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श्रमण/जनवरी-मार्च/ १९९७
विद्या भणे बहु-विध, आलस उडायने । मारदेत मोह मद, कार नहीं लोपे कद , हेत कथा कहे हद, काटी हे कषाय कुं । पूजीने परमपद, रिपु कर देत रद , ऐसा अणगारताकुं बहु सिरनायने ।।२९।। बुझइ भीतर झाल, काट दीयो मोह जाल , सिधंत' के चले ढाल, पुली ज्ञान जोत है । माया नहीं राखें भूल, कापी हीन दल कुल , भव जीवां तणी हूल, टाले मिथ्या छोत है । अंगथी आलस छोड, गाँव पर ठौर-ठौर , जिण वेण तणो जोर, करत उद्योत है । सरपणे संग्राम, करी ने सुधारे काम , ऐसा अणगार ताकुं म्हारी डंडोत है ।।३०।। जगत की तजी बुध, तारवाने बहु सुध , अखंडित
जोत सैण जेम देत सीख, भगवान तहां वीख , मीठी जाणे मुख दीख, मिथ्यातम खोत है । प्रभु जी सुधरे प्रीत, गावे रुद्रा गुण गीत , मांहे बाहर एक रीत, तज्या सब तोत है । सुरत मुकत माये, और पीव वंछै नाहीं , ऐसा अणगार ताकुं, हमरी डंडोत है ।।३१।। ऐसा संत अणगार नमो सब नर-नार , तारण-तरण हार मोटा गुण पाल है । सांची सीख देत सुल, कुपंथ न पडे भूल , मुकत मे रह्या झूल, समकत अंत है । सब दयावती संसार गाया गुणगार , आगमा रे अनुसार भणै सेह जात है। भणै मुनि चन्द्रभाण, सुणो होखे विवेकवान ,
बतीस उलट आंण, भण्यां दुखजात है ।।३२।। १. सिद्धान्त। २. स्थान-स्थान। ३. वंदना अर्थ में।
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