जिनसेन के पहले किसी भी दिगम्बर अथवा श्वेताम्बर ग्रन्थ में नहीं मिलती है।
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"जैन चम्पूकाव्य' एक परिचय
: ७३
विशेषता
यशस्तिलक के रचयिता सोमदेव सूरि हैं। ये प्रमुख तार्किक थे। इनके ग्रन्थों के अध्ययन से इस बात का स्पष्ट बोध हो जाता है कि ये बहुश्रुत विद्वान् थे। यथा-वेद, पुराण, धर्म, स्मृति, काव्य, दर्शन, आयुर्वेद, राजनीति, गजशास्त्र, अश्वशास्त्र, नाटक
और व्याकरण आदि के यह मर्मज्ञ थे। इसीलिए इनका चम्पू वर्तमान में उपलब्ध सभी चम्पुओं से उत्कृष्ट सिद्ध हुआ। इसके बारे में स्वयं कवि ने लिखा है
असहायमनादर्श रत्न रत्नाकरादिव ।
मत्तः काव्यमिदं जातं सतां हृदयमण्डनम् ।। (१/१४) यशस्तिलकचम्पू की अनेक विशेषताएँ हैं, जिनके कारण यह सभी जैन और जैनेतर चम्पू काव्यों में श्रेष्ठ है। इन काव्य का गद्य कादम्बरी के समान है। गद्यकाव्य की रचना में वाण के बाद सोमदेव का ही स्थान हो सकता है और पद्य रचना अत्यन्त सरल है। इसलिए अश्वघोष महाकवि की रचना के बाद इसे दूसरा स्थान मिल सकता है।
संसार में नलचम्पू और भरतचम्पू का विशेष नाम है। नलचम्पू में राजा नल की कथा लिखी गयी है और भारतचम्पू में महाभारत की। दोनों चम्पुओं में कहीं-कहीं श्लेष का प्रयोग किया गया है किन्तु दोनों के श्लेष से यशस्तिलक का श्लेष कहीं श्रेष्ठ है। यशस्तिलक में सैकड़ों ऐसे शब्द आए हैं जो कोषों में भी नहीं हैं। कवि ने प्रसङ्गत: अपने पूर्ववर्ती अनेक महाकवियों के नामों का उल्लेख किया है। यथा- उर्व, भारवि, भवभूति, भर्तृहरि, भर्तृमेष्ठ, कण्ठ, गुणाढ्य, व्यास, भास, वोस, कालिदास, बाण, मयूर, नारायण, कुमार, माघ और राजशेखर जो इनके गहन अध्ययन का परिचायक है। मोक्ष का स्वरूप लिखते समय पृष्ठ २६९ आश्वास ६ में सैद्धान्तवैशेषिक, तार्किकवेशेषिक, पाशुपत, कुलाचार्य, सांख्य, दशबलशिष्य, जैमिनीय, बार्हस्पत्य, वेदान्तवादी, शाक्यविशेष, कणाद, तथागत और ब्रह्माद्वैतवादी इन दार्शनिकों के मतों का उल्लेख किया है।
बीच-बीच में ग्रन्थकार ने इस काव्य में नाटकों के समान रचना की है- (प्रकाशम्) अम्ब! न बालकेलिष्वपि मे कदाचित् प्रतिलोमतां गतासि। पृ० १४० आश्वास ४।
राजा(स्वगतम्) अहो महिलानां दुराग्रहनिरवग्रहाणि परोपघाताग्रहाणि च भवन्ति प्रायेण चेष्टितानि। पृष्ठ १३५ आश्वास ४। यह रचना ग्रन्थकार के नाटक के अध्ययन को सूचित करती है। यह चम्पू सुभाषितों की दृष्टि से भी श्रेष्ठ है
निःसारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडम्बरो महान् । नहि स्वर्णे ध्वनिस्ताहम् यादक कांस्ये प्रजायते ।।११४।। पृष्ठ १६२।
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७४ :
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
यह पद्य यशस्तिलकचम्पू, पृष्ठ १० का ३५वाँ पद्य है। प्रस्तुत चम्पू की रचना तिलकमंजरी और गद्यचिन्तामणि से अच्छी है और पद्य रचना हरिचन्द्र को छोड़कर अन्य कवियों की रचना से उत्कृष्ट है।
_श्रावकाचार की दृष्टि से देखा जाय तो समन्तभद्र के बाद इन्हीं ने इस चम्पू में इतने विस्तार और मौलिकता से लिखा है। यशस्तिलक के अन्तिम आश्वासों में श्रावकाचार का वर्णन किया गया है। पाँचवें आश्वास के अन्त में सोमदेव ने लिखा है
इयता ग्रन्थेन मया प्रोक्तं चरितं यशोधर नृपस्य ।
इत उत्तरं तु वक्ष्ये श्रुतपठित मुपासकाध्ययनम् ।। जैन मुनियों की तपस्या का वर्णन भी प्रस्तुत चम्पू में अत्यन्त सुन्दर ढंग से किया गया है। यह भी इसकी खास विशेषता है।
जीवन्धर-चम्पू
यह चम्पू यशस्तिलक के बाद की रचना है। इसमें महाकवि हरिचन्द्र ने - जो कायस्थ थे - जीवन्धर की रोचक कथा ११ लम्बों में लिखी है। यह कथा प्रथमत: महापुराण में पद्यों में लिखी मिलती है। बाद में वादीभसिंह द्वारा क्षत्रचूड़ामणि और गद्यचिन्तामणि में क्रमश: पद्य और गद्य रूप में लिखी गयी। इसके बाद महाकवि हरिचन्द्र ने इसी कथा को चम्प के रूप में लिखा। इस चम्पू में वह बात तो नहीं है जो यशस्तिलक में है। किन्तु फिर भी इसकी रचना सरलता और सरसता की दृष्टि से प्रशंसनीय है। इसमें अलंकारों की विच्छित्ति विशेष रूप से हृदय को आकृष्ट करती है। पदों की अपेक्षा गद्य की रचना अधिक पाण्डित्यपूर्ण है, इसीलिए अनेक विद्वानों ने इसके रचयिता को बाण द्वारा हर्षचरित में प्रशंसित भट्टारहरिचन्द्र समझा।
गद्य रचना
यह किल संक्रन्दन इवानन्दितसुमनोगणः, अन्तक इव महिषीसमधिष्ठितः, वरुण इवाशान्तरक्षणः .......। पृष्ठ ४। इस गद्यांश में कवि ने पूर्णोपमालंकार को कितने सरल ढंग से रखा है। यह अलंकारशास्त्र के मर्मज्ञ ही समझ सकते हैं। यद्यपि यहाँ श्लेष भी है पर विश्वनाथ कविराज के कथनानुसार यहाँ श्लेषमुखेन व्यवहार न होकर पूर्णोपमा का ही व्यवहार होगा। ____ यस्मिञ्छासति महीमण्डलंमदमालिन्यादियोगो मत्तदन्तावलेषु, परागः कुसुमनिकरेषु, नीचसेवना निम्नगासु, आर्तवत्त्वं फलितवनराजिषु.....। पृष्ठ ५।
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"जैन चम्पूकाव्य'' एक परिचय
: ७५
पूरुदेवचम्पू
पुरुदेवचम्पू महाकवि अर्हदास ने लिखा है। इसमें भगवान आदिनाथ का चरित्र लिखा गया है। इसकी और सब बातें अन्य चम्पुओं के समान ही हैं। किन्तु अलंकारों की छटा अन्य चम्पूकाव्यों से कहीं अधिक है। कवि ने इस चम्पू की प्रत्येक पंक्ति में अलंकारमयी भाषा का प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ
द्विविधाः सुदृशो भान्ति यत्र मुक्तोपमाः स्थिताः ।
राजहंसाश्च सरसां तरंगविभवाश्रिताः ।।११६।। श्लेष
यस्य प्रतापतपनेन विलीयमाने, लेखाचले रजतलिप्तधराधरे च। यत्कीर्तिशीतलसुपर्वनदीतरंगैरंगीकृतौ सपदि तौ स्थिरतामयाताम्।। ।
||१/२१।।
रूपक
तद्वक्त्राब्जरुचिप्रवाहजलधौ श्रीकुन्तलालीमिलच्छेवाले भ्रकुटीतरंगतरले बिम्बोष्ठ सद्विद्रुमे । दन्तोदंचितमौक्तिके समतनोनिष्कम्पमीनश्रियं नेत्रद्वन्द्वमिदं निमेषरहितं निःसीमकान्त्युज्ज्वलम् ।।१/६४।।
ससन्देह
किमेष सुरनायकः किमु सुमोल्लसत्सायकः किमाहिततनुर्मधुः किमुत भूमिमाप्तो विधुः । इति क्षितिपतिः पुरीसुकुचकुम्भबिम्बाधरी
गणेन परिशकिंतो गृहमगाद्गजैर्मण्डितः ।। २।२०।। असंगति
जयश्रिया यत्र वृते रणाने विवाहशोभामरिभूमिपालः ।
लेभे तदानीं रिपुसैन्यवर्गाश्चित्रं चिरं नन्दनसौख्यमापुः ।।३/६१।। अत: कवि की अलंकारमयी भाषा को देखकर कहा जा सकता है कि यह चम्पू सभी जैन और जैनेतर चम्पुओं में सर्वोत्तम स्थान रखता है।
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श्रमण
Ācārya Hemacandra and Ardhamāgadhi
Prof. S.C. Pande
Ācārya Hemacandra is a remarkable figure in the history of Sanskrit literature. On account of his profound and wide reading and extraordinary talent he was credited with the title "Omniscient of the Kali Age" (afh405). He was a very respectable Jaina monk of the Śvetāmbara sect belonging to the Pūrņatallagaccha.' He was associated with Jayasimha Siddharāja and Kumārapāla, the two well known Caulukya kings of Gujarat of the 12th century A.D. Being a prolific writer his literary activity covered almost all the branches of Sanskrit learning like grammar, poetics, prosody, lexicography, poetry, logic, dialectics, yogaśāstra and narrative literature etc. Tradition credits him with the authorship of innumerable works.
Here is an attempt to discuss the views of Hemacandra about the importance of the Ardhamāgadhi and Sanskrit languages as expressed in the Siddha-Hemaśabdānuśāsana and the Kävyānuśāsana, the two important works on grammar and poetics. The chronological order of these two works in this context is important. Sabdānuśāsana the first work of Hemacandra was written at the royal request of the king Siddharāja and the Kāvyānuśāsana was written in the
पूज्याश्च इमे महाकवय: पूर्णतल्लगच्छीया: सूरयः। सत्तासमयश्चैषां विक्रमीयद्वादशशताब्द्या उत्तरार्ध त्रयोदशशताब्द्याश्च पूर्वार्धे सम्यगवबुध्यते ऐतिह्यप्रमाणेन। जन्मभूमिस्तु सौराष्ट्रगुर्जरजनपदयोः सन्धौ स्थितं धन्धूकाख्यं नगरम्। उत्पत्तिवंशस्तु बुद्धिवैभवप्रौढो मौढो वणिग्वंशः।-चरणविजयमुनि Preface of त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्।
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Acārya Hemacandra and Ardhamaghi :
७७
beginning of the reign of Kumārapāla i.e. when Hemacandra was pretty old and mature. In the Kāvyānuśāsana' he has shown great reverence for the Ardhamāgadhi which is evident from the benedictory verse --
अकृत्रिमस्वादुपदां परमार्थामिधायिनीम् ।
सर्वभाषापरिणतां जैनी वाचमुपास्महे ।। (We meditate upon the language of Jina the conqueror of Rāga etc. i.e. Lord Mahāvīra) Here, he obviously refers to Ardhamāgadhi, the language of the Svetāmbara Jaina Agamas. The language is devoid of artificial charm. It has the original beauty and natural sweetness of the language. It expresses the nature of the ultimate reality by way of expounding fourfold Anuyogas and above all the other languages like Sanskrit, Māgadhi, Paiśāci etc. are its transformations just as the rain water released by the clouds takes the various forms according to the places where it falls, when it is mixed with river it become the river water, when it falls in the lake it is called the lake water."2 The दैवीवाक्, मनुष्यवाक्, शबरवाक्, and तिर्यग्वाक् are all its transformations. (परिणाम). Here Hemacandra' refers to संस्कृत as दैवीवाक्. The highest quality of the Ardhamāgadhi is in its being Pateifferentfernt. It is the only language which shows the way to the ultimate reality i.e. liberation.
परमार्थो निःश्रेयसं तदभिधानशीला परमार्थाभिधायिनी द्रव्याद्यनुयोगानामपि पारम्पर्येण निःश्रेयसप्रयोजनत्वात् ।
इहानुयोगश्चतुर्या चरणकरणधर्मकथागणितद्रव्मेदात् । तत्राद्यस्य सम्यग्ज्ञानदर्शनपवित्रिते नवकर्मानुपादानातीतकर्मनिर्जरारूपे संयमतपसी प्रतिपाद्ये इति 1. Kavyānusāsana - 1.1. २. एकरूपापि हि भगवतोऽर्धमागधीभाषावारिदविमुक्त वारिवदाश्रयानुरूपतया परिणमति
यदाहदेवा दैवीं नरा नारी शबराश्चैव शाबरीम् । तिर्यश्चोऽपि हि तैरश्ची मेनिरे भगवगिरम् ।।
Commentary on Kāvyānuśāsana, 1.1. 3. Commentary on Kavyānusāsana - 1.1.
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७८ : श्रमण / जनवरी-मार्च १९९७
सर्वकर्मविमोक्षलक्षणमोक्षपरत्वात् परमार्थामिधायित्वं प्रतीतमेव शेषाणां तु पारम्पर्येण । - विवेक टीका ।
Hemacandra wants to say that the Ardhamāgadhī is the oldest language. This stand of Hema might be right from the view point of deep faith in Jaina religion but philologically it is unsound. No amount of arguments can ever convince the student of linguistic history that Ardhamāgadhi was even earlier than the vedic language. The Kāvyānuśāsana might be the work of his (Hema) old age. He being a Jaina monk had naturally developed a deep love. ardour, passionate feeling and emotional attachment for the Ardhamägadhi, the language of the Lord Mahavira's sacred teachings. While commenting on his words "सर्वभाषापरिणताम् अर्धमागधीम्" R.L. Parikh says-1
"It will be seen that this statement of Hema is philologically quite unsound. It merely speaks of the highest estimation in which the author held the Ardhamāgadhi which according to him has miraculous powers."
Buddhists also feel passionately about the Magadhi i.e. the Pali language and say that Magadhi is the oldest language.
सा मागधी मूलभासा नरा याय आदिकप्पिका । ब्रह्माणो च अस्सुतालापा संबुद्धा चापि भासरे ।।
Magadhi is the original language in which men of the ages belonging to the beginning of creation and the angels of Brahma and those who never heard any speech and above all the Buddhas speak. Buddhaghosh goes a step further in his love for Magadhi, when he says that a child brought up without hearing the human voice would instinctively speak Magadhi.
A language is what its literature makes it. Originally a mere dialect the Ardhamāgadhi was raised to the status of a language by
1. Preface to the Kāvyānuśāsana.
2.
Preface to the Childer's Pali Dictionary.
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Acārya Hemacandra and Ardhamaghi :
७९
the genius of Lord Mahāvira and his Ganadharas. It became the language of the vast and rich canonical literature of the Śvetāmbara
sect.
Now we come to discuss the views of Hemacandra as expressed in his Šabdānušāsana about the mutual relation of Prakrit and Sanskrit in respect of the most controversial question as to which language is earlier to which. Whether Sanskrit is the wofa of Prakrit or Prakrit is the sofa of Sanskrit. He clearly admits that Sanskrit is the wafa of Prakrit i.e. Sanskrit is the original language and Prakrita is the off shoot of it--
प्रकृतिः संस्कृतं तत्रभवं तत आगतं वा प्राकृतम् ।। The ardent lovers of Prakrita interpret it in other way. They say that Hemacandra means that Sanskrit is the प्रकृति i.e. base (आधार) for learning the Prakrit. He is explaining the nature of Prakrit vis-a-vis the structure of Sanskrit language. This does not mean that Sanskrit is earlier to Prakrit. This view is upheld by most of the Jaina scholars and monks like Namisādhu, the commentator of Rudrata's Kāvyālamkāra. Namisādhu says --
सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजोवचनव्यापारः प्रकृतिः। . तत्र भवं सैव वा प्राकृतम्। 'आरिसवयणे सिद्ध देवाणं अद्धमागहा वाणी' इत्यादि वचनाद्वा प्राक्पूर्वं कृतं प्राकृतम्बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते।
१. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्मभाइक्खइ - समवाओ- जैन विश्वभारती,
लाडनू, १९८४, ३४/२, पृष्ठ-१८३। देवा णं भन्ते कयराए भासाए भासंति? कयरा वा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सन्ति? गोयमा! देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति, सा विय णं अद्धमागाही भासा भासिज्जमाणी विसिस्सइ, – भगवतीसूत्र शतक ५ उद्देश ४। तए णं समणे भगवं महावीरे कूणिअस्स बंभसारपुत्तस्स अद्धमागाए भासाए भासति, -औपपातिकसूत्र। से किं तं भासरिया? भासारिया जेणं अद्धमागहाए भासाए भासेंति, - प्रज्ञापनासूत्र, आगम प्रकाशन
समिति, व्यावर, १९८३, १०७, पृष्ठ-९२। २. वृत्ति on the सूत्र “अथ प्राकृतम्', ८/१/१।
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८० : श्रमण / जनवरी-मार्च / १९९७
मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणात् च समासादितविशेषं सत् संस्कृताद्युत्तर भेदानाप्नोति । १
Śabdānuśāsana is the earliest work of Hemacandra and it was written most probably when he was quite young. What he writes in the Sabdanusāsana is the unbiased expression of a young scholar. He expressly admits the fact that Sanskrit is the original language and Prakrit is the offshoot of it i.e. Prakrit is the transformation of Sanskrit.
We can not summarily dispose off the views of Hemacandra by saying that he used the word प्रकृति in the sense of आधार (base) and not in the sense of 'original' as the word invariably denotes. A grammarian (f) like Hemacandra will never use a word which may create ambiguity. Actually he is indebted to Vararuci, the author of Prakṛta Prakasa in writing the VIII Adhyaya of his Śabdanusāsana. According to Vararuci Sanskrit is the प्रकृति of शौरसेनी and शौरसेनी is the प्रकृति of मागधी and पैशाची : Dr. C. Kunhan Raja in his preface to the Prākṛata Prakāśa writes-
"To Rāmapāņivada (commentator of the Prakṛta Prakāśa) Prakrit is not a language. It is only a metamorphosis of Sanskrit. If Ramapāņivāda regarded Prakrit as an artificial make up from Sanskrit, Vararuci, the author of the Sūtras did not regard the language as anything else."
Vararuci as interpreted by Rāmapāņivāda classifies the Prakrit words into three categories तत्सम तद्भव and देश्य. The tadbhava words have come into being from the Sanskrit words only. Here the word is significant. It means that the tadbhava words have
1.
२.
३.
Rudrata's Kāvyālaṁkāra Commentary by Namisādhu belonging to the Thārāpadrapuri gaccha, on II/12.
शौरसेनी प्रा० प्र० XI / 1; प्रकृति: संस्कृतम् XII/2; मागधी XI / 1; XI/2; पैशाची X / 1; प्रकृति: शौरसेनी ।
तत्र तद्भवं तस्मात्संस्कृतादेव संभूतम् । वृत्ति in the Sutra " शेष: संस्कृतात्"
VIII/23.
प्रकृतिः शौरसेनी
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Ācārya Hemacandra and Ardhamāghi :
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been made out of the Sanskrit words unlike the Desya words which have their independent origin.
Now we come to the exact meaning of the word sofa as admitted in the field of Sanskrit grammar. The following are the definitions of ten --
(१) अर्थावबोधहेतुप्रत्ययविधानावधिभूतशब्दत्वम् ।। (२) प्रत्ययनिष्ठविधेयतानिरूपितोद्देश्यताश्रयत्वमिति।
It we apply this definition, tofa: egunetan eta gaud will naturally mean that only for the purpose of derivation of Prakrit words, the Sanskrit words become the fa. It does not mean that Sanskrit as a language was prior to Prakrit, because in grammar the tafa comes first and the strate after words, but in the language the complete word forms the component of it. Grammar only does the postmartem of the words by bifurcating it into efa and Tria. The word yefa has other meanings also. In the Hieight the definition of hafa will be frallaferrohra I 375724a fa fa torej taforati If we, in the present context, interpret प्रकृति: संस्कृतं तत्र भवं प्राकृतमुच्यते it will mean that संस्कृत being the originator of प्राकृत comes first and प्राकृत being originated from Sanskrit comes after words. In this way it naturally follows that an is the offshoot or later development of the Sanskrit i.e., the Vedic language, because we have no hesitation to accept that Vedic language, the oldest language is the originator of both classical Sanskrit & Prakrit.
We may now conclude by admitting that both Sanskrit & Prakrit languages had their parallel development. Sanskrit being the language of the learned people was naturally the most refined form of speech regorously following the rules of Pāṇinian grammar and Prakrit being the language of the masses i.e. a dialect, was not so much bound by the grammatical rules and was full of diversified forms and yet abounding in forceful idioms and suggestivity.
R.C. Childers, the author of Pāli Dictionary has very aptly put the relation of Pāli the earlier Prakrit & Sanskrit in the following 'S. HULE: Ta YRAT 49197A, ARTUTAT, 8864, yo-C2,1
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c?
:
HUT/57890-HT4/8886
lines --
"The parallel between Italian in its relation to Latin and Pāli in its relation to Sanskrit is striking enough to deserve special notice. In the thirteenth century the literary language of Italy, the language of culture and science, was Latin, which however had long died out as the spoken tongue of cultivated society and was probably reserved for the Drama, and for occasions of state ceremony. The spoken language of Italy was to be found in a number of provincial dialects, each with its own characteristics, the Piedmontese harsh, the Neapolitan nasal, the Tuscan soft and flowing. These dialects had long been rising in importance as Latin declined, the birth time of a new literary language was imminent. Then came Dante, and choosing for his immortal commedia the finest and most cultivated of the vernaculars, raised it at once to the position of dignity which it still retains. Read Sanskrit for Latin Māgadhi (Pāli) for Tuscan, Gautam for Dante, and the three baskets for the Divina Commedia and the parallel is complete.
In the present context we may read Ardhamāgadhī for Tuscan, Mahāvīra for Dante, the Jaina Agamas for Divina Commedia and the parallel will be complete.
As the Ardhamāgadhi has been raised to the position of high dignity by the Agams of the Svetāmbara sect Hemacandra's placement of Ardhamăgadhi at the top of all languages is not very out of place keeping in view the emotional attachment with the language of ones religion. If the Sanskritists hold Sanskrit in high esteem by calling it the language of gods (ca 215) and lovers of Pāli can call Pāli as the TUTAT (oldest language) Hemacandra's boasting of अर्धमागधी as सर्वभाषारिणताम् is justifiable. Supreme love for ones religion and the language of religion cares a fig for what the comparative philologists think.
Professor & Head Deptt. of Prakrit Language & literature
Parsvanath Vidyapeeth
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१
७७.
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७९.
८०.
८१.
२
१५११
१५११
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१५१२
( पिप्पलगच्छ का इतिहास) गताङ्क से आगे *
३
ज्येष्ठ वदि ९ रविवार
माघ सुदि ५
गुरुवार
वैशाख सुदि ३ गुरुवार
वैशाख सुदि....
४
उदयदेवसूरि
विजयदेवसूरि
सोमचन्द्रसूरि
के पट्टधर उदयदेवसूरि
* डॉ० शिव प्रसाद, प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ ।
":
५
पद्मप्रभ की धातु- प्रतिमा
का लेख
अजितनाथ की धातु- प्रतिमा का
लेख
चन्द्रप्रभ की
धातु- प्रतिमा का
लेख
सुमतिनाथ की
धातु- प्रतिमा का
लेख
श्रेयांसनाथ की
धातु- प्रतिमा का
लेख
६
संभवनाथ देरासर,
झवेरीवाड़,
अहमदाबाद
आदिनाथ जिना
जामनगर
शांतिनाथदेरासर,
अहमदाबाद
नवखंडापार्श्वनाथ
देरासर, भोंयरापाडो,
खंभात
७
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग- १, लेखाङ्क ८६५
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखाङ्क २७१
वही, लेखाङ्क २६५
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त- भाग - १, लेखाङ्क ११२६
वही, भाग- २, लेखाङ्क - ८७७
पिप्पलगच्छ का इतिहास
८३
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७
८४ :
८२.
१५१२
मार्गशीर्ष सुदि ५ उदयदेवसूरि ।
कुंथुनाथ की धातु-प्रतिमा का
कुंथुनाथ जिना०, रागड़ी चौक, बीकानेर
नाहटा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क १६९२
गुरुवार
लेख
८३.
१५१२
फाल्गुन सुदि ८ शनिवार
गुणरत्नसूरि
आदिनाथ की धातु-प्रतिमा का
घर देरासर, बड़ोदरा
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-भाग-२, लेखाङ्क २४७
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
लेख
८४.
१५१२
फाल्गुन सुदि १२ उदयदेवसूरि बुधवार
शांतिनाथ जिना०, लिंवडीपाडा, पाटण
वही, भाग-१, लेखाङ्क २६८
८५.
१५१२ तिथिविहीन
विमलनाथ की धातु-प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की धातु की चौबीसी प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की धातु-प्रतिमा का
वीर जिनालय, पायधुनी, कान्तिसागर, पूर्वोक्त-लेखाङ्क मुम्बई
१३३
८६.
१५१३
रत्नशेखरसूरि
वैशाख सुदि ३ गुरुवार
राजसीशाह का घर देरासर, जामनगर
विजयधर्मसूरि,पूर्वोक्त - लेखाङ्क २८९
लेख
८७.
१५१३
पौष वदि ४ शुक्रवार
गुणरत्नसूरि
सुमतिनाथ की की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
केशरियानाथ का मंदिर, मोती चौक, जोधपुर
नाहर, पूर्वोक्त-भाग १, लेखाङ्क ६०८
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________________
८८.
१५१३
माघ सुदि १३ रविवार
धर्मनाथ की धातु-प्रतिमा का
संभवनाथदेरासर, झवेरीवाड़ अहमदाबाद
बुद्धिसागर,पूर्वोक्त-भाग-१, लेखाङ्क ८२१
शांतिसूरि के पट्टधर गुणरत्नसूरि चन्द्रप्रभसूरि
लेख
८९.
१५१५
वैशाख वदि २ गुरुवार
लोढ़ा, पूर्वोक्त,लेखाङ्क ३६
आदिनाथ की धातु की चौबीसी प्रतिमा का लेख चन्द्रप्रभ की प्रतिमा का लेख
वीरचैत्यान्तर्गत आदीश्वर चैत्य, थराद |
९०. १५१५
वही, लेखाङ्क १४४
वैशाख सुदि १३ विजयदेवसूरि रविवार
के उपदेश से शालिभद्रसूरि
९१.
१५१५
विमलनाथ की धातु-प्रतिमा का
पार्श्वनाथ जिना०, भद्रावती
कान्तिसागर, पूर्वोक्त-लेखाङ्क १५२
लेख
पिप्पलगच्छ का इतिहास
९२.
१५१५
माघ सुदि ६ गुरुवार
उदयदेवसूरि
आदिनाथ जिना०, बडोदरा
बुद्धिसागर,पूर्वोक्त-भाग-२, लेखाङ्क ९८
धर्मनाथ की धातु की चौबीसी प्रतिमा का लेख नेमिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख
९३.
१५१५
वही, भाग-१,लेखाङ्क ९४१
"
वीर जिना० रीघी रोड, अहमदाबाद
: ८७
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६
१ २ ९४. १५१६
३ वैशाख वदि २ गुरुवार
४ "
८६ :
वही,भाग-१,लेखाङ्क ९२२
९५.
१५१६
वैशाख सुदि २ विजयदेवसूरि
के पट्टधर शालिभद्रसूरि
पंचायती जैन मंदिर, जयपुर
नाहर, पूर्वोक्त - भाग-२, लेखाङ्क ११५५, एवं विनयसागर, पूर्वोक्त-लेखाङ्क लेखांक ५५३ लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ८३
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
९६. १५१६
५ सुमतिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख नमिनाथ की की प्रतिमा का लेख विमलनाथ की चौबीसी प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
आषाढ़ सुदि १ शुक्रवार
वीर चैत्यार्तगत आदीश्वरचैत्य. थराद पार्श्वनाथ जिनालय, लोद्रवा
९७.
सोमचन्द्रसूरि के पट्टधर उदयदेवसूरि विजयदेवसूरि के उपदेश से शालिभद्रसूरि गुणरत्नसूरि के उपदेश से गुणसागरसूरि
१५१७
चैत्र वदि ८ शुक्रवार
नाहर, पूर्वोक्त-भाग-३, लेखाङ्क २५५४
९८.
१५१७
वैशाख सुदि ३ सोमवार
वीर जिनालय, रीचीरोड, अहमदाबाद
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१, लेखाङ्क ९५८
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२३
९९.
१५१७
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त - लेखाङ्क ३१३
१००. १५१७
वैशाख सुदि १३ गुणरत्नसूरि मंगलवार
लोढा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १३०
१०१. १५१७
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्तलेखाङ्क ३०६
सुमतिनाथ की बड़ा जैन मंदिर, धातु की पंचतीर्थी लींबड़ी प्रतिमा का लेख श्रेयांसनाथ वीरचैत्यार्तगत की धातु की आदिनाथ चैत्य, प्रतिमा का लेख थराद धर्मनाथ की जीरावला देरासर, धातु की प्रतिमा घोघा का लेख
आदिनाथ जिना०,
जामनगर मुनिसुव्रत की पोसीना पार्श्वनाथ धातु-प्रतिमा का देरासर, ईडर लेख नमिनाथ की शांतिनाथ देरासर, धातु की पंचतीर्थी कनासानो पाडो प्रतिमा का लेख पाटण
१०२. १५१७
वहीं, लेखाङ्क ३०९
माघ सुदि १० गुणदेवसूरि बुधवार के पट्टधर
चन्द्रप्रभसूरि फाल्गुन सुदि १० अभयचन्द्रसूरि शुक्रवार माघ सुदि ५ उदयदेवसूरि सोमवार के पट्टधर
रत्नदेवसूरि वैशाख वदि १० मुनिसिंहसूरि शुक्रवार के पट्टधर
अमरचन्द्रसूरि
१०३. १५१८
बुद्धिसागर,पूर्वोक्त, भाग-१ लेखाङ्क १४७१
पिप्पलगच्छ का इतिहास
१०४. १५१९
वहीं, भाग-१, लेखाङ्क ३०७
: ८७
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
___
_५
.
८८ :
१०५. १५१९
ज्येष्ठ वदि ६ बुधवार
वियजधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ३४१
१०६. १५१९
लोढ़ा, पूर्वोक्त,लेखाङ्क ३५
माघ वदि २ शनिबार
विजयदेवसूरि के पट्टधर शालिभद्रसूरि मुनिसुन्दरसूरि के पट्टधर अमरचन्द्रसूरि उदयदेवसूरि के पट्टधर रत्नदेवसूरि
"
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
१०७. १५२०
वैशाख सुदि ५ गुरुवार
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ३५१
सुमतिनाथ की संभवनाथ देरासर, धातु-प्रतिमा का अमरेली लेख शीतलनाथ की वीरचैत्यान्तर्गत धातु की चौबीसी आदिनाथ चैत्य, प्रतिमा का लेख थराद नमिनाथ की नवखंडापार्श्वनाथ धातुप्रतिमा देरासर, घोघा का लेख श्रेयांसनाथ की बावन जिनालय, धातुप्रतिमा का लेख पेथापुर कुंथुनाथ की आदिनाथ जिना०, धातु की पंचतीर्थी जामनगर प्रतिमा का लेख कुंथुनाथ की आदिनाथ जिनालय, धातुप्रतिमा का लेख भायखला, मुम्बई
१०८. १५२२
माघ सुदि १३ बुधवार माघ वदि १० गुरुवार
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-भाग-१, लेखाङ्क ६९१ विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ३६९
१०९. १५२३
गुणदेवसूरि के पट्टधर चन्द्रप्रभसूरि धर्मसागरसूरि
११०. १५२३
वैशाख सुदि ९
कान्तिसागर, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १९२
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
१११. १५२४
वैशाख वदि २ सोमवार
११२. १५२४
"
उदयदेवसूरि के पट्टधर रत्नदेवसूरि गुणरत्नसूरि के पट्टधर गुणसागरसूरि उदयदेवसरि के पट्टधर रत्नदेवसूरि
__ पार्श्वनाथ की
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, धातु की चौबीसी
लेखाङ्क ३८२ प्रतिमा का लेख अभिनन्दन नाथ नवखंडापार्श्वनाथदेरासर, वही, लेखाङ्क ३८३ की धातु-पंचतीर्थी घोघा प्रतिमा का लेख श्रेयांसनाथ की वीर चैत्यार्तगत लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क धातुप्रतिमा आदीश्वरचैत्य, थराद १४५ का लेख धर्मनाथ की संभवनाथ देरासर, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-भाग१, धातुप्रतिमा का कड़ी
लेखाङ्क ७३३
११३. १५२४
वैशाख सुदि ३ सोमवार
११४. १५२४
तिथिविहीन
लेख
पिप्पलगच्छ का इतिहास
११५. १५२५
"
पौष वदि २ मंगलवार
जैन देरासर, वढवाण
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ३८९
आदिनाथ की धातुप्रतिमा का लेख नमिनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
११६. १५२५
माघ सुदि २ गुरुवार
गुणरत्नसूरि के पट्टधर गुणसागरसूरि
चन्द्रप्रभ जिना० सुल्तानपुरा, बड़ोदरा
बुद्धिसागर,पूर्वोक्त-भाग-२, लेखाङ्क २००
: ८९
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
२
११७. १५२५
११८. १५२६
११९.
१५२७
१२०. १५२७
१२१. १५२७
१२२. १५२७
३
फाल्गुन सुदि ९
शुक्रवार
"7
कार्तिक सुदि १३ अमरचन्द्रसूरि
मंगलवार
पौष वदि ४
गुरुवार
पौष वदि ५ गुरुवार
४
माघ सुदि १३ रविवार
गुणरत्नसूरि
विजयदेवसूरि के शिष्य
शालिभद्रसूरि
उदयदेवसूरि
के पट्टधर रत्नदेवसूरि
नमिनाथ की
धातु की पंचतीर्थी
प्रतिमा का लेख
धर्मनाथ की
प्रतिमा का लेख
""
सुमतिनाथ की
प्रतिमा का लेख
कुन्थुनाथ की
धातु- प्रतिमा
का लेख
धर्मनाथ की
धातुप्रतिमा का लेख
६
चिन्तामणि पार्श्वनाथ
जिना०, भरुच
चन्द्रप्रभ जिना०, जैसलमेर
शीतलनाथ जिना०,
जैसलमेर
वीर चैत्यान्तर्गत
आदिनाथ चैत्य,
थराद
संभवनाथ देरासर,
झवेरीवाड़, अहमदाबाद
दादापार्श्वनाथ जिना ०
नरसिंहजीनी पोल,
बडोदरा
७
वही, भाग- २, लेखाङ्क ५५९
नाहटा, पूर्वोक-लेखाङ्क
२७६५
नाहर, पूर्वोक्त, भाग-३, लेखाङ्क २३९३
लोढ़ा, पूर्वोक्त लेखाङ्ग १३४
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त- भाग - १, लेखाङ्क ८३१
वही, भाग- २, लेखाङ्क १२१
९०
श्रमण / जनवरी-मार्च / १९९७
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ४१६
वही, लेखाङ्क ४१५
१२३४ १२३. १५२८ वैशाख वदि.... गुणरत्नसूरि
सोमवार के पट्टधर ।
गुणसागरसूरि १२४. १५२८ वैशाख सुदि ३ विजयदेवसूरि
शनिवार के पट्टधर ।
शलिभद्रसूरि १२५. १५२८ वैशाख सुदि १२ गुणरत्नसूरि
सोमवार के पट्टधर
गुणसागरसूरि १२६. १५२८ माघ वदि ६ उदयदेवसूरि
शुक्रवार के पट्टधर
रत्नदेवसूरि १२७. १५२९ आषाढ़ सुदि ५ गुणसागरसूरि
गुरुवार
चन्द्रप्रभ की · धातु की चौबीसी प्रतिमा का लेख कुंथुनाथ की वर्धमानशाह का धातुप्रतिमा का शांतिनाथ देरासर, लेख
जामनगर सुविधिनाथ की शांतिनाथ जिना०, धातु की पंचतीर्थी माणिक चौक, खंभात प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की चन्द्रप्रभ जिनालय, प्रतिमा का लेख जैसलमेर
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२, लेखाङ्क ९८७।
नाहर, पूर्वोक्त, भाग ३, लेखाङ्क २३५०
पिप्पलगच्छ का इतिहास
आबू,भाग-५,लेखाङ्क४९३
शीतलनाथ की शांतिनाथ जिना०, धातु की पंचतीर्थी दीयाणा प्रतिमा का लेख कुंथुनाथ की स्तंभन पार्श्वनाथ धातु प्रतिमा जिना०, खारवाडो का लेख खंभात
१२८. १५२९
माघ सुदि ५ रविवार
अमरचन्द्रसूरि के उपदेश से सर्वदेवसूरि
बुद्धिसागर,पूर्वोक्त,भाग-२, लेखाङ्क १०५१
: ९१ .
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
४
९२ :
१२९. १५३०
विजयदेवसूरि
वैशाख वदि ५ बुधवार
शांतिनाथ जिना०, भानीपोल, राधनपुर
विशालविजय, पूर्वोक्त, लेखाङ्क २३०
नमिनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख
१३०. १५३०
लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ९०
वीरचैत्यान्तर्गत आदिनाथचैत्य,
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
थराद
१३१. १५३०
विमलनाथ की प्रतिमा का लेख
नाहर, पूर्वोक्त - भाग-२, लेखाङ्क १२२२
कार्तिक सुदि १२ मुनिसिंहसूरि सोमवार के पट्टधर
अमचन्द्रसूरि पौष वदि ६ गुणदेवसरि रविवार के पट्टधर
चन्द्रप्रभसूरि वैशाख सुदि १३ शालिभद्रसूरि सोमवार वैशाख वदि ८ शालिभद्रसूरि सोमवार
१३२. १५३१
पार्श्वनाथ जिना०, श्रीमालों का मुहल्ला, जयपुर गौड़ीपार्श्वनाथ जिनालय पालिनाना शांतिनाथ देरासर, ऊँझा
शत्रुञ्जयवैभव, लेखाङ्क
२०८
संभवनाथ की प्रतिमा का लेख संभवनाथ की धातु-प्रतिमा का लेख विमलनाथ की धातु, प्रतिमा का लेख
१३३. १५३१
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-भाग-१, लेखाङ्क २३८
१३४. १५३१
माघ सुदि १० सोमवार
धर्मसागरसूरि
शांतिनाथ जिना०, चौकसीपोल, खंभात
वही,भाग-२,लेखाङ्क ८४६
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३५.
१३६.
२
१५३२
१५३४
१३७. १५३४
१३८. १५३५
१३९. १५३६
१४०. १५३६
३
चैत्र सुदि ४
शुक्रवार
माघ सुदि १३ शुक्रवार
फाल्गुन सुदि ९
बुधवार
ज्येष्ठ वदि १ शनिवार
४
माघ सुदि ५ रविवार
चन्द्रप्रभसूरि
शालि (भद्र) सूरि
धर्मसुन्दरसूरि
के पट्टधर धर्मसागरसूरि
मार्गशिर सुदि ६ मुनिसिंधु (सिंह)
शुक्रवार
सूरि के पट्टधर
अमरचन्द्रसूरि
सोमचन्द्रसूरि
के पट्टधर उदयदेवसूरि
५
शीतलनाथ की धातु की चौबीसी
प्रतिमा का लेख
नमिनाथ की धातु प्रतिमा का लेख
वासुपूज्य की धातु की पंचतीर्थी
प्रतिमा का लेख
विमलनाथ की
- प्रतिमा
धातु-प्र का लेख
शांतिनाथ की धातु प्रतिमा
का लेख
आदिनाथ की
धातु
की
पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
जैन देरासर, घोघा
शांतिनाथ देरा०,
भिंडीबाजार, मुम्बई
शामलापार्श्वनाथ
जिना०, बंबा वाली
शेरी, राधनपुर
संभवनाथ देरासर,
झवेरीवाड़,
अहमदाबाद
सुमतिनाथ जिना०,
अजीमगंज,
मुर्शिदाबाद
शांतिनाथ जिना०
खजूरी शेरी,
राधनपुर
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ४४३
कान्तिसागर, पूर्वोक्त, लेखाङ्क २३०
मुनि विशालविजय- पूर्वोक्तलेखाङ्क २८६
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्तभाग - १, लेखाङ्क ८३६
नाहर, पूर्वोक्त, भाग - १, लेखाङ्क ६
मुनि विशालविजय, पूर्वोक्त, लेखाङ्क २९७
पिप्पलगच्छ का इतिहास
:
९३
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ २ १४१. १५३६
३ वैशाख वदि ३ गुरुवार
४ शालिप्रभसूरि
९४ :
जैन मंदिर, डभोई
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१, लेखाङ्क ३०
१४२. १५३७
अमरचन्द्रसूरि
माघ सुदि २ सोमवार
वीर जिनालय, सांगानेर
विनयसागर, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ८१३
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
१४३. १५४२
पद्माणंदसूरि
कार्तिकवदि २ बुधवार
५ आदिनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख नमिनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख संभवनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख धर्मनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख तीर्थंकर की धात् प्रतिमा का लेख
संभवनाथ देरासर, झवेरीवाड़,
बुद्धिसागर,पूर्वोक्त-भाग-१, लेखाङ्क ८५६
१४४. १५४५
पौष....५ पौष.५
"
शत्रुञ्जयवैभव, लेखाङ्क २३४ ब विशालविजय, पूर्वोक्त - लेखाङ्क ३०५
१४५. १५४६
मार्गशिर सुदि ६ गुणसागरसूरि शुक्रवार
बालावसही, शत्रुजय । नेमिनाथ जिना०, गेलासेठ की शेरी, राधनपुर अजितनाथ जिना० शेखनो पाडो, अहमदाबाद
१४६. १५४७
माघ सुदि १२
श्रीसूरि
बुद्धिसागर,पूर्वोक्त-भाग-१, लेखाङ्क १००६
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४७. १५४८
वैशाख वदि १० रत्नदेवसूरि के
के पट्टधर पद्माणंदसूरि
चन्द्रप्रभ जिना० रवंभात
मुनि बुद्धिसागर - पूर्वोक्त, भाग-२, लेखाङ्क ८९५
रविवार
१४८. १५४८
वीरचैत्यार्तगत लोढ़ा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क आदिनाथ चैत्य, थराद १३१ । आदिनाथ जिना०, बुद्धिसागर,पूर्वोक्त-भाग-२, परा, खेड़ा __ लेखाङ्क ४१३
१४९. १५५२
ज्येष्ठ सुदि १३ बुधवार
देवप्रभसूरि
मुनिसुव्रत की धातु की प्रतिमा का लेख शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख आदिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख नमिनाथ की धातु की चौबीसी प्रतिमा का लेख शीतलनाथ की धातुप्रतिमा का लेख
१५०. १५५३
लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ६८
वैशाख सुदि १३ पद्माणंदसूरि सोमवार माघ सुदि १२ धर्मवल्लभसूरि शनिवार
१५१. १५५३
वीरचैत्यार्तगत आदिनाथ चैत्य, थराद अमीझरा पार्श्वनाथ देरासर, जीरारपाडो, खंभात । सीमंधरस्वामी जिना०, खारवोडा, खंभात
बुद्धिसागर,पूर्वोक्त-भाग-२, लेखाङ्क ७७५
पिप्पलगच्छ का इतिहास
१५२. १५५३
वही, भाग - २, लेखाङ्क १०६५
: ९५
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
९६ :
१५३. १५५४
४ वैशाख सुदि १२ वीरप्रभसूरि रविवार
आचार्य की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
वीर जिनालय, अजारी
आबू,भाग-५,लेखाङ्क४३२
१५४. १५५४
फाल्गुन सुदि २ शुक्रवार
गुणसागरसूरि के पट्टधर शांतिप्रभसूरि
शंखेश्वरपार्श्वनाथ- देरासर, भरुच
मुनि बुद्धिसागर-पूर्वोक्त-भाग २, लेखाङ्क ३४०
शीतलनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
१५५. १५५५
चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिना०, राधनपुर
मुनि विशालविजय,पूर्वोक्त, लेखाङ्क ३१८
कार्तिक वदि २ रत्नसागरसूरि बुधवार के पट्टधर
देवचन्द्रसूरि वैशाख सुदि ११ सर्वसूरि शुक्रवार
१५६. १५५६
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२, लेखाङ्क ८५८
सुविधिनाथ
___मुनिसुव्रत जिना०, की धातुप्रतिमा अलिंग, खंभात का लेख शीतलनाथ की वीर जिनालय, धातुप्रतिमा का रीचीरोड,
अहमदाबाद
१५७. १५५७
वही,भाग-१,लेखाङ्क ९२०
फाल्गुन सुदि २ पद्माणंदसूरि शुक्रवार
लेख
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३
६
१५८. १५६३
माघ सुदि १५
देवप्रभसूरि
१५९. १५६६
पौष वदि ५ सोमवार
पद्माणंदसूरि के पट्टधर विनयसागरसूरि गुणप्रभसूरि
१६०. १५६६
तिथिविहीन
२५२३
१६१. १५७३
फाल्गुन सुदि ८ विनयसागरसूरि सोमवार
सुमतिनाथ की चिन्तामणि पार्श्वनाथ ___नाहटा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क धातु की प्रतिमा जिना०, बीकानेर ११३ का लेख कुंथुनाथ की आदिनाथ जिना०, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-भाग१, धातु की चौबीसी बिजापुर
लेखाङ्क ४४४ प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ की पार्श्वनाथ जिना०, नाहटा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क प्रतिमा का लेख सूरतगढ़, बीकानेर वासुपूज्य की पार्श्वनाथदेरासर, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-भाग१, धातु की प्रतिमा देवसानोपाडो, लेखाङ्क १०५४
अहमदाबाद आदिनाथ की चिन्तामणिपार्श्वनाथ- वही, भाग१,लेखाङ्क ४३० । धातु की प्रतिमा देरासर, बिजापुर का लेख अजितनाथ की धर्मनाथ जिना०, विशालविजय, पूर्वोक्तधातु की प्रतिमा राधनपुर
लेखाङ्क ३३७ का लेख
का लेख
१६२. १५७६
"
वैशाख सुदि ६ सोमवार
पिप्पलगच्छ का इतिहास
१६३. १५७९
वैशाख सुदि ५ सोमवार
धर्मवल्लभसूरि के पट्टधर धर्मविमलसूरि
: ९७
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ २ १६४. १५७९
३ वैशाख सुदि ५ सोमवार
४ श्रीसूरि
९८ :
पार्श्वनाथ देरासर, लाडोल
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त - भाग १, लेखाङ्क ४५२
१६५. १५८०
धर्मविमलसूरि
वैशाख सुदि ५ शुक्रवार
५ श्रेयोसनाथ की धातु की प्रतिमा
का लेख ___चन्द्रप्रभ की धातु
की प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
गौड़ीपार्श्वनाथ जिना०, मुनिकान्तिसागर, पूर्वोक्त - पायधुनी, मुम्बई लेखाङ्क २९८
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
१६६. १५९५
देवप्रभसूरि
माघ सुदि १३ शनिवार
वीर जिनालय, नांदिया
आबू, भाग-५, लेखाङ्क ४६५
१६७. १६१७
पौष सुदि १३ सोमवार
उदयरत्नसूरि
शांतिनाथदेरासर, कनासानो पाडो,
बुद्धिसागर,पूर्वोक्त-भाग २, लेखाङ्क २९७
खंभात
१६८. १६४६
मार्गशिर सुदि... शुक्रवार
शीतलनाथ की की चौबीसी प्रतिमा का लेख
शीतलनाथ जिना० जैसलमेर
नाहर, पूर्वोक्त-भाग ३, लेखाङ्क २४३१
गुणसागरसूरि के पट्टधर शांतिसूरि धर्मप्रभसूरि
१६९. १७७८
प्रेमचन्दमोदी की टोंक, शत्रुजय
वही,भाग १,लेखाङ्क ६९५
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
पिप्पलगच्छ का इतिहास
: ९९
धर्मशेखरसूरि [वि०सं० १४८४-१५०६] प्रतिमालेख विजयदेवसूरि [वि०सं० १५०३-१५३०] प्रतिमालेख
शालिभद्रसूरि [वि० सं० १५१५-१५३४] प्रतिमालेख
शांतिसूरि गुणरत्नसूरि [वि०सं० १५०७-१५१७] प्रतिमालेख गुणसागरसूरि [वि०सं० १५१७-१५४६] प्रतिमालेख शांतिप्रभसूरि [वि०सं० १५५४] प्रतिमालेख
मुनिसिंहसूरि अमरचन्द्रसूरि [वि०सं० १५१९-१५३६] प्रतिमालेख सर्वदेवसूरि वि०सं० १५२९] प्रतिमालेख
घोघा स्थित नवखंडा पार्श्वनाथ जिनालय के निकट भूमिगृह से प्राप्त २४० धातु प्रतिमाओं में से ६ प्रतिमाओं पर पिप्पलगच्छीय मुनिजनों के नाम उत्कीर्ण हैं। १० इन प्रतिमाओं पर ई० सन् १३१५, १४४७, १४४९, १४५० और १४५७ के लेख खुदे हुए हैं। चूँकि ढांकी ने अपने उक्त निबन्ध में प्रतिमालेखों का मूल पाठ नहीं दिया है अत: इन लेखों में आये आचार्यों के नाम आदि के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती।
Page #103
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________________
१०० :
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
जैसा कि लेख के प्रारम्भ में कहा जा चुका है इस गच्छ की दो शाखाओं-त्रिभवीया और तालध्वजीया - का पता चलता है। प्रथम शाखा से सम्बद्ध पिप्पलगच्छगुरु-स्तुति और पिप्पलगच्छ गुर्वावली १ का पूर्व में उल्लेख आ चुका है। इसके अनुसार धर्मदेवसूरि ने गोहिलवाड़ (वर्तमान गुहिलवाड़, अमरेली, जिला भावनगर, सौराष्ट्र) के राजा सारंगदेव को उसके तीन भव बतलाये इससे उनकी शिष्यसन्तति त्रिभवीया कहलायी। यह सारंगदेव कोई स्थानीय राजा रहा होगा। पिप्पलगच्छीय प्रतिमालेखों की पूर्वप्रदर्शित लम्बी सूची में किन्हीं धर्मदेवसूरि द्वारा वि० सं० १३८३ में प्रतिष्ठापित एक जिन प्रतिमा का उल्लेख आ चुका है। चूंकि उक्त गुरुस्तुति में रचनाकार ने अपने गुरु धर्मप्रभसूरि को त्रिभवीयाशाखा के प्रवर्तक धर्मदेवसूरि से ५ पीढ़ी बाद का बतलाया है, साथ ही पिप्पलगच्छीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों की पूर्वप्रदर्शित तालिका में भी धर्मप्रभसूरि (वि०सं० १४७१-१४७६) का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख मिलता है। इसप्रकार अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लिखित धर्मदेवसूरि और धर्मप्रभसूरि के बीच लगभग १०० वर्षों का अन्तर है और इस अवधि में पाँच पट्टधर आचार्यों का पट्टपरिवर्तन असम्भव नहीं, अत: समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर वि० सं० १३८६/ई० सन् १३३० में प्रतिमाप्रतिष्ठापक पिप्लगच्छीय धर्मदेवसूरि और इस गच्छ के त्रिभवीया शाखा के प्रवर्तक धर्मदेवसूरि एक ही व्यक्ति माने जा सकते हैं। ठीक यही बात पिप्पलगच्छगुरुस्तुति के रचनाकार के गुरु धर्मप्रभसूरि और पिप्पलगच्छीय धर्मप्रभसूरि के बारे में भी कही जा सकती
४८ ऐसे भी प्रतिमालेख मिलते हैं जिनपर स्पष्ट रूप से पिप्पलगच्छ त्रिभवीयाशाखा का उल्लेख है। इनका विवरण निम्नानुसार है :
क्रमश:
Page #104
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________________
पिप्पलगच्छ (त्रिभवीयाशाखा) से सम्बद्ध अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण
क्रमांक सम्वत्
तिथि/मिति
सन्दर्भ ग्रन्थ
२ १४१३
१.
३ ज्येष्ठ वदि २ शुक्रवार
आचार्य या मुनि लेख का स्वरूप प्रतिष्ठास्थान का नाम मूर्तिलेख/शिलालेख
४ धर्मसंवरसूरि सुमतिनाथ की शांतिनाथ देरासर, के पट्टधर । धातुप्रतिमा पर लिबडीपाड़ा, धर्मसागरसूरि उत्कीर्ण लेख धर्मप्रभसूरि विमलनाथ की वीरचैत्यान्तर्गत
प्रतिमा का लेख आदिनाथ चैत्य,
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त - भाग-२, लेखाङ्क २८८
पाटण
२.
१४७१
माघ सुदि ३
लोढ़ा,पूर्वोक्त-लेखाङ्क १५२
थराद
३.
१४७६
तिथिविहीन
चन्द्रप्रभ जिनालय, केकडी
विनयसागर, पूर्वोक्त - लेखाङ्क २१७
शांतिनाथ की धातु की चौबीसी प्रतिमा का लेख अजितनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख
पिप्पलगच्छ का इतिहास
४.
१४८२
वैशाख वदि ४ बुधवार
वीरचैत्यान्तगत आदिनाथ चैत्य,
लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ६०
धर्मप्रभसूरि के पट्टधर धर्मशेखरसूरि
थराद
: १०१
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२ :
५.
१४८४
वैशाख सुदि ८ शुक्रवार
धर्मप्रभसूरि के पट्टधर धर्मशेखरसूरि
मुनि विशालविजय-पूर्वोक्त, लेखाङ्क १०९
"
लोढ़ा,पूर्वोक्त-लेखाङ्क२३०
माघ सुदि १० शनिवार माघ सुदि १० शनिवार
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
७.
१४८७
वही, लेखाङ्क ३१६
धर्मशेखरसूरि के पट्टधर । देवचन्द्रसूरि धर्मशेखरसूरि
शांतिनाथ की शामलापार्श्वनाथ धातु की पंच- जिनालय, तीर्थी प्रतिमा बंबावालीशेरी, का लेख राधनपुर
विमलनाथ चैत्य,
देसाई शेरी, थराद देवकुलिका के जीरावलातीर्थ, के स्तम्भ पर चैत्यदेवकुलिका, उत्कीर्ण लेख थराद विमलनाथ की वीरचैत्यान्तर्गत धातु की चौबीसी आदिनाथ चैत्य, प्रतिमा पर उत्कीर्ण थराद लेख शांतिनाथ की आदिनाथ जिना०, धातु-प्रतिमा का जामनगर लेख
८.
१४८८
ज्येष्ठ सुदि ३ सोमवार
वही, लेखाङ्क ५८
९.
१४८९
"
ज्येष्ठ सुदि १२ शनिवार
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त - लेखाङ्क १४६
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३
१०.
१४९४
श्रावण वदि ९ शनिवार
धर्मशेखरसूरि
लोढ़ा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क १९६
शांतिनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख आदिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख
वीरचैत्यान्तर्गत आदिनाथचैत्य, थराद जैन देरासर, कनासानो पाडो,
११.
१४९७
"
वैशाख वदि ५ बुधवार
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त - लेखाङ्क १७२
पाटण
१२.
१४९९
कार्तिक सुदि १५ गुरुवार
लोढ़ा, पूर्वोक्त,लेखाङ्क ५०
१३. १४९९ १४. १४९९ १५. १४९९ १६. १४९९
वही, लेखाङ्क ७८ वही, लेखाङ्क १३२ वही, लेखाङ्क १९० वही, लेखाङ्क २३८
पिप्पलगच्छ का इतिहास
विमलानाथ चैत्य, देसाई शेरी, थराद वासुपूज्य देरासर, जामनगर
१७.
१५०१
शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख वासुपूज्य की धातु की प्रतिमा का लेख
वैशाख सुदि १३ धर्मसुन्दरसूरि शनिवार
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त -- लेखाङ्क १८५
: १०३
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ धर्मशेखरसूरि
१०४ :
१८.
१५०३
माघ वदि ३
आदिनाथ देरासर, जामनगर
वही, लेखाङ्क १९४
१९.
१५०३
शांतिनाथ देरासर,
वही, लेखाङ्क १९५
माघ वदि ३ शुक्रवार
जामनगर
.५ विमलनाथ की धातु की पंच- तीर्थी प्रतिमा . का लेख सुमतिनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख कुन्थुनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख श्रेयांसनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
२०.
१५०५
वही, लेखाङ्क २१०
वैशाख सुदि ३ शुक्रवार
जैनदेरासर, कोलीयाक (कठियावाड़)
२१.
१५०६
"
लोढा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ४३
वैशाख सुदि ८ रविवार
वीरचैत्यान्तर्गतआदिनाथ चैत्य, थराद
"
२२. १५०६
"
वही, लेखाङ्क ४६
"
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
१
२
३
४
२३.
१५०६
वैशाख सुदि ८ रविवार
धर्मशेखरसूरि
वही, लेखाङ्क २२८
२४.
१५०६
माघ सुदि ५ शुक्रवार
मुनि विशालविजय, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १४९
२५.
१५०६
वैशाख सुदि ११ चन्द्रप्रभसूरि सोमवार
चन्द्रप्रभ स्वामी विमलनाथ चैत्य, की धातु की देसाई शेरी, थराद चौबीसी प्रतिमा का लेख सुविधिनाथ की चिन्तामणिपार्श्वनाथ धात की पंचतीर्थी जिनालय, प्रतिमा का लेख चिन्तामणिशेरी,
राधनपुर वासुपूज्य की विमलनाथचैत्य, धातुप्रतिमा पर देसाईशेरी, थराद उत्कीर्ण लेख धर्मनाथ की धातु धर्मनाथ जिनालय, की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की वीरचैत्यान्तर्गत धातु की प्रतिमा आदिनाथ चैत्य का लेख
लोढ़ा,पूर्वोक्त-लेखाङ्क२४८
२६.
१५०९
चैत्र वदि....
धर्मशेखरसूरि
मुनि जयन्तविजय - पूर्वोक्त आबू-भाग-५, लेखाङ्क ८३
पिप्पलगच्छ का इतिहास
मडार
२७.
१५१०
कार्तिक वदि ४ रविवार
क्षेमशेखरसूरि
लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ८१
थराद
: १०५
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
२
३
१ २८.
४ । धर्मशेखरसूरि
१०६ :
१५१०
लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ४२
माघ सुदि ५ रविवार
वीरचैत्यान्तर्गत आदिनाथ चैत्य, थराद
२९.
धर्मसागरसूरि
वही, लेखाङ्क ५९
१५१० पौष वदि ६ (१५१७?) गुरुवार
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
३०.
१५११
वही, लेखाङ्क ८६
माघ सुदि ५ गुरुवार
शांतिनाथ की धातु की पंच- तीर्थी प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की धातु की चौबीसी प्रतिमा का लेख धर्मनाथ की धातुप्रतिमा का लेख वासुपूज्य की धातुप्रतिमा का लेख अभिनन्दनस्वामी की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
३१.
१५१३
धर्मशेखरसूरि के पट्टधर धर्मसुन्दरसूरि धर्मसुन्दरसूरि के पट्टधर धर्मसागरसूरि
"
चैत्र वदि ६ शुक्रवार
पार्श्वनाथदेरासर, अहमदाबाद
मुनि बुद्धिसागर - पूर्वोक्त भाग १, लेखाङ्क ९१६
३२.
१५१५
वैशाख सुदि १३ रविवार
वीर जिनालय, वैदों का चौक, बीकानेर
नाहटा, पूर्वोक्त लेखाङ्क १२०८
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
१
३३.
३४.
३५.
३६.
३७.
२
१५१५
१५१६
१५१७
१५१७
१५२०
३
माघ सुदि ६
बुधवार
चैत्र वदि ५
गुरुवार
पौष वदि ५
गुरुवार
पौष वदि ७ गुरुवार ( ? )
वैशाख सुदि ९
४
धर्मसागरसूरि
"
""
वासुपूज्य की धातु प्रतिमा
का लेख
विमलनाथ की धातु प्रतिमा
का लेख
आदिनाथ की धातु की पंच
तीर्थी प्रतिमा का लेख
शांतिनाथ की
धातु की प्रतिमा
का लेख
श्रेयांसनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख
६
शांतिनाथ जिना०,
शांतिनाथपोल,
अहमदाबाद
चिन्तामणि जिना ०,
बीकानेर
जैनमंदिर, साहूकार पेठ, मद्रास
वीरचैत्यार्न्तगत आदिनाथ चैत्य
थराद
शांतिनाथ जिनालय,
राधेजा
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त- भाग - १, लेखाङ्क १२९१
नाहटा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क९९४
नाहर, पूर्वोक्त- भाग २, लेखाङ्क २०७३
लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क १००
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त- भाग १, लेखाङ्क ७१६
पिप्पलगच्छ का इतिहास
: १०७
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८ :
३८.
१५२०
धर्मसूरि
चैत्र वदि ५ बुधवार
कुन्थुनाथ की धातुप्रतिमा का लेख
लोढ़ा, पूर्वोक्त - लेखाङ्क १४३
"
३९.
१५२४
धर्मसागरसूरि
वीर चैत्यार्तगत आदिनाथ चैत्य, थराद लालचंदजी का मंदिर, रतलाम वीर जिनालय, सांगानेर
वैशाख सुदि ३ सोमवार माघ..... माघ.....
विनयसागर, पूर्वोक्त-लेखाङ्क
६४०
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
४०.
१५२५
"
वही, लेखाङ्क ६७७
४१.
१५२८
वैशाख सुदि ३ शनिवार
"
विमलनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की धातु प्रतिमा का लेख विमलनाथ की धातु-प्रतिमा का लेख
वासुपूज्य जिना०, थराद
लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क १२
४२.
१५२८
"
कार्तिक सदि ३ शनिवार
वासुपूज्य जिनालय,
लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ५
४३.
१५३०
पौष वदि ६ रविवार
श्रीमालों का मन्दिर,
गुणदेवसूरि के पट्टधर चन्द्रप्रभसूरि
विनयसागर, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ७२३
जयपुर
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४.
१५३०
धर्मसागरसूरि
माघ वदि ६ बुधवार
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त-भाग१, लेखाङ्क ८०४
संभवनाथ देरासर, झवेरीवाड़, अहमदाबाद शांतिनाथ देरासर, छाणी, बडोदरा
४५.
१५३५
"
आषाढ़ सुदि ५ गुरुवार
वही, भाग २, लेखाङ्क २६८
शांतिनाथ की धातु की चौबीसी प्रतिमा का लेख धर्मनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख आदिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख नमिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख
४६.
१५३७
"
वैशाख सदि ३ सोमवार
नया जैन मंदिर, नासिक
मुनि कांतिसागर, पूर्वोक्तलेखाङ्क २३९
४७.
१५६१
माघ वदि ५ शुक्रवार
धर्मसागरसूरि के पट्टधर धर्मप्रभसूरि
वीरचैत्यार्तगत आदिनाथ चैत्य,
लोढ़ा, पूर्वोक्त-लेखाङ्क ८९
पिप्पलगच्छ का इतिहास
: १०९
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
११०:
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
उक्त अभिलेखिय साक्ष्यों के आधार पर पिप्पलगच्छ की त्रिभवीयाशाखा के मुनिजनों की गुरु-परम्परा का जो क्रम निश्चित होता है, वह इस प्रकार है :
धर्मप्रभसूरि [वि०सं० १४७१ - १४७६] प्रतिमालेख धर्मशेखरसूरि [वि०सं० १४८४-१५०५] प्रतिमालेख
देवचन्द्रसूरि (वि०सं०१४८७)
प्रतिमालेख
धर्मसुन्दरसूरि धर्मसूरि (वि०सं०१५११)
प्रतिमालेख
धर्मसूरि (वि०सं०१५२०)
प्रतिमालेख
धर्मसागरसूरि [वि०सं० १४८४ - १५३५] प्रतिमालेख धर्मप्रभसूरि [वि०सं०१५६१] प्रतिमालेख
पिप्पलगच्छीय अभिलेखीय साक्ष्यों की पूर्व प्रदर्शित सूची में किन्हीं धर्मशेखरसूरि (वि०सं० १४८४-१५०५) का नाम आ चुका है जिन्हें समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर त्रिभवीयाशाखा के धर्मशेखरसूरि से अभिन्न माना जा सकता हैयही बात उक्त सूची में ही उल्लिखित धर्मशेखरसूरि के शिष्य विजयसेनसूरि और प्रशिष्य शालिभद्रसूरि के बारे में भी कहीं जा सकती है। इस प्रकार त्रिभवीयाशाखा के मुनिजनों के गुरु-परम्परा की तालिका को जो नवीन स्वरूप प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है :
धर्मप्रभसूरि [वि०सं० १४७१ - १४७६] प्रतिमालेख धर्मशेखरसूरि [वि०सं० १४८२-१५१०] प्रतिमालेख
देवचन्द्रसूरि विजयदेवसूरि धर्मसुन्दरसूरि धर्मसूरि (वि०सं०१४८७) (वि०सं०१५०३-१५३०) (वि०सं०१५११) (वि०सं०१५२०) प्रतिमालेख प्रतिमालेख
प्रतिमालेख प्रतिमालेख
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
पिप्पलगच्छ का इतिहास
: १११
शालिभद्रसूरि
धर्मसागरसूरि (वि०सं०१५१६-१५२८) (वि०सं०१४८४-१५३५) प्रतिमालेख
प्रतिमालेख
धर्मप्रभसूरि (वि०सं०१५६१)
प्रतिमालेख पिप्पलगच्छीयगुरु-स्तुति द्वारा त्रिभवीयाशाखा के धर्मप्रभसूरि के पूर्ववर्ती आचार्यों के नाम से ज्ञात हो चुके हैं। पिप्पलगच्छगुर्वावली१३ से हमें धर्मसागरसूरि के एक अन्य शिष्य धर्मवल्लभसूरि का भी पता चलता है। इस प्रकार साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर पिप्पलगच्छ की त्रिभवीयाशाखा की गुरु-परम्परा की जो तालिका बनती है. वह इस प्रकार है :--
सर्वदेवसूरि [वडगच्छीय] नेमिचन्द्रसूरि [वडगच्छीय] शांतिसूरि (वि० सं०११८१/ई० सन् ११२५
में पिप्पलगच्छ के प्रवर्तक]
महेन्द्रसूरि विजयसूरि देवचन्द्रसूरि पद्मचन्दसूरि पूर्णचन्द्रसूरि जयदेवसूरि देवप्रभसूरि जिनेश्वरसूरि
देवभद्रसूरि धर्मघोषसूरि शीलभद्रसूरि परिपूर्णदेवसूरि विजयसेनसूरि धर्मदेवसूरि त्रिभवीयाशाखा के प्रवर्तक वि०सं० १३८६/ई०स० १३३०के
प्रतिमालेख में उल्लिखित] धर्मचन्द्रसूरि
Page #115
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________________
११२ :
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
धर्मरत्नसूरि
धर्मतिलकसूरि
धर्मसिंहसूरि
धर्मप्रभसूरि
[वि०सं०१४७१-१४७६] पिप्पलगच्छगुरु-स्तुति के रचययिता
धर्मप्रभसूरिशिष्य [वि० सं० १४८२-१५१०] प्रतिमालेख
देवचन्द्रसूरि विजयदेवसूरि धर्मसुन्दरसूरि धर्मसूरि (वि०सं० १४८७) (वि०सं० १५०३-१५३०) (वि०सं०१५११) (वि०सं०१५२०) प्रतिमालेख प्रतिमालेख
प्रतिमालेख प्रतिमालेख
शालिभद्रसूरि
धर्मसागरसूरि (वि.सं. १५१७-२८) (वि.सं. १४८५-१५३५) प्रतिमालेख
प्रतिमालेख
धर्मप्रभसूरि (वि०सं०१५६१)
धर्मवल्लभसूरि (पिप्पलगच्छगुर्वावली में उल्लिखित)
वि०सं० १५२८ और वि०सं० १५५९ के प्रतिमालेखों में पिप्पलगच्छ की तालध्वजीयाशाखा का उल्लेख मिलता है। सम्भवतः सौराष्ट्र में स्थित तळाजा नामक स्थान से यह शाखा अस्तित्त्व में आयी हो। इन प्रतिमालेखों का विवरण इस प्रकार है :
१.सं० १५२८ वर्षे वैशाष (ख) विदि (वदि) सोमे श्रीश्रीमालज्ञातीय सं० सामल भार्या वान्ह सुत सं० हासाकेन भार्या वीजू द्वितीय भार्या सहिजलदे सुत समधर कीका युतेन श्रीचन्द्रप्रभ - चतुर्विंशतिपट्ट (:) कारित: प्र० पिप्पलगच्छे तालध्वजीय श्रीगुणरत्नसूरिपट्टे पू० श्रीगुणसागरसूरिभिः घोघा वास्तव्य श्रीः ।
-विजयधर्मसूरि-सम्पा०प्राचीनलेखसंग्रह, लेखाङ्क ४१६
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
पिप्पलगच्छ का इतिहास
: ११३
२. सं० १५५९ फागुण सुदि ७ दिने श्रीश्रीमालज्ञातीय साहमणिकभा० अपूरवपू० । भाइआकेन स्वमातृपित्रोः श्रेयसे श्रीसंभवनाथबिंब कारितं तलाझीआ श्रीशांतिसूरिभिः प्रतिष्ठितं।।
मुनि बुद्धिसागरसूरि-सम्पा०जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग-२. लेखाङ्क ३०२
प्रथम लेख में गुणरत्नसूरि के पट्टधर गणसागरसूरि का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख है। पिप्पलगच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेखों के आधार पर पूर्वप्रदर्शित आचार्य परम्परा की छोटी-छोटी तालिकाओं में से एक में गुणरत्नसूरि के शिष्य गुणसागरसूरि का नाम आ चुका है।
शांतिसूरि
गुणरत्नसूरि [वि०सं० १५०७ - १५१७] प्रतिमालेख गुणसागरसूरि [वि० सं० १५१७-१५४६] प्रतिमालेख
अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लिखित पिप्पलगच्छीय गुणसागरसूरि (वि०सं०१५१७-१५४६/प्रतिमालेख) और तालध्वजीयाशाखा के गुणसागरसूरि (वि०सं०१५२८/प्रतिमालेख) को समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर एक ही व्यक्ति मानने में कोई बाधा नहीं दिखाई देती। ठीक इसी प्रकार तालध्वजीयाशाखा के शांतिसूरि (वि०सं०१५५९/प्रतिमालेख) और पिप्पलगच्छीय शांतिप्रभसूरि (वि० सं० १५५४/ प्रतिमालेख)१४ को एक ही व्यक्ति माना जा सकता है।
इसी प्रकार लेख के प्रारम्भ में साहित्यिक साक्ष्यों में उल्लिखित कालकसूरिभास (रचनाकाल वि०सं०१५१४/ई०सन् १४५७) और कल्पसूत्रआख्यान के रचनाकार पिप्पलगच्छीय आनन्दमेरु१५ के गुरु गुणरत्नसूरि भी समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर तालध्वजीयाशाखा के ही गुणसागरसूरि (वि० सं०१५१७-१५४६/ प्रतिमालेख) के गुरु गुणरत्नसूरि से अभिन्न माने जा सकते हैं। ठीक यही बात पार्श्वनाथपत्नीपद्मावतीहरण (रचनाकाल वि०सं०१५८४/ई०सन् १५२८) के रचनाकार पिप्पलगच्छीय नरशेखरसूरि१६ और उनके गुरु शांति (प्रभ) सूरि के बारे में भी कही जा सकती है। इस प्रकार साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर पिप्पलगच्छ की
तालध्वजीयाशाखा के मुनिजनों की गुरु-परम्परा की जो तालिका निर्मित होती है, वह ... निनानुसार है :
Page #117
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________________
११४:
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
शांतिसूरि
गुणरत्नसूरि
आनन्दमेरु [वि० सं०१५१३ में कालकसूरिभास तथा कल्पसूत्रआख्यान के रचनाकार]
गुणसागरसूरि [वि० सं०१५१७-१५४६]
प्रतिमालेख
शांतिप्रभसूरि [वि० सं० १५५४-१५५९]
प्रतिमालेख
नरशेखरसूरि [वि०सं०१५८४ में। पार्श्वनाथपत्नीपद्मावतीहरण
के रचनाकार पिप्पलगच्छ की तालध्वजीयाशाखा के प्रवर्तक कौन थे, यह गच्छ कब अस्तित्त्व में आया, इस बारे में कोई सूचना प्राप्त नहीं होती।
जहाँ तक पिप्पलगच्छगुरु-स्तुति में वडगच्छीय शांतिसूरि द्वारा विजयसिंहसूरि आदि ८ शिष्यों को पीपलवृक्ष के नीचे आचार्यपद देने और इस प्रकार पिप्पलगच्छ के अस्तित्त्व में आने के विवरण की प्रामाणिकता का प्रश्न है और यह सत्य है कि वडगच्छ में शांतिसूरि
और उनके शिष्य विजयसिंहसूरि हुए और उनके द्वारा क्रमश: रचित पृथ्वीचंद्रचरित१७ (रचनाकाल वि०सं०११६१/ई०सन् ११०५) और श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णी१८ (रचनाकाल वि०सं०११८३/ई०सन् ११२६) उपलब्ध है किन्तु इनकी प्रशस्ति में इन्हें कहीं भी पिप्पलगच्छीय नहीं कहा गया है। चूंकि किसी भी गच्छ की अवान्तर शाखायें अपने उत्पत्ति के एक-दो पीढ़ी बाद ही नामविशेष से प्रसिद्ध होती हैं अत: उक्त गुर्वावली के उपरकथित विवरण को प्रामाणिक माना जा सकता है।
जैसा कि पीछे कहा जा चुका है पिप्पलगच्छ से सम्बद्ध प्राचीनतम साक्ष्य वि०सं०१२९१ का है किन्तु वि० सं०१४६५ में एक प्रतिमालेख से ज्ञात होता है कि
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________________
पिप्पलगच्छ का इतिहास
: ११५
वि०सं० १२०८ में वीरस्वामी की एक प्रतिमा को इस गच्छ के विजयसिंहसरि ने डीडिला । नामक ग्राम में स्थापित की थी। यदि इस विवरण को सत्य मानें तो वि० सं० १२०८ में इस गच्छ का अस्तित्त्व भी मानना पड़ेगा और ऐसी स्थिति में श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णी के रचनाकार विजयसिंहसूरि और वि० सं०१२०८ में प्रतिमाप्रतिष्ठापक विजयसिंहसूरि एक ही व्यक्ति माने जा सकते हैं। इसप्रकार यह माना जा सकता है कि विक्रम सम्वत् की तेरहवीं शती के प्रारम्भिक दशक में बृहद्गच्छ की एक शाखा के रूप में यह अस्तित्त्व में आ चुकी थी और तेरहवी शताब्दी के उत्तरार्ध में पिप्पलगच्छ के रूप में इसका नामकरण हुआ होगा।
पिप्पलगच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में प्राप्त अभिलेखीय साक्ष्यों से यद्यपि इस गच्छ के अनेक मुनिजनों के नाम ज्ञात होते हैं किन्तु उनमें से कुछ को छोड़कर शेष मुनिजनों के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती; फिर भी इतना स्पष्ट है कि धर्मघोषगच्छ, पूर्णिमागच्छ, चैत्रगच्छ आदि की भाँति पिप्पलगच्छ भी १६वीं शती तक विशेष प्रभावशाली रहा। १७वीं-१८वीं शताब्दी से अमूर्तिपूजक स्थानकवासी सम्प्रदाय के उदय और उसके बढ़ते हुए प्रभाव के कारण खरतरगच्छ, तपागच्छ और अंचलगच्छ को छोड़कर शेष अन्य मूर्तिपूजक गच्छों का महत्त्व क्षीण होने लगा और इनके अनुयायी ऐसी परिस्थिति में उक्त तीनों प्रभावशाली मूर्तिपूजक गच्छों में या स्थानकवासी परम्परा में सम्मिलित हो गये होंगे। सन्दर्भ :१. श्रीमत्यर्बुदतुंगशैलशिखरच्छायाप्रतिष्ठास्पदे
धर्माणाभिधसन्निवेशविषयेन्यग्रोधवृक्षो बभौ । यत्शाखाशतसंख्यपत्रबहलच्छायास्वपायाहतं सौख्येनोषितसंघमुख्यशटकश्रेणीशतीपंचकम् ।।१।। लग्ने क्वापि समस्तकार्यजनके सप्तग्रहलोकेन ज्ञात्वा ज्ञानवशाद् गुरुं----------देवाभिधः । आचार्यान् रचयांचकार चतुरस्तस्मात् प्रवृद्धो बभौ वंद्रोऽयं वटगच्छनाम रुचिरो जीयाद् युगानां शतीम् ।।२।। बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि द्वारा रचित उपदेशमालाप्रकरणवृत्ति (रचनाकाल वि०सं०१२३८/ई० सन् ११८२) की प्रशस्ति Muni Punya Vijaya-Catalogue of Palm-Leaf Mss in the Shanti Natha Jain Bhandar, Cambay g.o.s. No. 149, Barada - 1966 A.D., p.p. 284-286. उक्त प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने बृहद्गच्छ के उत्पत्ति की तो चर्चा की है, परन्तु उक्त घटना की तिथि के सम्बन्ध में वे मौन हैं। मध्यकाल में रची गयी विभिन्न पट्टावलियों यथा
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११६ :
2.
3.
४.
५.
६.
७.
८.
श्रमण / जनवरी-मार्च / १९९७
तपागच्छीय मुनिसुंदरसूरि द्वारा रचित गुर्वावली (रचनाकाल वि०सं० १४६६ / ई० सन् १४०९), तपागच्छीय आचार्य हीरविजयसूरि के शिष्य धर्मसागरसूरि द्वारा रचित तपागच्छपट्टावली (रचनाकाल वि०सं०१६४८ / ई० सन् १५९२), बृहद्गच्छीय मुनिमाल द्वारा रचित बृहत्च्छगुर्वावली (रचनाकाल वि० सं० १७५१ / ई० सन् १६९५) आदि में यह घटना वि०सं०९९४ में हुई बतलायी गयी है किन्तु पश्चात्कालीन होने से उल्लिखित उक्त मत की प्रामाणिकता संदिग्ध मानी जा सकती है। इस सम्बन्ध में विस्तार के लिये द्रष्टव्य "बृहद्गच्छ का संक्षिप्त इतिहास" पं० दलसुख भाई मालवणिया अभिनन्दन ग्रन्थ वाराणसी, १९९२ई०, पृष्ठ १०५-११७/
९.
P. Peterson - Operation in Search of Sanskrit MSS, Vol. V. Bombay. 1896 A.D.. pp. 125-126.
पुहवीचंदचरिय (पृथ्वीचंद्रचरित्र), सम्पा०-मुनि रमणीकविजय, प्राकृत ग्रन्थ परिषद, ग्रन्थांक १६, अहमदाबाद-वाराणसी १९७२ ई० सन्, इसी ग्रन्थ की प्रस्तावना में भी उक्त गुरु- स्तुति प्रकाशित है जिसका आधार प्रो० पीटर्सन का उक्त ग्रन्थ ही है ।
A. P. Shah - Catalogue of Sanskrit and Prakrit MSS : Muni Shree Punya Vijayajis Callection, L.D. Series No. 5. Ahmedabad, 1965 A. D.. No. 5479. p. 349.
मोहनलाल दलीचंद देसाई - जैनगूर्जरकविओ, भाग-१, नवीन संस्करण, सम्पा० डॉ० ० जयन्त कोठारी, अहमदाबाद, १९८६ ई०, पृष्ठ-५२
वही
वही, भाग-१, पृष्ठ १०५
वही ।
वही, भाग-१, पृष्ठ ३९७
“पिप्पलगच्छगुर्वावली” सम्पा० भंवरलाल नाहटा, आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रन्थ, बम्बई १९५६ ई०, हिन्दी खण्ड, पृष्ठ १३- २२
१०. पूर्वं डीडिलाग्राम मूलनायक : श्री महावीरतः संवत् १२०८ वर्षे पिप्पलगच्छीय श्रीविजयसिंहसूरिभिः प्रतिष्ठितरः पश्चात् वीरपल्या प्रा० साह सहदेवकारिते प्रसादे पिप्पलाचार्य श्रीवीरप्रभसूरिभि: स्थापितः । संवत् १४६५ वर्षे । प्रतिष्ठा स्थान - जैन मंदिर कोटरा, सिरोही, पूरनचन्द नाहर जैनलेखसंग्रह, भाग-१, कलकत्ता, १९१८ ई०, लेखाङ्क ९६६ ।
१० अ. मधुसूदन ढांकी अने हरिशंकर प्रभाशंकर शास्त्री — “घोघानो जैन प्रतिमानिधि " श्री फार्बस गुजराती सभा, जनवरी-मार्च १९६५ ई०, पृष्ठ १९-२२ ।
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पिप्पलगच्छ का इतिहास
: ११७
११. धनु धनु धर्मदेवसुरि, सारंग रा प्रतिबोधिउ ।
उगमतई नितु सूरि, सुहगुरु नितु नितु प्रणमीए ।।१०।। त्रिनि भव सारंग राय, देवाएसिहिं गुरि कहीय । धूधल जग विक्खाय, पडिबोही त्रिनि भव कहीया ।।११।।
पिप्पलगच्छगुर्वावलि-गुरहमाल, द्रष्टव्य, संदर्भ क्रमांक ९ ११अ.द्रष्टव्य-पिप्पलगच्छीय मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों
की सूची - लेख क्रमांक ६ १२. वही, लेखक्रमांक ६२, ६६, ६८, ७९ १३. द्रष्टव्य, संदर्भ क्रमांक ९ १४. द्रष्टव्य, लेख क्रमांक १५६ १५. द्रष्टव्य, संदर्भ क्रमांक ६-७ १६. संदर्भ क्रमांक ८ १७. पृथ्वीचंद्रचरित - संप० मुनि रमणीकविजय, प्राकृत ग्रन्न परिषद्, ग्रन्थांक १६,
अहमदाबाद-वाराणसी १९७२ ई०सन् । १८. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णी की प्रशस्ति
C.D. Dalal and L.B.Gandhi - Descriptive Catalogue of MSS in the Jaina Bhandars at Pattan.g.0.S. No. 76, Baroda - 1937 A.D. pp. 389-90.
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श्रमण
जैन जगत् आगम, अहिंसा, समता एवं प्राकृत संस्थान
उदयपुर के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रकाशन आचार्य श्री नानालाल जी म० सा० की प्रेरणा से स्थापित आगम, अहिंसा, समता और प्राकृत संस्थान, उदयपुर में अल्पसमय में ही विभिन्न आगमों के मूलानुगामी अनुवाद, पारिभाषिक शब्दों का विवेचन एवं उनके परिशिष्ट सहित संकलन का अतिमहत्त्वपूर्ण कार्य किया गया। सन् १९८८ से संस्थान ने आगमिक व्याख्याओं के अनुवाद कार्य को प्राथमिकता देने का निर्णय किया। इसी क्रम में प्रो० सागरमल जैन के निर्देशन में प्रर्कीणक ग्रन्थों के अनुवाद का कार्य प्रारम्भ किया गया। संस्थान द्वारा अब तक १४ ग्रन्थों का प्रकाशन किया गया जिनमें ९ प्रकीर्णक हैं। प्रकाशित सभी प्रकीर्णकों में अनुवाद के साथ-साथ विस्तृत भूमिका एवं उनके विषयवस्तु का भी विस्तार से विवेचन किया गया है। संस्थान के प्रकाशन : १. देविंदत्थओ (देवेन्द्रस्तव), संपा० प्रो० सागरमल जैन, अनु-डॉ० सुभाष कोठारी एवं
डॉ० सुरेश सिसोदिया, व्याकरणिक विश्लेषण, प्रो०कमलचन्द सोगानी, प्रकाशन
वर्ष १९८८, मूल्य ५० रुपये। २. उपासकदशांग और उसका श्रावकाचार, संपा-प्रो० सागरमल जैन, ले०-डॉ०
सुभाष कोठारी, प्रकाशन वर्ष १९८८ई०, मूल्य- ६५ रुपये। 3. Equanimity Philosophy & Practice (Jainacharya Shree Nanesh), Trans
lated by Late Shree H.S. Sarupriya, Ed. Prof S.M. Jain, year 1990, Price
Rs. 65/-. ४. प्राकृत भारती, संपा-डॉ०प्रेमसुमन जैन एवं डॉ. सुभाष कोठारी, प्रकाशन वर्ष
१९९१, मूल्य ५० रुपये। ५. तंदुलवैयालियपइण्णय (तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक), संपा०-प्रो० सागरमल जैन,
अनु० डॉ० सुभाष कोठारी, प्रकाशन वर्ष १९९१, मूल्य ३५ रुपये।
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जैन जगत् : ११९ ६. चंदावेज्झयंपइण्णयं (चन्द्रवेध्यकप्रकीर्णक), संपा०-प्रो० सागरमल जैन,
अनु० डॉ० सुरेश सिसोदिया, प्रकाशनवर्ष १९९१, मूल्य-३५ रुपये। ७. महापच्चक्खाणपइण्णयं (महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक), संपा-प्रो० सागरमल जैन,
अनु०-डॉ.सुरेश सिसोदिया, प्रकाशनवर्ष १९९२ई०, मूल्य-३५ रुपये। ८. दीवसागरपण्णत्तिपडण्णयं (द्वीपसागरप्रज्ञप्तिप्रकीर्णक), संपा०-प्रो० सागरमल
जैन, अनु०-डॉ० सुरेश सिसोदिया, प्रकाशनवर्ष १९९३, मूल्य-४० रुपये। ९. जैनधर्म के सम्प्रदाय, ले०-डॉ० सुरेश सिसोदिया, प्रकाशनवर्ष १९९४,
मूल्य-८०रुपये। १०. गणिविज्जा पइण्णयं (गणिविद्या प्रकीर्णक), संपा०-प्रो०सागरमलजैन,
अनु०-डॉ०सुरेश सिसोदिया, प्रकाशनवर्ष १९९४, मूल्य-२५ रुपये। ११. गच्छायारपइण्णयं (गच्छाचारप्रकीर्णक), संपा०-प्रो०सागरमलजैन, अनु०-डॉ०सुरेश
सिसोदिया, प्रकाशनवर्ष १९९४, मूल्य-४० रुपये। १२. वीरत्थओ पइण्णयं (वीरस्तव प्रकीर्णक), संपा०-प्रो० सागरमलजैन, अनु०-डॉ० सुभाष
कोठारी, प्रकाशनवर्ष १९९५, मूल्य-२० रुपये। १३. संयारग पइण्णय (संस्तारक प्रकीर्णक), संपा०-प्रो०सागरमलजैन, अनु०-डॉ० सुरेश
सिसोदिया, प्रकाशनवर्ष १९९५, मूल्य-५० रुपये। १४. प्रकीर्णक साहित्य मनन और मीमांसा, संपा०-प्रो० सागरमल जैन, एवं डॉ० सुरेश
सिसोदिया, प्रकाशनवर्ष १९९५, मूल्य-१०० रुपये। १५. प्राकृत व्याकरण, संपा०-प्रो० सागरमल जैन, अनु०-डॉ० उदयचन्द्र जैन एवं डॉ०
सुरेश सिसोदिया, प्रकाशन वर्ष ११९७, मूल्य-७० रुपये। संस्थान के प्रकाशनाधीन ग्रन्थों की सूची १. चतुःशरणप्रकीर्णक, २. सारावलीप्रकीर्णक और ३. भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णक।
संस्थान की योजना को सभी विद्वानों ने सराहते हुए इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। प्रो० सागरमल जैन के कुशल निर्देशन, डॉ.सुरेश सिसोदिया, डॉ. सुधा खाब्या और श्री मानमल कुदाल के कुशल नेतृत्व में यह शोध संस्थान इसी प्रकार आगे भी प्रगति करते हुए अन्य संस्थाओं के दिशानिर्देश का कार्य करेगा।
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१२० :
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
प्रो० डॉ० प्रेमसुमन जैन का हार्दिक अभिनन्दन
जैन विद्या और प्राकृत भाषा के विश्वविख्यात् विद्वान् एवं सुखाड़िया विश्वविद्यालय, .. उदयपुर के जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग के अध्यक्ष डॉ०प्रेमसुमन जैन जनवरी १९९७ से प्रोफेसर एवं कलामहाविद्यालय के डीन के रूप में प्रोत्रत किये गये हैं। प्रो०प्रेमसुमन जैन की इस अकादमिक उपलब्धि पर पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार उनका हार्दिक अभिनन्दन करता है।
अर्हत्वचन पुरस्कारों की घोषणा जैनविद्या की प्रतिष्ठित शोधपत्रिका अर्हत्वचन के वर्ष १९९६ के चारों अंकों में प्रकाशित लेखों में से तीन लेखों- "निमित्त तथा उसका वैज्ञानिक निरूपण", लेखक-डॉ० अनिल कुमार जैन, उपनिदेशक-तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग, अहमदाबाद; "Jain Relativism and theory of relativity: By Dr. N.L. Jain, Rewa; "विज्ञान और जैनागम के सन्दर्भ में-सूक्ष्म पदार्थ क्या है— डॉ०महावीर राज गोलरा, जयपुर को क्रमश: प्रथम, द्वितीय और तृतीय पुरस्कारों के लिये चयनित किया गया है। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ द्वारा प्रवर्तित इन पुरस्कारों की राशि, प्रशस्तिपत्र, स्मृतिचिह्न और श्रीफल जैनविद्या की आगामी संगोष्ठी के अवसर पर उक्त विद्वानों को प्रदान की जायेगी। पार्श्वनाथ विद्यापीठ की ओर से उक्त विद्वानों को हार्दिक बधाई।
बीना १९-२० फरवरी : अनेकान्त ज्ञान मन्दिर, बीना, मध्यप्रदेश का पंचम स्थापना दिवस समारोह दो दिवसीय अखिल भारतीय संगोष्ठी के रूप में सम्पन्न हुआ। संगोष्ठी का प्रारम्भ १९ फरवरी को अखिल भारतीय महिला सम्मेलन के रूप में हुआ। २० फरवरी को "जैन पाण्डुलिपियों के महत्त्व और विकास" पर विद्वानों ने चर्चा की। इस अवसर पर इतिहासरत्न डॉ०कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, डॉ० कुन्दनलाल जैन आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। यह संगोष्ठी ब्रह्मचारी संदीप जैन के सानिध्य एवं श्री निहालचन्द जी जैन के संयोजकत्व में आयोजित की गयी थी।
श्रीचिन्तामणितीर्थ हरिद्वार की द्वितीय वर्षगांठ सम्पन्न
१२ फरवरी : आचार्य श्री पद्मसागर जी महाराज द्वारा हरिद्वार में स्थापित चिन्तामणितीर्थ की द्वितीय वर्षगांठ, १२-२-९७ को साध्वी रत्नशीला जी ठाणा ३ के सानिध्य में सोल्लास मानाया गया। यात्रियों को यहाँ पर आवश्यक सुविधा प्रदान करने के उद्देश्य से एक नूतन धर्मशाला का भी निर्माण कार्य शीघ्र प्रारम्भ हो रहा है।
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जैन जगत् : १२१ भगवान महावीर पुरस्कार से श्री रतनलाल सी० बाफणा सम्मानित
भगवान महावीर फाउन्डेशन, मद्रास द्वारा इस वर्ष का ‘भगवान महावीर पुरस्कार' जलगाँव के श्री रतनलाल सी० बाफणा को प्रदान करने की घोषणा की गयी है। इस फाउंडेशन सेलेक्शन कमेटी के चेयरमैन महाराष्ट्र के भूतपूर्व राज्यपाल श्री सी० सुब्रमण्यम् है। ___भंगवान महावीर में अहिंसा तत्त्व का एक महत्त्वपूर्ण अंग शाकाहार-प्रचार एवं प्रसार हेतु श्री बाफणा द्वारा किये गये उल्लेखनीय कार्यों के लिए यह
सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार आपको दिया गया है। पुरस्कार के रूप में पाँच लाख रुपये की नगद राशि एवं स्मृतिचिह्न आपको महावीर जयन्ती दिनाङ्क २० अप्रैल, १९९७ को मद्रास में प्रदान किया जाएगा।
शाकाहार प्रचार कार्य हेतु श्री बाफणा द्वारा अनेक जगह कार्यक्रम आयोजित किये जाते रहे हैं। आपके प्रयास से लाखों लोगों को मांसाहारी से शाकाहारी बनाया गया है। जीव रक्षा, मानव सेवा एवं शाकाहार के प्रति लोगों को प्रेरित करना श्री बाफणा के प्रमुख कार्य हैं।
इसके पूर्व भी आपको जमनालाल बजाज 'उचित व्यवहार' पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ की ओर से श्री बाफणा को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
जैन पाण्डुलिपियों के विकास और महत्त्व पर
अखिल भारतीय संगोष्ठी बीना १९-२० फरवरी १९९७, अनेकान्त ज्ञान मंदिर, बीना, मध्य प्रदेश का पंचम स्थापना दिवस समारोह दो दिवसीय अखिल भारतीय संगोष्ठी के रूप में सम्पन्न हुआ। संगोष्ठी का प्रारम्भ १९ फरवरी को अखिल भारतीय महिला सम्मेलन के रूप में हुआ। २० फरवरी को “जैन पाण्डुलिपियों के महत्त्व और विकास' पर विद्वानों ने चर्चा की। इस अवसर पर इतिहासरत्न डॉ० कस्तूर चन्द्र कासलीवाल, डॉ० कुन्दन लाल जैन आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। यह संगोष्ठी ब्रह्मचारी संदीप जैन के सानिध्य एवं श्री निहालचंद जी के संयोजकत्व आयोजित की गयी थी।
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१२२ :
श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
'जिनागमों की मूल भाषा' राष्ट्रीय संगोष्ठी अहमदाबाद, २७-२८ अप्रैल,१९९७, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, प्राकृत विद्या मण्डल और प्राकृत जैन विद्या विकास फंड के संयुक्त तत्वावधान में "जिनागमों की मूल भाषा" सम्बन्धी एक राष्ट्रीय स्तर की विद्वत् संगोष्ठी का आयोजन आचार्य श्री विजय सूर्योदय सूरीश्वरजी एवं उनके विद्वान् शिष्य आचार्य श्री विजयशीलचन्द्र सूरि जी के आशीर्वाद एवं उनकी ही पावन निश्रा में रविवार-सोमवार, शीर्षस्थ २७-२८ अप्रैल, १९९७ को (जैन उपाश्रय-व्याख्यान हॉल, श्री हठीसिंह की वाडी, शाहीबाग रोड, अहमदाबाद-३५०००४ में) किया जा रहा है जिसमें प्राकृत के नामांकि विद्वानों द्वारा विषय के विविध पहलुओं पर शोध-पत्र प्रस्तुत किये जाएंगे और उन पर चर्चा की जाएगी। उसी अवसर पर डॉ०के० आर० चन्द्र द्वारा भाषिक दृष्टि से पुनः सम्पादित “आचारांग : प्रथम अध्ययन'' का विमोचन विद्वद्वर्य पं० श्री दलसुख भाई मालवणिया के कर-कमलों द्वारा किया जाएगा।
शोक समाचार प्रसिद्ध इतिहासविद् प्रोफेसर आर०एन०मेहता दिवंगत
प्रसिद्ध गाँधीवादी विचारक पुरातत्त्ववेत्ता एवं गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो० आर०एन० मेहता का पिछले दिनों बडोदरा में निधन हो गया। आप अहमदाबाद स्थित साराभाई संग्रहालय सहित राष्ट्रीय पुरातात्त्विक समिति से भी सम्बद्ध रहे। पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार प्रो० मेहता के निधन पर उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
डॉ० सुभाष कोठारी को पितृशोक
प्राकृत भाषा के युवा विद्वान, आगम, अहिंसा एवं समता संस्थान, उदयपुर के पूर्व प्रभारी, डॉ० सुभाष कोठारी के पूज्य पिता, साधुमार्गीय जैन श्रावक संघ, उदयपुर, के अग्रणी सुश्रावक श्री जीवनलाल जी कोठारी का २६ फरवरी, १९९७ को निधन हो गया। स्वभाव से अत्यन्त मृदु श्री कोठारी शासकीय सेवा में रहते हुए भी धार्मिक अध्ययन में सदैव रुचि लेते रहे। इनका पूरा परिवार धार्मिक संस्कारों से ओत-प्रोत है। इनकी एक पुत्री आचार्य श्री नानालाल जी म० सा० के
।
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है
पुस्तक समीक्षा : १२३ संघ से दीक्षित हई हैं। पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार श्री कोठारी के निधन पर शोकाकल है और ईश्वर से प्रार्थना करता है कि दिवंगत आत्मा को शांति प्राप्त हो तथा कोठारी साहब एवं उनके परिवार को इस महान् कष्ट को सहन करने की शक्ति प्राप्त हो।
डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा की धर्मपत्नी दिवंगत
वाराणसी, ८ फरवरी, १९९७, पार्श्वनाथ विद्यापीठ के अहिंसा एवं शांति शोध विभाग के भूतपूर्व रीडर डॉ०बशिष्ठ नारायण सिन्हा की पत्नी श्रीमती शान्ति देवी सिन्हा का असामयिक निधन हो गया। डॉ० सिन्हा छात्र जीवन से ही पार्श्वनाथ विद्यापीठ से जुड़े रहे हैं उनके जीवन की अनेक स्मृतियाँ इस परिसर से जुड़ी हुई हैं। वर्तमान में उनकी पुत्रवधू डॉ०सुधा जैन पत्नी डॉ०विजय कुमार सिन्हा, विद्यापीठ में तदर्थ प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं। श्रीमती सिन्हा की यह अचानक चिर-विदाई हम सभी के लिए अत्यन्त दुःखद है। फिर भी विधि के विधान को टालने में कौन समर्थ है। इस दु:ख की घड़ी में सम्पूर्ण विद्यापीठ परिवार की हार्दिक सम्वेदनाएँ उनके साथ हैं। हम मृतात्मा की चिर शांति की प्रार्थना करते हैं और सिन्हा परिवार इस दुःख की घड़ी में धैर्य-धारण करे यही अपेक्षा करते हैं।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार
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श्रमण
पुस्तक समीक्षा
" श्री पद्मनन्दि श्रावकाचार विधान" लेखक - राजमल पवैया, प्रकाशक-भरत पवैया, ४४, इब्राहीमपुरा, भोपाल, प्रथमावृत्ति १९९६, पृष्ठ- ८८, मूल्य - ८ रुपये ।
" श्री पद्मनन्दि श्रावकाचार विधान" पंचविंशतिका के छठे अधिकार 'उपासक संस्कार' पर आधारित एक छन्दोबद्ध रचना है। सम्पूर्ण रचना मुख्यतः तीन भागों में विभक्त । प्रथम भाग में श्रावकाचार पूजन की चर्चा है। द्वितीय भाग पूजन विधान को निरूपित किया गया है तथा तृतीय भाग में जिनपूजाष्टकम् स्तोत्र का वर्णन है । किसी भी सिद्धान्त को काव्य रूप प्रदान करना कठिन कार्य है और इस कठिन कार्य को सरलता प्रदान कर लेखक ने सराहनीय कार्य किया। यह पुस्तक श्रावकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
पुस्तक का मुद्रण कार्य निर्दोष एवं रूप सज्जा प्रशंसनीय है। पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है।
डॉ० विजय कुमार
"सागर बूँद समाय", सम्पादक - मुनि समता सागर, प्रकाशक - विशाल जैन, ए - १२४ कस्तूरबा नगर, भोपाल, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ- १७०।
“सागर बूँद समाय”, आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज, जो शरीर रूपी बूँद में सम्पूर्ण विद्यारूपी सागर को पिरोये हुए हैं, के विचार सूत्रों का संग्रह है । संकलन एवं सम्पादन मुनि समता सागर जी ने किया है। प्रस्तुत रचना पाँच खण्डों में विभाजित है । प्रथम खण्ड में संस्तुति है जिसके अन्तर्गत आराध्य / आराधना, भक्ति / स्तुति, भक्ति / महिमा, श्रद्धा/समर्पण आदि; द्वितीय खण्ड, जो मुख्यतः तत्त्वमीमांसीय खण्ड है, के अन्तर्गत अनेकान्त/स्याद्वाद, प्रमाण / नय आदि है; तृतीय खण्ड ग्रन्थ का साधना पक्ष है जिसके अन्तर्गत रत्नत्रय, मोक्षमार्ग, ध्यान, समाधि आदि; चतुर्थ खण्ड जो धर्म - संस्कृति से सम्बन्धित है, के अन्तर्गत धर्म, गुरु-महिमा, संस्कृति - प्रवाह, तीर्थ, इतिहास, पर्व आदि है तथा पंचम खण्ड जिसमें नैतिकता को केन्द्रबिन्दु बनाया गया है, के अन्तर्गत
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पुस्तक समीक्षा
:
१२५
न्याय-नीति, धर्म-नीति, वैराग्य-प्रेरणा, कर्त्तव्य-बोध, राष्ट्रभावना आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। पुस्तक की विशेषता यह है कि उपर्युक्त सभी विषयों से सम्बन्धित विचारसूत्रों का संग्रह आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा दिये गये विभिन्न प्रवचनों एवं चर्चाओं से किया गया है, जो एक महनीय कार्य है। संकलनकर्ता द्वारा संकलित यह रचना न केवल जैन समाज बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के लिए बहुत उपयोगी है। इसके लिए संकलनकर्ता बधाई के पात्र हैं।
पुस्तक का कलेवर काफी आकर्षक, छपाई साफ एवं सुन्दर है। पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है।
डॉ० विजय कुमार
'मुनिचर्या', संकलनकर्ती-गणिनी आर्यिका ज्ञानमती, प्रकाशक-दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ), उ०प्र०, प्रथम संस्करण १९९१, पृष्ठ-६२८, मूल्य-६० रुपये।
___ मुनिचर्या में यति क्रियाकलापों का संकलन हुआ है। गणिनी आर्यिका ज्ञानमती जी ने इसमें नित्य क्रियायें जैसे-मंगलाचरण, अहोरात्रि के कृतिकर्म, स्वाध्याय निष्ठावान विधि आदि; नैमित्तिक क्रियायें (पर्वचर्या) जैसे- चतुर्दशी क्रियाविधि, पाक्षिकी क्रियाविधि, सिद्ध प्रतिमावंदना क्रिया आदि; सुप्रभातस्तोत्र जैसे- चतुर्दिवंदना, दशलक्षण पर्वक्रिया, जंबूद्वीप वंदना क्रिया आदि तथा बृहद् संस्कृत भक्तियाँ, प्राकृत भक्तियाँ, लघु भक्तियाँ, भक्तियों के क्षेपक श्लोक आदि के संकलन किये हैं साथ ही उनके हिन्दी पद्यानुवाद भी किये हैं। संकलन करते समय कहीं-कहीं पर अपनी सूझ-बूझ के अनुसार उनमें कुछ संशोधन और परिवर्तन भी किये हैं, जैसे-सामान्य तौर पर मंगलाचरण में इस तरह का पाठ किया जाता है- “अरहंता मंगलं, अरहंता लोगुत्तमा, अरहते सरणं पवज्जामि", किन्तु गणिनी आर्यिका ज्ञानमती जी ने उसे अरहंत मंगलं, अरहंत लोगुत्तमा, अरहंत सरणं पवज्जामि कर दिया है। क्योंकि, इनकी दृष्टि में विभक्तिरहित पाठ ही प्राचीन एवं प्रामाणिक है। विभक्ति सहित पाठ को उन्होंने श्वेताम्बर मान्यता प्राप्त पाठ बताया है। इस तरह इस संकलन में संकलनकर्ती की दृष्टि न केवल मुनिचर्या को संकलित करना है वरन् उसकी प्राचीनता, प्रामाणिकता, साम्प्रदायिकता मान्यता आदि दर्शाना भी है, जो अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण और सराहनीय कार्य है। हिन्दी पद्यानुवाद से इसमें और सरलता एवं बोधगम्यता आ गई है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए संकलनकर्ती एवं प्रकाशक बधाई के पात्र हैं। पुस्तक की छपाई साफ और साजसज्जा सुन्दर एवं आकर्षक है।
डॉ० विजय कुमार
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१२६ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७ ___'देवेन्द्र भारती' (मासिक पत्रिका), अगस्त-सितम्बर १९९६, तप, पर्युषण अंक, सम्पादक - श्रीचन्द सुराना 'सरस', प्रकाशक-श्री तारण गुरु जैन ग्रन्थालय, गुरु पुष्कर मार्ग उदयपुर-१।
इस पत्रिका के तप अंक में आचार्य श्री देवेन्द्र मनि जी के आलेख संग्रहीत हैं। उन्होंने तपसम्बन्धी विविध आयामों पर प्रकाश डाला है।
प्रस्तुत पत्रिका के पर्युषण अंक में पर्युषण शब्द एवं पर्व के विविध आयामों का विश्लेषण बड़े सहज एवं सुन्दर ढंग से किया है।
डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी
'मगध का गौरव पुरुष', लेखक-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि, सम्पादक-स्व०ज्ञान भारिल्ल, प्रकाशक-श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, गुरु पुष्कर मार्ग, उदयपुर-१, प्रथमावृत्ति सितम्बर-१९९६, आकार-डिमाई, पेपर बैक, पृष्ठ-२४०, मूल्य-५० रुपये।
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी द्वारा लिखित मगध का गौरव पुरुष एक दीर्घकाय ऐतिहासिक उपन्यास है। सम्राट् श्रेणिक एक ऐतिहासिक पुरुष है। जैन एवं बौद्ध साहित्य में इसका उल्लेख प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जहाँ बौद्ध ग्रन्थों विनय-पिटक, दीघ-निकाय, अट्ठ-कथा आदि में श्रेणिक बिम्बिसार को बुद्ध का उपासक और भक्त रूप में प्रदर्शित किया गया है। वहीं जैनागम एवं पश्चाद्वर्ती ग्रन्थों में श्रेणिक भंभासार नाम से विख्यात है। उसे तीर्थंकर महावीर का परम उपासक, सम्यक्दृष्टि, निग्रंथ और श्रमणोपासक बताया गया है। ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशा, निरयावलिका तथा अनुत्तरोपपातिकदशा आदि प्राचीन जैनागमों में श्रेणिक की जीवन सम्बन्धी घटनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि ये महावीर से जुड़े हैं। पाश्चात्त्य ऐतिहासिकों ने बौद्ध-ग्रन्थों के प्रमाणों के आधार पर श्रेणिक को बौद्धधर्म का अनुयायी स्वीकार किया है। कुछ भारतीय इतिहासकारों ने भी उन्हीं का अनुकरण किया है किन्तु गहन अध्ययन करने के पश्चात् यह सिद्ध हो चुका है कि वे महावीर के परमभक्त थे।
यद्यपि सम्राट श्रेणिक और महामन्त्री अभयकुमार का चरित्र इतना महान एवं घटना प्रधान है कि इस पर अनेक उपन्यास लिखे जा सकते हैं किन्तु आचार्यश्री ने अपनी सशक्त लेखनी के माध्यम से सभी प्रमुख घटनाओं को समेटकर गागर में सागर भरने वाली बात को चरितार्थ किया है। आचार्य श्री की लेखन-कला के सम्मुख मैं विनत हूँ, साथ ही भारिल्ल जी ने इस उपन्यास का बड़ी सजगता से सम्पादन कर इसमें चार चाँद लगा दिये हैं। पुस्तक का मुद्रण-कार्य निर्दोष एवं आवरण सुन्दर है।
डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी
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