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________________ दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त : ५५ को पुन: वहाँ से लाना सम्भव नहीं हुआ। प्रद्योत के ललाट पर “दासीपति" यह नाम अङ्कित करवाया गया। उदायन प्रद्योत को बन्दी बनाकर लाया। उसके वापस आते-आते वर्षाकाल आ गया। पर्युषण पर्व आरम्भ होने पर उसने दूत द्वारा प्रद्योत से पूछवाया कि वे क्या आहार ग्रहण करेंगे। दूत द्वारा अप्रत्याशित रूप से पूछने पर प्रद्योत आशङ्कित हो गया कि जान का खतरा है। दूत ने शङ्का-निवारण किया कि श्रमणोपासक राजा आज पर्युषणा का उपवास रखते हैं इसलिए तुम्हें इच्छित आहार प्रदान करेंगे। प्रद्योत को दुःख हुआ कि पापकर्म युक्त होने के कारण पर्युषण का आगमन भी नहीं जान पाया। उसने उदायन से कहलवाया कि वह भी श्रमणोपासक है और आज आहार नहीं ग्रहण करेगा। तब उदायन ने कहाश्रमणोपासक को बन्दी बनाने से मेरा सामायिक शुद्ध नहीं होगा और न ही सम्यक् पर्युशमन होगा। इसलिए श्रमणोपासक को बन्धन से मुक्त करता हूँ और सम्यक् क्षमापणा करूँगा। उसने प्रद्योत को मुक्त कर दिया और ललाट पर जो अङ्कित था उस पर स्वर्णपट्ट बाँध दिया। उसके बाद से वह पट्टबद्ध राजा के रूप में प्रख्यात हो गया। इसप्रकार यदि गृहस्थ भी वैरवश किये गये पापों का उपशमन कर सकते हैं, तो पुनः सर्वपाप से विरत श्रमणों को तो अच्छी प्रकार से उपशमन करना चाहिए। ३. भृत्य द्रमक का वृत्तान्त' खद्धाऽऽदाणियगेहे पायस दट्ठण चेडरूवाइं । पियरो भासण खीरे जाइय लद्धे य तेणा उ ।।९७।। पायसहरणं छेत्ता पच्चागय दमग असियए सीसं। भाउय सेणावति खिंसणा य सरणागतो जत्थ ।।९८।। एक द्रमक नामक नौकर का पुत्र, स्वामी के घर में बना क्षीरान देखकर, उसे माँगने लगा। नौकर गाँव में से दूध और चावल माँगकर लाया और पत्नी को क्षीरान बनाने के लिए कहा। निकट के गाँव में ठहरा हुआ चोरों का दल गाँव लूटने के लिए आया और उस गरीब के घर से क्षीरान से भरी थाली उठा ले गया, नौकर खेत पर गया हुआ था। खेत से तृण काटकर लौटते समय वह यह सोचते हुए घर आया कि आज बच्चे के साथ क्षीरान खाऊँगा। बच्चे ने क्षीरान्न की चोरी के बारे में बताया। द्रमक तृण-पूल रखकर क्रोध से भरकर चला। चोरों के सेनापति के सामने क्षीसत्र की थाली देखा। सेनापति अकेला था, चोर दुबारा गाँव में चले गये थे। द्रमक ने तलवार से उसका सिर काट लिया। सेनापति का वध हो जाने से चोर भी भाग गये। सेनापति का छोटा भाई नया सेनापति बना। सेनापति की माँ, बहन और भाभी उसकी निन्दा करती थीं- भाई के वैरी के जीवित रहने पर तुम्हारे सेनापतित्व को धिक्कार है। सेनापति क्रोध में भरकर गया और द्रमक को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525029
Book TitleSramana 1997 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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