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________________ 1444 ग्रंथों के कत्ता आचार्य हरिभद्रसूरी ने भी भाग लिया था। अतएव श्रीमाल और पोरवालों का मूल गच्छ उपकेश गच्छ ही है / अब रही तीसरी ओसवाल ज्ञाति सो इसके मूल स्थापक तो प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ही हैं / और रत्नप्रभसूरि के बाद करीब 1500 वर्ष तक तो प्रायः उपकेश गच्छाचार्यों ने ही इस जाती का पोषण या वृद्धि की थी, अतएव इस जाति का गच्छ भी उपकेश गच्छ ही था यद्यपि इतने दीर्घ समय में सौधर्म गच्छीय प्राचार्यों ने अजैनों को प्रतिबोध कर ओसवाल ज्ञाति की वृद्धि करने में उपकेशगच्छाचार्यों का हाथ बँटाया होगा ? तद्यपि उन उदार वृत्ति वाले आचार्यों को इतना गच्छ का ममत्व भाव न होने से उन्होंने अपने बनाये श्रावकों को अलग न रख कर उस संगठित संस्था में शामिल कर देने में श्री संघ का हित और अपना गौरव समझा था। यही कारण है कि उस समय इस जाति का संगठन बल बढ़ता ही गया। प्राचार्य रत्नप्रभसूरि से 1500 वर्षों के बाद जैन शासन की प्रचलित क्रिया में कई लोग कुछ 2 भेद डाल कर नये नये गच्छों की सृष्टि रचनी शुरू करी, और वे लोग ओसवालादि पूर्वाचार्य प्रतिबोधिक श्रावकों को अपनी मानी हुई क्रिया करवा कर तथा दृष्टि राग का जादू डाल कर उन्हें अपना उपासक बनाने लगे / पर उनके वंश को रद्दो बदल न कर उसे तो वह का वह ही रक्खा / यह उनकी दीर्घ दृष्टि और इतिहास को सुरक्षित रखने का कार्य प्रशंसा के काबिल था / इतना ही क्यों पर उस प्रणाली का पालन पीछे के आचार्यों ने भी आज प्रयन्त किया / हाँ-अधुनीक कई यति लोग अपने स्वार्थ के वशीभूत हो कल्पित
SR No.032743
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 12 Jain Jatiyo ke Gacchho ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1938
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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