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________________ ६८ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७ बझाड भीतर आग, दील रा मेटत दाग , लवलेस नहीं लाग, तप तन तोडनें । बस करे मन वाग, मेलत मुगत माग । ऐसे अणगार ताकू, वंदु कर जोड़ने ।।२१।। सिद्धांतना वैन सुंणी, माया तजी हुवा मुनी, गिरवान होत मुनी, अंग में हुलासता । भिन भिन ज्ञान भणी, चोखा गुण लेत मुनी , दया करें त्यारे दूनी, भला बैण भासता । पर कित पाप हणी, घट में अकल घणी, धीरे जिनराजा धणी, और नहीं आसता। गीतनाद तु छगुनी, बाल देवै कामनी । ऐसा अणगार मनी, सख लेहे सासता' ।।२२।। अंग धरी उछरंग, सुंदरी को तजो संग, भाव नहीं करे भंग, कुल सोभा करसी। आगम अर्थ अंग, चित माहि धरे चंग, ज्ञान जिसो तोय गंग, दया मग्ग वारसी। राचत संजम रंग, आरत न धरै अंग , जोरावर करै जंग, पाप परिहरसी। लीयो फिर जैन लिंग, रहे सदा एक रंग, ऐसे अणगार मुनी, वेग सीव वरसी ।।२३।। झीणो जिणमत झाल, सोधियो भीतर साल, मुनी भए तजमान, चित जपै चंगनो । लागो ग्यान रंग लाल, चाले रिख तणी चाल , सखरा लेवे सुवाल, निखरा निकेदणो। अनोपम ग्यांन आल, खेलत उतम ख्याल , वेग सेव करी वाल, नमी नाभिणंदणो। घणी दठ घाव घाल, पाप रिपु देत पलाय, ऐसे अणगार ताकुं वार-वार वंदणो ।। २४।। उर सुं गयो अंधेर, ग्रंथ रास देइ गेर , चाह नहीं धरै फेर, सुर वीर सत में। मन दी जाणे फेर, शत्रु अघ परसर , शाश्वत। १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525029
Book TitleSramana 1997 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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