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अणगार वन्दना बत्तीसी
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घणो साफ कर घट, रहे जिन नांव रट , ऐसे अणगार ताकुं, पांव धोक मोरी है ।।१७।। ग्यान घोड़े असवार, हुवा संत अणगार , सीज्झाय एवांजा सार, वीध सजायने । संजम सेनाए घोष, इके करहा छे ठोप दया अवध अनोप, कर्म खपायनै । दान-सील-तप भाव, चारो मोट उमराव , साथ हुवा समभाव, मन में उमायने । मुक्ती के लारे माए, जंग करी बैठा जाए , ऐसे अणगार ताकुं, बहुं सिर निवायने ।।१८।। काटन कर्मदल, छोड़ दिया साहुबल , परहरे फुल जोवे नहीं आरसी । अंत कुल, प्रांत कुल, परीसा अप्रबल , उपना रहै आंचल, सोइ कारज सारसी । मेटी मिथ्या महामल्ल, ग्यान तणी अटकल , सीखाइनें परतणी, संका' सब टारसी। आणीने संतोष जल, मेट दीनी लोभ डाल , ऐसे गुरु धारो जीव, तरे सोई तारसी ।।१९।। संसारनी तजी लीन,सिद्धंत में रहे करे कील , सांच मन पाले शील, नहीं जोवे नार सी। दुर्बल करी देह, गीरु वा गुणां राजहे , न्याती हुंती लज्या नेह, माया जाणे छारसी । आत्मा रा टाले दोष करमां रा करे सोख , मुकत का डंका मुनी, वेग ही वजावसी । देइ नीर दोख दांन, मुल नहीं करे मांनं , ऐसे गुरु धारो जीव, तरे सोइ तारसी ।।२०।। भाव नींद गई भाग, जंबु जिम उठ जाग , विधि सं लीयो वैराग, छती रिद्ध छोड़ीने । मोह तणी तजे आग, रंच पे न धरे राग ,
जग तिन दीयो त्याग, मोह दल मोडने। १. शंकाएँ। २. सिद्धान्त।
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