________________
दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त : ५३ अन्तर्ध्यान हो गये। समस्त नगरवासियों के मध्य घोषणा हुई, वीतिभय नगर में देव द्वारा अवतीर्ण प्रतिमा है।
गान्धार जनपदवासी एक श्रावक ने संकल्प किया कि सभी तीर्थङ्करों के पंचकल्याणकों-जन्म, निष्क्रमण, कैवल्यप्राप्ति, निर्वाणभूमियों आदि का दर्शन करने के पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा। यात्रा के दौरान उसने वैताढ्य गिरि की गुफा में वर्तमान ऋषभादि तीर्थङ्करों की रत्ननिर्मित स्वर्ण प्रतिमाओं के विषय में एक साधु के मुख से सुना। अत: दर्शन की इच्छा से वहाँ गया स्तव एवं स्तुतियों से स्तवन करते हुए, अहोरात्र निवास करते हुए उसके मन में रत्नों के प्रति थोड़ा भी लोभ नहीं हुआ। उसके निर्लोभ से तुष्ट होकर प्रत्यक्ष हो देव ने उससे वर माँगने के लिए कहा। तब श्रावक ने कहाकाम भोग से निवृत्त मुझे वरदान से क्या प्रयोजन?
'मोहरहित देवत्व का दर्शन है', यह कहकर देवता ने यथाचिन्तित मनोरथों को पूर्ण करने वाली आठ सौ गुलिकायें प्रदान की। फिर श्रावक वीतिभय नगर में विद्यमान देव द्वारा अवतारित समस्त अलङ्कारों से विभूषित प्रतिमा के विषय में सुनकर, उसके दर्शनार्थ वहाँ गया। प्रतिमाराधन के लिए कुछ दिन तक मन्दिर में रुका और बीमार पड़ गया। प्रव्रज्याभिलाषी मेरे लिए ये गलिकायें निष्प्रयोजन हैं यह सोचकर उसने गुलिकायें मन्दिर की दासी कृष्णगुलिका को दे दी और वहाँ से प्रस्थान किया।
कृष्णगुलिका ने, गुलिकाओं की शक्ति-परीक्षा के लिए यह संकल्प कर एक गुलिका खा लिया कि मैं उदात्त कनकवर्णा, सुन्दर रूप वाली और ऐश्वर्यवाली होऊँ। उससे वह देवियों के समान कामरूपवाली, परावर्तित वेशवाली, उदात्त कनकवर्णवाली, सुन्दर रूप वाली और सुभगा हो गयी। लोगों में चर्चा होने लगी कि देवताओं की कृपा से कृष्णगलिका कनकवर्णा हो गयी इसका नाम स्वर्णगुलिका होना चाहिए और वह इसी नाम से प्रसिद्ध हो गयी। अलौकिक शक्ति के प्रति विश्वास उत्पन्न हो जाने पर उसने एक गुलिका मुख में रखकर कामना की कि प्रद्योत राजा मेरे पति हों।
वीतिभय से उज्जयिनी अस्सी योजन (३२० कोस) दूर होने पर भी अकस्मात् राजसभा में राजा प्रद्योत के सम्मुख एकपुरुष कथा कहने लगा- वीतिभय नगर में देवता द्वारा अवतारित प्रतिमा की सेविका कृष्णगुलिका देवकृपा से स्वर्णगुलिका हो गई है। अत्यधिक सौभाग्य तथा लावण्य से युक्त वह बहुत से लोगों द्वारा पार्थित की जाने लगी है।
वार्ता सुनकर प्रद्योत ने स्वर्णगुलिका को लाने हेतु उदायन के पास दूत भेजा कि इसे स्वर्णगुलिका के साथ वापस करो। दूत के पहुँचने पर उदायन ने यथोचित सत्कार नहीं किया। अपने प्रस्ताव का अनुकूल उत्तर न मिलने पर प्रद्योत ने युद्धदूत भेजायदि स्वर्णगुलिका नहीं भेजोगे तो युद्धार्थ आ रहा हूँ। वह दूत स्वर्णगुलिका से भी मिला। उसने कहा यदि प्रतिमा वहाँ जायेगी तभी मैं जाऊँगी, अन्यथा नहीं जाऊँगी। दूत के लौट
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org