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________________ पिप्पलगच्छ का इतिहास : ११५ वि०सं० १२०८ में वीरस्वामी की एक प्रतिमा को इस गच्छ के विजयसिंहसरि ने डीडिला । नामक ग्राम में स्थापित की थी। यदि इस विवरण को सत्य मानें तो वि० सं० १२०८ में इस गच्छ का अस्तित्त्व भी मानना पड़ेगा और ऐसी स्थिति में श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णी के रचनाकार विजयसिंहसूरि और वि० सं०१२०८ में प्रतिमाप्रतिष्ठापक विजयसिंहसूरि एक ही व्यक्ति माने जा सकते हैं। इसप्रकार यह माना जा सकता है कि विक्रम सम्वत् की तेरहवीं शती के प्रारम्भिक दशक में बृहद्गच्छ की एक शाखा के रूप में यह अस्तित्त्व में आ चुकी थी और तेरहवी शताब्दी के उत्तरार्ध में पिप्पलगच्छ के रूप में इसका नामकरण हुआ होगा। पिप्पलगच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में प्राप्त अभिलेखीय साक्ष्यों से यद्यपि इस गच्छ के अनेक मुनिजनों के नाम ज्ञात होते हैं किन्तु उनमें से कुछ को छोड़कर शेष मुनिजनों के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती; फिर भी इतना स्पष्ट है कि धर्मघोषगच्छ, पूर्णिमागच्छ, चैत्रगच्छ आदि की भाँति पिप्पलगच्छ भी १६वीं शती तक विशेष प्रभावशाली रहा। १७वीं-१८वीं शताब्दी से अमूर्तिपूजक स्थानकवासी सम्प्रदाय के उदय और उसके बढ़ते हुए प्रभाव के कारण खरतरगच्छ, तपागच्छ और अंचलगच्छ को छोड़कर शेष अन्य मूर्तिपूजक गच्छों का महत्त्व क्षीण होने लगा और इनके अनुयायी ऐसी परिस्थिति में उक्त तीनों प्रभावशाली मूर्तिपूजक गच्छों में या स्थानकवासी परम्परा में सम्मिलित हो गये होंगे। सन्दर्भ :१. श्रीमत्यर्बुदतुंगशैलशिखरच्छायाप्रतिष्ठास्पदे धर्माणाभिधसन्निवेशविषयेन्यग्रोधवृक्षो बभौ । यत्शाखाशतसंख्यपत्रबहलच्छायास्वपायाहतं सौख्येनोषितसंघमुख्यशटकश्रेणीशतीपंचकम् ।।१।। लग्ने क्वापि समस्तकार्यजनके सप्तग्रहलोकेन ज्ञात्वा ज्ञानवशाद् गुरुं----------देवाभिधः । आचार्यान् रचयांचकार चतुरस्तस्मात् प्रवृद्धो बभौ वंद्रोऽयं वटगच्छनाम रुचिरो जीयाद् युगानां शतीम् ।।२।। बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि द्वारा रचित उपदेशमालाप्रकरणवृत्ति (रचनाकाल वि०सं०१२३८/ई० सन् ११८२) की प्रशस्ति Muni Punya Vijaya-Catalogue of Palm-Leaf Mss in the Shanti Natha Jain Bhandar, Cambay g.o.s. No. 149, Barada - 1966 A.D., p.p. 284-286. उक्त प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने बृहद्गच्छ के उत्पत्ति की तो चर्चा की है, परन्तु उक्त घटना की तिथि के सम्बन्ध में वे मौन हैं। मध्यकाल में रची गयी विभिन्न पट्टावलियों यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525029
Book TitleSramana 1997 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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