Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 12 Jain Jatiyo ke Gacchho ka Itihas
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास संग्रह (बारहवां भाग) जैन जातियों के गच्छों का इतिहास -ज्ञानसुन्दर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 ग्रन्था का प्रकाशन श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला, फलोदी ( मारवाड़) नामक संस्था द्वारा आज पर्यन्त छोटे बड़े 201 ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं तथा इन सब ग्रन्थों का बड़ा सूचीपत्र भी छप गया है। इन ग्रन्थों में सिद्धान्तिक ज्ञान, तात्विक ज्ञान, दार्शनिक ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान, ऐतिहासिक ज्ञान चर्चा; भक्ति औपदेशिक और विधि विधानिक एवं भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान सरल हिन्दी भाषा में लिखा गया है / प्रत्येक मनुष्य के पास इस संस्था की सब तरह की एक एक प्रति अवश्य रहनी चाहिये / किमाधिकम् // मिलने का पता: १-श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला फलोदी (मारवाड़) २-मूथा नवलमलजी गणेसमलजी कटरा बाजार जोधपुर, ( मारवाड़) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Xatsatsassississississtasisi assiests sksats sisakssts as easiekaris जैन इतिहास ज्ञान भानु किरण नं० 12 .. .. जैन जातियों के गच्छा का इतिहास / (प्रथम भाग) लेखक इतिहास प्रेमी मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज క్షయ తన ముందు ముందుకు నను మంజూరు చేయు పనులు జయతు జన సమయం द्रव्य सहायक श्री रत्न-प्रभाकर ज्ञान पुष्प-माला फलोदी (मारवाड़) श्रोसवाल संवत् 2394 वीर संवत् 2464 5 विक्रम सं० 1994 प्रथमावृति 1000 प्रतिएँ * मूल्य धार आमा-१०० नकल के 20) रु० HARETRIPPEPRERAPARINITERALR Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ momorroremo........... प्रकाशकश्री रत्नप्रभाकर शान पुष्पमाला मु० फलोदी ( मारवाद) 000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000 सुरक्षित Q....000............000.0000000000000000000 मुद्रक: 000000000000000000 00.00000000 श्री दयालदास दौसावाला . आदर्श प्रिंटिंग प्रेस, अजमेर / 0 .000000000000000000000000000000000000000 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका १-महाजन संघ की उत्पति २-उपकेशपुर की दुर्घटना ३-उपकेश, उएश, उकेश, उपकेश शब्द की उत्पति ४-कॅवलागच्छ का मूल नाम उपकेश गच्छ है ५-जैन जातियों में मुख्य तीन जातियों का वर्णन ६-ओसवालों की जातियों के साथ उपकेश शब्द ७-महाजन वंश के अठारा गोत्रों का प्रमाण ८-उपकेश गच्छोपासक जैन जातियों के नाम -तप्त भट (तातेड) 1 | २१-लुंग (चंडालिया) २-बप्पा नाग (वाफना) 12 / २२-घटिया ३-कर्णाट (करणावट) 12 | २३–आर्य (लुनावत) ४-बलाह (रांका वॉका) 13 २४-छाजेड़ ५-मोरख (पोकरणा) 13 / २५-राखेचा ६-कुलहट (सूरवा) 13 २६-काग ७-विरहट (भूरंट) : 15 २७-गरुड़ ८-श्री श्रीमाल 15 २८-सालेचा ९-श्रेष्ठि (वैद्य मेहता) , २९-बागरेचा __१०-सुंचिति (संचेती) 16 ३०-कुकुम (चोपड़ा) "-आदित्यनाग (चोरडिया)" 31 -सफला १२-भाद्र (समदड़िया) 18 ३२-नक्षत्र १३-भूरि (भटेवरा) , ३३-आभड़ १४-चिंचट (देसरड़ा) , ३४-छावत m. 20 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९-मल १५-कंमट 19 / ३५-तुंड (वागमार) १६-डिडू (कोचर मेहता),,, ३६-पिछोलिया 10- कनोजिया , ३७-हथुडिया ४-लघुश्रेष्टि २०३८-मंडोवरा १९-चरड़ (कांकरिया' , २०-सुघड़ / ४०-गुदेचा इन 40 गोत्रों की शाखा प्रति शाखाओं के 666 नाम दर्ज हैं ९-कोरंट गच्छोपासक जैन जातियाँ १०-नागपुरिया तपागच्छो ११-वृहद् तपायच्छोपासक " १२-अंचल गच्छोपासक १३-मल्लधार गच्छोपासक १४–पूर्णमिया गच्छोपासक १५-नाणावल गच्छोपासक १६-सुरांणा गच्छोपासक १७-पल्लीवाल गच्छोपासक १८-कंदरसा गच्छोपासक १९-सांठेराव गच्छोपासक " २०-खरतरगच्छ वालों की वंशावलियों २१-जिनदत्तसूरि की बनाई जातियों की समालोचना २२-चोरडिया जाति का मूल गोत्र २३–जोधपुर दरबार के 5 परवाना २४-भैंसाशाह का शिलालेख Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....................................................................................... 600000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 .............................................................: 201 दो सौ एक ग्रन्थों के लेखक और सम्पादक इतिहासप्रेमी मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज 020000000000000000000000000000000000000000000 संवेगीदीक्षा 1972 .........." ... 6...0000000000000000000000000000000000000000 जन्म वि० सं० 1937 विजयादशमी प्राप्यस्थान:परमनिवृति-तीर्थ श्री कापरड़ाजी वायो पीपाड़ सिटी (मारवाड़) O.. S स्था० दीक्षा 1963 O.0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ..... ..... ........... .............................. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "नाहर ( 3 ) २५-गुलेच्छों की सतावीस पीढ़ी २६-बप्पानाम गोत्र का शिलालेख २७-बलाह गोत्र रांका शाखा के शिलालेख २८-सुंचिति गौत्र संचेतियों का शिलालेख २९-रत्नप्रभसूरि और ओसवाल ३०-हेमवंत पट्टावलि और ओसवाल ३१-श@जय का शिलालेख अोर प्रोसवाल ३२-ओसवालों की उत्पत्ति और पूर्णचन्द्रजी नाहर ३३-ओसवालों की उत्पति और श्रा. श्री विजयानन्दसूरि 64 ३४-ओसवाल यह उपकेश वंश का अपभ्रंस है ३५-महाजन वंश के अठारह गोत्र ३६-आर्य गोत्र-लुनावतां की उत्पति और कसोटी ३७-भंडारियों की उत्पति और कसौटी ३८-संधियों की , " " ३९-मुनोयतों की , ४०-सुराणों की ४१-झाबकों की ४२-बाठियों की ४३–बोत्थरों की ४४-चौपड़ों की " " " ४५-छाजेड़ों की , ४६-बाफनों की " " " 47 राखेचा, 48 पोकरण, 49 कोचर, 50 चोरडिया, 51 संचेती वगैरह जातियों की उत्पत्ति और कसौटी। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियों के विषय लेखक महोदय की अन्य किताबें १-जैन जति महोदय-सचित्र-प्रथम खण्ड पृष्ट 1000 चित्र 43 मूल्य रु०४) २-जैन जातियों का सचित्र इतिहास ( जैन जाति महोदय का तीसरा प्रकरण मूल्य ) ४-उपकेश वंश कविता मय (धीरजमलजी वछावत) -) ५-जैन जाति निर्णय प्रथम द्वितीयांक ६-धर्मवीर समरसिंह (ोसवालों की उत्पति और कई ऐति हासिक घटनाए की हिस्ट्री का० ) 11) ७-राइदेवसी प्रतिक्रमण (कोचरों की हिस्ट्री है ) भेट ८-जैसलमेर का विराट संघ ( वैद्य मेहतों का इ० ) ९-ओसवंश स्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरि की जयन्ति १०-ओसवंशोत्पति विषयक शंकाओं का समाधान ११-प्राचीन इतिहास संग्रह भाग 7 वाँ (इसमें लोड़ा-बड़ा साजन का इ०), १२-महाजन वंश का इतिहास (प्र० इ० सं० भाग 10 वॉ) =) १३-जैन जातियों के गच्छों का इतिहास आपके कर-कमलों में है।) १४-प्राचीन जैन-इ० सं० भाग 13 (ख० गप्प पु.) 15- " , , , 14 (हम चोरडिया०) 16- , , , , 15 (ओ० ऐति०) 17- , , , , 16 ( उपकेश वंश) मिलने का पता-श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला मु० फलौदी ( मारवाड़) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का महाप्रभाबिक एवं परमोपकारी पूज्यपाद श्रीमद् उपकेशगच्छाचार्यों की सचित्र बड़ी पूजा इतिहास प्रेमी मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहिब ने हाल ही में इस पूजा की रचना की हैं जिसको संघपति श्रीमान् पाँचूलालजी वैद्य मेहता ने गुरु भक्ति निमित्त निज के द्रव्य से। छपवा कर स्वधर्मी भाइयों को भेट देने का निश्चय किया है। प्रस्तुत पूजा जमाना हाल की प्रचलित राग रागनियों के अलावा बहुत सी इतिहास घटनाऐं और उस विषय के सुन्दर चित्र देकर पूजा को सर्वाङ्ग सुन्दर बनायी गयी है इस पूजा में श्रीमाल पोरवाल जातियों के संस्थापक आचार्य स्वयंप्रभसूरि तथा ओसवंश संस्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरि एवं तीनों वंश की वृद्धि करने वाले आचार्य यक्षदेवसूरि आचार्य कक्कसूरि आचार्य देवगुससूरि आचार्य सिद्धसूरि और धर्म प्रचारक पं०कृष्णरार्षि जम्बुनाग मुनिशान्तिचन्द्र और पद्मप्रभ वाक आदि कई महा पुरुषों द्वारा की गई शासन की महान् प्रभावना का वर्णन किया गया है अतः जैन समाज का सब से पहला फर्ज है कि ऐसे महा पुरुषों की भक्ति पूर्वक पूजा कर स्व पर को कृतज्ञ बनाना चाहिए / 25 जहाँ पर इन महापुरुषों की मूर्तिये पादुकाएं न हो वहां श्री + फलादि की स्थापना करके पूजा पढ़ा सकते हैं ! पोस्ट चार्ज के दो आना भेज कर पुस्तक निम्न लिखित पते से मंगवा लीजिये। संघपति श्रीमान् पाँचूलालजी वैद्य मेहता मु० धमतरी-जिला रामपुर (सी०पी०) 9 UParda Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pandedndiandbetetnesebhanerderdreaddars परमोपकारी महापुरुषों की जयंति, <0____वर्तमान भारत में जैन धर्म के स्तम्भ रूप प्रायः तीन जातिएं कहलाई जाती हैं श्रीमाल पोरवाल और ओसवाल जिसमें श्रीमाल पोरवाल के आद्य संस्थापक तो आचार्य श्री स्वयंप्रभसूरीश्वरजी महा+ राज हैं आपके स्वर्गवास का दिन चैत्र शुक्ला : है तथा ओसवाल जाति के संस्थापक आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज साहिब हैं आप श्री का स्वर्गवास वीर संवत 84 माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन सिद्धगिरि तीथं पर हुआ था / अतएव श्रोमाल पारवाल ओसवाल एवं जैन समाज का ख़ास कर्तव्य है कि वे चेत्र शुक्ला 1 को आचार्य स्वयंप्रभसूरि की एवं माघ शुक्ल पूर्णिमा को आचार्य रत्नप्रभसूरि की है * बड़ी ही धूम धाम से जयन्ती मना कर कृताथ बने / आप श्रीमानों का के जीवन चरित्र का एक सुन्दर लेकनर मुनि श्रीज्ञानसुन्दरजी महाराज से हमने तैयार करवा कर पुस्तकाकार छपवा भी दिया है जो / पोस्ट चार्ज के दो आना आने पर पाठफार्म की पुस्तक भेट दी जाती है। अतः पुस्तक मंगवा कर अवश्य जयन्ति मनाइये / + पुस्तक मिलने का पता श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला . मुः पो० फलौदी (मारवाद Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन इतिहास ज्ञान भानु किरण न० 12 जैन जातियों के गच्छों का इतिहास (विभाग पहिला) जहाजन संघ का इतिहास इस बात को सिद्ध कर रहा - है कि महाजन संघ की उत्पत्ति वीरात् 70 वर्षे उपकेशपुर ( ओसियां ) में आचार्य रत्नप्रभसूरी के कर कमलों से हुई थी। जिसको आज 2394 वर्ष हुए हैं। उएश-उकेश-उपकेश ओसवंश और श्रोसवाल ये सब महाजन संघ के पर्यायवाची नाम हैं। ___वीर निर्वाण के पश्चात् 373 वर्षे उपकेशपुर में एक ऐसी दुर्घटना हुई कि प्रभु वीर भगवान की मूर्ति के वक्षः स्थल पर रही हुई ग्रंथियों को कहीं नवयुवकों ने एक सुथार द्वारा छिदवाने का दुःसाहस किया जिस कारण देवी का कोप होकर नगर में हा-हा कार मच गया। आचार्य कक्कसूरि ने उसकी शान्ति करवाई। पर उस समय से उपकेशपुर के कई जैन उपकेशपुर को त्याग कर अन्य नगरों में वास करने को निकल पड़े। और अन्य नगरों में वसने के कारण वहां के लोग उन उपकेशपुर से आये हुए लोगों को उपकेशी कहने लगे तथा आगे चल कर वे ही लोग उपकेशवंश के नाम से प्रख्यात हुए / यह बात सादी एवं सरल Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि प्राम के नाम पर कई जतियां बन जाती हैं / जैसे महेश्वरी नगरी से माहेश्वरी, खन्डवा से खण्डेलवाल अग्रह से अप्रवाल पाली से पालीवाल इत्यादि, यी कारण है कि उपकेशपुर से उपकेशवंश कहलाया / उपकेशवंश के प्रतिबोधक प्राचार्यों का अधिक विहार उपकेशपुर के आस पास के प्रदेशों में होने के कारण उस श्रमण समूह का नाम भी उपकेशगच्छ हो गया जो अद्याऽवधि विद्यमान है। यह बात केव न उपकेश गच्छ के लिए ही नहीं है पर इसी प्रकार-शंखेश्वर प्राम से शंखेश्वरगच्छ वायट ग्राम से वायटगच्छ, नाणा ग्राम से नाणावल गच्छ कोरंट ग्राम से कोरंट गच्छ, हर्षपुरा से हर्षपुरा गच्छ, भिन्नमाल से भिन्नमाल गच्छ, इत्यादि / इस प्रकार उपकेशपुर से उपकेशगच्छ का होना युक्ति युक्त ही है। * उएश-यह मूल शब्द "उसवाली ( उसकी )" भूमि से उत्पन्न हुआ है। प्राकृति के लेखकों ने उकेश और संस्कृत के विद्वानों ने उपकेश शब्द का प्रयोग किया है / और ये ही तीनों शब्द जैसे नगर के लिए प्रयोग में आए हैं वैसे ही उपकेशवंश-जाति और उपकेशगच्छ के लिए काम आये हैं: १-उएशपुर-उकेशपुर- उपकेशपुर / २-उएशवंश (ज्ञाति)-उकेशवंश--उपकेशवंश / ३-उशगच्छ–उकेशगच्छ-उपकेशगच्छ इन तीनों शब्दों का प्रयोग नगर, वंश, और गच्छ के साथ किस प्रकार और कहां-कहां पर हुआ ? इसके लिए यहां नमूना के Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तौर पर कुछ सर्व साधारण के विश्वसनीय प्रमाण उद्धृत कर दिये जाते हैं। उएशपुरे समायती-उ० ग० पट्टावलीः / उकेशपुरे वास्तव्य-उपकेशगच्छ चरित्र श्रीमत्युपकेशपुरे-नाभिनन्दनोंद्धार / उएशवंशे-चण्डालिया गोत्रे-शिला लेखांक 1285 + उकेशवंश-जांगड़ा गोत्रे , , 480+ उपकेशवंशे-श्रेष्टा गोत्रे , 1256 / उएशगच्छे-श्री सिद्धसूरीभिः लेखांक 558 * उकेशगच्छे-श्री कक्कसूरिसंताने लेखांक 1044* उपकेशगच्छे-श्री ककुदाचार्यसंताने लेखांक 155 * इस प्रकार तीनों शब्दों के लिए सैकड़ों प्रमाण विद्यमान हैं और इससे यह सिद्ध होता है कि पहिला उपकेशपुर, बाद उपकेशवंश, और उसके बाद उपकेशगच्छ नाम संस्करण हुआ है और इन तीनों के आपस में घनिष्ट सम्बन्ध भी है। सारांश १-जिसको आज हम ओसियां नगरी कहते हैं उसका मूल नाम उपकेशपुर है / और उस उपकेशपुर का अपभ्रंस ओसियां + बाबू पूर्णचंद्रजी सम्पादित (r) आचार्य बुद्धि सागरसूरिसम्पादित / Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के आस पास में हुआ है और तभी से उपकेशपुर को ओसियां कहने लगे हैं / फिर भी संस्कृत साहित्य के लेखकों ने इस नगर का नाम उपकेशपुर ही लिखा है / २-जिनको आज हम ओसवाल कहते हैं उनका मूल नाम उपकेशवंश है / जब से उपकेशपुर का अपभ्रंश ओसियां हुआ तब से उपकेशवंश का अपभ्रंश भी ओसवाल होगया। फिर भी शिला लेखों वगैरह में इस वंश का नाम उपकेशवंश ही लिखा हुआ मिलता है। यदि किसी को केवल ओसवाल नाम का ही इतिहास देखना है तो विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्व का इतिहास नहीं मिलेगा क्योंकि जब इस ज्ञाति का नाम संस्कार ही नहीं हुआ तो इतिहास खोजना व्यर्थ ही है / पर इससे यह कदापि नहीं कहा जा सकता कि ओसवाल जाति का इतिहास विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्व का न मिलने से ओसवाल जाति उसी समय पैदा हुई हों। क्योंकि ग्यारहवीं शताब्दी पूर्व इस ज्ञाति का नाम उपकेशवंश था / अतएव ग्यारहवीं शताब्दी पूर्व का इतिहास उपकेशवंश के नाम से ही मिलेगा। . इस जाति कि उत्पत्ति के समय तो इसका "उपकेशवंश" नाम भी नहीं था, तब तो इसका नाम “महाजन वंश"था और लगभग चार पांच शताब्दियों के बाद "उपकेशवंश" के लोग अन्य स्थानों में जा बसने के कारण उस “महाजन वंश" का नाम फिर “उपकेशवंश" हुआ है / अतएव(a) "महाजन वंश" इसकी उत्पत्ति वीरात् 70 अर्थात् विक्रम पूर्व 400 वर्ष में हुई थी। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (b) "उपकेशवंश"-महाजन वंशका रूपान्तर नाम है और इसकी - उत्पत्ति करीब विक्रम की प्रथम शताब्दी के आस पास हुई है। (c) "ओसवाल"-उपकेशवंश का अपभ्रंश ओसवाल हुआ है और इसका समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के आस पास का है। ३-जिसको आज कमला-कवला गच्छ कहा जाता है इसका मूल नाम उपकेशगच्छ है विक्रम की बारहवीं शताब्दी में भगवान महावीर के पाँच छः कल्याणक की, तथा स्त्री पूजा कर सके या नहीं कर सके की चर्चा ने उप्र रूप पकड़ा उस समय जिन्होंने खरतर पने से काम लिया उनका नाम खरतर हुआ और जिन्होंने कोमलता एवं नम्रता का वर्ताव रक्खा उनका नाम कमला पड़ गया / परन्तु उपकेश गच्छ वालों ने इस कमला शब्द को कहीं साहित्य के अन्दर काम में नहीं लिया है। वे आद्याऽवधि शिलालेखों एवं ग्रंथों में उपकेश गच्छ शब्द को ही काम में लिया और लेते हैं। इतना खुलासा कर लेने के बाद अब में जैन जातियों के गच्छों का इतिहास लिख कर पाठकों की सेवा में रखने का प्रयत्न करूंगा। ___ जैन जातियों में मुख्य और प्राचीन तीन जातियाँ हैं:-१श्रीमाली, २-प्राग्वट (पोरवाल) ३-उपकेशज्ञाति (ओसवाल) इनमें श्रीमाल और पोरवालों के तो स्थांपक आचार्य श्री स्वयंप्रभसूरि हैं, जो प्रभु पार्श्वनाथ के पांचवें पट्ट धर थे अर्थात् आचार्य केशी श्रमण के शिष्य और आचार्य रत्नप्रभसूरि के गुरू थे / बाद में इन दोनों जातियों की वृद्धि करने में उपकेश गच्छाचार्यों के अलावा विक्रम की आठवीं शताब्दी में शंखेश्वर गच्छीय उदयप्रभसूरि तथा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1444 ग्रंथों के कत्ता आचार्य हरिभद्रसूरी ने भी भाग लिया था। अतएव श्रीमाल और पोरवालों का मूल गच्छ उपकेश गच्छ ही है / अब रही तीसरी ओसवाल ज्ञाति सो इसके मूल स्थापक तो प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ही हैं / और रत्नप्रभसूरि के बाद करीब 1500 वर्ष तक तो प्रायः उपकेश गच्छाचार्यों ने ही इस जाती का पोषण या वृद्धि की थी, अतएव इस जाति का गच्छ भी उपकेश गच्छ ही था यद्यपि इतने दीर्घ समय में सौधर्म गच्छीय प्राचार्यों ने अजैनों को प्रतिबोध कर ओसवाल ज्ञाति की वृद्धि करने में उपकेशगच्छाचार्यों का हाथ बँटाया होगा ? तद्यपि उन उदार वृत्ति वाले आचार्यों को इतना गच्छ का ममत्व भाव न होने से उन्होंने अपने बनाये श्रावकों को अलग न रख कर उस संगठित संस्था में शामिल कर देने में श्री संघ का हित और अपना गौरव समझा था। यही कारण है कि उस समय इस जाति का संगठन बल बढ़ता ही गया। प्राचार्य रत्नप्रभसूरि से 1500 वर्षों के बाद जैन शासन की प्रचलित क्रिया में कई लोग कुछ 2 भेद डाल कर नये नये गच्छों की सृष्टि रचनी शुरू करी, और वे लोग ओसवालादि पूर्वाचार्य प्रतिबोधिक श्रावकों को अपनी मानी हुई क्रिया करवा कर तथा दृष्टि राग का जादू डाल कर उन्हें अपना उपासक बनाने लगे / पर उनके वंश को रद्दो बदल न कर उसे तो वह का वह ही रक्खा / यह उनकी दीर्घ दृष्टि और इतिहास को सुरक्षित रखने का कार्य प्रशंसा के काबिल था / इतना ही क्यों पर उस प्रणाली का पालन पीछे के आचार्यों ने भी आज प्रयन्त किया / हाँ-अधुनीक कई यति लोग अपने स्वार्थ के वशीभूत हो कल्पित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 7 ) कथाएँ बनाकर उनके गच्छों को बदलने की कोशिश जरूर करी हैं पर समाज पर उनका कुछ भी प्रभाव न पड़ा और उल्टे वे तिरस्कार के पात्र समझे गए / उन आचार्यों की उदार वृत्ति का साक्षात्कार आज हजारों प्राचीन शिलालेख करा रहे हैं कि उन्होंने अपने उपासकों के मन्दिर मूर्तिएं की प्रतिष्टाएँ करवा कर अपने हाथों से उनको उपकेश वंशी लिखा है / फिर भी उन सब का उल्लेख मैं इस छोटे से निबंध में नहीं कर सकता। तथापि नमूना के तौर पर उन्हीं शिलालेखों से फेवल वे ही वाक्य उद्धृत करूँगा कि जिन जातियों के आदि में उपकेशवंश का प्रयोग हुआ है। प्राचीन जैन शिलालेख संग्रह भाग दूसरा संग्रहकर्ता-मुनि जिनविजयजी ( मूर्तियों पर के शिलालेख) लेखांक वंश गोत्र और जातियों वंश गोत्र और जातियों 185 | 260 384 उपकेश वंसे गणधर गोत्रे / 259 | उपकेशवंसे दरडागोत्रे उपकेश ज्ञाति काकरेच गोत्रे | उपकेशवंसे प्रामेचागोत्रे उपकेश वंसे कहाड गोत्रे 289 उ० गुलेच्छा गोत्रे 415 उपकेश ज्ञाति गदइया गोत्रे | 388 उ. चुन्दलिया गोत्रे 398 उपकेश ज्ञाति श्रीमालचंडा- ! 39. उ० भोगर गोत्रे ___लिया गोत्रे 366 / उ० रायभंडारी गोत्रे 413 उपकेश ज्ञाति लोढ़ा गोत्रे | 295 उकेशवंसिय वृद्धसजनिय * प्रस्तुत पुस्तक के शिलालेखों के मात्र नंबर अंक ही यही उदधत किये हैं। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन लेख संग्रह खण्ड पहला-दूसरा-तीसरा संग्रहकर्ता-श्रीमान् बाबू पूरणचंदजी नाहर / (मूर्तियों पर के शिलालेख ) लेकांक | | वंशगोत्र और जातियों लेखांक वंश गोत्र और जातियों | 490 4 | उपकेशवंसे जाणेचा गोत्रे 93 उकेशगंसे गोखरू गोत्रे उपकेशवंसे नाहारगोत्रे उपकेशगंसे कांकरियागोत्रे उपकेशज्ञाति भादडागने उपकेशज्ञाति आदित्यनाउपकेशवंसे लुणियागोत्रे गोत्रे चोरवडियया साखायां | उपकेशवंसे बारडागोत्रे 509 उपकेशज्ञाति चोपटागोत्रे उपकेशवंसे सेठियागोत्रे 596 उपकेशज्ञाति भंडारीगोने 41 / उपकैशवंसे संखवालगोत्रे | 598 ढेढियाग्रामे श्री उएसवंसे उपकेशवंसे ढोका गोत्रे 610 उकेशवसे कुर्कटगोत्रे उपकेशज्ञातौआदित्यनाग गोत्रे 619 उपकेशज्ञाति प्रावेचगोत्रे 51 | उपकेशज्ञातौ बंब गोत्रे .659 / उपकेशनसे मिठडियागोत्रे 74 | उ० बलहागोरांकासाखायां 664 श्री श्रीयंसे श्रीदेवा+ . 75] उकेशवंसे गंधी गोत्रे १०१२उ० ज्ञाति विद्याधरगोग इस ज्ञाति का शिलालेख पाश्र्गनाथ की प्रतिमा पर वीरात् 184 वर्ष का हाल कि शोधखोज में मिला है वह मूर्ति कलकता के भजायब घर में संरक्षित है ( श्वेताम्बर जैन से) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 9 ) 108 उपकेशगंसे भोरेगोत्रे 1025 उए ज्ञा० कोठारीगोत्रे 129 उकेशश्वसे बरडागोत्रे 1093 उ० ज्ञा० गुदेचा गोत्रे 130 | उपकेशज्ञातौ वृद्धसजनिया 1107 उपकेशज्ञाति डांगरेचागोत्रे 400 | उपकेशगच्छे तातेहडगोत्रे 1210 उ० सीसोदिया गोत्रे उपकेशनसे नाहटागोत्रे 1255 उपकेशज्ञातिसाधुसाखायां उकेशनंसे जांगडा गोत्रे 1256 उपकेश ज्ञातौ श्रेष्टिगोत्रे 488 उकेश से श्रेष्ठिगोत्रे 1276 उ.ज्ञा.श्रष्टिगोत्रेद्यसाखायां 1278 उकेश ज्ञा० गहलाडा गोत्रे 1384 उ०वंसे भूरिगोत्रे (भटेवरा) 1280 उपकेशज्ञातौ दूगडगोत्रे 1353 उपकेशज्ञातौ बोडियागोत्रे 1285 उएसगंसे चंडालियागोत्रे | उ० ज्ञा० फुलपगर गोत्रे उपकेशांसे कारियागोत्रे 1389 उपकेशज्ञाति-बापणागोत्रे 3292 उपकेशज्ञातियआर्य'गोवेलुगा 1413 उकेशसे भणशलीगोत्रे वत साखायां 1435 उएसांसे सुचिन्ती गोत्रे 1303 उकेशगंसे सुराणागोत्रे 1494 उपकेश सुचंति उपकेशवंसे मालगोत्रे 1531 उ.ज्ञातौ बलहागोत्र रांकासा 3335, उपकेशगसे दोसांगोत्रे 1621 उपकेशज्ञातौ सोनी गोत्रे 1386 इत्यादि सैकडों नहीं पर हजारों शिलालेख मिल सकते हैं पर यहां पर तो यह नमूना मात्र बतलाया है। . . इन मन्दिर मतियों की प्रतिष्ठा करने वाले किसी एक गच्छ के ही नहीं पर भिन्न भिन्न गच्छों के आचार्य थे। और इन जैन जातियों के प्रतिबोधक भी एक ही आचार्य नहीं थे / परन्तु उन सबके सब आचार्यों ने ओसवाल जाति के तमाम गोत्र और जातियों के साथ उपकेशवंश का उल्लेख कर यह साबित कर दिया है कि उपकेश Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 10 ) वंश के प्रतिबोधक उपकेशगच्छचार्य थे और इनका गच्छ भी उपकेश गच्छ ही हैं। ____ उपकेशगच्छोपासक जातियां की गिनती लगानी इतनी दुर्गम है कि जितनी रत्नाकर के रत्नों की गिनती लगानी मुश्किल है पर विरात् 373 वर्ष में उपकेशपुर में जो बृहद्स्नात्र हुआ उस समय 18 गोत्र वाले स्नात्रीय बने थे। उन 18 गोत्रों का प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख अवश्य मिलता है। किन्तु उपकेशपुर में बसने वाले दूसरे लोगों का क्या क्या गोत्र होगा ? तथा उपकेशपुर के अतिरिक्त अन्य ग्रामों नगरों में बसते हुए महाजन वंश के क्या क्या गोत्र होंगे ? एव कोरण्ट पुर रहकर आचार्य कनकप्रभसूरि आदि प्राचार्यों ने अजैनों को जैन बना कर महाजन (वंश की जो वृद्धि की थी उसके क्या क्या गोत्र थे ? इत्यादि पर इस विषय का सिलसिले वार कोई इतिहास नहीं मिलता है / संभव है इतने लम्बे समय में उस उत्कृष्ट उन्नति काल में और भी अनेक गोत्र होंगे ? किन्तु वर्चमान जितना पता मिला है उनको ही लिखकर संतोष करना पड़ता है क्योंकि दूसरा तो. उपाय ही क्या है ? यदि हम इस समय इतना भी नहीं लिखेंगे तो विश्वास है पिछले लोगों के लिए यह मसाला भी नहीं रहेगा। बस ! इस कारण ही हमने इन बातों को लिपिबद्ध करना समुचित समझा है। १-महाजनवंश एवं उपकेश वंश और ओसवंश की स्थापना और वृद्धि करने वाले उपकेश गच्छ में प्राचार्य रत्नप्रभसूरि, यक्ष देव सूरि, कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि, सिद्धसरि / ककुदी शाखा के Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 11 ) ककुदाचार्य, ककसूरि, देवगुप्तसूरि, सिद्धसूरि / द्विवन्दनीक शाखा के-कक्कसूरि, देवगुप्त सूरि, सिद्धसूरि / खजवानी शाखा केकक्कसूरि, देवगुप्रसूरि, और सिद्धसूरि / इनके अलावा, जम्बुनाग गुरु, कृष्णार्षि, पद्मप्रभवाचक वगैरह महान प्रभाविक आचार्य हुए हैं और इन गच्छ परम्परा से इन्होंने शुद्धि संगठन का ठास कार्य कर जैनशासन की कीमती सेवा बजाई है / जैन समाज भले ही अपने प्रमाद, अज्ञान और वृतघ्नी पने से उसको भूल जायँ; पर जैन साहित्य इस बात को डंके की चोट बतला रहा है कि आज जो जैन धर्म जगत् में गर्जना कर रहा है, वह उन्हीं महात्माओं की शुभ दृष्टि और महती कृपा का फल है कि जिन्होंने महाजन वंश की स्थापना कर जैन शासन का बहुत भारी उपकार किया था। ऊपर बतलाए हुए बृहद् शान्ति स्नात्र पूजा में स्नात्रियों के अट्ठारह गोत्रों के नाम इस प्रकार बतलाए हैं : "तमभटो बप्पनाग, स्ततः कर्णाट गोत्रजः // तुर्यो बलाभ्यो नामाऽपि,श्रीश्रीमालः पञ्चमस्तथा 166 कुलभद्रो मोरिषश्च, विरिहिंद्यह्रयोऽष्टमः // श्रेष्ठि गोत्राण्यमून्यासन पक्षे दक्षिण संज्ञके // 170 // सुचिन्तताऽऽदित्यनागौ, भूरि भोऽथ चिंचटिः // Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 12 ) कुंभटः कान्यकुब्जोऽथ, डिडुभाख्योऽष्टमोऽपिच।१७१॥ तथाऽन्यः श्रेष्टि गोत्रोयो, महावीरस्य वामतः // "उपकेश गच्छ चरित्र" ___ "तातेड़, बाफना, करणावट, बलाह, श्रीश्रीमाल, कुलभद्र, मोरख, वीरहठ और श्रेष्ठि इन नौ गोत्रों वाले महावीर की मूर्ति के दक्षिण की ओर पूजापा लिये खड़े थे / तथा: "संचेति, आदित्यनाग, भूरि, भाद्र, चिंचट, कुम्भट, कान्यकुब्ज, डिडू और लघुश्रेष्ठि इन नौ गोत्रों वाले भगवान महावीर की मूत्ति के वाम पार्श्व में खड़े रहे थे। अनन्तर स्नान करवाया था / इन अठारह गोत्रों के कहाँ तक पुण्य बढे, और ये कहाँ तक फूले फले ? वह निम्न लिखित इनको शाखा प्रति शाखाओं की तालिका से आप अनुमान कर सकेंगे। (1) मूल गोत्र तप्तभट:--( उत्पति वीरात् 70 वर्ष) | मालावत सुरती .नागड़ा पाका हरसोत तातेड़ तोडियाणि चौमोला कौसिया धावड़ा चैनावत तलवाड़ा | नरवारा संघवी डूगरिया चौधरी रावत पाचावत / जोखेला पांचावत विनायका साठे रावा केलाणी / एवं कुल 22 शाखाएँ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) मूलगोत्र बप्पनाग:-( उत्पति वीरात् ७०वर्ष) बाला / बाफना बहुफणा नाहटा भोपाला भूतिया धातुरिया तिहुपणा कुरा भाभू नवसरा . मुगड़िया डागरेचा चमकिया - चोधरी जंगड़ा कोटेचा शुकनिया वेताला सलगरणा | बचाणि साबलिया तोसटिया गान्धी कोठारी खोखरा पटवा दफ्तरी घोड़ावत कुचेरिया बालिया संघवी सोनावत सेलोत भावड़ा लघुनाहटा पंच भाया हुड़िया टाटिया ठगाग चमकिया बोहरा मिठड़िया मारू रण धीरा ब्रह्मेचा पाटलिया वानुजा ताकलिया योद्धा धारोला दुलिया वादोला एवं कुल 53 तेपन शाखाएँ हुई। (3) मूल गोत्र कर्णाट: - ( उत्पति वीरात् 70 वर्षे ) करणावट वागड़िया संघवी रणसोत. आच्छा थंभोरा संखला दादलिया गुदेचा. भीनमाला .. जीतोत एवं कुल 14 | काकेचा / लाभांणी . / शाखाएँ हुई। हुना Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 14 ) (4) मूल गोत्र बलाहा ( उ० वी० 70 वर्षे ) . बलाहा रांका सुखिया हाका संघवी वांका सेठ / लाला बोहरा भूतेड़ा कोटारी लघुरांका देपारा नेरा . पाटोत पेपसरा धारिया जड़िया सालीपुरा | चित्तोड़ा . शेठीया छावत चौधरी कागड़ा कुशलोत फलोदिया एवं कुल 26 शाखाएँ हुई (5) मूल गोत्र मोरख ( उ० वी० 70 वर्ष) चुंगा मोरख बांदोलीया पोकरण संघवी लघु चुंगा तेजारा गजा लघु पोकरणा चौधरी गोरीवाल केदारा वातोकड़ा करचु कोलोरा कोठारी एवं कुल 17 शाखाएँ हुई (6) मूल गोत्र कुलहट ( उ० वी० 70 वर्षे ) कुलहट खोड़ीया सुराणीया मन्नी सुरवा संघवी साखेचा पालखीया सुंसाणी लघु सुखा कटारा खूमाणा पुकारा हाकड़ा एवं कुल 18 मसाणीया | चौधरी / जालोरी शाखाएँ हुई। बोरड़ा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुरंट उजोत तुहाणा ( 15 ) (6) मूल गोत्र विरहट ( उ० वी० 70 वर्षे ) विरहट गागा धारिया नोपत्ता राजसरा संघवी मोतीया एवं कुल 17 श्रोसवाला निबोलिया / चौधरी शाखाएँ हुई। लघुभुरंट / हांसा / पुनमिया (8) मूल गोत्र श्री श्रीमाल ( उ० वी० 70 वर्षे) श्री श्रीमाल / नाहरलांणी / उद्धावत कोटी संघवी केसरिया अट कलीया चंडालेचा लघु संघवी सोनी धाकड़िया साचोरा निलड़िया भीन्नमाला करवा कोठड़िया खजानची एवं कुल 22 झाबांणी / दानेसरा माइलीया शाखाएँ हुई। मूल गोत्र श्रेष्ठ ( उ० वी० 70 वर्षे ) श्रेष्टि चौधरी टाकुरोत लाखांणी सिंहावत थानाबट बाखेटा मुरा भाला चीतोड़ा विजोत गांधी रावत जोधावत | देवराजोत मेड़तिया कोठारी गुदीया रणधीरा मुत्ता बोत्थाणी बालोटा पातावत पटवा संघवी . नागोरी सेवडिया पोपावत . सेखाणी एबं कुलं 31 शाखाएँ खोपर देवड़ शूरमा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाटा सेणा ( 16 ) (10) मूल गोत्र ( सुंचंती संचेती साचेती) संचेति हुकमिया | मरुवा / भोजावत ढेलडिया कजारा घरघटा काटी धमाणि हीपा उदेचा मोतिया गांधी लघु चौधरी | तेजाणि बिंबा बेगाणिया | चोसरिया सहजाणि मालोत कोठारी बापावत लालोत गालखा संघवी मन्दिर वाला चोधरी छाछा मुरगीपाल मालतीया पालाणि चितोडिया कीलोला / भोपावत लघुसंचेति | इसराणि लालोंत गुणिया सोनी खर भंडारी एवं कुल ४३शाखाएँ (11) मूलगौत्र-अदित्यनाग (उ० वि० 70 वर्षे ) चोरडिया-गुलेच्छा-पारख-गइया-सावसूखा भटनेरा वुच्चा वगैरह इस गौत्र की मुख्य शाखाए हैं। जैसे कि (A) चोरडिया (वि० सं० 202 से) संघवी . कामाणी | नागोरी / दफ्तरी उड़क दुद्धाणो पाटणिया चोधरी सोठिया सीपाणी छाड़ोत तोलावत मसाणिया आसांणी ममइया राव मिणियार सहलोत - बोहरा जवेरी कोठारी देदाणी खजानची | गलाणी बाबरिया लघु सहलोत सौनी सराफ रामपुरिया / हाडेरा मंत्रि | मेहता Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (17) (B) गुलेच्छा-(विक्रम की चौथी शताब्दी) संघवी नापड़ा | सेहजावत | चौधरी दोलताणी | काजाणी . | नागड़ा दात्तारा सागाणी / हुला / चित्तोड़ा / मीनांगरा (C) पारख-(विक्रम की छट्ठी शताब्दी में ) ढेलड़िया | जसाणी / तेजाणी संघवी | मोल्हाणी रूपावत भावसरा | नडक चौधरी (D) माव सुखा मीनारा लोला विजाणी बला | केसरिया / कोठारी नांदेचा गुणगणा (P)-गदइया (वि० सं० 1108 में) गेजोत / बालोत | संघवी / वूचा लुंगावतरणशोभा नो पोत्ता सोनारा भंडोलिया / कर्मोता / दालिया | रतनपुरा - . (K) भटनेरा चोधरी ___ कुंपावत | जिमणिया | संभरिया ... भंडारा / चंदावत | कानूंगा / Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरदा कोठारी ( 18 ) ( 12) मूल गोत्र भूरि (उ० वी० 70 वर्षे ) भूरि / हिरण ! पीतलीया | हलदीया भटेवरा | मच्छा सिंहावत | नाचाणि उड़क .. बोकड़िय जालोत सिंधि बलोटा दोसाखा चौधरी बोसूदिया | लाड़वा / पाटोतीया एवं कुल 20 शाखाएं (13) मूल गोत्र भद्र-( उ० वी 70 वर्षे ) भद्र नामाणि लघु समदड़िया| गोगड़ समदड़िया | भमराणि लघु हिंगड़ | कुलधरा हिंगड़ ढेलड़िया सांढा रामाणि चौधरी नथावत लिंगा सादावत भाटी फूलगरा खपाटिया भांडावत सुरपुरीया चवहेरा पाटणिया | एवं कुल 29 बालड़ा | कोठारी / नानेचा , शाखायें हुई (14) मल गोत्र चिंचट ( उ० वी० 70 वर्षे) चिंचट .. | खीमसरा / नौपोला | आकतरा देसरड़ा | लघुचिंचट | कोठारी / पोसालिया संघवी पाचोरां तारावाल पूजारा ठाकुरा पुर्विया / लाड़लखा वनावत गोसलांणि निसांणिया एवं कुल १९शाखाएं जोगड़ संघी चतुर शाहा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 19) (15) मूलगोत्र कुंमट ( उ० वी० 70 वर्षे) कुमट काजलिया कापुरीय संभरिया चोक्खा धनंतरि सुंधा सोनीगरा लाहोरा लाखाणी जगावत संघवी मरवाणि मोरचीया | छालीया / पुगलिया कठोरिया मालोत लघु कुम्मट / नागारी (16) मूल गोत्र डिडू-(उ० वी० 70 वर्षे) डिडू राजोत सोसलाणि धापा धीरोत खंडिया योद्धा लालन भांटिया कोचर भंडारी दाखा समदरिया भीमावत सिंधुड़ा / पालणिया एवं 21 शाखाणे कुल हुई सिखरिया वांका वड़वड़ा बादलिया कानुगा (17) मल गोत्र कनोजिया-( उ० वी० 70 वर्षे ) कनोजिया / घेवरीया बड़भटा गुंगलेचा राकावाल करवा तोलीया गढ़वाणि धाधलिया 'कठोतिया / करेलिया राड़ा मीठा भोपावत | जालोरा जमघोटा. पटवा मुसलीया नहार Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) / (18) मल गोत्र लघुश्रेष्ठि–(उ० वी० 70 वर्षे) लघुश्रेष्ठी / बोहरा | खजांची | कुबड़िया वर्धमाना पटवा / पुनोत . लुणा भोभलीया | सिंघी गोधरा नालेरिया लुणेचा | चित्तोड़ा / हाड़ा. / गोरेचा ____आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ने अपने जीवन में उपकेशपुर के बाद १४वर्ष तक मरुधरमें घूमकर लाखों अजैनों को जैन बनाये, उनके क्या गोत्र हुए ? उनके लिए तो हम अज्ञात ही हैं। सिर्फ चार गोत्र और उनकी थोड़ी सी शाखाओं का पता मिला है वह यहां दर्ज कर दिया जाता है जो निम्न लिखित है: (1) मूल गोत्र चरड़ चरड़ | कांकरीया | सानी किस्तूरीया ... बोहरा पारणिया | संघवी वरसांणि अछुपत्ता (2) मूल गोत्र सुघड़:सुघड़ / संडासिया | तुला .. | मोशालिया दुघड़ / करणा / लेरखा ये 7 शाखाएं हैं (3) मूल गोत्र लुगलुंग | चंडालिया | भाखरिया | बोहरा आदि (४)मूल गोत्र गटियागटिया | टींबाणी | काजलीया | रांणोत आदि Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 21 ) राजपूतों से मूल गौत्र.. शाखाओं आचार्य समय ms and | सख्या कर्णावट , तातेड़. गौत्र | तोडियाणिआदि 22 बाफणा , नाहाटादि 53 आच्छादि 14 बलाहा , रांकावांकादि 26 मोरख पोकराणादि 17 कुलहट , सुरवादि 18 विरहट , भुरंटादि 17 श्रीश्रीमाल" नीलडियादि 22 |श्रेष्टि " वैदमुचादि 30 संचेति " ढेलडियादि 44 आदित्यनाग” चोरडियादि 85 भूरि " भटेवरादि 20 समदडियादि 29 | चिंचट देसरडादि 19 काजलीयादि 20 डिडू " कोचरादि 21 कन्नोजिया" वटवटादि 19 वर्धमानादि 16 पार्श्वनाथ भगवानके छटे पाटधर रत्नप्रभसूरि वीर निर्वाणके बाद 70 वर्ष विक्रम संवत् से 400 वर्ष पहेला जिसको / आज 2394 वर्ष हुवा है। - नगर उपकेश पट्टन ( वर्तमान में उसे ओशीयों कहते हैं) कुलदेवी सचायिका :::: भद्र " कुंमट लघुश्रेष्टि " गौत्र | चरड सुघड , कांकरीयादि 9 संडासियादि 7 चेडालियादि 4 टीबाणीयादि 4 5 | गटिया , Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22 ) इस प्रकारः-२२, 53, 14, 16, 17, 18, 17, 22, 30, 44, 85, 20, 29, 19, 20, 21, 19, 16, 9, 7, 4, 4 एवं कुल 22 मूल गोत्रों की 526 शाखाओं का तो पता वंशावलियों से मिलता है। आचार्य रत्नप्रभसूरि के पश्चात् उनकी सन्तानः-जैसे यक्षदेवसूरि, कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरिने भी सिन्ध, सोरठ लाट, मेदपाट, पंजाब आदि प्रदेशों में लाखों नये जैन बनाये थे, किन्तु वे किस गोत्र या जाति से संबोधित किये जाते होंगे ? इसको जानने का कोई भी साधन इस समय मेरे पास उपस्थित नहीं है / पर जैनों में 74 // शाह हुए हैं और उनमें कई शाह नूतन गच्छों के पूर्व मी हुए हैं और उपयुक्त 22 गोत्रो से उनके गोत्र पृथक हैं / अतएव हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि इन 22 गोत्रों के अतिरिक्त और गोत्र भी हुए हैं। ___ विक्रम की सातवीं शताब्दी से लगा कर विक्रम की बारहवीं शताब्दी तक उपकेश गच्छाचार्यों ने अजैनों को जैन बनाये, उनके भी थोड़े बहुत गोत्रों का पता वंशावलियों आदि साधनों से लगा है। जिनको भी हम यहां दर्ज कर देते हैं:___आचार्य रत्नप्रभसूरि के पश्चात् उपकेश गच्छाचार्यों के प्रतिबोधित श्रावकों के गोत्र / ___ मूल गोत्र आर्य-(वि० सं० 684 ) आर्य सिन्धुड़े| लुणावत | संधी | लोवाणा आदि Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 23 ) (2) मूल गोत्र छाजेड़-(वि० सं० 942 ) छाजेड़ | चावा भाखरिया | रूपावत आदि नखा / संघवी | नगावत (३)मत्र गोत्र राखेचा-(वि० सं० 878) राखेचा पावेचा धूपिया पुङ्गलिया | धमांणी | कालाणी आदि / (4) मल गोत्र काग-(वि० सं० 1011) काग |जालीवाल | कुकड़ | निशानिया| भंगिया आदि (5) मूल गोत्र गरुड़-(वि० सं० 1043) गरुड़ | सोनी | संघी पटवा घोड़ावत | भूतड़ा | खजानची | फलोदिया आदि | खजानचा (6) मूल गोत्र सालेचा- (वि० सं० 912) सालेचा | सोनावत | भरा आदि बोहरा गान्धी पाटणिया / जोधावत / कोठारी हाथी, दानेसरा, (7) मूल गोत्र वागरेचा-(वि० सं० 1009) बागरेचा संधी सोड़ा पाडु सोनी / जालोरी / नारेलिया / (8) मूल गोत्र कुंकम-(वि० सं० 885) कुकुम / (कुकुम)गणधर सोनाणिया चोपड़ा | जाबलिया धुपिया | वट वटा संधी मालवा | मिठा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घीया संघी .. ( 24 ) (6) मूल गोत्र सफला-(वि० सं० 1224 ). सफला | जालोरा | भोपाल बोहरा | कोटेचा / भाडु . . सेठिया / तलभला / कांणेचा (10) मूल गोत्र नक्षत्र-(वि० सं० 994) नक्षत्र खजानची | लुणेचा पागरय लाखा | रोकड़िया | सांढा आदि (11) मूल गोत्र आभड़-(वि० सं० 1079) आभड़ पटवा कोठारी / फूलेरा कांकरेचा चौधरी संघी . कोरा कुबेरिया / संभरिया | मेहता / कथोलिया (12) मूल गोत्र छावत-(वि० सं० 1073) चावा गटियाला | विनायकिया | कोकुन्दा छावत लेहरिया | वडेरा आदि कोंणेचा चौहाना . | ममइया / (13) मूल गोत्र तुण्ड-(वि० स० 933) तुण्ड हरसोरा गोंदा वागमार ताला लड़वाया | खजानची फलोदिया साचा शूरवा . | आदि संघी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (25) (14) मूल गोत्र पिच्छोलिया-(वि० सं० 1204) पिच्छोलिया | रूपावत डागा | चतुर पीपला / नागोरी संघी आदि बोहरा | फोजदार चौधरी (15) मूल गोत्र हथुड़िया-(वि० सं० 1191 : हथुड़िया | गौड़ | बोहरा छपनिय | राणावत | संघी रातड़िया | विदामिया सौतानिआ दिया (१६)मूल गोत्र मंडोवरा-(वि० सं० 935) मंडो वर बोहरा लाखा रत्नपुरा | कोठारी | पालावत (17) मूल गोत्र मल-(वि० सं० 949) मल | वीतराग कीड़ेचा | सोनी / सुखिया / मूथा | नरवरा आदि माला (18) मूल गोत्र गुदेचा-(वि० सं० 1025 ) गुदेचा वागोणी गुदागुदा / धमावत गगोलिया मच्छा | रामनिया ।आदि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या. मूलगोत्र. शाखाओं. आदिपुरुष. | पूर्वनाति. प्र. प्राम. प्रतिबोधित आचार्य विक्रम संवत् | भाटी 684 राठोड़ भटवङ / देवगुप्तसरि | शिवगढ़ | सिद्धसूरि कालेर | देवगुप्तसूरि 942 भाटी 878 चौहान धामाप्रामें | कक्कसूरि | आर्य गौत्र | लुणावतादि 5 | राव गौसल छाजेड , | सुरावतादि 7 | राव काजल राखेचा , | पुंगलियादि 6 | राव राखेचा काग , | जालीवाल 5 | पृथ्वीधर गरुड़ , धाडवतादि 8 | महाराय सालेचा , | बोहरादि 10 | सालमसिंह वाकरेजा, सोन्यादि 6 | गजसिंह | कुकुंम , धूपीटादि 9 | अडकमल 9 | सफला , | बोहादि.९ / लाखणसि ( 26 ) सत्यपुर | सिद्धसूरि 1043 पाढण 942 " |.1009 | सोलंकी | चौहान राठोड़ चौहान वागरा | कक्कसरी कनोज देवगुप्तसरि 'जालोर | सिद्धसरि / 885 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 | नक्षत्र , घीयादि 9 मदनपाल राठोड़ वटवाडाग्रामे | कक्कसरि 994 आभड , | कांकरेचादि 12/ रावआभड | चौहान 1079 छावत , कोणेजादि 10 | रावछाउड पवार सांभर कक्कसरि धारानगरी | सिद्धसरि | तुंडगामे 1072 | चौहान | तुंड , वागमारादि 11 सूर्यमल पीच्छोलिया पीपलादि.१० | वासुदेव | गौड़ ब्राह्मण पाल्हणपुर / देवगुप्तसूरि / 1204 ( 27 ) 15 | हथुडिया ,| छपनयादि 9 | राउ अभय० | राठोड़ हथुडि | , 1991 भंडोवरा | रत्नपुरादि 6 | देवराज पडिहार | भंडोर | सिद्धसूति 935 मल , वीतरागादि 7 | मलवराव | राठोड़ खेडाग्रमें 949 18 | गुंदेचा , गोगलीयादि 7 | राव लाधो | पडिहार पावागढ | देवगुप्तसूरि STORower Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 28 ) इस प्रकार 5-7-6-5-8-10-6-9-9-9-12-10-11-109-6-7-7 = एवं कुल इन 18 गोत्रों की 143 शाखाएँ हैं इनके साथ पूर्वोक्त 526 मिला दी जायँ तो सब 669 जातिएँ उपकेशगच्छपासक हैं और इन सब का गच्छ उपकेश गच्छ ही है। इनके अलावा भी कई जातियाँ हैं कि जिन्हों का फिर समय पाकर उल्लेख किया जायगाः-. (2) कोरंट गच्छ-यह एक उपकेश गच्छ की शाखा है, इसका प्रादुर्भाव आचार्य रत्नप्रभसूरि के समय हुआ। इस गच्छ के उत्पादक आचार्य कनकप्रभसूरि जो आचार्य रत्नप्रभसूरि के गुरू भाई थे इनकी संतान, कोरंटपुर या इसके आस पास अधिक बिहार करने के कारण कोरंटगच्छ नाम से प्रसिद्ध हुई। इस गच्छ में कनकप्रभसूरि, सावदेवसूरि, नन्नप्रभसूरि, सर्वदेवसूरि और ककसूरि नाम के महाप्रभाविक आचार्य हुए और उन्होंने भी अनेक क्षत्रिय आदि अजैनों को प्रति बोध कर उन्हें जैन बना महाजन वंश की खूब ही वृद्धि की थी। भले ही आज कोरंट गच्छाचाय भूतल पर विद्यमान न हों पर उन्होंने जैन शासन पर जो महान् उपकार कर यश उपार्जन किया था वह तो आज भी जीवित है। विक्रम सं० 1900 तक तो इस गच्छ के अजितसिंहसूरि नाम के श्रीपूज्य विद्यमान थे और उन्होंने एक बही जब वे बीकानेर आये थे तब आचार्य सिद्ध सूरि को दी थी। बाद में वह बही वि० सं० 1974 में जोधपुर चातुर्मास में यतिवर्य माणकसुन्दरजी द्वारा दखने का मुझे कई स्थानों में कोरंट गच्छीय महात्माओं की पौशालों तो आज भी विद्यमान है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 29 ) सौभाग्य मिला था। उसमें निम्नलिखित गोंत्रों की उत्पत्ति और उनके किए हुए धर्म कार्यों का बिस्तार से वर्णन है। मैं आज कोरंट गच्छोंपासकों की जातियाँ लिख रहा हूँ। यह सब उस प्राचीन बही दखने का ही मधुर फल है। कोरंट गच्छोपासक जातियों के नाम ये हैं : माडोत सुँगेचा . रातड़िया . वोत्थरा (बच्छावत) "मुकीम" (फोफलिया) कोठमी कोटडिया कपुरिया धाड़ीवाल धाकड़ धूव गोता नाग गोता नारा सेठिया धरकट खीवसरा मथुरा मिन्नी | सोनेचा मकबाणा फितूरिया खाविया सुखिया . सखलेचा डागलिया पाडू गोता पोसालेचा बाकुलिया | सहाचेती नागणा खीमणदिया वड़ेरा ... जोगणेचा सोनाणा आड़ेचा चिंचढ़ा निबाड़ा / एवं कुल 39 इन गोत्रों की शाखा प्रतिशाखाएँ कितनी हुई हैं ? वे फिर कभी समय पा कर लिखी जायगीं। (3) नागपुरिवा तपागच्छ इस गच्छ में वादी देव सूरि, पद्मप्रसूरि, प्रश्नचन्द्रसूरि, गुणसमुद्रसूरि, विजय शेखरसुरि, वगैरह महान प्रभाविक आचार्य हुए और उन्होंने कई अजैनों को जैन बनाये-उनकी बनाई हुई जातियों के नाम / Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोहलाणि / रूणिवाल / छलाणि / छोरिया (नौलखा) | (वैगाणी) (छजलाणि) (सामड़ा) (भूतोड़िया) | हिंगड़ (घोड़ावत) लोढ़ा पीपाड़ा (लिंगा) हीराऊ / सूरिय्य (हिरण) रायसोनी (केलाणि) (मठा) (गोगड़) / झाबड़ गोखरू- नाहर * (शिशोदिया) | (झाबक) (चौधरी) जड़िया श्री श्रीमाला | दुगड़ा जोगड़ नक्षत्र / ___ इन जातियों की वैंशावलिएँ खराड़ी, वलून्दा, पादू और नागौर के नागपुरिया तपागच्छोय महात्मा लिखते हैं। और उनके पास पूर्वोक्त जातियों की उत्पत्ति और खुर्शीनामा भी मिलता है। (4) बृहद् तपागच्छ-इस गच्छ में भी जगचन्द्रसूरि देवेन्द्रसूरि, धर्मघोषसूरि, सोमप्रभसूरि, सोमतिलकसूरि, देवसुन्दरसूरि, सोमसुन्दरसूरि, मुनि सुन्दरसूरि, रत्न शेखरसूरि आदि महान् प्रभाविक दिग्विजय कर्ता आचार्य हुए हैं। इन्होंने जैनधर्म की कीमती सेवा की और कई अजैनों को जैन भी बनाये / इनकी उपासक जातियों के नाम संक्षिप्त में यह है:वरदिया छत्रिया खजॉनची / चौधरी : (वरड़िया) लालाणी डफरिया सोलकी वरहुदिया) ललवाणी बुरड़ गुजरांणी बाठिया कछोला (शाह) राज गाँधी | मुनौयत | मरड़ेचा (हरखावत) / वैद गाँधी | पगारिया सोलेचा गाँधी सँधी Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा ( 31 ) (कवाड़) | सराफ (गोलिया) | मादरेचा कोठारी लुंकड़ | (गोविया) लोलेचा .. खटोल मिन्नी ओस्तवाल भाला विनायकिया | आँचलिया / गोठी आदि इनके अलावा भी तपागच्छोपासक कई जातियाँ हैं / जिनके नाम, उत्पत्ति तथा खुर्शीनामा आदि तपागच्छीय श्री पूज्य व महास्माओं के पास से मिल सकते हैं / (5) आश्चल गच्छ-इस गच्छ में भी कई प्रभाविक आचार्य हुए हैं। जैसे:-जयसिंहसरि, धर्मघोषसूरि, महेन्द्रसूरि, सिंहप्रभसूरि, अजितदेवसरि आदि / जिन्होंने भी कई अजैनों को जैन बनाने में सहयोग दिया था। इस गच्छ के उपासक जैन जातियों के नाम इस प्रकार हैं। गाल्हा कटारिया / वडेरा / सोनीगरा आथ गोत (कोटेचा) गान्धी कंटिया बुहड़ (रत्नपुरा) देवानन्दा / हरिया सुभद्रा नागड़ गोत्ता गोतम गोता देडिया बोहरा भिटड़िया डोसी बोरेचा सियाल घर बेला / शेष अज्ञात ___इन जातियों का संक्षिप्त इतिहास "जैन गोत्र संग्रह" नामक पुस्तक में है। (6) मलधार गच्छ-इस गच्छ में पूर्णचन्द्रसूरि, देवानन्दसूरि, नारचन्द्रसूरि, तिलकसूरि आदि महान् प्रभाविक आचार्य हुए हैं:-जिन्होंने निम्न लिखित गोत्र Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 32 ) पगारिया x बंब गेहलड़ा गंग . कोठारी गिरिया चण्डालिया स्त्रीवसरा (7) पूर्णमियागच्छ-इस गच्छ में चन्द्रसूरि, धर्मघोषसूरि, मुनिरत्नसूरि, सोमतिलकसूरिआदि कई प्रभाविक प्राचार्य हुए और इस गच्छ के आचार्यों ने भी कई अजैनों को जैन बनाया हैं / इनकी बनाई हुई जातियें ये हैं:साँढ सियाल / साचेला पुनमिया / मोधाणा * | धनेरा (8) नाणावाल गच्छ-इस गच्छ में भी कई प्रभाविक आचार्य हुए हैं जैसे:-शान्तिसरि, सिद्वसूरि, देवप्रभसूरि वगैरह / और इन्होंने भी कई अजैनों को जैन बनाए / जैसेरणधीरा / मालू ढा / (तेलेड़ा) कावड़िया / डागा / (श्रीपत्ति) / कोठारी *-+-+-श्री श्रीमाल, दुघड़ चंडालिया और नक्षत्र जातियों उपकेशगच्छाचार्यों प्रतिबोधित हैं या तो इस जाति के नाम की अन्य गच्छीय श्रावकों मैं कइ शाखाएँ निकली हो या निकट वर्ती रहने से वंशावलियों के लिखने के कारण तथा एक गच्छ वालों की वंशावलियों लिखने के लिए इधर की उधर वंशावलियाँ देदी हों यही कारण है कि एक गोत्र-जाति का नाम कह दूसरे गच्छों में भाता है। ®-नाहर यह सुराणा गच्छ में भी नाम आता है एक शिला लेख में नहारों के चैत्रगच्छीय होना भी लिखा है +-+-बंब गँग कँदरसा गच्छाचार्य प्रतिबोधिक भी कहा जाता है ____ *- खीवसरा का मूल गच्छ कोरण्ट गच्छ है यह खीवसरा या तो किसी मूलगोत्र की शाखा है या किसी अन्य कारण से कहलाया है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 33 ) (8) मुराणागच्छ-इस गच्छ में धर्मघोष सूरि आदि कई आचार्य हुए जिन्होंने अनेकों अजेनों को जैन बना कर जैन जातिएँ स्थापित की। सुराणा / संखला भणवट मिटड़िया सोनी / उस्तवाल खटोड़ नाहार * (10) पल्लीवाल गच्छ-इस गच्छ के आचार्य अभयदेवसरि, आदि महा प्रभाविक आचार्य हुये और विक्रम की 1728 तक इस गच्छ के आचार्य विद्यमान थे। इस गच्छ बालों ने: धोखा, बोहरा, डुगरवाल वगैरह जातिएँ बनाई / (11) कन्दरसा गच्छ-इस गाछ के पुण्यवर्धन सूरि श्रादि आचार्य हुये। खाबीड़या, गँगा, बँबाद, दुधेड़िया कटोतिया वगैरह जातियें बनाई। (१२)साँडेराव गच्छ-इस गच्छ में यशोभद्रसूरि ईश्वरसूरि, वगैरह महाप्रभाविक आचार्य हुये / यशोभद्रसूरि नाइलाई में एक मन्दिर उड़ा कर लाये थे। तथा नाडोल के राव दूधाजी को जैन बनाया था। इस गच्छ की जातियें ये हैं: 8+-+-नाहार बंब गैंग के लिये पूर्व लिखा गया है। // - दधेड़िया संडेरागच्छाचार्य प्र. कहा जाता है पर पूर्व ममामा में महात्मा. एक गच्छ वाले अपनी वंशावलियाँ दूसरे को दे दिया करते थे यही कारण है कि एक जाति के लोग कई गच्छों में विभाजित होगये / Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( 34 ) गुगलिया / भंडारी : चतुर / दुधेड़िया धारोला ... काँकरेचा बोहरा - शिशोदिया .... इन गच्छों के अलावा मन्डोरागच्छ, आगामियागच्छ, द्विवन्दनीक छापरियागच्छ, चित्रावलगच्छ, जीरावलागच्छ वगैरह वगैरह और गच्छोपासकों के भी बहुतसे गौत्र एवं जातियाँ हैं पर दुःख इस बात का है कि वे लोग पूछने पर भी बतलाने में इतनी संकुचितता रखते हैं कि न जाने उन्हों की अजीविका का भङ्ग ही न हो जाता हो / खैर, जब कभी शेष गौत्रों का पता मिलेगा फिर से प्रकाशित करवाया जायगा। ... पूर्वोक्त गौत्र जातियों के विषय में कुछ कुछ हाल मुझे प्राप्त हुआ है और अभी मेरा प्रयत्न इस कार्य के लिये चालु ही है इन सब को मैंने जैन जाति महोदय के द्वितीय खण्ड आदि में विस्तार पूर्वक देने का निर्णय किया है अतएव यहाँ केवल नामोल्लेख करना ही समुचित समझा है। - ऊपर हम और और गच्छों के आचार्य प्रतिबोधक जैन जातियों के नाम लिख आये हैं इनमें खरतर गच्छाचार्य प्रतिबोधित एकभी जाति नहीं आई। कई स्थानों पर खरतरगच्छीय महा माओं की पौसालें भी है और वे कहते हैं कि हमारी वंशावलिये बीकानेर में कर्नचन्द वच्छावत ने कुए में डाल कर नष्ट कर डाली, पर यह यात मानने में जी जरा हिचकिचाता है और समझ में नहीं . आता है कि कर्मचन्द वच्छावत जैसा एक बड़ा भारी विद्वान् इति. हास की खासी समग्री की सब की सब बहियें (वंशावलिये) यकायक कुँए में क्योंकर डाल सका होगा ? यदि थोड़ी देर के लिये इस बात को हम मान भी लें तो भी अखिल भारत के Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमाम खरतरों की वंशावलियों को सहसा कुँए में डाल देने का कोई न कोई जबर्दस्त कारण भी होना चाहिये / और इसके लिये हमारे ध्यान में तो यही कारण होना चाहिये कि या तो वे वंशाचलिये जाली कल्पित, एवं हानिकारक हो ? या उन वंशावलियों को लिखने वालों की दानत खराब हो ? यदि इन कारणों में से कोई कारण न होता तो कर्मचन्द जैसे एक विद्वान् के लिये यह कहना कि उन्होंने हमारी वैंशावलियों की बहियो को कुँए में डाल दी, सरासर मिथ्या सिद्ध होता है / / : एक शंका और भी पैदा होती है कि क्या कर्मचन्द वच्छावत ने अखल भारतीय खरतरों की वशावलिए बीकानेर मंगाली थी ? और वे खरतर कुल गुरु गाड़ा भर 2 कर सात नहीं पर सत्तावीस पुश्त ( पीढियों) की बहियां बीकानेर ले आये, और कर्मचन्द ने उन सब को कुँए में डाल दी ? शायद इसका यह तो कारण न हो कि कर्मचन्द वच्छावत को ज्ञात होगया हो कि हमारे पूर्वज राव बोहत्थों को कोरंट गच्छाचार्य नन्नप्रभसूरि ने प्रतिबोध देकर जैन बनाया अतः हम कोरंटगच्छोपासक श्रावक हैं। अधिक परिचय के कारण हम खरतर गच्छ की क्रिया करते हैं / पर ये खरतर लोग हमको झूठ मूठ ही खरतर बनाने की कोशिश करते हैं / अतएव इन बहियों को कुए में डाल कर हमारी होनहार संतान को सुखी बना दें ताकि अब खरतरा उनको तंग और दुःखी न करेंगे। , वास्तव में न तो किसी खरतराचार्य ने अजैनों को जैन बनाया है / न इनके पास किन्ही गोत्र-जाति की वंशावलियां Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 36 ) हैं। इन्होंने तो इधर उधर से लेकर अर्थात् "कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा" के माफिक अपनी एक हवाई दीवार खड़ी कर दी है / क्योंकि खरतर नाम संस्करण बिक्रम की बारहवीं शताब्दी में आचार्य जिनदत्त सूरि की खरतर प्रकृित के कारण हुआ है, और उस समय उनको इतना समय भा नहीं मिलता था कि वे किन्हीं अजैनों को प्रतिबोध देकर जैन बनाते। कारण जिनदत्त सूरि उस समय बड़ी ही आफत में थे। एक ओर तो आपके गुरु भाई जिनशेखर सरि आप से खिलाफ़ होकर प्राचार्य पदवी के लिए लड़ रहे थे। पर जिनदत्तसूरि भी इतने उदार कहां थे कि आप सोमचन्द्र साधु ही बने रहते और जिन शेखरसूरि को ही आचार्य होने देते ? आखिर वे दोनों लड़ झगड़ के आचार्य बन गए / यही कारण है कि आगे चल कर जिनदत्त सूरि के समूह का नाम खरतर और जिनशेखरसूरि के शिष्यों का नाम रुद्रपाली पड़ गया। दूसरी ओर जिनवल्लभ सूरि ने जो महावीर के 5 कल्याणक के स्थान छ कल्याणक को प्ररूपणा की थी और चैत्यवासियों ने उन्हें निह्नव-उत्सूत्रवादी घोषित कर दिया था, पर जिनवल्लभसरि आचार्य होने के बाद केबल स्वल्पकाल ही जीवत रहे / बह: आफ़त भी जिनदत्तमूरि के शिर पर ही रही / तीसरा जिनदत्त सूरि खुद पाटण में स्त्री पूजा का विरोध कर चुके थे कि स्त्रियें जिन पूजा न कर सकें / यही कारण है कि उनको सिन्ध में जाकर निर्दयी पीरों को साधना पड़ा। इस प्रकार जिनदत्तसूरि तो केवल अपना पीछा छुड़ाने के लिये इधर उधर भ्रमण कर रहे थे, वे कब नये जैन बनाने बैठे Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 37 ) थे। अतएव किसी खरतराचार्य के एक भी नया जैन बनाने का प्रमाण न तो कहीं मिलता है और न खरतरों ने आज पर्यन्त कई प्राचीन प्रमाण जनता के सामने उपस्थित किया है। तथा विश्वास है कि भविष्य में भी शायद ही उपस्थित कर सकें। हम ऊपर जिन जिन गच्छों के आचार्यों द्वारा प्रतिबोधित जैन जातियों के नाम लिख आए हैं, उनमें कई गच्छों के तो इस समय ‘साधु तक भी नहीं रहे हैं। और कई गच्छोंके साधु भी रहे हैं पर उन्होंने प्रायः एकाध प्रान्त छोड़ कहीं अन्यत्र विहार ही नहीं किया, बस यह सुवर्णावसर खरतरों के हाथ लग गया, और उन्होंने ऐसे कालमें क्षेत्र में विहार कर भद्रिक लोगों को अपने उपासक बना, अपनी क्रिया रूपी फांसी उनके गले में डाल दी। और अधिक परिचय के कारण तथा विशेष समय निकल जाने से उनके ऐसे संस्कार पड़ गए कि हम खरतर हैं / खरतर यतियों ने उन लोगों के लिए कल्पित ख्यातें भी लिख डाली जैसे किः-- " महानवंश मुक्तावली" "जैन संप्रदाय शिक्षा नामक पुस्तक में मुद्रित हुई है। पर जब ये किताबें मेरे देखने में आई तो मैंने इस विषय का साहित्य अवलोकन कर "जैन जाति निर्णय" नामक पुस्तक लिख प्रामाणिक प्रमाणों द्वारा पूर्व पुस्तक की समालोचना कर यह सिद्ध 1 महाजनवंश मुक्तावलि वगैरह पुस्तकें जो प्रमाणशून्य देवल कपोल कल्पित कथाओं लिख भद्रिक लोगों को भ्रम में डालने का जाल रचा था पर आखिर असत्य कहां तक ठहरे इनके प्रतिकार में देखो 'जैन जाति निर्णय' नामक प्रमाणिक पुस्तक / . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38 ) कर दिया कि खरतर यतियों ने जिन जैन जातियों को खरतर होना लिखा है वे खरतराचार्यों ने नहीं बनाई, पर इनके बनाने वाले महापुरुष और और गच्छ के थे। हां इस सत्य बात के कहने लिखने में खरतरों की ओर से भले बुरे शब्द, और गालिये वगैरह सुनना तो जरूर पड़ा है, पर जनता पर सत्य का प्रभाव भी कम नहीं पड़ा है। यही कारण है कि जैन लोग अब अपने अपने प्रतिबोधक आचार्यों की शोध खोज में लग रहे हैं। और बहुत से लोगों का मिथ्या भ्रम दूर भी हो चुका है। इस हालत में खरतरों को किसी और मार्ग का अवलंबन करना जरूरी था; अतः उन्होंने हाल ही में अतिशयोक्ति पूर्वक जिनदत्तसरि का जीवन मुद्रित करवा कर उन यतियों के लेख की पुनरावृत्ति करते हुये लिखा है कि: 1 नाहटा / 12 संचेती | 23 दुधेड़िया ) 34 दफतरी . 2 राखेचा | 13 कोठारी | 24 खजानची | 35 मुकीम 3 भाणशाली 14 पारख / 25 पुगलिया| 36 दुगड़ 4 नवलखा | 15 गुलेच्छा | 26 कांकरिया 37 जन्नणी .. 5 डागा / 16 झाबक ! 27 बांठिया | 38 भंडारी 6 बहुफणा | 17 धाडिवाल 28 कटारिया | 39 लुणावत: 7 भूणिया / 18 शेखावत | 29 सेठिया 40 सुखाणी . 8 बोथरा | 19 नाहर | 30 पटवा / 41 लोढ़ा 9 चोपड़ा / 20 बलाई | 31 फोफलिया| 42 जालोरी . 10 छाजेड़ | 21 बछावत , 32 वडेरा | 43 नवरिया : 11 वरडिया ' 22 हरखावत 33 मेहता |44 श्री श्रीमाल Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आदि अनेक गोत्र स्थापन कर आचार्य श्रीं . (जिनदत्त सरि) ने अपरिमित उपकार किया / "जिनदत्त सूरि चरित्र नामक पुस्तक पृष्ठ. 59" / इस चरित्र के लेखक को यतियों के जितना भी ज्ञान नहीं था। अर्थात् उन्हें न तो मूल गोत्रका ज्ञान था, और न था मूल गोत्रं की शाखा का ज्ञान / उन्होंने तो जिन जिन जातियों को किसी किसी स्थान पर खरतरों की क्रिया करते देखा तो झटसे उन्हें दादा जी स्थापित गोत्र लिख दिया / जरा ध्यान लगा कर देखियेः ४-चोरडिया, पारख, गुलेच्छा, नवरिया, ये स्वतंत्र गोत्र नहीं पर आदित्यनाग गोत्र की शाखाएँ हैं। और इसगोत्र की स्थापना जिनदत सूरि के जन्म के 1532 वर्ष पूर्व आचार्य श्री रत्नप्रभ सूरि के कर कमलों से हुई थी। ८-बहुफणा,दफतरी, पटवा, नाहटा, ये भी स्वतंत्र गोत्र नहीं पर बप्पनाग गोत्र की शाखाएँ हैं। इनके स्थापक भी विक्रम पूर्व 400 वर्ष में प्राचार्य रत्नप्रभरि ही हैं। 10 पुंगलिया, राखेचा गोत्र की शाखा है / जिसके स्थापक वि० सं० 876 में उपकेशगच्छाचार्य देवगुप्तसूरि थे। १४.-वच्छावत, मुकीम, फोफलिया ये भी स्वतन्त्र गोत्र नहीं हैं पर बोथरा गोत्र की शाखाएं हैं। और इनके स्थापक कोरंटगच्छीय आचार्य नन्नप्रभ सरि थे। 17. .. १६-हरखावत, यह बांठिया गोत्र की शाखा है। इसके प्रतिबोधक आचार्य भाव देवसूरि तपागच्छीय हैं। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (40) - १७-खजांनची, यह मिन्नी गोत्र की शाखा है / इसके प्रतिबोधक कोरंटगच्छीय आचार्य नन्नप्रभसूरि हैं। १८-कांकरिया, यह चरड़ गोत्र की शाखा है। इसके प्रतिबोधक आचार्य श्री रत्नप्रभसरि हैं / जो वीरात् 70 वर्ष १६-लुनाबत भी स्वतन्त्र गोत्र नहीं पर आर्य गोत्र की शाखा है / इसके स्थापक वि. सं० 684 में उपकेश गच्छाचार्य देवगुप्रसूरि हुए हैं। २०-चोपड़, यह कुंकम गौत्र की शाखा है। इनको उपकेश गच्छाचार्य देवगुप्रसूरि ने वि. सं. 885 में बनाया है / २१-छाजेड़, यह वि. सं. 942 में उपकेश गच्छाचार्य श्री सिद्धसूरि ने बनाया। २२-संचेति, यह वि. सं० 400 वर्ष पूर्व आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा स्थापित हुआ।. २३-नाहर, इसका गच्छ तपागच्छ है जिसको हम ऊपर लिख आये हैं। २४-नवलखा. यह नागपुरिया तपागच्छाचार्य प्रतिबोधत श्रावक हैं। ___२५-डागा, यह नाणावाल गच्छाचार्य प्रतिबोधित श्रावक हैं। २६-भणशाली, जोधपुर तवारीख में इस जाति की उत्पत्ति समय वि. सं० 1112 का लिखा है / तब मुताजी लिछमी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 41 ) प्रतापजी तथा हरखराजजी भणशाली के पास अपनी उत्पत्ति का खुर्शीनामा है जिसमें अपनी उत्पत्ति वि. सं० 1132 में हुई लिखा है, भणशाली जाति के लिये श्रीमान् पूर्णचन्द्रजी नाहर बीकानेर के खरतरोपाध्यय जयसागरजी के प्राचीनलेखानुसार लिखते हैं कि वि. सं. 1091 में भणशाली जाति हुई है / जब जिनदत्त सूरि का जन्म ही वि. सं. 1132 में हुआ है फिर समझ में नहीं आता है कि आधुनिक खरतरा, दादाजी पर इस प्रकार व्यर्थ बोमा क्यों लाद रहे हैं। करमावसादि ग्रामों के भणसाली तपागच्छ के कहलाते हैं। २८-चरडिया, लोढ़ा-यह नागपुरिया तपागच्छोपासक जाति हैं। ___२६-कोठारी, यह वायट गर्छ य आचार्य बप्पभट्ट सूरि ने जो जिनदत्त सूरि के जन्म के करीब पुनातीन सौ वर्ष पूर्व हुए हैं। उन्होंने ग्वालियर के राजा आम को जैन बनाया उनकी सन्तान कोठारी कहलाई। ३०-झाबक, नागपुरिया तपागच्छोपासक श्रावक हैं। ३१-धाडिवाल, यह कोरंटगच्छोपासक श्रावक हैं। ३२-दुधेड़िया, यह कन्दरसागच्छ प्रतिबोधित हैं। ३५-कटारिया, सेठिया-और बड़ेरा ये आंचलगच्छीय श्रावक हैं। . ३६-दुगड, वह उपकेशगच्छीय श्रावक और भाचार्य रत्नप्रभसूरि प्रतिबाधित हैं। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 42 ) ३७-भंडारी, यह सांडेरावगच्छोपासक हैं। इनके प्रतिबोधक वि. सं० 1039 में आचार्य यशोभद्र सूरि हुए हैं। - ३८-श्री श्रीमाल, उपकेश गच्छोपासक अर्थात् 18 गोत्रों में 8 वाँ गोत्र है। ....४४-भूणिया, शेखावत, बलाई, महेता, जिन्नाणी, सुखाणी, और जालोरी ये कोई स्वतन्त्र जातियें नहीं पर किन्ही मूल गोत्रों की शाखाएँ हैं। यहां पर मैंने ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से जिन जातियों का जो गच्छ लिखा है वह केवल नामोल्लेख ही किया है / क्योंकि मैंने "जैन जाति महोदय" के द्वितीय खण्ड में उपर्युक्त जातियों की उत्पत्ति, वंशावली, और धर्मकृत्य विस्तार से लिखने का निर्णय कर लिया है और इस विषय का सामग्री भी गहरी तादाद में मिल गई है / इतना ही क्यों पर मैंने कई सर्वमान्य शिलालेख भी संग्रह किये हैं / अतः निःसंकोच यह कह सकते हैं कि मेरा उपर्युक्त कथन खरतरों की भांति केवल कपोल कल्पित नहीं है। विज्ञ पाठकों को सोचना चाहिये कि खरतरों ने जिन 44 गोत्रों को जिनदत्तसूरि के बनाये लिखे हैं, वे तमाम जिनदत्तसूरि के जन्म के पूर्व सैकड़ों वर्षों से बने हुये थे / शायद इन गोत्रजातियों वालों को भगवान महावीर के पांच कल्याणक की मान्यता को बदला कर छः कल्याणक मना कर, या इन गोत्रोंवाली स्त्रियों को जिन पजा छुड़ा कर अपने श्रावक मान लिये हों तो बात दूसरी है। जैसे कि आधुनिक हूँ ढियों ने मूर्तिपूजा छुड़ा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 43 ) कर तथा मुँह पर मुंहपत्ती बंधा कर एवं तेरह पन्थियों ने दया दान में पाप समझा कर कई एक गोत्रों वालों को अपने श्रावक समझ लिये हैं। यदि खरतरों को इन 45 गोत्रों के नायक बनना हो तो कोई प्रामाणिक प्रमाण जनता के सामने पेश करना चाहिये / क्योंकि अब केवल अन्ध श्रद्धा का जमाना नहीं है कि मात्र खीचडी की माला व मंत्र से जनता को बहका दें और उन्हें भ्रम में डाल कर अपना स्वार्थ संपादन कर लें ? केवल जिनदत्तसूरि ही क्यों, पर मैं तो यहां तक कह सकता हूँ कि खरतरगच्छ को पैदा हुए करीबन 800 सौ वर्ष हुए हैं / इतने लम्बे अर्से में भो किसी.खरतराचार्य ने एकाध अजैन को जैन बना कर नयी जैन जाति की स्थापना नहीं की है। ___हाँ-छल प्रपञ्च, झगड़ा, टंटा कर पूर्व बनी हुई जैन जातियों के अन्दर से कई एक लोगों को अपने पक्ष में जरूर बना लिये हैं। नमूना के तौर पर मैं दो चार ऐसे उदाहरण यहां उद्धृत कर देता हूँ। (1) खरतरगच्छ पट्टावलि में निम्न लिखित उल्लेख मिलता है कि-"एक समय उधरण मंत्री ने नागपुर (नागोर) में जिनमन्दिर बनाया प्रतिष्ठा के लिये अपने कुलगुरू (उपकेशगच्छा चार्य ) को बुलाया पर वह किसी कारणवस मुहुर्त पर श्रा नहीं सके / उस हालत में मंत्री की औरत खरतर गच्छ के श्रावक की पुत्री थी। उसने जिनपतिसूरि को बुला कर प्रतिष्ठा कराई उस दिन से मंत्री की संतान खरतर गच्छ की क्रिया करने लगी। -“गच्छ प्रबन्ध पृष्ट 241 'खरतर गच्छ पैटावलि": Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 44 ) उपकेशगच्छ चरित्र में इस विषय का एक उल्लेख मिलता राजादि लोकैरेवंस पूज्य मानो महामुनिः / सपाद लक्ष विषये, विजहार कदाचन / 403 / तदा खरातराचार्य, श्री जिनपति सूरिभिः / साद्धं विवादो विधे, गुरु काव्याष्टकच्छले।४०४। श्रीमत्य जयमेाख्ये, दुर्गे विसल भूपतेः / सभायां निर्जितायेन, श्रीजिनपति सूरयः / 505 // ___ “उपकेशगच्छ चरित्र" रचना वि. स. 1391 पह्मप्रभ वाचक और खरतराचार्य जिनपतिसूरि के अजमेर का राजा विसलदेव की सभा में शास्त्रार्थ हुआ जिसमें वाचकजी ने जिनपतिसूरि को परास्त किया। ___ शायद उपकेशगच्छीय मंत्री उधरण के कराया हुआमंदिर की प्रतिष्टा कर जिनपतिसूरि ने पूर्वाचार्यों के नियम का भंग करने के कारण ही उपकेश गच्छीय वाचकवर्य ने राजसभा में जिनपतिसूरि की इस प्रकार खबर ली हो। खैर कुछ भी हो पर खरतरों ने इस प्रकार के छल प्रपंच से ही अन्य गच्छीय श्रावकों को इधर उधर से ले कर अपनी दुकानदारी जमाई है इसका यह खरतर 'पट्टावलि का एक उदाहरण हैं आगे और भी देखिये / (2) गुड़ा नगर में-कोरंट गच्छीय शाह रामा संखलेचा ने एक पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया, और प्रतिष्ठा के लिए कोरंटगच्छाचार्य को आमन्त्रण भेज बुलवाया, और रामाशाह की पत्नी खरतरगच्छीय श्रावक की बेटी थी, जब वह अपने पिता Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 45 ) के घर गई तो वहाँ खरतर गच्छ के आचार्य आये हुये थे, शाह की पत्नी ने उनको भद्रिकपने से विनति की कि महाराज ! आप भी प्रतिष्ठा पर पधारें। बस ! दोनों गच्छ के आचार्य प्रतिष्ठा के समय पधार गए और वासक्षेप देने की आपस में तकरार हो गई, क्यों कि दोनों प्राचार्य आमंत्रण से आये हुए थे / अखिर यह निपटारा किया कि रामाशाह और उसका बड़ा पुत्र धवल इन दोनों पर तो वास क्षेप कोरंट गच्छाचार्य ने डाला; तथा रामाशाह की पत्नी और छोटे बेटे जगडू पर खरतराचार्य ने वास क्षेप डाला। इसका यह नतीजा हुआ / कि धवलशाह की सन्ताव कोरंटगच्छ की, और जगडुशाह की संतान खरतर गक्छ की क्रिया करने लग गई। इस प्रकार एक ही पिता के दो पुत्रों में गच्छ भेद डाल दिया गया। (3) किराट कूप-नगर में जयमल बोत्थरा ने श्री सिद्धाचल का संघ निकालने का निश्चय किया, और अपने कोरंट गच्छ के आचार्य को आमन्त्रण भेजा पर वे किसी कारण वशात् आ नहीं सके / उस समय खरतराचार्य वहाँ विद्यमान थे, जयमल ने उनको संघ में चलने का आमन्त्रण किया तब उन्होंने जयमल से यह शर्त की कि यदि तुम हमारा वासक्षेप लेकर हमारी क्रिया करो तो हम संघ में साथ चलें। बस-गरजवान क्या नहीं करता हैं ? संघपति जयमल ने भी शर्त को स्वीकार करली / उस दिन से जयमल की संतान कोरंटगन्छ की होने पर भी खरतरों की क्रिया करने लग गई। (4) जोधपुर-के दफ्तरी (बाफना) ने भी इसी प्रकार से सिद्धाचल का संघ निकाला, उस समय अपने उपकेशगच्छा. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्य को आमंत्रण भेजा, पर वे न आने से खरतराचार्य को संघ में ले गए उस दिन से वे भी खरतर गच्छ की क्रिया करने लग गए / फिर भी वे अपने को उपकेशगच्छोपासक अवश्य समझते हैं। (5) कापरड़ाजी-का भन्दिर सँडेरा गच्छीय भंडारी भानुमलजी ने बनाया था पर उसकी प्रतिष्ठा खरतराचार्य ने करवाई उस दिन से भानुमलजी की संतान संडेरा गच्छ को होने पर भी खरतर गन्छ की क्रिया करने लग गई / इत्यादि ऐसे अनेक उदाहरण मेरे पास विद्यमान हैं फिर भी जिस जिस समय यह क्रिया परिवर्तन हुआ उस उस समय तक तो बे लोग यह बात अच्छी तरह से समझते थे कि हमारा गच्छ और हमारे प्रतिबोधक आचार्य तो और ही हैं, तथा हम केवल पूर्वोक्त कारणों से ही अन्य गच्छ की क्रिया करते हैं / इतना ही क्यों पर आज ‘पर्यन्त भी कई लोग तो इसी प्रकार जानते हैं / हाँ कई लोग अधिक समय हो जाने के कारण अब इस बात को भूल भी गए हैं / खैर ! जो कुछ हो पर महाजन वंश का मूल गच्छ तो उपकेश गच्छ ही है। खरतरों ने तो इधर उधर से छल प्रपञ्च कर लोगों को कृतघ्नी बना अपना अखाड़ा जमाया है। खरतरों ने प्राचीन जातियों को अर्वाचीन बतला कर अपने उदर पोषण के साथ 2 प्राचीन इतिहास का भी बड़ा भारी खून किया है / क्योंकि जिन जातियों का 2400 वर्ष जितना प्राचीनत्व है उसको 800 वर्ष का अर्वाचीन बतलाना जब कि बीच में 1600 वर्ष के समय में अनेक नररत्नों ने आत्म-बलिदान और असंख्य द्रव्य व्यय कर देश, समाज, और धर्म की बडी 2 सेवायें Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 47 ) . की हैं उन्हें तो. खरतरों ने मिट्टी में ही मिला दिया / यदि ऐसे अधर्म और अन्याय करने में भी खरतरों ने गच्छ का अभ्युदय समझा हो तो इससे अधिक दुःख की बात ही क्या हो सकती है। खरतरों ने चोरड़िया, बाफना, संचेती और राकों को स्वतंत्र गोत्र लिख कर उनको खरतराचार्य प्रतिबोधित होना ठहराने में कई कल्पित ख्यातें रच डाली हैं। पर उनको इतना ही ज्ञान नहीं था कि चोरड़िया आदि मलगोत्र हैं या किसी प्राचीन गोत्र की शाखाएँ हैं ? इसके निर्णय के लिए हम ऊपर प्रमाण लिख आये हैं / उनकी प्रमाणिकता के लिये यहाँ कुछ सर्वमान्य शिलालेख उद्धत कर दिये जाते हैं। -- १-चोरड़िया जाति किस मूल गोत्र की शाखा है ? जिसके लिये शिलालेखों में इस प्रकार उल्लेख मिलते हैं:__ "सं 1524 वर्षे मार्गशीर्ष सुद 10 शुक्र उपकेश ज्ञातो आदित्यना गगोत्र स० गुणधर पुत्र० स० डालण भ० कपूरी पुत्र स० क्षेमपाल भ० जिणदेवा इ पु० स० सोहिलेन भातृ पासदत्त देवदत्त भार्या नानूयुतेन पित्री पुण्याथ श्री चन्द्रप्रभ चतुर्विशति पटुकारितः प्रतिष्ठित श्री उपकेश गच्छे ककुदा चार्य संताने श्री ककसूरिभिः श्री भट्टनगरे। .. बाबू पूर्ण० सं. शि. प्र० पृष्ट 13 लेखांक 50 "सं 1562 व० वै० स०१० रवौ उकेशाज्ञातौ श्री आदित्यनाग गोत्र चोरवेडिया शाखायाँ व० Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 48 ) डालण पुत्र रत्नपालेन स० श्रीवत व. धधुमल युतेन मातृ पितृ श्रे० श्री संभवनाथ वि. का. प्र. उपकेश गच्छे ककुदाचार्य श्रीदेवगुप्त सूरिभिः बोबू पू० सं. शि० प्र० तृष्ठ 117 लेखांक 497 "सं० 1516 वर्षे ज्येष्ट बदि 11 शुक्र उपकेश ज्ञातिय चोरडिया गोत्र उएशगच्छे सा० सोमा भा० धनाई पु० साधु सुहागदे सुत ईसा सहितेन स्वश्रेय से श्री सुमतिनाथ विवि कारितं प्रतिष्टितं श्री कक्व सूरिभिः सोणिरा वास्तव्य" लेखांक 558 पूर्वोक्त शिला लेखों से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि चोरड़िया स्वतंत्र गोत्र नहीं पर आदित्यनाग गोत्र की एक शाखा है। जब चोरडिया आदित्यनाग गोत्र की शाखा है तब गदइया गोले. च्छा, पारख, सावसुखा, नावरिया, बुचा, तेजांणि चौधरी दफ्तरी आदि 84 शाखाए भी आदित्यनाग गोत्र की शाखाएँ स्वयंसिद्ध हो जाती हैं और आदित्यनाग गोत्र के स्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरि ही हैं। जिनको आज 2393 वर्ष हो गुजरे हैं फिर समझ में नहीं आता है कि खरतरा चोरड़ियों को दादाजी प्रतिबोधिक खरतरा कैसे बतला रहे हैं ? विस्तार से देखो “जैन जाति निर्णय" नाम ग्रंथ जो मेरा लिखा है और फलौदी से मिलता है, जिसमें जोधपुर अदालत से इन्साफ होकर चोरडिया जाति उपकेशगच्छ की है ऐसा परवाना भी कर दिया है जिसकी नकल यहाँ दे दी जाती है।. .. .. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकल श्रीनाथजी श्रीजलन्धरनाथजी संघवीजी श्री फतेराजजी लिखावतो गढ़ जोधपुर, जालोर, मेड़ता, नागोर, सोजत, जैतारण, बीलाड़ा, पाली, गोड़वाड़, सीवाना, फलोदो, डीडवाना, पर्वतसर वगैरह परगनों में ओसवाल अठारह खांपरी दिशा तथा थारे ठेठु गुरु कँवलागच्छ रा भट्टारक सिद्धसूरिजी है जिणोंने तथा इणारा चेला हुवे जिणां ने गुरु करी ने मान जो ने जिको नहीं मानसी तीको दरबार में रु०.१०१) कपुर रा देशी ने परगना में सिकादर हुसी तीको उपर करसी / इणोंरा आगला परवाणा खास इणा कने हाजिर है। १-महाराजाजी श्री अजीतसिंहजो री सिलामती रो खास परवाणो सं० 1757 रा आसोज सुद 14 रो। २-महाराज श्री अभयसिंहजी री खास सिलामती रो खास परवाणो सं० 1781 रा जेठ सुद 6 रो। ३-महाराज बड़ा महाराज श्री विजयसिंहजी री सिलामती रो खास परवाणों सं० 1825 रा अाषाढ़ बद 3 रो। . __४-इण मुजब आगला परवाणा श्री हजूर में मालूम हुआ तरे फेर श्री हजूर रे खास दस्तखतां रो परवाणो सं. 1877 रा वैशाख बद 7 रो हुओ है तिण मुजब रहसी।. . Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगत खाँप अठारेरी-तातेड़, बाफणा, वेदमुहता, चोरडिया, करणावट, संचेती, समदड़िया, गदइया, लुणावत, कुमट, भटेवरा, छाजेड़, वरहट, श्रीश्रीमाल, लघुश्रेष्ठि, मोरख, पोकरणा, रांका डिडू इतरी खांपों वाला साग भट्टारक सिद्धसूरि ने और इणोंरा चेला हुवे जिणांने गुरु करने मान जो अने गच्छरी लाग हुवे तिका इणाँ ने दीजो। अबार इणारे ने लुंकों रा जतियों रे चोरड़ियों री खाँप रो असरचो पड़ियो / जद अदालत में न्याय हुवो ने जोधपुर, नागोर, मेड़ता, पोपाड़ रा चोरड़ियों री खबर मंगाई तरे उणोंने लिखायो के मोरे ठेठु गुरु कवलागच्छ रा है / तिणा माफिक दरबार सुं निरधार कर परवाणो कर दियो है सो इण मुजब रहसी श्री हजूर रो हुकम है / सं० 1878 पोस बद 14 / इस परवाना के पीछे लिखा है (नकल हजर के दफतर में लीधी छै) इन पाँच परवानों से यह सिद्ध होता है कि अठारा गोत्र वाले कँवला ( उपकेश ) गच्छ के उपासक श्रावक हैं / यद्यपि इस परवाने में 18 गोत्रों के अन्दर से तीन गोत्र, कुलहट, चिंचट ( देशरड़ा) कनोजिया इसमें नहीं आये हैं। उनके बदले गदइया, जो चोरड़ियों की शाखा है, लुनावत, और छाजेड़ जो उपकेश गच्छाचार्यों ने बाद में प्रतिबोध दे दोनों जातियां बनाई हैं इनके नाम दर्ज कर 18 की संख्या पूरी की है, पर मैं यहां केवल चोरडिया जाति के लिए ही लिख रहा हूँ / शेष जातियों के लिये देखो "जैन जाति निर्णय" नामक पुस्तक / उपरोक्त प्रमाणों से डंके की चोट सिद्ध हो जाता है कि चोर Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 51 ) ड़िया जाति उपकेस गच्छ अर्थात् कँवलागच्छो पासक हैं और स्वतंत्र गोत्र नहीं पर आदित्य नाग गोत्र की शाखा है। -श्रीमान भैंसाशाह के बनाये हुये अटारू ग्राम के मन्दिर के खण्डहरों में वि० सं० 508 का एक शिलालेख ऐतिहासिक विभाग के मर्मज्ञ मुन्शी देवीप्रसादजी की शोध खोज से प्राप्त हुआ है / आपने अपनी 'राजपूनाना की शोध खोज' नामक पुस्तक में इस विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है / इस सबल प्रमाण से सिद्ध होता है कि विक्रम की छटी शताब्दी में चोरडिया जाति भारत के चारों ओर फैली हुई थी। -ओसियाँ के एक चन्द्रप्रभ जिनका भग्न मन्दिर में गुरुवर्य रत्नविजयजी महाराज की शोध से टूटा हुआ पत्थर खण्ड. मिला जिस पर वि० सं० 6.2 आदित्यनाग गोत्रे खुदा हुआ, उपलब्ध हुआ है। .. -इस विषय के और भी अनेक प्रमाण मेंने संग्रह किये है वह उपकेशगच्छ पट्टावलि में दिए जायंगे / यहां पर एक खास खरतरगच्छीय वशावली का प्रमाण उद्धृत कर दिया जाता है, वह वंशावलि इस समय मेरे पास विद्यमान भी है जो 35 फीट लम्बी एक फीट चौड़ी ओलिया के रूप में है / प्रारंभ में नीलवर्ण. पार्श्वनाथ की मूर्ति का चित्र बाद दादा जिनदत्तसूरि के चरण भी हैं / प्रस्तुत वशावलि में गोलेच्छों की उत्पत्ति इस प्रकार लिखी है / ____ "खरतोजी चोरडिया गोलुग्राम में वास कियो उणरी 27 पीड़ी गोलुग्राम में रही जिणग क्रमशः नाम इण मुजब है (1) खस्त्रो 2 आमदेव 3 लालो, 4 कालो 5 जालन 6 करमण 7. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 52 ) सेरुण 8 जालो, 9 लाखण 10 पाल्हण 11 आसपाल 12 भोमाल 13 वीरदेव 14 जैदेव 15 पाददेव 16 बोहिथ 17 जसो. .18 दुर्गो 19 सीरदेव 20 अभदेव 21 महेश 22 कालु 23 सोमा 24 सोनपाल 25 कुशलो 26 सहादेव 27 गुलराज इण में गुल राज वि० सं० 1184 में गोलुग्राम छोड़ नागोर आयने वास कियो उण दिन सुं गुलराज रो परिवार गोलेच्छ कहवाणा। ___ यदि 27 पीढ़ी के 675 वर्ष समझा जाय तो वि० सं० 505 में खरताजी चोरडिया विद्यमान था फिर समझ में नहीं श्राता है कि खरतर लोग फँट मूट ही वि० सं० 1192 में जिनदत्त सूरि ने चोरडिया जाति बनाई, कह कर सभ्य समाज में हँसी के पात्र क्यों बनते हैं ? . सत्य कहा जाय तो जिनदत्तसूरि अपने जीवन में बड़ी आफत भोग रहे थे क्योंकि एक ओर तो जिनवल्लभसूरि चित्तौड़ के किले में रहकर भगवान महावीर के पांच कल्याणक के बदले छः कल्याणक की उत्सूत्र प्ररूपना की थी जिससे केवल चैत्यवासी. ही नहीं पर खरतरों के अलावा जितने गच्छ उस समय थे वे सबके सब इस छः कल्याणक की प्ररूपना का उत्सूत्र घोषित कर दिया था / जिनवल्लभसूरि आचार्य होने के बाद छः मास ही जीवित रहे वह आफत जिनदत्तसूरि पर आ पड़ी थी। और दूसरे जिनदत्तसूरि ने पट्टन में रहकर स्त्री प्रभु पूजा नहीं करे ऐसी मिथ्या प्ररूपना कर डाली इसलिये भी वे मारे मारे भटक रहे थे / तीसरे आपके गुरुभाई जिनशेखर सृरि आपसे खिलाफ हो कर आचार्य -बन अलग गच्छ निकाल रहे थे। चोथे आप गृहस्थों से द्रव्य -एकत्र कर अपने चरण स्थापन करवा कर पुजाने का प्रयत्न कर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 53 ) रहे थे इत्यादि। इन प्रपंचों के कारण उनको समय ही कहाँ मिलता था कि वे अजैनों को जैन बना सकें ? हाँ उस समय जैनियों की संख्या कोंड़ों की थी उसके आदर से कई भद्रिक लोगों को यंत्र मंत्र या किसी प्रकार का छल प्रपंच कर सवा लाख मनुष्यों को भगवान महावीर के छः कल्याण मना कर या भद्रिक स्त्रियों को जिन पूजा छोड़ा कर अपने उपासक बना लिया हो इसमें भी आज के खरतर फूले ही नहीं समाते हैं पर उन्हों को यह मालुम नहीं है कि जिनदत्तसरि ने तो क्रोडों से सवा लाख मनुष्यों को पतित बनाये पर ढूंढिये तेरहपन्थी तो लाखों से भी दो तीन लाख जैनियों को मूर्तिपूजा छोड़ा कर अपने उपासक बना लिया क्यों वे जिनदत्तरि से विशेष कहला सकेंगे ? . जिस प्रकार खरतरों ने चोरड़ियों के विषय में मिथ्या लेख लिखा है इसी प्रकार वाफना संचेति रॉका वगैरह जातियों के लिए भी मिथ्या प्रलाप किया है पर अभी तक खरतरों को इस बात का ज्ञान तक भी नहीं है कि इस समय जिन लोगों को जिन जातियों के नाम से सम्बोधन किया जाता है वास्तव में उनका मूल गोत्र यही है या मूलगोत्र से निकली हुई शाखाएँ है ? इन्होंने तो प्रचलित जाति को ही खरतराचार्य प्रतिबोधित लिख मारा है . उदाहरण के तौर पर देखिये: Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 54 ) (2) बाफना जाति को भी खरतरों ने दादाजी प्रतिबोधित स्वतंत्र गोत्र लिख दिया है, पर वह स्वतंत्र गोत्र नहीं है / देखिये शिला लेखों में इस जाति का मूल गोत्र बप्पनाग लिखा हुआ मिलता है। ___ "सं० 1386 वर्षे ज्येष्ठ व० 5 सोमे श्री उएशगच्छे बप्पनाग गोत्रे गोल्हा भार्या गुणादे पुख मोखटेन मातृपित्रोः श्रेयसे सुमतिनाथ विवं कारितं प्र० श्री ककुदाचार्य सं० श्री ककसूरिभिः” ____बाबू० पू० सं० शि० नीसरा खड पृष्ट 65 लेखांक 2253 / "सं० 1485 बर्षे वैशाख मुद 3 बुधे उपकेश ज्ञातौ बप्पनाग गोत्रे सा० कुड़ा पु० सा० सा साजणेन पित्रोः श्रेयसे श्री चन्द्रप्रभ बिम्बं कारितं प्र० श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य सं० श्री सिद्ध सूरिभिः" बाबू पूर्ण सं० शि० तीसरा पृष्ठ 91 लेखांक 2391 / इन दो शिला लेखों में बाफना जाति का मूल गोत्र बप्पनाग लिखा है तब आगे चलकर देखिये___"सं० 1521 वर्षे वैशास्त्र सुद 10 श्री उपकेश ज्ञातीय बापणा गोत्रे सा० देहड़ पुत्र देल्हा भा० धाई पुत्र सा० भीमा, कान्हा सा० भीमाकेन भा० वीराणी पुत्र श्रवणा माडु जाजु साहितेन श्रीं शान्तिनाथ मूलनायक प्रभृति चतुर्विंशति जिनपह Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 55 ) का० श्री उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने प्र० श्री सिद्धसूरि पट्टे ककसूरिभिः शुभं / " / बाबू पू० सं० शिं० द्वि० पृष्ठ 77 लेखांक 1489 / बाफना जाति बप्पनाग गोत्र का अपभ्रंश एवं शाखा है। उपरोक्त शिलालेखों से यह निःशंक सिद्ध हो जाता है कि बाफनों का मूल गोत्र बप्पनाग है और यह मूल अठारह गोत्रों में दूसरा गोत्र है। इसके प्रतिबोधक जिनदत्तसूरि के जन्म पूर्व करीबन 1500 वर्षे आचार्य रत्नप्रभसूरि थे / बाफना गोत्र के लिए जैसलमेर दरबार से इन्साफ़ भी हो चुका था कि बाफनों के आदि गुरु उपकेशगच्छाचार्य हैं। (विस्तार से देखो मेरी लिखी जैन जाति निर्णय किताब ) जब बाफना उपकेशगच्छ के श्रावक हैं तब बाफना की शाखा नाहटा, जांगड़ा, वैताला, पटवा, दफ्तरी, बालिया वगैरह '52 शाखाएं तो स्वयं उपकेशगच्छ की सिद्ध होती हैं। फिर समझ में नहीं पाता है कि इन प्राचीन जातियों को अर्वाचीन बतलाने में खरतरों ने क्या लाभ देखा होगा ? खरतरों ! अब बाफना इतने अज्ञात शायद ही हों कि अपना 2400 वर्षों का प्राचीन इतिहास छोड़ 800 वर्ष जितने अर्वाचीन बनने को तैयार हों। (3) इसी प्रकार रांका बांका को भी खरतरों ने स्वतंत्र गोत्र लिख मारा है पर इनके मूल गोत्र से खरतरे अभी अज्ञात Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 56 ) ही हैं। मन्दिर मूर्तियों के शिलालेखों में रांकों को बलाह गौत्र को शाखा बतलाई है / देखिये: __ "सं० 1528 वर्षे वैशाख वद 6 सोम दिने उपकेश ज्ञातौ बलहो गोत्रं रोका मा० गोयंद पु० सालिंग भा० बालहदे पु० दोल्हू नाम्ना भा० ललता दे पुत्रादि युतेन पित्रोः पुण्यार्थ स्व श्रेयसे च श्री नेमिनाथ बिंब का० प्र० उपकेशगच्छीय श्री ककुदाचार्य सं० श्री देवगुप्तसूरिभिः" ___ बाबू० पूर्ण० सं०शि० द्वि० पृष्ठ 129 लेखांक 1571 / "सं० 1576 वैशाख सुद 6 सोमे उपकेश ज्ञातौ बलहि गोत्रे रांका शाखायां सा० एसड़ भा० हापू पुत्र पेथाकेन भा० जीका पुत्र 2 देपा दूधादि परिवार युतेन स्वपुण्यार्थ श्री पद्मप्रभ बिंब कारितं प्रतिष्ठं श्रो उपकेशगच्छे ककुदाचार्य संताने भ० श्री सिद्धसूरिभिः दान्तराई वास्तव्यः" बावू. पर्ण० सं० शि० ले० सं० प्रथम पृष्ठ 19 लेखांक 74 / ___ इन शिलालेखों से स्पष्ट पाया जाता है कि गंका बांका कोई स्वतंत्र गोत्र नहीं है पर बलहा गोत्र की शाखा है और इन शाखाओं के निकलने का समय विक्रम की चौथी शताब्दी का है। उस समय खरतरगच्छ का ही नहीं पर नेमीचन्द सूरि तक का जन्म भी नहीं हुआ था। फिर समझ में नहीं आता Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 57 ) है कि खरतर लोग ऐसी बिना शिर पांव की गप्पें मारकर सभ्य समाज द्वारा अपनी हंसी कराने में क्या लाभ देखते होंगे। (4) खरतर लोग संचेती जाति को कोई तो वर्धमानसूरि और कोई जिनदत्तसूरि प्रतिबोधित स्वतंत्र गोत्र बतला रहे हैं। पर चोरडिया, बाफना, और रांकों की तरह इसका भी प्राचीन गोत्र कुछ और ही है ? देखिये___"सं० 1465 वर्षे मार्ग. वदि 4 गुरौ उपकेश ज्ञातो सुचिंति गोत्रे साह भिखु भायो जमानादे पु० सा० नान्हा भोजा केन मातृ पितृ श्रेयसे श्री शान्तिनाथ बिंबं कारितं श्री उपकेशगच्छ ककुदा चार्य संताने प्रतिष्ठितं श्री श्री सर्वसूरिभिः" बाबू पू० सं० शि• लेखांक 1641 सं० 1506 वर्षे वैशाख सुद 8 रवौ उपकेशे सुचिन्ति गोत्रे सा० नरपति पुत्र सा० साल्ह पु० कमण भा० केल्हारी पु० सधारण भा० संसारादे युतेन पित्रोः श्रेयसे श्री आदिनाथ बिंबे कारायितं प्र० उपकेश० ककुदाचार्य श्री ककसूरिभिः” ___ बाबू० पू० सं० शि० द्वि पृष्ठ 313 लेखांक 1494 / इन शिलालेखों से इतना निश्चय अवश्य हो सकता है कि संचेती जाति का मूल गोत्र सुचिंति है और इनके प्रतिबोधित आचार्य रत्नप्रभसूरि हैं जो खरतरगच्छ के जन्म के पूर्व करीब 1500 वर्षों में हुए हैं / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 58 ) पूर्वोक्त शिलालेखों से पाठक अच्छी तरह से समझ गए होंगे कि आधुनिक खरतरों ने जैन जातियों के गच्छों को रद्दोबदल कर जैन समाज को कितना धोखा दिया है ? और किस प्रकार इतिहास का खून कर प्राचीनता को हानि पहुँचाई है ? जिसको मैं विस्तार से समय मिलने पर फिर कभी लिखूगा। _____ खरतरों की कल्पित गप्पों की अब चारों ओर पोल खुलने लगी, तब वे लोग द्वेष के वशीभूत हो कई भद्रिक लोगों को यों बहकाने लगे कि कई लोग यों कहते हैं कि प्राचार्य रत्नप्रभसरि ने श्रोसियाँ में ओसवाल बनाये यह बिलकुल गलत है, क्योंकि न तो रत्नप्रभसूरि नाम के कोई आचार्य हुए हैं और न रत्नप्रभसूरि ने ओसिया में कभी ओसवाल बनाये ही हैं / ओसवाल तो खरतरगच्छाचार्यों ने ही बनाये हैं। इत्यादि, पर इस बात के कहने में सत्यता का अंश कितना है ? वह विद्वान् लोग निम्नलिखित प्रमाणों से स्वयं निर्णय कर सकते हैं। हमें न तो रत्नप्रभसूरि का पक्ष है और न खरतरों से किसी प्रकार का द्वेष ही है। हम तो सत्य के संशोधक हैं / यदि रत्नप्रभसूरि ने ओसवाल नहीं बनाये और खरतरों ने ही ओसवाल बनाये यह बात सत्य है तो हमें मानने में किसी प्रकार का एतराज नहीं है ? क्योंकि खरतरे भी तो न्यूनाधिक प्ररूपना करते हुए भी जैन ही हैं / परन्तु इस कथन में खरतरों को कुछ प्रमाण देना चाहिये, जैसे कि रत्नप्रभसूरि के लिए प्रमाण मिलते हैं / अब हम. खरतरों से यह पूछना चाहते हैं किः १-ओसवाल ज्ञाति का वंश उपकेशवंश है जो हजारों शिलालेखों से सिद्ध है और इस विषय के शिलालेखों के वाक्य हम. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 59 ) ऊपर लिख भी आए हैं / देखो इसी किताब के पृष्ठ 8 पर / यह उपकेशवंश उपकेशपुर, एवं उपकेशगच्छ से संबंध रखता है या खरतर गच्छ से ? ____२-रत्नप्रभसूरि नहीं हुए, और रत्नप्रभसूरि ने औसियाँ में ओसवाल नहीं बनाये तो आप यह बतलावें कि इस जाति का नाम ओसवाल क्यों हुआ है ? ३-यदि खरतरों ने ही श्रोसवाल बनाये हों तो खरतर शब्द की उत्पत्ति विक्रम को बारहवीं शताब्दी में हुई जब इसके 1000 पूर्व आचार्य हेमवन्तसरि हुए जो प्रसिद्ध खन्दिलाचार्य के पट्ट धर थे उन्होंने अपनी पट्टावली में यह क्यों लिखा कि___"भगवान् महावीर के निर्वाण से 70 वर्ष के बाद पार्श्वनाथ की परम्परा के छ8 पट्टधर आचार्य रत्नप्रभसूरिने उपकेश नगर में 180000 क्षत्रिय पुत्रों को उपदेश दे कर जैनधर्मी बनाया यहां से उपकेश नामक वंश चला" आगे चल कर इसी पट्टावली में लिखा है कि "मथुरा निवासी प्रोसवंश शिरोमणि श्रावक 'पोलाक' ने गन्धहस्ती विवरण सहित उन सर्व सूत्रों को ताड़पत्र आदि में लिखवा कर पठन पाठन के लिए निग्रन्थों को अर्पण किया इस प्रकार जैन शासन की उन्नति कर के स्थविर आर्य स्कन्दिल विक्रम संवत् 202 में मथुरा में ही अनसन करके स्वर्गवासी "इतिहासज्ञ मुनि श्री कल्याणविजयजी म. ने हेमवन्त Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पाटावलि का सारांश 'वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना' नामक पुस्तक के पृष्ठ 165 तथा 180 पर लिखा है। सुज्ञ पाठक ! विचार कर सकते हैं कि वि० सं० 202 में श्रोस वंश शिरोमणि पोलाक श्रावक विद्यमान था तब यह वंश वीरात् 70 वर्षे उत्पन्न होने में क्या शंका हो सकती है ? इस हालत में यह कह देना कि ओसवंश रत्नप्रभसूरि ने नहीं बनाया पर खरतराचार्यों ने बनाया यह सिवाय हँसी के और क्या हो सकता है / क्या पूर्वोक्त हाकने वाले ओसवालों के साथ खरतरों का कोई सम्बन्ध होना सावित कर सकता है ? जैसे ओसवालों का अर्थात् ओसियाँ और उपकेश वंश का घनिष्ट सम्बन्ध उपकेशपुर और उपकेशगच्छ के साथ है। 4- यदि खरतरों ने ही ओसवाल बनाये हैं तो खरतर शब्द का जन्म तो विक्रम की बारहवीं "तेरहवों" शताब्दी में हुआ पर श्रोसवाल तो उनके पूर्व भी थे ऐसा पूर्वोक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है / और भी देखिये ! श्राचार्य बप्पभट्टसूरि, विक्रम की नौवों शताब्दी के प्रारम्भ में हुए, उन्होंने ग्वालियर के राजा आम को प्रतिबोध कर विशद ओसवंश में शामिल किया, इसका उल्लेख शिलालेखों में मिलता है, जैसे कि: " एतश्च गोपाल गिरी गरिष्ठः, श्री बप्प भद्दो प्रति बोधितश्च / / श्री श्राम राजोऽजनि तस्य पत्नी, काचित् बभूव व्यवहारि पुत्री / / Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कुक्षि जातः किल राज कोष्ठा, गारात गोत्रे सुकृतैक पात्रः // श्री ओमवंशे विशदे विशाले, तस्याऽन्वयेऽमी पुरुषाः प्रसिद्धाः॥ "शत्रु ञ्जय विमलवंशी के मन्दिर के शिलालेख से" इस लेख से सिद्ध होता है कि विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी पूर्व ओसवंश विशद यानी विस्तृत संख्या में था / और खरतरों का जन्म विक्रम की बारहवीं शताब्दी में हुआ है / फिर समझ नहीं पड़ती है कि खरतर लोग इस भाँति अडंग बडंग गप्पें मार कर अपने गच्छ की क्या उन्नति करना चाहते हैं ? ५-पुरातत्व संशोधक इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसादजी ने राजपूताना की शोध खोज कर आपको जो प्राचीनता का मसाला मिला उसे “राजपताना की शोध खोज' नामक पुस्तक में छपवाः दिया, जिसमें आप लिखते हैं कि कोटा के "अटारू” ग्राम में एक भग्न मन्दिर में वि० सं० 508 का भैंसाशाह का शिलालेख मिला है। भला इन जैनेतर विद्वान् के तो किसी प्रकार का पक्षपात नहीं था / उन्होंने तो आंखों से देख के ही छपाया है। जब 508 में आदित्यनाग गोत्र' का भैंसाशाह विद्यमान था तब यह ओसवंश कितना प्राचीन है कि उस समय खरतर तो भावी के गर्भ में ही थे फिर यह कहना कि ओसवाल ज्ञाति खरतराचार्यों ने हो बनाई कैसी अज्ञानता का वाक्य है ? 1 पट्टावलियों से भंसाशाह का गौत्र आदित्य नाग सावित होता है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६-विक्रम की आठवीं शताब्दी का जिक्र है कि भिन्नमाल नगर का राजा भाण उपकेशपुर का रत्नाशाह ओसवाल की पुत्री के में स्पष्ट रूप से मिलता है। - ७-श्रीमान् बाबू पूर्णचन्दजी नाहर कलकत्ता वालों ने अपने "प्राचीन शिलालेख संग्रह खंड तीसरा" के पृष्ठ 25 पर लिखा है कि: "इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि ओसवाल में श्रोस शब्द ही प्रधान है। श्रोस शब्द भी उएश शब्द का रूपान्तर है और उएश, उपकेश, का प्राकृत हैxxx इसी प्रकार मारवाड़ के अन्तर्गत "ओसियां" नामक स्थान भी उपकेश नगर का रूपान्तर हैxxxx जैनाचार्य रत्नप्रभ सूरिजी ने वहाँ के राजपूतों को जीव हिंसा छुड़ा कर उन लोगों को दीक्षित करने के पश्चात् वे राजपूत लोग उपकेश अर्थात् प्रोसवाल नाम से प्रसिद्ध हुए।" . श्रीमान नाहरजी ऐतिहासिक साधनों का अभाव बतलाते हुए इस अनुमान पर आए हैं किः "xxxसंभव है कि वि०सं०५०० के पश्चात् और वि० सं० 1000 के पूर्व किसी समय उपकेश (ोसवाल) ज्ञाति की उत्पत्ति हुई होगी? Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् नाहरजी स्वयं नागपुरिय तगगच्छ के श्रावक होते हुए भी खातरों के रंग में रंगे हुए हैं। यह बात आपकी लिखी हुई बाफनों को उत्पत्ति से विदित होती है। क्योंकि उपकेश वंश के इतने सबल प्रमाण उपलब्ध होने पर भी आप अनुमान लगाते हैं किन्तु बाफनों के खरतर होने में कोई भी ऐतिहासिक साधन नहीं मिलता है फिर भी उसे खींच तानकर आप खरतर बनाने की कोशिश की हैं। जब कि बाफना गोत्र रत्नप्रभसूरि स्थापित महाजन वंश के क्रमशः 18 गोत्रों में दूसरा गोत्र तथा शिलालेखों के आधार पर वह उपकेश गच्छीय स्वतः सिद्ध है। किन्तु नाहरजी ने उसे जिनदत्त सूरि प्रति बोधित करार देने में आज आकाश पाताल एक कर दिया है / पर दुःख इस बात का है कि नाहरजी ने बाफनों की उत्पत्ति के विषय में न तो इतिहास की ओर ध्यान दिया है और न अपनी बात को प्रमाणत करने को कोई प्रमाण ही दिया है। जैसे खरतर यतियों ने बाफनों की उत्पत्ति का कल्पित ढांचा खड़ा किया था, ठीक उसी का अनुसरण कर आपने भी लिख दिया कि बाफनों के प्रतिबोधक जिनदत्तसूरि हैं। किन्तु इस विषय में मेरी लिखी “जैन जाति निर्णय" नामक पुस्तक देखनी चाहिये / क्योकिं बाफना रत्नप्रभसूरि द्वारा ही प्रति बोधित हुए हैं। ____ उपकेशगच्छ में वीरात् 70 वर्ष से 1000 वर्षों में रत्नप्रभसूरि नाम के 6 आचार्य हुए हैं। शायद नाहरजी का ख्याल वि. सं० 500 वर्ष पश्चात् और 1000 वर्षों पूर्व में हुए किसी रनप्रभसूरि ने उपकेशपुर ( ओसियां ) में ओसर्वस की स्थापना करने का होगा जैसा आपने ऊपर लिखा है। खैर ! इस विषय का Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 64 ) खुलासा तो मैंने "ओसवालोत्पत्ति विषयक शंका समाधान" नामक पुस्तक में विस्तृत रूप से कर दिया है। पर यहां तो इतना ही बतलाना है कि नाहरजी के लेखानुसार यदि ओसवंश की उत्पत्ति वि० सं० 500 और 1000 के बीच में हुई हो तो भी उस समय खरतरों का तो जन्म भी नहीं हुआ था। फिर वे किस आधार पर यह कह सकते हैं कि ओसवाल खरतराचार्यों ने बनाए / सच पूछा जाय तो यह केवल कल्पना मात्रऔर भोले भोंदू लोगों को बहका कर अपने जाल में फंसाने का हो मात्र प्रपञ्च है / आचार्य विजयानंदसूरि ( आत्मारामजी) अपने अज्ञान तिमिर भाष्कार नामक ग्रंथ में लिखते हैं कि. xxxवह रत्नप्रभसूरि / द्धादशंग-चतुदर्श पूर्व धर थे वोरात् 52 वर्षे इनको प्राचार्य पद मिला / इनके साथ 500 साधुओं का परिवार था तिस नगरी में श्री रत्नप्रभसूरि आये तिनों ने तिस नगरो में 125000 सवा लाख श्रावक जैन धर्मी करे तब तिनके वंश का उपकेश ऐसी संज्ञा पड़ी और नगर का नाम भी उस समय उपकेश पुर ही था उपकेशपटन और उपकेश वंश का ही नाम श्रोसा नगरी और प्रोसवंश-ओसवाल हुआ है मैंने कित नेक पुराने पट्टावली पुस्तकों में वीरात् 70 वर्षे उपकेशे श्रीवीर प्रतिष्ठा श्रीरत्नप्रभसूरि ने करी और ओसवाल भी प्रथम तिस रत्नप्रभसूरि ने Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरात् 70 वर्षे स्थापन करे हमने ऐसा देखा है" आप श्रीमान् ने भले पट्टावलियों आदि पुस्तकों को देखकर इस बात को लिखी हो पर आज इस विषय को साबित करने के लिये अनेक ऐतिहासिक साधन विद्यमान है। ६-खरतरगच्छाचार्यों ने एक भी नया ओसवाल बनाया हो ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है / हां-उस समय जैन समाज करोड़ों की संख्या मेंथा, जिनमें से कई भद्रिक लोगों को भगवान् महावीर के पांच कल्याणकं के बदले छः कल्याणक मनाकर तथा स्त्रियों को प्रभु पूजा छुड़ाकर लाख सवालाख मनुष्यों को खरतर बनाया हो तो इसमें दादाजी का कुछ भी महत्व नहीं है / कारण यह कार्य तो ढूढिया तेरह पन्थियों ने भी करके बता दिया है। ___यदि खरतराचार्यों ने किसी को प्रतिबोध देकर नया जैन बनाया हो तो खरतर लोग विश्वसनीय प्रमाण बतलावें ? आज बीसवीं सदी है केवल चार दीवारों के बीच में बैठ अपने दृष्टि. रागियों के सामने मनमानी बातें करने का एवं अर्वाचीन समय की कल्पित पट्टावलियों बतला कर धोखा देने का जमाना नहीं है / मैं तो आज डङ्क की चोट से कहता हूँ कि खरतरों के पास ऐसा कोई भी प्रमाण हो कि किसी खरतराचार्य ने प्रोसवाल जाति तो क्या ? पर एक भी नया पोसवाल बनाया हो तो वे बतखाने को कटिबद्ध हो मैदान में आवें। इत्यलम् Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोसवंश क गौत्र एवं जातियों की उत्पत्ति भोर खरतरों का गप्प पुराण ( लेखक-केसरीचन्द-चोरडिया ) श्रोसवाल यह उपकेश वंश का अपभ्रंश है और उपकेश वंश यह महाजन वंश का ही उपनाम है इसके स्थापक जैनाचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज हैं / आप श्रीमान भगवान पार्श्वनाथ के छट्टे पट्टधर थे और वीरात 70 वर्षे उपकेशपुर में क्षत्रीय वंशादि लाखों मनुष्यों को मांस मदिरादि कुव्यसन छुड़ा कर मंत्रों द्वारा उन्हों की शुद्धि कर वासक्षेप के विधि विधान से महाजन वंश की स्थापना की थी इस विषय का विस्तृत वर्णन के लिये देखो "महाजन वंश का इतिहास-" महाजन वंश का क्रमशः अभ्युदय एवं वृद्धि होती गई और कई प्रभावशाली नामाङ्कित पुरुषों के नाम एवं कई कारणों से गोत्र और जातियां भी बनती गई। महाजन संघ की स्थापना के बाद 303 अर्थात् वीर निर्वाण के बाद 373 वर्षे उपकेशपुर में महावीर प्रतिमा के ग्रंथी छेद का एक बड़ा भारी उपद्रव हुआ जिसकी शान्ति प्राचार्यश्रीकक्कसूरिजी महाराज के अध्यक्षत्व में हुई उस समय निम्नलिखित 18 गोत्र के लोग स्नात्रीय बने थे जिन्हों का उल्लेख उपकेश गच्छ चरित्र में इस प्रकार से किया हुआ मिलता है उक्त च / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तलमटो बाप्पनागस्ततः कर्णाट गोत्रजः / तुर्य बलाभ्यो नामाऽपि श्री श्रीमाल पश्चमस्तथा / 166 कुलभद्रो मोरिषश्च, विरिहिद्याह्नयोऽष्टमः श्रीष्टि गौत्राण्यमृन्यासन, पते दक्षिण संज्ञके // 170 मुन्चितिताऽदित्यनागौ, भूरि भाद्रोऽथ चिंचटिं कुमट कन्याकुब्जोऽथ, डिडूभाख्येष्टमोऽपिच / 171 // तथाऽन्यः श्रष्टिगौत्रीय, महावीरस्य वामतः नव तिष्टन्ति गोत्राणि, पञ्चामृत महोत्सवे // 172 (1) तप्तभट (तातेड़) (2) बाप्पनाग (वाफना) (3) कर्णाट (करणावट) (4) वलाह (रांका बांका सेठ) (5) श्रीश्रीमाल , (6) कुलभद्र (सूरवा) (7) मोरख (पोकरणा) (8) विरहट (भूरंट) (9) श्रेष्टि (वैद्य मेहता) एवं नव गोत्र वाले स्नात्रीय प्रभु प्रतिमा के दक्षिण-जीमण तरफ पुजापा का सामान लिये खड़े थे। (1) सूचिति (संचेती) (2) आदित्यनाग (चोरडिया ) (3) भूरि (भटेवरा) (4) भाद्रो (समदड़िया) (5) चिंचट (देसरड़ा) (6) कुमट (7) कन्याकुब्ज (कनोजिया) (8) डिडू (कोचर मेहता) (9) लघु श्रेष्टि (वर्धमाना) एवं नव स्नात्रीय पञ्चामृत लिए महाबीर मूर्ति के वाम-डावे पासें खड़े थे। यह कथन केवल उपकेशपुर के महाजन संघ का ही है - नाहटा, जांघड़ा, वैताला, पटवा, बलिया, दफ्तरी वगैरह। *गुलेछा, पारख, गदइया, सावसुखा, बुचा नाबरिया चौधरी दफ्तरी वगैरह भी आदित्यनाग गौत्र की शाखाए हैं। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 68 ) जिसमें भी स्नात्रीय बने थे उन्हों के गौत्र है पर इनके सिवाय उपकेशपुर में तथा अन्य स्थानों में बसने वाले महाजनों के क्या क्या गोत्र होंगे उनका उल्लेख नहीं मिलता है तथापि सम्भव है कि इतने विशाल संघ में तथा तीन सौ वर्ष जितने लम्बे समय में कई गोत्र हुए ही होंगे / यदि खोज करने पर पता मिलेगा उनको भविष्य में प्रकाशित करवाया जायगा। उपरोक्त गोत्र एवं जातियों के अलावा भी जैनाचार्यों ने राज पूतादि जातियों की शुद्धि कर महाजन संघ (ओसवाल वंश) में शामिल मिला कर उसकी वृद्धि की थी जैसे कि १-आर्य गोत्र- लुनावत शाखा-वि. सं. 684 आचार्य देवगुप्तसूरि ने सिन्ध कारावगौसलभाटी को प्रतिबोध कर जैन वना कर ओसवंश में शामिल किया जिन्हों का खुर्शीनामा और धर्म कृत्य की नामावली जैन जाति महोदय द्वितीयखण्ड में दी जायगी "खरतर गच्छीय यति रामलालजी महाजन वंश मुक्तावली पृष्ट 33 में कल्पित कथा लिंख वि० सं० 198 में तथा यति श्रीपालजी ने वि० सं० 1175 में जिनदत्त सूरि ने आय गोत्र बनाया घसीट मारा है। यह बिलकुल गप्प है। इससे पांच सौ वर्षों के इतिहास का खून होता है। २-भंडारी-वि. सं. 1839 में प्राचार्य यशोभद्र सूरि ने नाडोल के राव लाखण का लघुभाई राव दुद्धको प्रतिबोध कर जैन बनाया / बाद माता श्राशापुरी के भण्डार का काम करने से भंडारी कहलाया जैतारण, सोजत और जोधपुर के भण्डारियों के पास अपना खुर्शीनाम आज भी विद्यमान है / "खरतर० यति रामलालजी ने महा० मुक्त० पृष्ठ 69 पर लिखा है कि वि. सं. 1478 में खरतराचार्य जिनभद्रसूरि ने नाडोल के राव लाखण के Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 69 ) महेसादि 6 पुत्रों को प्रतिबोध दे कर भण्डारी बनाया मूल गच्छ खरतर है। ____ कसोटी-पं. गौरीशंकरजी ओझा ने राजपूताना का इतिहास में लिखा है कि वि. सं. 1024 में राव लाखण शाकम्भरी (सांभर) से नाडोल आकर अपनी राजधानी कायम की फिर समझ में नहीं आता है कि यतिजी ने यह सफेद गप्प क्यों हांकी होगी कहाँ राव लाखण का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी और कहां भद्रसूरि का समय पंद्रहवीं शताब्दी ? क्या भण्डारी इतने अज्ञात हैं कि इस प्रकार गप्प पर विश्वास कर अपने इतिहास के लिए चार शताब्दी का खून कर डालेगा ? कदापि नहीं ३-संघी-वि. सं. 1021 में आचार्य सर्व देवसूरि ने चन्द्रावती के पास ढेलड़िया ग्राम में पँवारराव संघराव आदि को प्रतिबोध देकर जैन बनाये संघराव का पुत्र विजयराव ने एक करोड़ द्रव्य व्यय कर सिद्धगिरि का संघ निकाला तथा संघ को सुवर्ण मोहरों की लेन दी और अपने ग्राम में श्री पार्श्वनाथजी का विशाल मंदिर बनवाया इत्यादि / संघराव की संतान संघी कहलाई। "खरतर यति रामलालजी महा० मुक्ता० पृष्ट 69. पर लिखा है कि सिरोही राज में ननवाणा बोहरा सोनपाल के पुत्र को सांप काटा जिसका विष जिनवल्लभसूरि ने उतारा वि० सं० 1164 में जैन बनाया मूल गच्छ खरतर-" कसौटी-जिनवल्लभसूरि के जीवन में ऐसा कहीं पर भी नहीं लिखा है कि उन्होंने संघी गौत्र बनाया दूसरा उस समय ननवाणा बोहरा भी नहीं थे कारण जोधपुर के पास दस मील पर ननवाण नामक प्राम है विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी में वहां से Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 70 ) पल्लीवाल ब्राह्मण अन्यत्र जाकर वास करने से वे नंनवाणा बोहरा कहलाया फिर 1164 में ननवाणा बोहरा बतलाना यह गप्प नहीं तो क्या गप्प के बच्चे हैं ? 4 मुनौयत-जोधपुर के राजा रायपालजी के 13 पुत्र थे जिसमें चतुर्थ पुत्र मोहणजी थे वि० सं० 1301 में आचार्य शिवसेनसूरिने मोहणजी आदि को उपदेश देकर जैन बनाये आपकी संतान मुणोयतो के नाम से मशहूर हुई मोहणजो के सतावीसबी पीढि में मेहताजी विजयसिंहजी हुए (देखो आपका जीवन चरित्र) ___ "खरतर-यतिरामलालजी ने महा० मुक्ता० पृ० 98 पर लिखा है कि वि० सं० 1595 में आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने किसनगढ़ के राव रायमलजी के पुत्र मोहनजी को प्रतिवोध कर जैन वनाये मूलगच्छ, खरतर-" कसौटी-मारवाड़ राज के इतिहास में लिखा है कि जोधपुर के राजा उदयसिंहजी के पुत्र किसनसिंहजी ने वि० सं० 1666 में किसनगढ़ वसाया यही बात भारत के प्राचीन राज वंश (राष्ट्रकूट) पृष्ट 368 पर ऐ० पं०विश्वेवरनाथ रेउ ने लिखी है जब किसनगढ़ ही वि० सं० 1666 में वसा है तो वि० सं० 1595 में किसनगढ़ के राजा रायमल के पुत्र मोहणजी को कैसे प्रतिबोध दिया क्या यह मुनोयतों के प्राचीन इतिहास का खून नहीं है ? यतिजी जिस किशनगढ़ के राजा रायपाल का स्वप्न देखा है उसको किसी इतिहास में बतलाने का कष्ट करेगा ? ५सुरांणा-वि० सं० 1132 में प्राचार्य धर्मघोषसूरि के पवार राव सुरा आदि को प्रतिबोध कर जैन बनाये जिसकी उत्पति Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 में जिनदत्तमान महा मुक्का० पृ०४० - ( 71 ) खुर्शीनामा नागोर के गुरो गोपीचन्दजी के पास विद्यमान हैं। मुरा की संतान सुरांणा कहलाई / - "खरतर-यति रामलालजी ने महा० मुक्ता० पृ० 45 पर लिखा है कि वि० सं० 1175 में जिनदत्तसुरिने सुराणा बनाया-मूलगच्छ खरतर-" ___कसौटी-यदि सुरांणां जिनदत्तसूरि प्रतिवोधित होते तो सुरांणागच्छ अलग क्यों होता जो चौरासी गच्छों में एक है उस समय दादाजी का शायद जन्म भी नहीं हुआ होगा अतएव खरतरों का लिखना एक उड़ती हुई गप्प है। 6 झामड़ मावक-वि० सं० 988 आचार्य सर्वदेवसूर ने हथुड़ी के राठोड़ राव जगमालादिको प्रतिबोध कर जैन बनाये इन्हों को उत्पत्ति वंशावली नागपुरिया तपागच्छ वालों के पास विस्तार से मिलती हैं। . ___"खरतर-यति रामलालजी महा० मुक्ता० पृ० 21 पर लिखते हैं कि व० सं० 1575 में खरतराचार्य मद्रसूरि ने झाबुआ के राठोड़ राजा को उपदेश देकर जैन बनाये मूलगच्छ खरतर-” / ___कसोटी-भारत का प्राचीन राजवंश नामक इतिहास पुस्तक के पृष्ठ 363 पर पं० विश्वेश्वरनाथ रेउ ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है किः "यह झाबुआ नगर ईसवी सन् की 16 वीं शताब्दी में लाझाना जाति के झब्बू नायक ने बसाया था परन्तु वि० सं० 1664 (ई० सं० 1607) में वादशाह जहाँगीर ने केसवदासजी (राठोड़) को उक्त प्रदेश का अधिकार देकर राजा की पदवी से भूषित किया।" सभ्य समाज समझ सकता है कि वि० सं० 1664 में Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 72 ) माबुबा राठोड़ों के अधिकार में आया तब वि० सं० 1575 में वहां राठोड़ों का राज कैसे हुआ होगा ? दूसरा जिनभद्रसूरि भी उस समय विद्यमान हो नहीं थे कारण उनके देहान्त वि० सं० 1554 में होचुका था झावक लोग इस वीसवीं शताब्दी में इतने अज्ञात शायद् ही रहे हों कि इस प्रकार की गप्पों पर विश्वास कर सकें। भंवाल के झामड विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में अन्य प्रदेश से आकर भंबाल में वास किया बहां से क्रमशः आज पर्यन्त की हिस्ट्री उन्हों के पास विद्यमान हैं अतएव खरतरों का लिखना सरासर गप्प है। ___7 बाठिया-वि० सं० 912 में आचार्य भावदेवसूरि ने बाबू के पास प्रमा स्थान के राव माघुदेव को प्रतिबोध कर जैन बनाया उन्होंने श्री सिद्धाचल का संघ निकाला बांठ 2 पर आदमी और उन सब को पैरामणि देने से बांठिया कहलाये बाद वि० सं० 1340 रत्नाशाह से कवाड़ वि० सं० 1631 हरखाजी से शाहहरखावत हुए इत्यादि इस जाति की उत्पत्ति एवं खुशीनाम शुरू से श्रीमान् धनरूपमलजी शाह अजमेर वालों के तथा कल्याणमलजी वाठिया नागौर वालों के पास मौजूद है। "ख०-यति रामलालजी महा० मुक्ता० पृष्ठ 22 पर लिखते हैं कि वि० सं० 1167 में जिनवल्लभसरि ने रणथंभोर के पँवार राजा जालसिंह को उपदेश दे जैन बनाया मूल गच्छ खरतर-विशेषता यह है कि वाठिया ब्रह्मच शाह हरखावत वगैरह सब शाखाए लालसिंह के पुत्रों सेहो निकली बतलाते हैं।" . . कसौटी–कहाँ तो वि० सं० 912 का समय और कहाँ 1167 का समय / कवाड़ शाखा का समय 1340 का है तथा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 73 ) शाह हरखावत का समय वि० सं० 1631 का है जिसको खरतरों ने वि० सं० 1167 का बतलाया हैं इस जाति की उत्पत्ति के लिये तो खरतरों ने एक गप्पों का खजाना ही खोल दिया है पर क्या करें विचारे ! यतियों की इस प्रकार गप्पों पर कोई भी बाठिया शाह हरखावत कवाड़ विश्वास ही नहीं करते हैं। . ८-बोत्थरा-वि० सं० 1013 में कोरंट गच्छाचार्य नन्नप्रभसूरि ने बाबु के आस पास विहार कर बहुत से राजपूतों को प्रतिबोध कर जैन बनाये जिसमें मुख्य पुरुष राव धांधल चौहन था धांधल के पुत्र सुरजन-सुरजन के सांगण और सांगण के पुत्र राव बोहत्थ हुआ बोहत्थ ने चन्द्रावती में एक जैन मंदिर बनाया और श्री शत्रुजय का विराटसंघ निकाल सर्व तीर्थों की यात्रा कर सोना की थाली और जनौउ की लेन दी जिसमें सवा करोड़ द्रव्य खर्च हुआ अत. बोहत्य की सन्तान से बोत्थरा कहलाये / - "खरतर यति रामलालजी ने महा० मुक्ता० पृष्ट 51 पर लिखा है कि जालौर का राजा सावंतसिंह देवाड़ा के दो राणियां थी एक का पुत्र सागर दूसरी का वीरमदेव, जालौर का राज वीरमदेव को मिला तब सागर अपनी माता को लेकर आबु अपना नाना राजा भीम पवार के पास चला गया, राजा भीम ने आबु का राज सागर को दे दिया। उस समय चित्तौड़ का राणा रत्नसिंह पर मालवा का बादशाह फौज लेकर आया राणा ने आबु से सागर को मदद के लिये वुलाया, सागर बादशाह को पराजय कर मालवा छीन लिया। बाद गुजरात के बादशाह ने आबु पर भाक्रमण किया सागर ने उसको हटा कर गुजरात भी छीन लिया / बाद देहली का बादशाह गौरीशाह चितोड़ पर चढ़ आया फिर चितोड़ वालों ने सागर को बुलाया, सागर ने वहाँ आकर आपस में समझौता करवा कर बादशाह से 22 लाख रुपये दंड के लेकर मालवा गुजरात वापिस दे दिया। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 74 ) सागर के तीन पुत्र-१ बोहित्थ 2 गंगादास 3 जयसिंह भाबु का राज बोहित्य को मिला वि० सं० 1197 में जिनदत्तसूरि ने बोहित्य को उपदेश दिया बोहित्थ ने एक श्रीकर्ण नामक पुत्र को राज के लिये छोड़ दिया शेष पुत्रों के साथ आप जैन बन गया जिसका बोत्थरा गौत्र स्थापन किया इतना ही क्यों पर जिनदत्त सूरि ने तो यहाँ तक कह दिया कि तुम खरतरों को मानोगे तब तक तुम्हारा उदय होगा इत्यादि / ___ कसोटी-बोहित्थ का समय वि० सं० 1197 का है तब इसके पिता सागर का समय 1170 का होगा। चित्तौड़ का राणां रत्नसिंह सागर को अपनी मदद में बुलाता है अब पहला तो चित्तौड़ के राणा रत्नसिंह का समय को देखना है कि वह सागर के समय जितोड़ पर राज करता था या किसी अन्य गति में था। चित्तौड़ राणाओं का इतिहास में रत्नसिंह नाम के दो राजा हुए (1) वि० सं० 1359 ( दरीबे का शिला लेख) दूसरा वि० सं० 1584 में तख्त निशीन हुआ जब सागर का समय वि० सं० 1170 का कहा जाता है. समझ में नहीं आता है कि 1170 में रांणा सागर हुआ और 1359 में रत्नसिंह हुआ तो रत्नसिंह सागर की मदद के लिये किस भव में बुलाया होगा ? अब वि०सं० 1170 के आस पास चित्तौड़ के रांणों की वंशावली भी देख लीजिये / ___ चितोड़ के राणा | आबु का सागर के समय वैरिसिंह वि० सं० 1143 / चित्तौड़ पर कोई रत्नसिंह नाम विजयसिंह ,, ,, 1164 का राणा हुआ ही नहीं है यतिजी अरिसिंह , , 1184 | ने यह एक बिना शिर पैर की चौड़सिंह , ,, 1195 | गप्प ही मारी है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 75 ) आगे चल कर सागर का पिता सावंतसिंह देवड़ा का जालौर पर राज होना यतिजी ने लिखा है इसमें सत्यता कितनी है ? सावंतसिंह सागर का पिता होने से उसका समय वि० सं० 1150 के आस पास का होना चाहिये क्योंकि सागर का समय में सावंतसिंह देवड़ा तो क्या पर देवडा शाखा का प्रार्दुभाव तक भी नहीं हुआ था वास्तव में दवेडा शाखा विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में चौहान देवराज से निकली है जब यतिजी वि० सं० 1150 के आस पास जालौर पर सावंतसिंह देवडा का राज बत अब वि० सं० 1150 के आस पास जालौर पर किसका राज था इसका निर्णय के लिये जालोर का किल्ला में तोपखान के पास भीत में एक शिला लेख लगा हुआ है उसमें जालौर के राजाओं की नामावली इस प्रकार दी है। जालौर के पँवारराजा विशलदेव का उचराधिकारी पवार चन्दन . देवराज पर राज किया बाद नाडोल का चौहान अप्राजित कीर्तिपाल ने पँवारों से जालौर का राज विजय छीन कर अपना अधिकार जमा लिया / धारा वर्ष सभ्य समाज समझ सकते हैं कि विक्रम विशल देव (1174) | की ग्यारवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक जालौर पर पँवारों का राज रहा था जिसका प्रमाण वहाँ का शिला लेख दे रहा है फिर यतिजी ने यह अनर्गल गप्प क्यों यारी है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 76 ) अब आगे चल कर आबु की यात्रा कीजिये कि आबु पर चौहानों का राज किस समय से हुआ जो यति जी ने वि० सं० 1170 के आस पास राजा सागर देवड़ा का राज होना लिखा है। हम यहां पहला तो आबु के पँवार राजाओं की वंशावलि जो शिला लेखों के आधार पर स्थिर हुई और पं. गौरीशंकरजी ओझा ने सिरोही राज का इतिहास में लिखी है बतला देते हैं / आबु के पँवार राजा | धुधक वि०सं० 1078 इस आबु नरेशों में किसी स्थान पर देवड़ा सागर की गन्ध तक भी नहीं पूर्णपाल , 1102 मिलती है अतएव यतिजी का लिखना एक उड़ती गप्प है कि “वि० सं० 1170 के कान्हादेव,, 1123 आस पास आबु पर पँवार भीम का राज 'ध्रवभट था और उस के पुत्र न होने से अपनी पुत्री का पुत्र सागर देवड़ा को आबु का रामदेव राज दे दिया था / " विक्रम ,, 1201 | अब आबु पर चौहानों का राज कब से हुआ पं० गौरीशंकरजी ओझा सिरोही यशोधवल राज के इतिहास में लिखते हैं कि नाडोल धारावर्ष . का कीर्तिपाल चौहान वि० सं० 1236 में जालौर पर अपना अधिकार जमाया। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (' 77 ) जिसका शवत कीर्तिपाल संग्रामसिंह उदयसिंह (जालौर पर) मानसिंह (सिरोही गया) प्रतापसिंह विजल महाराव लुभा (आबु का राजा हुआ) इस खुर्शी नामा से स्पष्ट सिद्ध होता है कि विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में सिरोही के चौहान आबु के पँवारों से बाबु का राज छीन कर अपना अधिकार जमाया था जिसको यतिजी ने बारहवी शताब्दी लिख मारी है बलीहारी है यतियों के गप्पः पुरांण की____ अब सागर रांणा और मालवा का बादशाह का समय का अवलोकन कीजिये यतिजी ने सागर का समय वि० सं० 1170 के आस पास का लिखा है और "चितोड़ पर मालवा का बादशाह चढ़ आया तब चितोड़ का राणा अपनी मदद के लिये आबु से सागर देवड़ा को बुलाया और सागर ने बादशाह को पराजय कर उससे मालवा छीन लिया।" Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 78 ) यह भी एक उड़ती गप्प ही है क्यों कि न तो उस समय चित्तोड़ पर राणा रत्नसिंह का राज था और न मालवा में किसी बादशाह का राज ही था वि० सं० 1356 तक मालवा में पँवार राजा जयसिंह का राज था (देखो भारत का प्राचीन राजवंश) इसी प्रकार सागर देवड़ा के साथ गुजरात के बादशाह की कथा घड़ निकाली है गुजरात में वि० सं० 1358 तक बाघला वंश के राजा करण का राज था बाद में बादशाह के अधिकार में गुजरात चलाया गया। (देखो पाटण का इतिहास) इसी भांति सागर देवड़ा के साथ देहली बादशाह का अघटित सम्बन्ध जोड़ दिया है सागर का समय वि० सं० 1170 के आस पास का है तब देहली पर वि० सं० 1249 तक हिन्दू सम्राट् पृथ्वीराज चौहान का राज था फिर समझ में नहीं आता है कि यतिजो ऐसी असम्बन्धिक बातें लिख सभ्य समाज में हाँसी के पात्र क्यों बनते हैं क्या इस वीसवी शताब्दी के बोत्थरा बछावत इतने अज्ञात हैं कि यतिजी के इस प्रकार की गप्पों पर विश्वास कर अपने प्रतिबोधक कोरंटगच्छाचार्यों को भूल कर कृतघ्नी बन जाय ? ___ "खातर लोग कहा करते हैं कि हमारी वंशावलियों की बहियो बीकानेर में कर्मचन्द वच्छावत ने कुँवा में डाल कर नष्ट कर डाली इत्यादि / " शायद् इसका कारण यह ही तो न होगा कि उपरोक्त खर. तरों की लिखी हुई बोथरों की उत्पति कर्मचन्द पढ़ी हो और उनको वे कल्पित गप्पें मालुम हुइ हो तथा वह समझ गया हो कि हमारे प्रतिबोधक आचार्य कोरंटगच्छ के हैं केवल भधिक परिचय के कारण हम खरतरगच्छ को क्रिया करने के लिये ही खरतरों ने Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम लोगों को मुठ मूट ही खरतर बनाने को मिथ्या कल्पना कर डाली हैं अतएव खरतरों की सब की सब वंशावलियों कुँवा में डाल कर अपनी संतान को सदा के लिये सुखी बनाइ हो ? खैर कुछ भी हो पर खरतरों की उपरोक्त लिखी हुई बोत्थरों की उत्पति तो बिलकुल कल्पित है इस विषय में “जैन जाति निर्णय " नामक किताब को देखनी चाहिये कि जिस में विस्तार से समालोचना की गई है। वास्तव में राँणो सागर महागणा प्रताप का लघुभाई था और इसका समय विक्रम की सतरहवी शनाब्दी का है और सावंतसिंह देवड़ा विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में हुआ है खरतरों ने शिशोदा और देवड़ा को बाप बेटा बना कर यह ढंचा खडा किया है और यह कल्पित ढचा खड़ा करते समय यतियों को यह भान नहीं था कि इसकी समालोचना करने वाला भी कोई मिलेगा। खैर / इस समय खरतरगच्छ की सात पट्टावलियां मेरे पास मौजूद हैं जिसमें किसी भी पट्ठावलि में यह नही लिखा है कि जिनदत्तसूरी ने बोत्थरा जाति बनाई थी। पर उन पट्टावलियों से तो उलटा यही सिद्ध होता है कि दादाजी के पूर्व बोत्थरा जाति विद्यमान थी / जैसे खरतरगच्छीय क्षमा कल्याणजी ने वि० सं० 1830 में खरतरगच्छ पट्टावली लिखी है उसमे लिखा है कि___ 'तथा अणहिल्लपत्तने बोहित्थरा गौत्रीय श्रावकेभ्यो जयति हुण वर कापरुक्ख' इ त स्तोत्र दत्तम् __अर्थात् जिनदत्तसूरि ने अणहिल पट्टन में बोत्थोरा को स्तोत्र दिया इससे यही ज्ञात होता है कि जिनदत्त सूरि के पुर्व पाटण में बोत्थरा विद्यमान थे। अतएव बोत्थरा कोरंटगच्छीय आचार्य Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्नप्रभसूरि प्रतिबोधित कोरंटगच्छ के श्रावक हैं। क्रिथा के विषय मे जहां जिसका अधिक.परिचय था वहां उन्होंकी क्रिया करने लग गये थे पर बोत्थरों का मूलगक्छ तो कोरंटगच्छ ही है / ९-चोपड़ा-वि० सं० 885 में आचार्य देवगुप्तसरि ने कनौज के राठोड़ अडकमल को उपदेश देकर जैन बनाया कुकुम गणधर धूपिया इस जाति की शाखाए हैं / ___"खरतर यति रामलालजी चोपड़ा जाति को जिनदत्तसरि और श्रीपालजी वि० सं० 1152 में जिनवल्लभ सूरि ने मंडौर का नानदेव प्रतिहार-इन्दा शाखा को प्रतिबोध कर जैन बनाया लिखा है।" कसौटी-अव्वलतो प्रतिहारों में उस समय इन्दा शाखा का जन्म तक भी नहीं हुआ था देखिये प्रतिहारों का इतिहास बतला रहा है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में नाहडराव (नागभह) प्रसिद्ध प्रतिहार हुआ उसकी पांचवीं पिढ़ी में राव आम. यक हुआ उसके 12 पुत्रों से इन्दा नाम का पुत्र की सन्तान इन्दा कहलाई थी अतएव वि० सं० 1152 में. इन्दा शाखा ही नहीं थी दूसरा मंडोर के राजाओं में उस समय नानुदेव नाम का कोइ राजा ही नहीं हुआ प्रतिहारों की वशावली इस बात को सावित करती है जैसे कि Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (81 ) मंडोर के प्रतिहार / इस में 1103 से 1212 तक राव रघुराज सं० 1103/ कोई भी नानुदेव राजा नहीं हुआ है खरसेज्हाराज तरों को इतिहास की क्या परवाह है उन को तो किसी न किसी गप्प गोला चला संबरराज कर पोसवालों की प्रायः सब जातियों भपतिराज को खरतर बनाना है पर क्या करें अखेराज विचारे जमाना ही सत्य का एवं इतिनाहडराव (वि० सं० / हासका आगया कि खरतरों की गप्पे 1212) आकाश में उडती फरती हैं जैसे पाटण के बोत्थरों को स्तोत्र देकर दादाजी ने तथा आपके अनुययिथों ने बोत्थरों को अपने भक्त समझा हैं वैसे ही मता के चोपड़ो को "उपसग्गहरं पास" नामक स्तोत्र देकर अपने पक्ष में वनालियाहों इस बात का उल्लेख खरतर० क्षमाकल्याणजी ने अपनी पट्टवलिये में भी किया हैं बस ! खरतरों ने इस प्रकर, यंत्र-स्तोत्र देकर भद्रिक लोगों को कृतघ्नी बनाये हैं वास्तव में चोपड़ा उपकेश गच्छीय श्रावक हैं। __ १०--छाजेड़ वि० सं० 942 में प्राचार्य सिद्धसूरि ने शिवगढ़ के राठोडराव कजल को उपदेश देकर जैन बनाये कजल के पुत्र धवल और धवल के पुत्र छजू हुआ छजूने शिवगढ़ में भगवान पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर बनाया बाद शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला जिस में सोना की कटोरियों में एक एक मोहर रख लेण दी इत्यादि शुभ क्षेत्र में करोड़ों रुपये मर्च किये उस छजू की सन्तान छाजेड़ कहलाई। . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 82 ) "खरतर यति रामलालजी महा० मुक्ता० पृ० 68 पर लिखते हैं कि वि० सं० 1215 में जिनचन्द्रसूरि ने धांधल शाखा के राठोड रामदेव का पुत्र काजल को ऐसा वास चूर्ण दिया कि उसने अपने मकान के देवी मन्दिर के तथा जिनमन्दिर के छाजों पर वह वास चूर्ण डालते ही सब छाजे सोने के हो गये इस लिये वे छाजेड़ कहलाये इत्यादि / " - कसौटी-वासचूर्ण देने वालों में इतनी उदारता न होगी या काजल का हृदय संकीर्ण होगा ? यदि वह वासचूर्ण सब मन्दिर पर डाल देता तो कलिकाल का भरतेश्वर ही बन जाता ? ऐसा चमत्कारी चूर्ण देने वालों की मौजूदगी में मुसलमानों ने सैकड़ों मन्दिर एवं हज़ारों मूर्तियों को तोड़ डाले यह एक आश्चर्य की बात है खैर आगे चल कर राठोड़ो में धांधल शाखा को देखिये जिनचन्द्र सूरी के समय (वि० सं० 1215 ) में विद्यमान थी या खरतरों ने गप्प ही मारी हैं ? राठोड़ों का इतिहास डंका की चोट कहता है कि विक्रम की चौदहवी शताब्दी में राठीड़ राव बासस्थानजी के पुत्र धांधल से राठोड़ों में धांधल शाखा का जन्महुआ तब वि० 1215 में जिनचन्द्रसूरी किसको उपदेश दिया यह गप्प नहीं तो क्या गप्प के बच्चे हैं। ११-बाफना-इनका मूल गौत्र बाप्पनाग है और इसके प्रतिबोधक वीरात 70 वर्षे श्राचार्य रत्नप्रभसूरी हैं नाहाट जांघड़ा बेताला दफ्तरी बालिया पटवा वगेरह बाप्पनाग गौत्र की शाखाए हैं। "खरतर० यति रामलालजी मा० मु० पृ 34 पर लिखते है कि धारानगरी के राजा पृथ्वीधर पँवार की सोलह वीं पिढ़ि पर जवन और सच नामके दो नर हुए वे धारा से निकल जालौर फते कर वहाँ गज करने लगे xx जिनवल्लभ सूरि ने इनको विजययंत्र दिया था जिनदतसृरिने इनको Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश कर जैन बनाये बापना गौत्र स्थापन किया तथा पूर्व रन्तप्रभसरि द्वारा स्थापित बाफना गौत्र भी इनमें मिलगया इत्यादि" . कसौटी-इस घटना का समय जिनवल्लभ सरि और जिनदत्त सूरि से संबन्ध रखता हैं अतएव वि०सं० 1170 के आस पास का समझा जासकता है उस समय धारा या जालौर पर कोई जवन सच्चू नामक व्यक्ति का अस्तित्व था या नहीं इस के लिये हम यहाँ दोनों स्थानों की वंशावलियों का उल्लेख कर देते है जालौर के पँवार राजा धारा के पँवार राजा चन्दन राजा नर वर्मा (वि० सं० 1164) देवराज यशोवर्मा ( ,, 1192) अप्राजित जयवर्मा विजल लक्षणवर्मा (,, 6200) धारावर्ष हरिचन्द्र (, 1236) विशालदेव ( वि० 1174) (जालोर तोपखाना का शिलालेख) / (पँवारों का इतिहास से) कुंतपाल (वि० 1236 ) जालौर और धारा के राजाओं में जवन सच्चू की गन्ध तक भी नहीं मिलती है फिर समझ में नहीं आता है कि यतिजी ने यह गप्प क्यों हांक दी होगी ? ___आचार्य रत्नप्रभसूरि ने बाफना पहिला बनाया था तो यतिजी लिखते ही हैं फिर दादाजी ने बाफना गौत्र क्यों स्थापित किया और Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 84 ) जवन सच्चू के साथ बाफनों का कोई खास तौर पर सम्बन्ध भी . नहीं पाया जाता है। - वि० सं० 1891 में जैसलमेर के पटवों ( वाफनों ) ने शत्रुजय का संघ निकाला उस समय चासक्षेप देने का खरतरों ने व्यर्थी ही झगड़ा खड़ा किया जिसका इन्साफ वहाँ के रावल राजा गजसिंह ने दिया कि बाफना उपकेशगच्छ के ही श्रावक हैं वासक्षेप देने का अधिकार उपकेशगच्छ वालों का ही है विस्तार से देखो जैन जाति निर्णय नामककिताब / __ 12 राखेचा-वि० सं० 878 में प्राचार्य देवगुप्तासूरि ने कालेरा का भाटीराव राखेचा को प्रतिबोध देकर जैन बनाया उसकी संतान राखेचा कहलाई पुंगलिया वगैरह इस जाति की शाखा है "ख० य० रा. म. मु० पृष्ठ 42 पर लिखा है कि वि० सं० 1187 में जिनदत्तसूरि ने जैसलमेर के भाटी जैतसी के पुत्र कल्हण का कुष्ट रोग मिटाकर जैन बनाकर राखेचा गौत्र स्थापन किया।" कसोटी-खुद जैसलमेर ही वि० सं० 1212 में भाटी जैसल ने आबाद किया तो फिर 1178 में जैसलमेर का भाटी को जिनदत्तसूरि ने कैसे प्रतिबोध दिया होगा। बहारे यतियों तुमने गप्प मारने की सीमा भी नहीं रखी। - १२-पोकरणा यह मोरख गौत्र की शाखा है और इनके प्रतिबोधक वीरन् 70 वर्षे प्राचार्य श्री रत्नप्रभ सरि हैं। "खर० य० रा० म० मु० पृष्ट 83 पर लिखा है कि जिनदत्तसरि का एक शिष्य पुष्कर के तलाब में डूबता हुआ एक पुरुष और एक विधवा औरत को बचा कर उनको जैन बनाया और पोकरणा जाति स्थापन को / Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 85 ) कसौटी-जिनदत्तसूरि का देहान्त वि० सं० 1211 में हुआ उस समय पूर्व की यह घटना होगा / तब पुष्कर का तलाब वि० सं० 1212 में प्रतिहार नाहाडराव ने खुदाया बाद कई अर्सा से गोहों पैदा हुई होगी इस दशा में जिनदत्त सुरि के शिष्य ने स्त्री पुरुष को गोहों से कैसे बचाया होगा यह भी एक गप्प ही है। ___१४-कोचर यह डिड् गौत्र की शाखा है और विक्रम की सोलहवी शताब्दी में मंडीर के डिडू गोत्रीय मेहपालजी का पुत्र कौचर था उसने राव सूजाही की अध्यक्षता में रह कर फलौदी शहर को श्राबाद किया कोचर जी की सन्तान कोचर कहलाई इसके मूल गौत्र डिडू है और इनके प्रतिवोधक वीरान 70 वर्षे आचार्य रत्नप्रभ सूरि ही थे। "ख० य. रा. म. मु० पृ० 83 पर इधर उधर की असम्बंधित पाते लिख कर कौचरों को पहले उपकेशगच्छीय फिर तपा गच्छीय और बाद खरतरे लिख है इतना ही नहीं बल्कि कई ऐसी अघटित बाते लिख कर इतिहास का खून भी कर डाला है।" . कसौटी-इस जाति के लिये देखो "जैन जाति निर्णय" नामक पुस्तक वहाँ बिस्तार से उल्लेख किया है / और कोचरों का उपकेश-गच्छ है / १५-चोरडिया यह अदित्यनाग गौत्र की शाखा हैं अदित्यनाग गौत्र आचार्य रत्नप्रभ सूरि स्थापित महाजन वंश को अठारह शाखा में एक है। ख० य० रा० म० मु० पृष्ट 23 पर लिखा है कि पूर्व देश में अंदेरी नगरी में राठोड़ राजा खरहत्य राज करता था उस समय यवन लोग कावली मुल्क लुट रहे थे राजा खरहत्थ अपने चार पुत्रों को लेकर वहाँ गया यवनों को भगा कर वापिस आया पर उनके चार पुत्र मुञ्छित हो गये जिनदत्तसरि ने उन पुत्रों को अच्छा कर जैन बनाये ! इत्यादि Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 86 ) कसौटी-अब्बल तो चंदेरी पूर्व में नहीं पर बुलेन्दखंड में थी * दूसरा चंदेरी में गज राठौड़ों का नहीं पर चेदी वंशियों का होना इतिहास स्पष्ट बतला रहा हैं तीसरा उस समय भारत पर यवनों का आक्रमण हो रहा था जिसका बचाव करना तो एक बिकट समीक्षा बन चुकी थी तब खरहत्थ अपने चार पुत्रों को लेकर काबली मुल्क का रक्षण करने को जाय यह बिल कुल ही असंभव बात है और काबली मुल्क को लूटने वाले यवन भी कोई गाडरियों नहीं थी कि चार लड़का उनको भगा दें। भले / यतिजी को पूछा जाय कि खरहत्थ के चार पुत्र यवनों को भगा दिया तो वे स्वयं मुच्छित कैसे हो गये और मुच्छित हो गये तो यवनों को कैसे भगा दिये यदि कहा जाय कि यवनों को भगाने के बाद मुञ्छित हुए तो इसका कारण क्या ? कारण अपनी स्वस्थ्यावस्था में यवनों को भगाया हो तो फिर उनको मुच्छित किसने किया ? वा-वाह यतिजी यदि ऐसी गप्प नहीं लिख कर किसी थली के एवं पुराणा जमाना के मोथों को या भोली-भाली विधवाओं को एकान्त में बैठकर ऐसी बातें सुनाते तो इसकी कोड़ी दो कोड़ी की कीमत अवश्य हो सकती। खरतरों ने हाल ही में चोरड़ियों के विषय में एक ट्रक्ट लिखा है जिसमें विक्रम की चौदहवी शदाब्दी के दो शिलालेख 'जो चोरड़ियों के बनाई मूर्तियों की किसी खरतराचार्यों ने प्रतिष्ठा ___ हाल में खरतरों ने नयी शोध से खाच तान वर चन्देश को पूर्व में होना बतलाया है पर इसमें कोई भी प्रमाण नहीं और न वहाँ राठौड़ों का राजा हो सावित होता है / Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 87 ) करवाई है' मुद्रित करवा कर दावा किया कि चोरड़िया खरतरगच्छ के हैं ? चोरडिया जाति इतनी विशाल संख्या में एवं विशाल क्षेत्र में फैली हुई थी कि जहाँ जिस गच्छ के आचार्यों का अधिक परिचय था उन्हों के द्वारा अपने बनाये मन्दिर की प्रतिष्टा करवा लेते थे केवल खरतर ही क्यों पर चौरड़ियों के बनाये मन्दिरों की प्रतिष्ठा अन्य भी कई गच्छो वालों ने करवाई है तो क्या वे सब गच्छ वाले यह कह सकेगा कि हमारे गच्छ के आचार्यों ने प्रतिष्टा करवाई वह जाति ही हमारे गच्छ की हो चुकी ? नहीं कदापि नहीं / 'हम चोरड़िया खरतर नहीं है' नामक ट्रक्ट में चोरडिया जाति के जो चार शिलालेख दिये हैं वे प्रतिष्टा के लिये नहीं पर उन शिलालेखों में चोरड़ियों का मूल गौत्र आदित्यनाग लिखा है मेरा खास अभिप्राय खरतरों को भान करने का था कि चोरड़ियों का मूल गौत्र आदित्यनाग हैं न की राजपूतों से जैन होते ही चोरड़िया कहलाये जैसे खरतरों ने लिखा है। जैसे चोरड़ियों को अजैनों से जैन बनते ही चोरडिया जाति का रूप दिया है वैसे गुलेच्छा पारख वगैरह को भी दे दिया है परन्तु इन जातियां के नाम संस्करण एक समय में नहीं किन्तु पृथक 2 समय में हुए हैं इन सबका मूल गौत्र आदित्यनाग है अतएव खरतरों की गत्पों पर कोई भी विश्वास न करे। 16 संचेती-यह सुंचिंति गौत्र की शाखा है इनके प्रतिबोधक वीरात 70 वर्ष आचार्य रत्नप्रभसूरि हुए हैं। ख. य० रा० म० मु० 10 14 पर लिखते हैं कि वि० सं० 1026 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 88 ) में वर्धमानसरि ने देहली के सोनीगरा चौहान राजा का पुत्र वोहिथ के सांप का विष उतार जैन बनाया संचेती गौत्र स्थापित किया। कसौटी-अब्बल तो देहली पर उस समय चौहानों का राज ही नहीं था दूसरा चौहानों में उस समय सोनीगरा शाखा भी नहीं थी इतिहास कहता है कि नाडोल का राव कीर्तिपाल वि० सं० 1236 में जालौर का राज अपने अधिकार में कर वहाँ की सोनीगरी पहाड़ी पर किल्ला बनाना आरम्भ किया उसके बाद आपके उत्तराधिकारी संग्रामसिंह ने उस किल्ला को पूरा करवाया जब से जालौर के चौहान सौनीगरा कहलाया जब चौहानों में सोनीगरा शाखा ही 1236 के बाद में पैदा हुई तो 1026 में देहली पर सोनीगरों का राज लिख मारना यह बिलकुल मिथ्या गप्प नहीं तो और क्या है। .. इनके अलावा भी खरतरों ने जितनी जातियों को खरतर होना लिखा है वह सब के सव कल्पित गप्पें लिख कर विचारे भद्रिक लोगों को बड़ा भारी धोखा दिया है। इसके लिये 'जैन जाति निर्णय' देखना चाहिये। प्यारे खरतरों / न तो पूर्वोक्त जातियों एवं ओसवालों के. लाटाओं के गाढ़े तुम्हारे वहाँ उतरेगा और न किसी दूसरों के वहाँ। जिस 2 जातियों के जैसे-जैसे संस्कार जम गये हैं वह उसी प्रकार बरत रही हैं कई लिखे पढ़े लोग निर्णय कर असत्य का त्याग कर सत्य स्वीकार कर रहे हैं। इस हालत में इस प्रकार गप्पें लिखकर प्राचीन इतिहास का खून करने में तुमको क्या लाभ है स्मरण में रहे अब अन्ध विश्वास का जमाना नहीं रहा है। यदि तुम्हारे अन्दर थोड़ा भी सत्यता का अंश हो तो मैंने जो नमूनाके Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (89 ) तौर पर कतिपय जातियों का बयान ऊपर लिखा है उसमें से एक भी जाति की अपने लिखी उत्पति को प्रमाणिक प्रमाणों द्वारा सत्य कर बतलावे वरना अपनी भूल को सुधार लें। ___ अन्त में मैं इतना ही कह कर मेरा लेख को समाप्त कर देना चाहता हूँ कि मैंने यह लेख खण्डन मण्डन की नीति से नहीं लिखा पर इतिहास को सुरक्षित एवं व्यवस्थित रखने की गरज से ही लिखा है और इसमें भी कारण भूत तो हमारे खरतर माई ही हैं यदि वे इस प्रकार भविष्य में भी प्रेरणा करते रहेंगे तो मुझे भी सेवा करने का शौभाग्य मिलता रहेगा। अस्तु / आशा है कि विद्वद् समाज इस से अवश्य लाभ उठावेंगा। नोट-मुझे इस समय खबर मिली है कि यतीजी ने 'महाजन वंश मुक्तावली' को कुछ सुधार के साथ द्वितीया वृत्ति छपवाई हैं यदि पुस्तक मिलगई तो उसको देख कर अवश्यकता हुई तो जैनजाति निर्णय की द्वितीया वृत्ति क्षीघ्र ही प्रकाशित करवाई जायगी 1-2-38} जैन जाति निर्णय की सहायता से Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्व ग्रंथ युगल रत्न (1) मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास-इस ग्रन्थ में शास्त्रीय प्रमाणों के अलावा कई अकाट्य ऐतिहासिक प्रमागों द्वारा तथा अंग्रेजों के भू खोद काम से प्राप्त हुई हजारों वर्ष पूर्व की जैन मूर्तियों के चित्र वगैरह के जरिये मूर्तिपूजा की प्राचोनता एवं उपादेयता सिद्ध को गई है। साथ में कई लोग मूर्तिपूजा के विषय में अज्ञानता पूर्वक कुत किया करते हैं जिसके 239 प्रश्नों को सचोट उत्तर भी लिख दिया है, इसके अलावा 'क्या जैन तीर्थङ्कर भी डोरा डाल मुंह पर मुँहपत्ती बाँवते थे ?' अर्थात् मुहपत्ती हाथ में रखने के स्व-पर मत के प्रमाणों के अलावा हजारों वर्ष पूर्व की मूर्तियों के चित्र भी दिए गये हैं, पुस्तक पढ़ने काबिल है। इतना दलदार सचिन ग्रन्थ होने पर भी प्रचारार्थ मूल्य मात्र रु० 3) ऐजेन्टों को कमीशन भी दिया जाता है। इस ग्रन्थ में 37 प्राचीन चित्र भी हैं। (2) श्रीमान लौकाशाह--इसमें लौकाशाह कौन था ? उसने क्या किया ? जिसको 25 प्रकरणों द्वारा खूब विस्तार से लिखा है / लौं काशाह विषयक आज पर्यन्त ऐसी किताब किसी ने भी नहीं लिखी है यह पुस्तक प्रमाणों से तो ओतप्रोत है ही पर साथ में शाह वाडो लाल मोतीलाल की लिखी ऐतिहासिक नोंध' नामक पुस्तक की भो सचोट समालोचना की गई है तथा लौंकाशाह के समकालीन एक कडूआशाह नामक व्यक्ति ने कडुआ मत निकाला जिसकी हिस्ट्री तथा उसके मत की नियमावली भी इस ग्रंथ के साथ जोड़ दी है यह ग्रन्थ प्रत्येक व्यक्ति के पड़ने काबिल है इतना बड़ा सचित्र ग्रंथ होने पर भी मूल्य मात्र रु० 2) है अधिक प्रतिए लेने वालों को कमीशन भी दिया जायगा। शीघ्रता कीजिये / इसमें 16 चित्र हैं। मिलने का मूथा नवलमल कटरा बजा मुद्रक श्री दयालदास दौसावाला द्वारा आदर्शा