SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७ बड़ी सावधानी और परिश्रम से पृथक्-पृथक् करना पड़ा है पर कुछ तो अभी भी चिपके पड़े हैं जिन्हें ठीक करना होगा। बड़े खेद की बात है कि गुटके के संरक्षकों अथवा पाठकों की लापरवाही और प्रमाद के कारण इस बहुमूल्य निधि के आदि अंत के पत्र प्राप्त नहीं हैं। अंतिम पत्र का अभाव बहुत ही अधिक खटका रहा है, तथा लोगों की अज्ञता, मंदबुद्धि एवं प्रमत्तता पर क्षोभ भी आ रहा है। इस पत्र से गुटके के लिपिकाल व लिपिकर्ता का पता चल जाता। सम्भव है जिस मुनि या भट्टारक की प्रेरणा से लिखवाया गया होगा उनका भी उल्लेख हो। जिस श्रेष्ठी या श्रावक का आर्थिक योगदान रहा हो उसका भी उल्लेख हो, किसी व्रतोद्यापन या मुनि, श्रावक, भट्टारक के अध्ययन हेतु लिखा गया था उसका भी प्रमाण मिल जाता पर अब तो पछताने और हाथ मलने के अतिरिक्त कर ही क्या सकते हैं। गुटके का ऐतिहासिक मूल्य तो समाप्त हो गया है। लोगों की इस प्रमत्तता पर रोना आता है, इसी तरह ही हमने अनेकों दुर्लभ ग्रन्थ खो दिए हैं। इस गुटके की लिपि से अनुमान लगता है कि सम्भवत: यह सं०१५०० के आसपास का लिखा होना चाहिए, हमने हजारों पाण्डुलिपियों का अध्ययन किया है और Discriptive Catalogue तैयार किए हैं, "दिल्ली जिन ग्रन्थ रत्नावली" नाम से उनमें से एक भाग प्रकाशित भी है, पर इस गुटके में लिपिकर्ता ने जैसा विराम चिन्हों का प्रयोग किया है वैसा अन्यत्र नहीं मिला, इससे पाठकों को सही और शुद्धवाचन में सहायता मिल सके इसके लिए एक अच्छा प्रयास किया गया है जो सचमुच ही अत्यन्त सराहनीय और अभिनन्दनीय है। इन विराम चिन्हों से प्रतिलिपि सही, शुद्ध और प्रामाणिक तथा स्पष्ट हो सकी है। प्रस्तुत रचना प्राकृतवैद्यक को लिपिकार ने 'पराकृत वैद्यक' लिखा है जो गुटके में पत्र सं० ३९१ से प्रारम्भ होकर ४०७I पर समाप्त होती है, बीच में पत्र सं०४०२ पर भी 'इति पराकृत वैद्यक समाप्तम्' लिखा है तथा ‘णमिऊण वीयरागं...... लिखकर योगनिधान नामक रचना के आरम्भ की सूचना देता है। इससे विदित होता है कि प्राकृत वैद्यक और योगनिधान नाम की दो भिन्न-भिन्न कृतियाँ हैं; यह भी सम्भव है कि प्राकृतवैद्यक एक ही प्रमुख रचना हो और योगनिधान नाम से इसी का दूसरा अध्याय हो? पर यदि यह उसका अध्याय माना जाय तो योग निधान में पृथक् मंगलाचरण की क्या आवश्यकता थी, अत: हमारा तो स्पष्ट अभिमत है कि प्राकृतवैद्यक और योगनिधान दो पृथक्-पृथक् रचनाएँ हैं और आयुर्वेद से सम्बन्धित क्रमश: २७५+ १०८ गाथाओं में निबद्ध है। अत: हम यहाँ योगनिधान की ही चर्चा करेगें। यद्यपि योगनिधान में रचनाकार तथा रचनाकाल आदि का कोई उल्लेख नहीं है, पर प्राकृतवैधक के साथ जुड़ी है, अत: इसके कर्ता भी श्री हरिपाल ही हैं। शैली, शब्दावली, गाथा का स्वभाव आदि सब मिलते जुलते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525029
Book TitleSramana 1997 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy