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________________ दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति में इङ्गित दृष्टान्त नेच्छइ जलूगवेज्जगगहण तम्मि य अणिच्छामि । गाहावइ जलूगा धणभाउग कहण मोयणया ।। १०६ ।। सयगुणसहस्स पागं, वणभेसज्जं वतीसु जायणता तिक्खुत्त दासीभिंदण ण य कोव सयं पदाणं च ।। १०७ । । 1 क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर में जितशत्रु राजा था, धारिणी देवी उसकी रानी और सुबुद्धि उसका मन्त्री था। वहाँ धन नामक श्रेष्ठी था, भट्टा उसकी पुत्री थी। माता-पिता सब परिजनों से कह दिया था भट्टा जो भी करे, उसे रोका न जाय, इसलिए उसका नाम 'अच्चकारिय” भट्टा पड़ा, वह अत्यन्त रूपवती थी। बहुत से वणिग्परिवारों ने उसका वरण करना चाहा। धनश्रेष्ठि उससे कहता था कि जो इसे इच्छानुसार कार्य करने से मना नहीं करेगा उसे ही यह दी जायगी, इसप्रकार वह वरण करने वालों का प्रस्ताव अस्वीकार कर देता। : अन्त में एक मन्त्री ने भट्टा का वरण किया। धन ने उससे कहा- यदि अपराध करने पर भी मना नहीं करोगे, तब दूँगा । मन्त्री के शर्त मान लेने पर भट्टा उसे प्रदान कर दी गई। कुछ भी करने पर वह उसे रोकता नहीं था। ५७ -- वह अमात्य राजकार्यवश विलम्ब से घर लौटता था, इससे भट्टा प्रतिदिन रुष्ट होती थी। तब वह समय से घर आने लगा। राजा को दूसरों से ज्ञात हुआ कि यह पत्नी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है । एक दिन आवश्यक कार्यवश राजा ने रोक लिया । अनिच्छा होते हुए भी उसे रुकना पड़ा। अत्यन्त रुष्ट हो भट्टा ने दरवाजा बन्द कर लिया। घर आकर अमात्य ने दरवाजा खुलवाने का बहुत प्रयास किया फिर भी जब भट्टा ने नहीं खोला तब मन्त्री ने कहा- तुम ही स्वामिनी होओ। Jain Education International रुष्ट हो वह द्वार खोलकर पिता के घर की ओर चल पड़ी। सब अलङ्कारों से विभूषित होने के कारण चोरों ने रास्ते में पकड़कर उसके सब अलङ्कार लूट लिये और उस सेनापति के पास लाये । सेनापति ने उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा, वह सहमत नहीं थी । विवश हो सेनापति ने उसे जलूक वैद्य के हाथ बेच दिया। वैद्य ने भी उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा । भट्टा पत्नी बनने के लिए सहमत नहीं हुई। भट्टा क्रोध में जलूक के प्रतिकूल वचन बोलती, उसकी इच्छा के विपरीत कार्य करती। वह शीलभङ्ग नहीं करना चाहता था । भट्टा रक्तस्राव के कारण कुरूप हो गई। इधर उसका भाई कार्यवश वहाँ आया। धन देकर उसे छुड़ाकर ले आया, वमन और विरेचन द्वारा पुनः उसे रूपवती बनाकर मन्त्री के पास लाया। अमात्य ने स्वीकार कर लिया। For Private & Personal Use Only भट्टा ने क्रोध पुरस्सर मान के दोष देखकर अभिग्रह किया मैं मान अथवा क्रोध कभी नहीं करूँगी। www.jainelibrary.org
SR No.525029
Book TitleSramana 1997 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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