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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
माया कषाय विषयक पाण्डुरार्या दृष्टान्त
पासत्यि पंडरज्जा परिण्ण गुरुमूल णाय अभिओगा । पुच्छति च पडिक्कमणे, पुव्वन्भासा चउत्थम्मि ।।१०८।। अपडिक्कम सोहम्मे अभिओगा देवि सक्कतोसरणं ।
हत्यिणि वायणिसग्गो गोतमपुच्छा य वागरणं ।।१०९।। पाण्डुरार्या नामक शिथिलाचारिणी साध्वी पीत संवलित शुक्ल वस्त्रों से सदा सुसज्जित रहती थी। इसलिए लोग उसे पाण्डुरार्या नाम से जानते थे। वह विद्यासिद्धा थी और बहुत से मन्त्रों की ज्ञाता थी। लोग उसके समक्ष करबद्ध सिर झुकाये बैठे रहते थे। उसने आचार्य से भक्तप्रत्याख्यान कराने के लिए कहा। तब गुरु ने सब प्रत्याख्यान करा दिया। भक्तप्रत्याख्यान करने पर वह अकेली बैठी रहती थी। उसके दर्शनार्थ कोई नहीं आता था। तब उसने विद्या द्वारा लोगों का आह्वान किया। लोग पुष्प-गन्धादि लेकर उसके पास आना आरम्भ कर दिये। साध्वी और श्रावक-श्राविका वर्ग दोनों से पूछा गया कि क्या उन्हें बुलाया गया है? लोगों ने अस्वीकार किया। पूछने पर वह बोली मेरी विद्या का चमत्कार है। आचार्य ने कहा- त्याग करो। उसके द्वारा चामत्कारिक कार्य छोड़ने पर लोगों ने आना छोड़ दिया। आर्या पुनः एकाकिनी हो गई। तब चमत्कार द्वारा पुनः बुलाना आरम्भ किया। आचार्य द्वारा पूछने पर वह बोली कि पूर्व अभ्यास के कारण आते हैं। इस प्रकार बिना आलोचना किये ही मृत्यु प्राप्त कर वह सौधर्म कल्प में ऐरावत की अग्रमहिषी उत्पन्न हुई। भगवान् महावीर के समवसरण में हस्तिनी का रूप धारण कर आई। कथा के अन्त में उच्चस्वर से शब्द की। पूछने पर उठी। भगवान् ने पूर्वभव कहा। इसलिए कोई भी साधु अथवा साध्वी ऐसी दुरन्ता माया न करे।
लोभ कषाय विषयक आर्य मङ्गु दृष्टान्त
महरा मंग आगम बहुसय वेरग्ग सङ्कपयाय ।
सातादिलोभ णितिए, मरणे जीहा य णिद्धमणे ।।११०।। बहुश्रुत आगमों के अध्येता, बहुशिष्य परिवार वाले, उद्यत बिहारी आचार्य आर्यमङ्गु विहार करते हुए मथुरा नगरी गये। वस्त्रादि से श्रद्धापूर्वक उनकी पूजा की गई। क्षीर, दधि, घृत, गुड़ आदि द्वारा उन्हें प्रतिदिन यथेच्छ प्रतिलाभना प्राप्त होती थी। साता सुख से प्रतिबद्ध हो विहार नहीं करने से उनकी निन्दा होने लगी। शेष साधु विहार किये। मङ्गु आलोचना और प्रतिक्रमण न करते हुए श्रामण्य की विराधना करते हुए मरकर अधर्मी व्यन्तर यक्ष के रूप में उत्पत्र हुए। उस क्षेत्र से जब साधु निकलते और प्रवेश करते थे तब वे यक्ष प्रतिमा में प्रवेशकर अत्यधिक दीर्घ आकार वाली जिह्वा निकालते। श्रमणों द्वारा पूछने पर कहते- मैं साता सुख से प्रतिबद्ध जिह्वादोष के कारण अल्प ऋद्धि वाला
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