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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त : ५९ होकर इस नगर में व्यन्तर उत्पन्न हुआ हूँ। तुम्हें प्रतिबोधित करने के लिए यहाँ आया हूँ। इसलिए तुम ऐसा मत करना। कुछ लोग इस कथा को इसप्रकार भी कहते हैंजब श्रमण आहार लेते हैं तब वह समस्त अलङ्कारों से विभूषित हो दीर्घ आकार वाला हाथ गवाक्ष द्वार से साधुओं के आगे फैलाता है।
साधुओं द्वारा पूछने पर कहता है- यह मैं आर्य मङ्गु ऋद्धि और जिला लोभ से अत्यधिक प्रमाद वाला होकर मरणोपरान्त लोभ दोष से अधर्मी यक्ष हुआ हूँ। इसलिए तुम लोग इसप्रकार लोभ मत करना।
सन्दर्भ सूची
समराइच्चकहा, (प्राकृत) आचार्य हरिभद्र हिन्दी अनु० डॉ०रमेशचन्द्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन (ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्रा० ग्र० २१) दिल्ली, १९९३, पूर्वार्द्ध, पृ०-४। दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति (मूल) संपा० विजयामृतसूरि, 'नियुक्ति संग्रह' हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला १८९, लाखाबावल, शान्तिपुरी, सौराष्ट्र १९८९, गाथा ९०-११०, पृ० ४८५-८६। निशीथभाष्य चूर्णि, संपा० आचार्य अमरमुनि, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली
एवं सन्मति ज्ञानपीठ, वीरायतन, राजगृह (ग्र०स०५), भाग ३, पृ०१३९-१५५ । ४. दशाश्रुतस्कन्धमूलनियुक्तिचूर्णिः -- मणिविजयगणि ग्रन्थमाला सं०१४, भावनगर, .
१९५४, पृ० ६०-६२। बृहत्कल्पभाष्य, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, १९३३-४२। आवश्यकचूर्णि - ऋषभदेव केसरीमल, रतलाम १९२८-९, दो खण्ड। निशीथभाष्य चूर्णि, पूर्वोक्त, पृष्ठ १३९, एवं दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि - पूर्वोक्त,
पृ०-६०। ८. वही, पृ० १३९-१४७ एवं वही, पृ० ६०। ९. वही, पृ० १४७-१४८ एवं वही, पृ० ६१। १०. वही, पृ० १४९-१५० एवं वही, पृ० ६१। ११. वही, पृ० १५०-१५१ एवं वही, पृ० ६१। १२. वही, पृ० १५१-१५२ एवं वही, पृ० ६१। १३. वही, पृ० १५२-१५३ एवं वही, पृ० ६२।
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