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श्रमण / जनवरी-मार्च / १९९७
से क्षमा याचना करते हुए विनय प्रकट करता है :
हरिवालेण य रयियं पुव्व विज्जो हि जं जिणिद्दिवं । बुहयण तं महु खमियहु हीण हियो जं जिकव्वोय ।। २५६ ।। कवि रचनाकाल का उल्लेख करते हुए लिखता है :
२४ :
विक्कम णरवइ काले तेरसय गयाइं एयताले (१३४१) सियपोसट्ठमि मंदो विज्जय सत्यो य पुण्णो या ।। २५७ ।। इति प्राकृत वैद्यकं समाप्तम् ।
विस्मय की बात है कि कवि जैन होते हुए भी मधु और मूत्र के प्रयोगों का उल्लेख बहुलता से करता है, नरमूत्र का प्रयोग भी लिखा है। हो सकता है कवि के आगे आयुर्वेदीय सिद्धान्तों का महत्त्व अधिक रहा हो और धार्मिक दृष्टि गौण कर दी हो, यह भी सम्भव है। स्थान भेद के कारण उपर्युक्त प्रयोग ज्यादा अनुचित न समझे जाते हों। अभी पं० मल्लिनाथ शास्त्री की पुस्तक से ज्ञात हुआ कि तमिल प्रान्त में बहु बीज के कारण लौकी (घिया) अभक्ष्य मानी जाती है, जबकि उत्तर भारत में वह मुनि आहार के लिए उत्तम शाक माना जाता है। इसी प्रकार श्वेताम्बर ग्रन्थों में मूत्र चिकित्सा के उल्लेख भी मिलते हैं। हो सकता है ऐसा ही कोई मतभेद उपर्युक्त प्रयोगों के सम्बन्ध में रहा हो ।
आयुर्वेद के विशेषज्ञ विद्वान् प्रस्तुत रचना को ध्यान से पढ़ें और उसमें उल्लिखित नुस्खों का अनुसंधान कर मानव कल्याण के लिए औषधि निर्माण करें। अतः हम योगनिधान की मूल गाथाओं को अविकल रूप से यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रस्तुत रचना के अनुवाद या प्रयोगादि कार्यों, औषधि निर्माण हेतु लेखक की लिखित अनुमति अनिवार्य है।
अथ योगनिधानं आरभ्यते
णमिऊण वीयरायं जोयविसुद्धं तिलोय उद्धरणं । जोय निहाणं सारं वज्जरिमो मे समासेण ।। १ ।। किसिणमिलावइ पुल्लोकुट्टं घसिऊण पावणे दिणे । णासइ उमारि दोसो पच्छेहिं तिसत्त रत्ते हिं ।। २ ।। चवलम्मि एक्कभायं सेफदमूलम्मि भव सहेयम्मि । उह जलेणय णासो उम्मारि पणासई सिंफद मूलं तोरीविणिवतोएण णावणे दिणे । फाडिवि कफणि पवरं उवारि पणासणं होइ ।। ४ ।
दिट्ठ || ३॥
इति योगनिधाने उमारि णासनोऽध्यायः ।
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