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मंत्र
यत्र और तत्र
मुनि प्रार्थना सागर
आता
स्वाहा
कला
नमः
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कृति कृतिकार संपादन
प्राप्ति स्थान
- मंत्र यंत्र और तंत्र - मुनि प्रार्थना सागर - श्रीमती निर्मला पाटनी
प्रधान संपादिका- प्रार्थना टाइम्स, मासिक - (1) श्री जितेन्द्रकुमार अजितकुमार जैन
सरस्वती शिशु मंदिर के पास, मु.पो. गढाकोटा
जि. सागर (म.प्र.) मोबा. ०९८२७५-०५६३७ (2) श्रीमती निर्मला पाटनी
१५/३, कालीसिंध मार्ग, सोनकच्छ जि. देवास (म.प्र.)
• ०९८९३८-२१७०७ (3) देवेन्द्र कुमार जैन
एमआईजी- 172 बी भोज होटल के पास (इन्द्रनगर) पो0 - मण्डीद्वीप, जिला - भोपाल ( म0प्र0) 1 07480-231668, 9425359123
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एवं सभी सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र व तीर्थ क्षेत्रों की बुक स्टॉलों पर उपलब्ध
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- Shyam johri & sons
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सर्वधर्म आधारित मासिक पत्रिका
प्रार्थना टाइम्स
प्रार्थना टाइम्स
प्रार्थना टाईम्स
कमार जैन
"Email:- prarthnatimes@gmail.com
राष्ट्रीय ही नहीं अपितु अंतर्राष्ट्रीय, सामाजिक एवं धार्मिक ज्वलंत घटनाओं के बारे में मुनिश्री प्रार्थना सागर जी का नया दृष्टिकोण एवं सभी के दिल और दिमाग को झकझोर देने वाले नवीन वक्तव्यों के साथ-साथ आपकी समस्याओं के सटीक समाधान देखें इस पत्रिका में।
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
)
मुनि श्री प्रार्थना सागरजी महाराज का पठनीय साहित्य १. दु:खी क्यों? 20/- २. नग्न क्यों ?
20/३. गुरु से शुरु 20/- ४. दूध का कर्ज
20/५. मत करो विश्वास 20/- ६. कैसे मिलता सुख ?
20/कैसा होता सत्संग ? 20/
देखो अपनी आदत
20/९. आखिर क्या है धर्म ? 20/- १०. स्वयं को बदलो दूसरों को नहीं? 20/ ११. साँझ का भूला.... 20/- १२. आखिर ऐसा क्यों होता है? 20/१३. अब क्या होगा? 20/- १४. कलह क्यों एवं सुलह कैसे? 20/१५. इतनी जल्दी क्यों? 20/- १६. इन्तजार किसका?
20/१७. बस प्रेम करो क्योंकि.... 20/- १८. मत मानो भगवान को
20/१९. संस्कारों के चमत्कार 20/- २०. नारी क्या है?
20/
जैन धर्म की मुख्य पुस्तकें
१-आओ! करें प्रार्थना 50/- २- आओ करें अर्चना
25/३-ऐसे होता बोध
50/
अति विशेष साहित्य १- मंत्र, यंत्र और तंत्र 5००/- २- वास्तुदोष एवं निवारण २००/३- ज्योतिष विद्या
२००/- ४- अंग लक्षण से जानें, ५०/५- हस्तरेखा से जानें अपना भविष्य
१५०/- ६- ध्यान कैसे करें? १००/७- जीवन उपयोगी सूत्र २००/- ८- टेंशनमुक्ति का उपाय ९- उन्नति के सूत्र
२००/
(हास्य व्यंग्य) २००/१०- कदम कदम पर मंजिल भाग-१
२००/भाग-२
२००/भाग-३
२००/भाग-४
२००/भाग-५
२००/भाग-६
२००/नोट : मुनि श्री प्रार्थना सागर जी के सभी साहित्य एवं प्रवचन की सी.डी. व ऑडियो कैसेट
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सरस्वती शिशु मन्दिर के बाजू में,
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नाम पर भेजें तो और उत्तम है।
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
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-: विषय सूची :आद्यमिताक्षर
18 कार्य सिद्धि के लिए आसन और मेरे विचार से
वस्त्र का विधान णमोकार का चिंतन
39 माह के अनुसार मंत्र जपने का फल जरा सोचो विचार करो!
वार के अनुसार जाप का फल मंत्र अधिकार
तिथियों के अनुसार जाप का फल
नक्षत्र अनुसार जाप का फल मंत्र विद्या
मंत्र यंत्र तंत्र शक्ति का महात्म्य मंत्र साधक के लक्षण
मंत्र तत्रं सिद्धि का मोक्ष मार्ग में निषेध गुरु के लक्षण
परिस्थिति वश मंत्र प्रयोग की आज्ञा शिष्य के लक्षण
किन्तु मंत्र द्वारा साधु का अजीवका मंत्र साधना के अयोग्य पुरुष
करने का निषेध गुरु का महत्व
माला विधान गुरु से ही मंत्र ग्रहण का विधान
माला-निर्देश मंत्राराधना में दिशा बोध
माला का फल पूजा हेतु दिशा बोध
मंत्र जाप निषेध मंत्र जाप विधि क्रम
दीपानादि प्रकार दिशा चार्ट
बिना विचारे सिद्ध करने योग्य मंत्र जाप की परिभाषा
गृहीत शत्रु मंत्र को त्याग करने की विधि जप के प्रकार
दुष्ट मंत्र को जपने की विधि त्रियोग जाप फल
मंत्र सिद्ध होगा या नहीं देखने की विधि 68 जाप स्थान का फल
पुरुष का ऋणी धनी विचार जाप का फल कब नहीं मिलता
कलियुग के सिद्धिप्रद मंत्र जाप करने का विधान
मंत्र के अधिकारी द्विजवर्णों के योग्य मंत्र 69
ब्राह्मण और क्षत्रियों के योग्य मंत्र मंत्र साधना के निर्देश
चारों वर्गों के योग्य मंत्र सकलीकरण किसे कहते हैं?
वर्ण क्रम से बीजों के अधिकारी मंत्रों के पंचोपचार
वर्णों के भेद दीपक में घी व तेल का प्रयोजन
वर्ण-रंग व मण्डल की अपेक्षा बत्ती का महत्व
तिथि-वार व गति की अपेक्षा कलश में वस्तुएं रखने का महत्व
अक्षरों की शत्रु-मित्रता माला का महत्व
मण्डलों की अपेक्षा
चतुर्वर्णाक्षरों की अपेक्षा आसन विधान हवन विधि
लिंग की अपेक्षा
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
समय का मंत्र
110
110 112
87
118
90
लिंग ध्यान संकेत मंत्रों के भेद व लक्षण अक्षर संख्या की अपेक्षालिंग की अपेक्षा आग्नेय और सौम्य की अपेक्षा प्रबुद्ध व स्वाप की अपेक्षा मंत्रों का षडङ्ग न्यास ॐ पंचपरमेष्ठी का वाचक है मंत्रों के दस कर्मअक्षरों का लक्षण और माहात्म्य मंत्रों के जप में गूंथने के भेद बीजों का प्रयोजन बीजाक्षरों की सामर्थ्य बीजाक्षरों का संक्षिप्त कोष बीजाक्षरों के लिए कुछ सांकेतिक शब्द ऋतु विचार शुभ तिथि, वार एवं नक्षत्र बीजाक्षरों के भेद जप में दिशा कालादि अष्टकर्मों का चार्ट 91 । मंत्र सिद्ध (जाप) करने की विधि 92 मंगलाष्टक
(मंत्र प्रकरण सर्वकार्य सिद्ध मंत्र मनोवांछित कार्य सिद्धि मंत्र सर्व ऋद्धि सिद्धि प्राप्त मंत्र अत्यंत चमत्कारी मंत्र
102 चिन्ताहरण मंत्र
102 महामंत्रों का महामंत्र
102 सौभाग्य प्राप्ति मंत्र
104 सर्वसम्पत्ति वान बनने का मंत्र 104 कन्या प्राप्त होय मंत्र
105 संतान प्राप्ति मंत्र
106 सुख से प्रसव होय मंत्र
107 ब्रह्मचर्य रक्षक मंत्र
107
सर्वजन प्रसन्न मंत्र
108 श्रोतागण आकर्षण मंत्र
108 मंगलकलश के सामने जपने का मंत्र 109 अभिषेक मंत्रित करने का मंत्र 109 प्रतिष्ठा के समय का मंत्र 109 वेदी में भगवान विराजमान करने का श्लोक व मंत्र माला शुद्धि मन्त्र
110 अशुभ मुहूर्त भी शुभ हों
110 बुद्धि-वृद्धि-मंत्र रोजगार या नौकरी मिले मंत्र सर्वरक्षा मंत्र
113 नवग्रह शान्ति हेतु विशेष मंत्र 115 सर्व ग्रह शान्ति मंत्र
116 पद्मावती सिद्धि मंत्र
116 कलिकुण्डदण्ड मंत्र ज्वाला मालिनी देवी सिद्धि मंत्र चक्रेश्वरी देवी मंत्र
119 पापभक्षिणी विद्या
120 कर्ण पिशाचिनी सिद्धि मंत्र
120 स्वप्न में शुभा शुभ कहे मंत्र 121 दर्पण में देखते उत्तर मिले 123 श्री पंचांगुली देवी का मंत्र 123 नवरात्रि, दीवाली,शरद पूर्णिमा,सर्वकार्य सिद्धि मंत्र क्षेत्रपाल सिद्धि मंत्र
126 प्रत्येक तीर्थंकर के काल में उत्पन्न क्षेत्रपाल 127 घंटाकर्ण मंत्र
128 अनेक विशेष मंत्र ऋषि-मण्डल मंत्र
129 गायत्री मंत्र
130 मंगल ग्रह निवारण मंत्र
130 कालसर्प दोष निवारण मंत्र
130
119
101
125
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
157
160
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132
केतु राहु ग्रह पीड़ा निवारक मंत्र 130 भगवान पारसनाथ का मूल मन्त्र 130 भगवान महावीर स्वामी का मूल मन्त्र 130 त्रिभुवन सार मंत्र
130 त्रेलोक्य मण्डल विधान जाप 131 सुख शान्ति हेतु प्रतिदिन के लिए जाप 131 मातृका मंत्र
131 सुरेन्द्र मंत्र वर्द्धमान मंत्र महामृत्युञ्जय मंत्र
132 यक्षिणी विद्या
133 सामान की बिक्री का मंत्र 135 लक्ष्मी प्राप्ति मंत्र
136 ऋण मोचन मंत्र
139 व्यापार वृद्धि मंत्र
140 सर्व समृद्धि के लिए मंत्र
141 शान्ति मंत्र सर्व भय निवारण मंत्र
142 सर्वशत्रु शान्त मंत्र
143 उनमत्त करने का मंत्र दुर्जन वशीकरण मंत्र
145 वशीकरण मंत्र
145 पुरुष (राजा)वशीकरण मंत्र
151 उच्चाधिकारी वशी मंत्र
152 पति वशीकरण मंत्र
152 स्त्री वशीकरण मंत्र
152 सासा वशीकरण मंत्र आकर्षण मंत्र
154 मोहन मंत्र
155 स्तम्भक मंत्र
-
विरोध कारक (विद्वेषण) मंत्र पौष्टिक मंत्र
157 परविद्या छेदन मंत्र
158 उच्चाटन मंत्र
159 मारण प्रयोग
160 विरोध विनाशक मंत्र
160 संकट हरण मंत्र सर्व विपत्तियाँ दूर हो मंत्र
161 विघ्नहरण नमस्कार मंत्र
161 क्लेश नाशक मंत्र
161 विवाद विजय मंत्र
162 सर्वत्र विजय मिलती
162 क्रोध शान्ति मंत्र
162 गृह क्लेश निवारण मंत्र
163 लड़की ससुराल रहे मंत्र
163 सामने वाला सत्य बोले मंत्र
163 झूठे को सत्य करें मंत्र
163 वंधीमोक्ष मंत्र
163 व्यंतर बाधा (डाकिनी शाकिनी भूत पिशाच) विनाशक मंत्र नजर आदि सर्व दोष निवारण मंत्र 168 निद्रा आने का मंत्र
168 निद्रा स्तंभन मंत्र
168 अग्नि उतारक मंत्र आकाश गमन मन्त्र सर्पविष नाशक मंत्र
170 बिच्छू का जहर नष्ट मंत्र
172 कुत्ते का जहर उतरे मंत्र
173 सर्व विष हरण मंत्र मछली बचावन मंत्र
173 चूहे भागे मंत्र
174
141
164
145
169
170
154
173
155
7
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
174
192
177
192
177
खटमल भगाने का मंत्र मक्खियाँ भगाने का मंत्र
174 कौआ,तोता-मैना,श्वानबोली-ज्ञान मंत्र 175 सर्व रोग निवारण मंत्र
176 शरीर पीड़ा दृष्टिदोष विनाशक मंत्र 176 सिर दर्द नाशक मंत्र
आंख (नेत्र) पीड़ा दूर मंत्र कान (कर्ण)रोग विनाशक मंत्र 178 दांत ,दाढ़,मुख के रोग शांत मंत्र 179 श्वांस,पाद ,पीलिया रोग निवारण मंत्र 180 पेट रोग निवारण मंत्र
180 वात नष्ट मंत्र
181 अंडकोष-वृद्धि व खालबिलाई मंत्र 181 बाला (नहरवा) मंत्र
182 दाद ,खुजली, घाव, फोड़ा ठीक मंत्र 182 ज्वरनाशक मंत्र
183 बवासीर ठीक मंत्र
185 औषधि मंत्र
185 बच्चा चुप हो ,बच्चा दूध पीवे मंत्र 185 परदेश गमन लाभ मंत्र
186 खेती संबंधी समस्त मंत्र पुरुष व स्त्रियों की सुन्दरता का मंत्र 187 स्त्रियों का रक्तस्राव बन्द हो मंत्र 187 स्तन पीड़ा नाशक मंत्र चोरी गई वस्तु मिले
188 वृष्टि कारक मंत्र
189 मेघस्तम्भन मंत्र
190 पृथ्वी में से धन निकालने का मंत्र 190 खोया धन व प्राणी प्राप्ति मंत्र 191 अन्य फुटकरमंत्र
191 घर में अन्य पुरुष नहीं आय मंत्र
घर के लोग सो जाते मंत्र
191 जुआ में जीत मंत्र
191 अदृश्य होने का मंत्र
191 डूबती नाव बचाने का मंत्र
192 अनाज में कीड़ा नही पड़ने का मंत्र पशु रोग निवारण मंत्र गाय भैंस के दूध बढ़ाने का मंत्र 192 सैनिक घायल नहीं होता मंत्र
192 पथ कीलित हो जाता मंत्र
192 पराधीनता नष्ट मंत्र
192 अपकीर्ति निवारण मंत्र
193 मोक्ष साधन के लिये मंत्र
193 बेचैनी दूर मंत्र
193 भोजन पचाने का मंत्र
193 सम्मान वर्धक एवं लाभ प्रदायक मंत्र 193 कुश्ती जीतने का मंत्र
193 बुरे स्वप्न वा अपशकुन निवारण मंत्र 193 उपसर्गहर स्तोत्र के ऋद्धि, मंत्र व फल 194 कल्याणमंदिर स्तोत्र ऋद्धि-मंत्र विधि 197 कल्याण मन्दिर स्तोत्र ऋद्धि-मन्त्र द्वितीय विधि 205 विषापहार स्तोत्र ऋद्धि- मंत्र 210 भक्तामर स्तोत्र ऋद्धि मंत्र 215 अंकन्याय का चित्र
222-223 तीर्थकर परिचय बोध चार्ट
224 श्री जिनेन्द्रदेव प्राण प्रतिष्ठा मंत्र 225 गर्भ कल्याणक मंत्र/विधि
225 जन्म कल्याणक मंत्र/विधि
228 तपकल्याणक विधि/मंत्र
231 केवलज्ञान विधि/मंत्र निर्वाण कल्याणक विधि/मंत्र निवाण कल्याण
242
186
188
234
191
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
282
289 292 292
296
आचार्य उपाध्याय सर्वसाधु के सूरि मंत्र 243 शासन देवता सूरि मंत्र
244 चरण पादुका प्रतिष्ठा मंत्र 245 शास्त्र (जिनवाणी) प्रतिष्ठा मंत्र 245 गुरु द्वारा दीक्षा(शिष्यव संस्कार)विधि 245 मुनि दीक्षा विधि
247 आर्यिक दीक्षा विधि
252 क्षुल्लक दीक्षा विधि
252 उपाध्याय पद प्रतिष्ठा विधि
253 आचार्य पद प्रतिष्ठा विधि
254 | यंत्र अधिकार यंत्र-विद्या
257 यंत्र संबंधी आवश्यक निर्देश
257 यंत्र लिखने की विधि
260 यंत्र लिखने की समय विधि
260 यंत्र महिमा
260 यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा विधि
261 अथ लघु शांतिधारा सर्व यंत्र पूजन विधि
264 मंगल कलश व यंत्र स्थापन विधि श्री मंगल कलश की आरती
। यंत्र प्रकरण ) सर्व मनोकामना सिद्ध यन्त्र
270 सर्व कार्य सिद्धिदायक मंत्र
270 सर्व विजय यंत्र मुकदमा जीतने का यंत्र
277 युद्ध में विजय यंत्र
277 शस्त्र न लगे यंत्र
277 सर्व रक्षा यंत्र
279 आत्म रक्षा यंत्र
279 सभी भय निवारण यंत्र
280 शत्रु भय नाशक यंत्र
280 चिंताहरण यंत्र
280 भाग्य वृद्धि यंत्र
280
उज्जवल भविष्य बनाता यंत्र 281 व्यापार वृद्धि यंत्र
281 बिक्री अधिक होय यंत्र व्यापार (कारोबार) बांधने का यंत्र 285 व्यापार नजर निवारण यंत्र
285 गड़े धन की प्राप्ति यंत्र
285 चमत्कारी सर्व अनिष्ट निवारक महायंत्र 286 चमत्कारी यंत्र
288 ऋण मुक्ति यंत्र
288 लक्ष्मी प्राप्ति यंत्र लक्ष्मी दाता चमत्कारी यंत्र घर में लक्ष्मी स्थिर रहे यंत्र दरिद्रता नाशक यंत्र
295 सर्व सिद्धिदाता यंत्र
295 सुख शांति दाता का यन्त्र सर्व संकट निवारक यंत्र
297 विघ्न विनाशक यंत्र
298 आपत्ति निवारण यंत्र
298 शीघ्र विवाह हेतु यंत्र - 299 इच्छित स्थान पर विवाह आदि यंत्र 299 लड़की ससुराल में रहे यंत्र । 300 स्त्री ससुराल ठहरे यंत्र
300 पुत्र प्राप्ति यंत्र
301 संतान प्राप्ति यंत्र
301 गर्भ स्तंभन यंत्र
302 गर्भ रक्षण यंत्र
304 अकाल में प्रसव रक्षा 305 गर्भ ठहरे यंत्र
305 सुख प्रसव यंत्र
306 प्रसूति पीड़ा हर यन्त्र
306 स्त्री कूख बन्द यंत्र
307 मरे बच्चे होना बन्द हों यंत्र मासिक धर्म बन्द हो यंत्र
308 रक्तस्राव रुके यंत्र
308
261
266 269
276
308
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
309
335 335 335 337 337 337 338 338 338 338 338 339 339
311
312
कळक
340
340
340
340
0
341
मां का दूध वृद्धि यंत्र
उच्चाटन यन्त्र स्त्री के दूध बढ़ाना यंत्र
309
क्रोध स्तम्भक यंत्र स्त्री दुग्ध नाशक यंत्र
309
कलह कराने का यंत्र आजीविका प्राप्ति यंत्र
आपस में झगड़ा कराये यंत्र
310 सेना में नौकरी यंत्र
आपस में जुदाई होती है यंत्र 310
परस्पर प्रीति नष्ट होय यंत्र पदोन्नति यंत्र
310 विदेश यात्रा यंत्र
शत्रु पलायन करे यंत्र
311 मित्र समागम यंत्र
शत्रु के घर में क्लेश होय यन्त्र 311
शत्रु बांधने का यंत्र सम्मान वृद्धि यंत्र
शत्रु का मुख स्तम्भन यंत्र मूठ भय निवारण यंत्र
शत्रु का मुँह सुजाने का यंत्र सर्व उपद्रव नाश यंत्र
312 पिशाच पीड़ा हर यन्त्र
313
शत्रु भगाने का यंत्र
शत्रु नहीं लगे यंत्र भूत प्रेत निवारण यंत्र
313
शत्रु उच्चाटन यन्त्र व्यंतर देव दोष निवारण यंत्र 314
शत्रु निंदा नहीं करे यंत्र डाकिनी शाकिनी आदि वाधा निवारण यंत्र 318
शत्रु-विजयी यंत्र सर्व जन वश होय यन्त्र
322
शत्रु को शूल उठे यंत्र सभा वश होय यंत्र
324
दिन में रात दिखने का यंत्र राज वशीकरण यंत्र
छल विष निवारण यंत्र अधिकारी की कृपा यंत्र
कुत्ते का विष दूर होय यंत्र राजा,गुरु प्रसन्न यंत्र
326
सर्प भय निवारक यंत्र देव वशीकरण यंत्र
326
घर में सर्प नहीं आवे यंत्र शत्रु वशीकरण यंत्र
327
हाट उजड़ जाय यंत्र पति पत्नी की अनमन दूर यंत्र 328
मशान जगाने का यन्त्र परस्पर प्रीति उत्पन्न यंत्र
328
घर में आग नहीं लगे यंत्र पति वशीकरण यंत्र
329
जुआ जीतने का यन्त्र पति क्रूरता स्तंभन यंत्र
331
चोर भय निवारण यंत्र सास ससुर वश होय यंत्र
खोई हुई वस्तु की प्राप्ति यंत्र प्रेमिका वशीकरण यंत्र
332
खोया गया पशु वापिस आये यंत्र पत्थर दिल भी वश होय यंत्र
332
परदेश गया वापिस आये यंत्र कामिनी आकर्षण यंत्र
333
लापता व्यक्ति के आने का यंत्र स्त्री आकर्षण यंत्र
333
चूहे कपड़े नहीं काटते यंत्र स्त्री वशीकरण यंत्र
333
अनाज में कीड़े नहीं पड़ें यंत्र मोहन यंत्र
334
अनाज न घुने यंत्र पक्षी आकर्षण यंत्र
334
___ वृक्ष में फल अधिक लगे यंत्र उच्चाटन निवारण यन्त्र
खेत में पैदावार बढ़ाने का यंत्र 10
325
0
341 341 341
341
342
342 342 342 343
331
343 344 344
345
345
346
346
346
334
346
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
363
664
364 365 365 365
366
367 367 367
352 353
367 367
353
355
368 368 368
368
357
369
टिड्डी खेत न खावे पशु रोग दूर यंत्र घोड़े का रोग ठीक हो यंत्र गाय को बछड़ा प्रदायक यंत्र गाय-भैंस के दूध बढ़ाने का यंत्र मक्खन वृद्धि यंत्र घी वृद्धिकर यंत्र अकाल-मृत्यु-निवारण यंत्र असाध्य रोग निवारण यंत्र सर्व रोग निवारण यंत्र ज्वर-ताप हर चमत्कारी यंत्र पुराना ज्वर नाशक यंत्र अन्तराल ज्वर नष्ट यंत्र आधा शीश दुखना नष्ट यंत्र सिर दर्द नाशक यंत्र बन्द नाक बहे यंत्र कर्ण पीड़ा निवारण यंत्र
आंख पीड़ा निवारण यंत्र मुंह का छाला दूर हो यंत्र दाढ़ दुखती अच्छी हो यंत्र दांत दर्द निवारण यंत्र गले की गांठ नाशक यंत्र चित्त भ्रम दूर यन्त्र हृदय घबराहट नाशक यंत्र खांसी निवारण यंत्र पेट का अफारा मिटे यंत्र पेट दर्द निवारक यंत्र वायु गोला का दर्द तुरन्त ठीक यंत्र शूल रोग जाय यंत्र धरन ठिकाने पर आती है अण्डकोष वृद्धि रुके यंत्र नपुंसकता ठीक हो यंत्र वीर्य (शुक्र) स्तंभन यंत्र स्वप्नदोष हर यंत्र वैराग्योत्पत्ति कर यंत्र काम वासना नाशक यंत्र
347 नामर्द बनाने का यंत्र 347 बवासीर मिटे यंत्र 347 मसा हर यंत्र 347 शीतला(चेचक )निवारण यंत्र 348 दाद दूर हो यंत्र 348 पीलिया रोग दूर यंत्र 349 मृगी रोग निवारण यंत्र 349 मंथवाय नाशक यंत्र 349 हिस्टीरिया बन्द हो यंत्र 350 हैजा रोग मिटे यंत्र
कागलिया रोग नाशक यंत्र गैष्टिक निवारण यंत्र खुलखुलिया निवारण यंत्र
वन भ्रमण कारक यंत्र 356 मार्ग स्तंभन यंत्र 357 बालक रक्षा यंत्र
बच्चे का रोना बन्द होने का यंत्र 357 बाल भय हरयन्त्र 358 बालक रोगहर यंत्र 358 बच्चे का सूखना बन्द हो यंत्र
नजर नहीं लगे यंत्र 358 नजर दूर करने का यंत्र
स्वप्न निवारण यंत्र
बुरे स्वप्न दिखना दूर हों यंत्र 359 स्वप्न दिखना बन्द हों यंत्र 359 शुभाशुभ ज्ञान यंत्र 360 विद्या प्राप्ति यंत्र 360 सरस्वती प्राप्ति यंत्र 360 वाणी(वचन) सिद्धि यंत्र
परीक्षा में पास होने का यंत्र 361 गृह क्लेश निवारक यन्त्र 362 सर्वोपद्रव नाशक यंत्र 362 ___वास्तु प्राप्ति यंत्र 362 वास्तु दोष नाशक यंत्र 363 दिक्दोष नाशक यंत्र 363 विशेष यंत्र - 11
369 369 370 370 370
358
359
371
359
372 372 372 372
373
361
375 376 377 377 377 378 379 380
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मंत्र यंत्र और तंत्र
सर्व सुख प्रदाता यंत्र
णमोकार यंत्र
सर्व सुखी यंत्र
मंगल कलश यंत्र
मातृका यंत्र
कल्प वृक्ष यंत्र इंद्राणी यंत्र
श्री यंत्र
नवग्रह शान्ति यंत्र
चन्द्र ग्रह अरिष्ट निवारक यंत्र
नवग्रह शान्ति यंत्र
कालसर्प दोष निवारण यंत्र
श्री पार्श्वनाथ यंत्र
भगवती पद्मावती महायंत्र
कलिकुण्डदण्ड यंत्र
देवी पंचांगुली महायंत्र पंचांगुली देवी का चित्र
सरस्वती यंत्र
श्रुतस्कन्ध यंत्र मृत्युंजय यंत्र
अन्य फुटकर महायंत्र
श्री मणिभद्र महायंत्र
महावीर यंत्र
श्री घंटाकर्ण महावीर अद्भुत
ऋषि- मण्डल यंत्र
पासा केवली यंत्र
अन्य फुटकर पंचकल्याणक संबंधि यंत्र
श्री भक्तामर यंत्र
श्री कल्याण मंदिर यंत्र
तंत्र अधिकार
380
380
380
381
381
382
383
383
383
383
384
386
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388
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390
391
391
392
393
394
398
398
399
400
401
402
412
420
तंत्र-विद्या
427
तंत्र के प्रकार
428
क्या तंत्र - टोने-टोटको से सफलता मिलती है ? 431
ध्यान रखने योग्य विशेष बातें
431
12
मुनि प्रार्थना सागर
किस दिशा में कोन सा टोटका करें
माह तिथि वार के अनुसार टोटके
तंत्र-टोनें टोटकों सम्बंधी वनस्पति लाने की विधि तंत्र प्रकरण
रोग निवारक टोटके तंत्र
असय बीमारी दूर करने हेतु
सर्व ज्वर निवारण तंत्र
कान दर्द दूर करने का तंत्र
आँख में पीड़ा निवारण तंत्र
निद्रा स्तंभन पर तंत्र
437
आधा शीशी का दर्द दूर करने का तंत्र 438 मानसिक तनाव दूर तंत्र
439
नकसीर ठीक तंत्र
गूंग बोले तंत्र
दाँत (दाढ़)की पीड़ा हर तंत्र
वमन (कै) बंद करना
हिचकी शांत होय तंत्र
खाँसी पर तंत्र
श्वांस पर रोग तंत्र
हृदय रोग पर तंत्र
पेट दर्द निवारण तंत्र
घुटने का दर्द निवारण तंत्र
एक्जिमा रोग निवारण तंत्र
मूत्र रोग निवारण तंत्र
दस्तों पर तंत्र
बवासीर रोग ठीक होय पर तंत्र
मधूमेह पर तंत्र
मर्कटिका रोग नष्ट तंत्र
सेऊआ होने पर तंत्र
चेचक रोग निवारण तंत्र
मोटापा निवारण तंत्र
दुर्बलता दूर करने हेतु तंत्र
431
431
432
434
434
436
437
437
439
439
439
439
440
440
440
440
440
441
441
441
441
441
442
442
442
442
442
443
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मंत्र यंत्र और तंत्र
अतिसार रोग नाश हेतु तंत्र सूखा रोग निवारण तंत्र
पोलियो निवारण हेतु तंत्र
पीलिया निवारण हेतु तंत्र
मृगी रोग शान्त हेतु तंत्र
बहता रक्त बन्द हो तंत्र
443
443
443
443
443
444
सुन्न अंग पर तंत्र
कुष्ठ रोग पर तंत्र
444
हड्डी टूटने या मोच आने पर दर्द निवारण 444
बच्चों रोग दूर करने का तंत्र
444
बच्चों के दांत निकलने में सरलता
बुरे स्वप्न नाशक तंत्र
स्वप्न दोष निवारण हेतु तंत्र नार्मद बनाने के लिए तंत्र
वीर्य स्तम्भन हेतु तंत्र
संतान प्राप्ति हेतु तंत्र असमय गर्भपात न होय तंत्र
फिर रजस्वला हो तंत्र
गर्भीव नहीं हो तंत्र
मासिक धर्म की परेशानी दूर हेतु तंत्र प्रसव के लिए तंत्र
शराब सिगरेट, बीडी, तंबाकू छुड़ाने हेतु घर से भागे व्यक्ति को पुनः बुलाने हेतुतंत्र गृहक्लेश (कलह) निवारण हेतु तंत्र मकान में खुशहाली हेतु तंत्र
गृह अशुद्धि पर तंत्र
शयन कक्ष पर तंत्र
बुद्धिमान होय विवाह शीघ्र कैस हो ?
444
445
बिस्तर (शय्या) मूत्र निवारण हेतु तंत्र 446
बच्चे का डरना बन्द हो तंत्र
446
नजर लगने पर तंत्र
446
447
447
448
448
448
449
449
450
450
450
451
451
452
453
453
454
455
455
13
मुनि प्रार्थना सागर
विवाह विलंब नवारण हेतु तंत्र
458
सुखी वैवाहिक जीवन हेतु तंत्र रोजगार की समस्या हल हेतु तंत्र कार्य सफलता हेतु
459
459
व्यापारवृद्धिकेविशेष चमत्कारी टोटके 460
464
464
468
468
468
कर्ज मुक्ति हेतु तंत्र
धन लाभ हेतु तंत्र मनोकामना पूर्ण हेतु तंत्र
सर्व कार्य सिद्धि
टोने टोटके का असर खत्म हेतु तंत्र
बलाएँ दूर करें
469
परेशानियां दूर करने हेतु
469
दुष्ट (शत्रु) व्यक्ति से पीछा छुड़ाना हेतु तंत्र 470
वाद विवाद में विजय हेतु तंत्र
470
शत्रु भय निवारण तंत्र
दुष्मन पर विजय तंत्र
राजा की तरह सम्मान मिलें
जुआ में
मुकदमे में विजय प्राप्ति का तंत्र
अंगूठी बनाने का विधान
भूख प्यास न लगे तंत्र
भूख प्यास ज्यादा हो
जमीन या मकान न बिकता हो तो
पृथ्वी से गढ़ा धन निकालने का तंत्र
खेत वृद्धि का तंत्र
पशुओं पर तंत्र
सर्प जहर निवारण तंत्र
457
बिच्छू का जहर तंत्र
पागल कुत्ता काटने पर
मच्छर, मक्खी आदि भगाने हेतु टोटका
खटमल पर तंत्र
चींटियाँ भगाने का उपाय
चूहे भगाने का उपाय
470
471
472
472
472
473
473
473
474
474
475
475
475
476
477
477
478
478
478
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मनि प्रार्थना सागर
478
511
481
514
493
मनुष्यों की भीड़ भगाने के लिए यक्षिणी सिद्ध भूत भगाने का टोटका हाथी भय दूर तंत्र अदृश्य प्रयोग कुछ अन्य तांत्रिक प्रयोग (टोटका) नक्षत्र अधिकार नक्षत्र कल्प बूटियों के पर्यायवाची नाम चार्ट में देखें जन्म नक्षत्र के वृक्ष आकर्षण संबंधी तंत्र प्रयोग सम्मोहन सम्बन्धी तंत्र-प्रयोग मोह न होय वशीकरण सम्बन्धी तंत्र-प्रयोग पुरुष-वशीकरण सम्बन्धी तंत्र प्रयोग स्त्री-वशीकरण सम्बन्धी तंत्र प्रयोग स्तंभन संबंधी तंत्र प्रयोग मारण संबंधी तंत्र प्रयोग उच्चाटन संबंधी तंत्र प्रयोग कल्प विभाग रूद्राक्ष कल्प मयूर शिखा कल्प सहदेवी कल्प बहेड़ा कल्प निर्गुण्डी कल्प हाथा जोड़ी कल्प श्वेतार्क कल्प बांदा नक्षत्र कल्प लक्ष्मणा कल्प एकाक्षी नारियल कल्प गोरखमुंडी- कल्प विजया कल्प सरपंखा कल्प श्वेतगुंजा कल्प
दक्षिणावर्त शंख कल्प 478 गौरोचन कल्प
511 479 रक्तगुन्जा कल्प
511 480 रक्तगुंजा कल्प
512 लक्ष्मणा कल्प
513 481 लजालु (छुइमुइ) कल्प
514 484 हीरा बनाने की विधि
514 486 सोना-चाँदी बनाने का तंत्र 487 काल सर्प दोष / मंगल दोष निवारण हेतु 516 488
ग्रह दोष निवरण वनस्पति मूल (जड़) तन्त्र 516 489
ग्रह दोष निवरण तन्त्र स्नान (मतान्तर से) 517 490
सर्व ग्रह पीड़ दूर करने हेतु औधीषय स्नान 518 493
स्वास्थ्य अधिकार 496 औषध क्रिया की परिभाषा
519 498 बूटियों के पर्यायवाची नाम
520 501
चिकित्सा प्रकरण 502 रोग तथा दोष विज्ञान
522 502 वात वायु कुपित होने के कारण
523 पित्त
524 पित्त प्रकोप के कारण
524 कफ
524 कफ प्रकोप के कारण
525 505 वात प्रकोप के लक्षण
525 505 पित्त प्रकोप के लक्षण
525 505 कफ प्रकोप के लक्षण
525 506 वायु कोप का समय
526 506 पित्त कोप का समय
526 कफ कोप का समय
526 वात प्रकृति का लक्षण 526 508 पित्त प्रकृति का लक्षण
526 कफ प्रकृति वाले के लक्षण 526
द्विदोषज त्रिदोषज प्रकृति लक्षण 526 510 वात शामक उपाय
526 510 पित्त शामक उपाय
527 - 14
523
503 504 504
504
508
509
510
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
537
530
531
534
534
कफ शामक उपाय
527 4. मस्तक की स्नायु सम्बन्धी पीड़ा 537 रोगी की मृत्यु की पहिचान 527 5. जुकाम से सिर दर्द ज्वर रोग के कारण
528
6. मस्तक पीड़ा, भंवल व चक्कर आना 537 वात ज्वर
529 7. मस्तक वेग
537 पित्त ज्वर
529
8. मस्तक में रुधिर का जमाव 537 कफ ज्वर
9. मस्तक का दर्द दूर के लिए 537 वात कफ ज्वर
531 स्मरण-शक्ति
538 कफ पित्त ज्वर
अति बुद्धि बढ़े
538 वात पित्त ज्वर
531 गंजापन दूर करने हेतु
539 सन्निपात ज्वर 532
540
बाल बढ़ जाते जीर्ण-ज्वर
532 मलेरिया बुखार
533 भीघ्र के । पतन
540 टाईफाइड (मियादी) ज्वर 533 बाल दूर करना
540 निमोनिया-ज्वर 533 बाल काले बनाना
540 1. यदि कफ में रक्त आता हो तो 534 बालों को काला करना
541 2. भूत ज्वर
बालों की सफेदी नश्ट 542 3. ज्वर में प्यास ज्यादा होने पर
पित्त रोग
542 4. ज्वर में खांस होय 534 तृषा रोग
542 5. ज्वर में वमन होने पर
534 खाँसी रोग
543 6. ज्वर में श्वास होने पर
535 सूखी खाँसी
543 7. ज्वर में मूर्छा होने पर
श्वास-खाँसी
544
546 8. ज्वर में कब्ज तथा अफारा
दमा (श्वास) रोग
546 10. गर्मी के ज्वर में वमन होना
क्षय (तपेदिक) रोग 535
बालकों के ज्वर तथा अन्य रोग 547 11. ज्वरातिसार 535
547
बिस्तर (शय्या) मूत्र निवारण 12. ज्वर की निर्बलता 535
547 13. लू लगकर ज्वर होना
दन्त-रोग 535 पाइरिया
548 14. मौसम का ज्वर
535
दाँतों के मसूड़ों तथा मुँह का रोग 548 15. गर्दन तोड़ व कमर तोड़ बुखार 535
मुख के छाले
549 16, साधारण ज्वर
535 मुख से खून आने के रोग
549 जुकाम रोग 536
549
मुख की दुर्गन्ध दूर करने का उपाय । सिर-रोग
536 आधासिर दर्द
मुहांसे दूर (मुँह पर धब्बे का रोग) 550
550
मुख सुन्दर के लिए 1. वायु से सिर दर्द
537 गले के रोग
550 2. पित्त से सिर दर्द
537 स्वर-भंग
551 3. कफ की मस्तक पीड़ा
537
हकलाना दूर होता 15
535
535
536
552
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मनि प्रार्थना सागर
567
556
558
559
हिचकी-रोग
552 कम्पवाय (हाथ-पैर काँपना) 566 खट्टी डकारे
552 शून्यवात
566 नेत्र रोग 553 अर्धागं-वाय
566 कान-रोग 554 आम -वात
566 नाक-रोग 555 लकवा रोग
566 वमन-रोग
555 हाथ-पैरों की ऐंठन (बाईन्टे) तथा चोट पर 566 वमन कराने के उपाय
556 चोट लगकर सूजन आने पर हैजा-रोग
कमर और पसली पीड़ा
567 पत्थरी रोग 556 सूजन-रोग (शोध रोग)
568 लीवर (यकृत) रोग 557 मृगी रोग
568 तिल्ली (लिप) रोग 557 उन्माद (पागलपन) रोग
569 हृदय रोग
557
डिप्रेशन (अवसाद) दूर करने हेतु 569 रक्त चाप (ब्लड प्रेशर)
मूर्छा रोग
569 जलोदर-रोग
559 चक्कर आना रोग
570 उदर (पेट) रोग
पाण्डु रोग
570 पेट की धारियां मिटें
560 पिलिया रोग
570 कफोदर-रोग
560 पोलियो रोग
571 पेट की गैस (वायु)
560 कुष्ठ (कोढ़) रोग
571 अम्ल पित्त
561 वभूति रोग
572 धरण (पेचुटी) नाभि रोग
561 श्वेत कुष्ठ रोग
572 कब्ज रोग
सफेद दाग
572 मंदाग्नि रोग
562 चर्म रोग
572 अरुचि रोग
बवासीर (मस्सा) रोग
573 पेट का कृमि रोग 562
575
मूत्र(पेशाब)रोग पित्त का अतिसार 562
577
निद्रा-रोग पित्ति-रोग आम अतिसार
578
पित्ति (पिस्ती) रोग भस्मक रोग
578
प्रमेह और मधुमेह रोग शरीर का मोटापा दूर करना
563
563 सदा जवान रहें
578
मधुमेह रोग सर्व वात रोग
डायरिया
578 563
579 जोड़ों का दर्द
मेद रोग 564
579
शरीर में पसीने की दुर्गन्ध घुटनों का दर्द
565 काँख की दुर्गन्ध के लिए
579 गठिया रोग
कैंसर ,अल्सर रोग
579 शून्य-वात-लकवा रोग
565 खुजली दूर
580 पुस्तवाय(हाथ पैरों में अधिक पसीना आना) 566
व्रण (फोड़ा-फुन्सी) रोग
580 = 16
561
562
563
563
565
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
582
597
598
583
583
दाद और पाँव तथा खुजली रोग 581 घाव ठीक के बाद सफेद दाग का उपाय 581 अग्नि से जले हुए तथा अन्य उपाय 581 हड्डी टूटने पर
582 काँच निकलना
582 अधो वायु बंध का उपाय हाथ पाँवों की ब्याऊ फटने पर 582 त्वचा
583 पाँव की एड़ी का दर्द
583 नख टूटने पर
583 हाथी पांव घावों पर लगाने
583 गाँठ के लिए लेप नहरुआ (बाला) रोग
584 सर्प के काटने पर
584 बिच्छुके काटने पर
584 कुत्ते द्वारा काटा निष्प्रभावी होय 585 बर्र-ततैया के जहर पर
585 सिर की नँ या लीक
586 जानवरों के काटने पर जहर चढ़ने पर उपाय 586
स्त्री गुप्त रोग चिकित्सा प्रदर रोग
586 श्वेत प्रदर रोग रक्तार्श (रक्त प्रदर)
588 रुका हुआ मासिक धर्म खुलने के लिए 588 मासिक धर्म पुन: होय
588 रजोधर्म तुरन्त ही होने लगता 588 ऋतु धर्म नष्ट के लिए
589 गर्भ धारण करना पुत्री प्राप्ति हेतु
591 पुत्र(कन्या )प्राप्ति
593 गिरता गर्भ रोकना
593 गर्भ गिराने के लिए
593 गर्भधारण नहीं होगा
594 सुख से प्रसव होय
594
दूध बढ़ाने के लिए
594 स्तन पीड़ा व अन्य रोगों का उपाय 595 स्तनों की शिथिलता दूर
595 योनि दोष दूर हो जाता
596 पुरुष गुप्त रोग अधिकार गुप्तेन्द्रिय रोग
597 अण्डकोष वृद्धि रोग शुक्राणुओं की वृद्धिहेतु
598 स्वप्न दोष निवारण वीर्य स्तम्भन
599 बल पुरुषार्थ (शक्ति वर्धक) 600 दुर्बलता निवारण
601 नपुंसकता,वीर्य धातु रोग
601 कामेन्द्रिय (लिंग) में दृढता 602
180.विशेष नुस्खे दाँत मन्जन
603 हींग्वष्टक चूर्ण
603 लवण भास्कर चूर्ण
603 संजीवनी बूटी
604 अमर सुन्दर बटी
604 चन्द्र-प्रभा बटी
604 बाम
604 पंचसम चूर्ण
604 कस्तूरी भैरव रस
605 नवजीवन
605 आरोग्यवर्द्धनी
605 वज्र लेप तैयार करने की विधि-अर्थ 605 विशेष नुक्से
605 गुणकारी लौंग
606 तेजी मन्दी निकालने की विधि ६०९ मकर संक्रान्ति फल
611 संक्रान्ति से गणित द्वारा तेजी-मंदी का परिज्ञान
612 तेजी मंदी के उपयगी पांच वारों का फल 612 संक्रांति के वारों का फल 613 रवि नक्षत्र फल
613
587
589
17
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
आद्यमिताक्षर वर्तमान समय में लोगों का रुझान मिथ्यात्व की ओर द्रुतगति से आकृष्ट हो रहा है एवं अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं का निराकरण करने के लिए नाना प्रकार के कुदेवी-देवताओं की पूजा-उपासना आदि करने अथवा मिथ्या तापसी बाबाओं, पंडितों, पुरोहितों एवं महन्तों का प्रश्रय करके मिथ्या मंत्रयंत्र-तंत्र के जंजाल में फँसकर कुछ पाने की बजाय
अपना सर्वस्व खो डालते हैं और दुखी पीड़ित होकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। अतः ऐसे लोगों को उपरोक्त समस्याओं से मुक्ति दिलाने हेतु हमने अपनी साधना, स्वाध्याय एवं अभ्यास के माध्यम से खोज कर कुछ महान मंत्रयंत्र-तंत्र आदि का संग्रह करके इस महान ग्रन्थ का निर्माण किया है। जो आप सभी के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा।
वैसे भी भारत वर्ष अनादि काल से ज्ञान विज्ञान की गवेषणा, अनुशीलन एवं अनुसंधान की भूमि रहा है। विद्याओं की विभिन्न शाखाओं में भारतीय मनीषियों, ऋषियों ने जो कुछ काम किया है, नि:सन्देह वह प्रशंसनीय रहा है। आदि मानव से आज तक क्या-क्या नहीं किया गया। अग्नि की खोज की, ट्रेन-प्लेन और मोटर की खोज की। यहां तक कि मानव को महावीर, नर को नारायण, इन्सान को ईश्वर और आत्मा को परमात्मा बनाने तक की खोज की है।
इसी गवेषणा के परिणाम स्वरूप मंत्र-यंत्र-तंत्र का भी प्रस्फुटन हुआ है। मंत्र में असीम शक्ति होती है, आपने देखा होगा कि जब किसी व्यक्ति को सर्प काट देता है तो साधक मंत्र के प्रभाव से उस सर्प को बुलाकर उसका जहर निकलवा लेता है और उस सर्प डसे व्यक्ति को ठीक कर देता है। अथवा जब किसी व्यक्ति को भूत-व्यन्तर आदि की बाधा हो जाती है, भूत आदि उसे सताने लगते हैं, तो मंत्री साधना के बल से उसको बुलाकर पूछता है कि आपका नाम क्या है, आप इस व्यक्ति को क्यों परेशान करते हैं? आदि। फिर वह मंत्री (साधक) कहता है- अब आप इसे छोड़कर जाइये, इसे परेशान मत करिये। और जब वह भूत आदि नहीं मानता है तो साधक मंत्र के प्रभाव से उसे भगा देता है।
जैन परम्परा के अनुसार मंत्रविद्या का संबंध अत्यन्त प्रचीन है तथा अङ्गपूर्व ज्ञान से
= 18
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
जुड़ा हुआ है। सर्वज्ञ भाषित, गणधर देव द्वारा ग्रंथित द्वादशांग में बारहवां अंग दृष्टिवाद है। उसके पांच विभाग हैं- १.परिकर्म, २.सूत्र, ३.प्रथमानुयोग, ४.पूर्वगता और ५.चूलिका। जिसमें पूर्वगता के चौदह पूर्व होते हैं, उनमें दसवां विद्यानुवादपूर्व है। जो एक करोड़ दस लाख पद का माना गया है। विद्यानुवाद पूर्व मुख्यतः साधनाओं, सिद्धियों एवं उनके साधकों से संबंधित यंत्र, मंत्र, तंत्र और विद्याओं का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में मतिसागर द्वारा संग्रहीत विद्यानुशासन की पाण्डुलिपियां मिलती है। जयपुर के शास्त्र भण्डार में विद्यानुवाद के नाम से ग्रन्थ उपलब्ध है जो मल्लिषेण द्वारा निबद्ध है। इसके अतिरिक्त गणधर वलय मंत्र, घंटाकर्ण कल्प, भैरवपद्मावती कल्प, ज्वालामालनी कल्प, ऋषिमंडल कल्प, भक्तामर कल्प, कल्याणमंदिर कल्प, णमोकारमंत्र कल्प आदि अनेक ग्रंथ मंत्र-यंत्रों से भरपूर हैं, जिनके माध्यम से मनुष्य अपना मानव जीवन सफल व सार्थक कर सकता है।
। वैसे भी मानव जीवन अति दुर्लभ है। उसका अन्तिम साध्य आवागमन या जन्ममरण के बन्धन से उन्मुक्त होना है, जिसका साधन धर्म की साधना- आराधना है। धर्म का आधार मानस की पवित्रता, भावनाओं की उज्ज्वलता, तपमूलक आचार का अनुसरण है, पर केवल आदर्श की परिधि में नहीं, व्यवहारिक भूमिका पर जरा विचार करें, यह सब कब सध सकता है, जब मनुष्य के घर की स्थिति सन्तोषजनक हो। दूसरे शब्दों में उसे दैनंदिन जीवन-निर्वाह की समीचीन व्यवस्था हो, अधिक स्पष्ट कहें तो उसका सांसारिक जीवन सुखमय हो। जिस व्यक्ति के पास दोनों समय के भोजन की व्यवस्था नहीं है और रहने को स्थान तक नहीं है, जिसके बच्चे क्षुधा से पीड़ित रहते हैं, रुग्ण होने पर जिन्हें औषधि तक उपलब्ध नहीं होती, क्या उनके लिए संभव होगा, वे अपने को आत्म-ध्यान में रमा सकेंगे? व्यवहार की भूमिका पर सोचने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ऐसा असंभव नहीं तो दु:संभव अवश्य है।
शायद कतिपय मन्त्र-विद्या वेत्ताओं और मंत्राराधकों के मानस में यह आया हो कि जो कुछ उन्होंने अर्जित किया है, उससे वे समाज को लाभान्वित कर सकें ताकि श्रद्धालु लोग उन प्रयोगों के द्वारा पीड़ा, रोग, शोक व कष्ट आदि से छुटकारा पा सकें, शान्ति, सुख-समृद्धि अर्जित कर सकें। अतएव उन्होंने मन्त्र, तंत्र व यंत्र- जिन्हें प्रायः गोप्य रखने की परम्परा रही है, उन्हें अधिकारी जनों के समक्ष उद्घाटित किये, जिससे लोग लाभान्वित हुए और आज भी हो रहे हैं।
भगवान् महावीर के लगभग डेढ़ शताब्दी बाद भद्रबाहु आचार्य द्वारा रचित उवसग्गहर स्तोत्र, तदनन्तर सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित कल्याणमन्दिर स्तोत्र, मानतुंग सूरि द्वारा रचित भक्तामर स्तोत्र, नन्दिषेण मुनि द्वारा रचित शान्ति स्तवन आदि मंत्रशास्त्र की
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महान् निधियाँ हैं। इन दो हजार वर्ष के ज्ञात इतिहास में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य पादलिप्त, आचार्य वज्रस्वामी, आचार्य नागार्जुन, आचार्य हरिभद्र, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य जिनदत्त, आचार्य जिनप्रभ आदि अनेक महाविद्वान, वैराग्यवान् साधक आचार्य हुए हैं जिनके द्वारा रचित महा प्रभावशाली मन्त्र, यंत्र, तंत्र आदि ग्रन्थ आज भी कहीं कहीं उपलब्ध हो सकते हैं। पांचवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक पांच सौ वर्षों में इस रहस्यमय विद्या पर केवल बौद्ध भिक्षुओं ने ही दो-ढाई हजार ग्रंथ रच डाले थे। तिब्बत, चीन, लंका, मंगोलिया, बर्मा, कम्बोडिया आदि देश तो तांत्रिक बौद्ध लामाओं के गढ़ थे।
हमारे आगमिक ग्रन्थों में यद्यपि मन्त्र-विद्या का उल्लेख उपलब्ध नहीं हो सका, पर पारम्परिक प्रसिद्ध जनश्रुति के आधार पर यह मान्यता चली आ रही है। लेकिन कुछ समय उपरान्त हमारे महान आचार्यों ने सोचा कि कहीं स्वल्प सत्व, धैर्य व गंभीर हृदय वाले साधक इसका दुरुपयोग न कर लें, इस जनहित की भावना से पूर्व-आचार्यों ने अपने शिष्यों को इस अध्ययन की वाचना देना बन्द कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप शनैःशनैः कालक्रम से मंत्र विद्या का अध्ययन विलुप्त हो गया।
वैसे हमारे पूर्वाचार्यों को अनेकों विद्याएं सिद्ध थीं। आचार्य कुन्दकुन्द महाराज विद्या के बल से ही विदेह क्षेत्र गये थे। कहा जाता है कि वह लौटते समय अपने हाथ में तन्त्र मंत्र का ग्रन्थ भी लाये थे किन्तु वह मार्ग में लवण समुद्र में गिर गया। और भी कहा है कि एक बार गिरनार पर्वत पर श्वेताम्बरों के साथ उनका विवाद हो गया, तब उन्होंने वहां ब्राह्मी देवी के मुख से कहलवाया था कि “दिगम्बर निर्ग्रन्थ मार्ग ही सच्चा है।" इससे ज्ञात होता है कि वह मंत्र- तंत्रों के ज्ञाता थे और उन्हीं के शिष्य आचार्य उमास्वामी जी महाराज को आकाश गामिनी विद्या प्राप्त थी, उनके शिष्य आचार्य पूज्यपाद जी महाराज भी तंत्र विद्या के प्रयोग से विदेह क्षेत्र में साक्षात विराजमान भगवान सीमंधर स्वामी के दर्शन करने गये थे। आचार्य वादिराज जी महाराज ने कारणवसात् स्तोत्र विद्या से कुष्ठ रोग दूर किया।
• आचार्य समन्तभद्र स्वामी महान मन्त्रवेत्ता थे उन्होंने अपने मंत्रों के प्रभाव से बनारस नगरी में शंकरजी की पिण्डी में से चन्द्रप्रभ की प्रतिमा को प्रगट कर दिया था। इस तथ्य का समर्थन श्रवणबेलगोला के शिलालेख में मिलता है
बन्धो भस्मक-भस्म सात्कृति-पटु पद्मावती देवता। दत्तोदात्त-पदस्व-मन्त्र वचन-व्याहूत-चन्द्रमत्रः । आचार्यस्य समन्तभद्रगण भृधेनेह काले कलौ, जैनंवर्त्म समन्तभद्रय भवद्भद्रं समन्तान्मुहूः ।। इसके अतिरिक्त आचार्य समन्तभद्र पर पद्मावती देवी की विशेष कृपा थी जो मंत्रों की आराध्य देवी मानी जाती है।
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आचार्य अकलंक देव पर कुसुमांडिनी देवी प्रसन्न थी और उन्होंने कुसुमांडिनी देवी को सिद्ध कर लिया था। ब्रह्म नेमीदत्त आराधना कथाकोश और मल्लिषेण प्रशस्ति से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि अकलंक देव ने हिम-शीतल राजा की सभा में शास्त्रार्थ करके तारा देवी को परास्त किया था। आचार्यों के पश्चात् देश में भट्टारकों का युग आया और वे ६००-७०० वर्षों तक समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठा एवं सम्मान को प्राप्त हुए। वह मंत्रों के विशेष साधक होते थे। सूरत शाखा के भट्टारक मल्लिभूषण ने पद्मावती देवी की आराधना की थी, तथा लाडबागड गच्छ के भट्टारक महेन्द्रसेन ने क्षेत्रपाल को सम्बोधित किया था। मंत्र साधना द्वारा भट्टारक सोमकीर्ति ने पावागढ़ में और भट्टारक मलयकीर्ति ने आंतरी में यह चमत्कार किया था कि सरस्वती की पाषण मूर्ति के द्वारा दिगम्बर सम्प्रदाय का प्राचीनत्व सिद्ध किया। भट्टारक प्रभाचन्द्र तुगलक वंश के शासन काल में हुए जिन्होंने देहली विहार के समय बादशाह के पंडित राधोचेतन से शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की मंत्र शक्ति से पालकी का आकाश गमन, अमावस्या का पूर्णिमा में परिवर्तन, एवं कमण्डलु में जल को विपक्षी द्वारा मदिरा में परिवर्तन कर देने पर उसे पुष्पों में परिवर्तन कर देने जैसे अनेक चमत्कार किये थे। आचार्य सोमकीर्ति काष्ठासंघ के ८७वें भट्टारक थे संवत् १५१८ आषाढ़ शुक्ल अष्टमी को भट्टारक पद पर अभिषिक्त हुए और सुलतान फिरोजशाह के शासन काल में पावागढ़ में पद्मावती देवी की कृपा से आकाश गमन का चमत्कार दिखाया था। भट्टारक जगत्कीर्ति संवत् १७४५ में चांदखेड़ी प्रतिष्ठा महोत्सव में, जब एक श्वेताम्बर यति द्वारा रथ को मंत्र से कील दिया गया तब भट्टारक जगत्कीर्ति जी ने अपने मंत्र शक्ति के प्रभाव से रथ को बिना हाथियों के ही चला दिया था। संवत् १७६१ में करवर (हाड़ौती) प्रतिष्ठा महोत्सव में कुछ यतियों ने अपनी मंत्र शक्ति से खाद्य पदार्थ को आकाश में उड़ा दिया तब भट्टारक जगत्कीर्ति ने अपने कमण्डलु में से पानी छिड़क कर विघ्न शान्त किया और सामग्री को वापिस गिराया था।
आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व महान आचार्य श्री अर्हद्वलि जी महाराज ने दक्षिण भारत के समस्त दिगम्बर संतों का सम्मेलन किया था, तब वहीं से श्रुत संवर्धन हेतु धरसेन आचार्य ने दो साधुओं को बुलवाया था। और जब पुष्पदन्त भूतबलि दो महाराज आए तो उनकी ज्ञान परीक्षा के लिए महान मंत्रवेत्ता आचार्य धरसेन महाराज ने उन दोनों मुनिराजों को दोष पूर्ण मंत्र सिद्ध करने को दिये थे, लेकिन उन महान ज्ञानी
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मुनिराजों ने जब मंत्र सिद्ध किया तो मालूम हुआ कि यह मंत्र शुद्ध नहीं है। तब उसे सही करके सिद्ध किया था। शायद इस कहानी से आप सभी लोग परिचित होंगे।
इस प्रकार के अनेकों उल्लेख जैन आगम में आज भी उपलब्ध हैं। ____ पद्मपुराण में लिखा है कि रावण को ग्यारह सौ विद्यायें प्राप्त थी जिसके प्रभाव से
वह नारायण के अतिरिक्त किसी से भी पराजित नहीं हो सकता था। श्रेष्ठि जिनदत्त को दहेज में अनेक विद्यायें प्राप्त हुई थी। दे. जिनदत्त चरित्र हनुमान विद्याबल के प्रभाव से ही लंका दहन में सफल हुये थे।
श्रीपाल चरित्र में कथानक आता है कि जिस समय रत्नमंजूषा के पिता विवाह योग्य वर की खोज में थे, तब मुनिराज से पूछा- गुरुदेव! मेरी पुत्री का विवाह कब किससे होगा? गुरुदेव अवधिज्ञान के धारी थे, अतः उन्होंने कहा- 'श्रेष्ठी! जो यह सहस्रकूट चैत्यालय बहुत समय से बन्द है, जिस महापुरुष के आगमन से इसके द्वार खुल जायेंगे वही तुम्हारी पुत्री का योग्य वर होगा। इस प्रकार प्रथमानुयोग भी साधुओं के उपकारों से भरा पड़ा है।
मैना सुन्दरी को भी शान्ति का मार्ग- भयंकर कुष्ठ रोग निवारण का मार्ग जंगल में किसने बताया था? मात्र दिगम्बर साधु ने। क्योंकि सच्चे दिगम्बर संत अपाय-विचय धर्मध्यानी होते हैं। और अपाय विचय धर्म ध्यान- मंत्र-यंत्र द्वादशांग के अंग हैं। इसलिए जो साधक दुखी प्राणी के दुखों को दूर करने का चिन्तन करता है वही अपाय-विचय ध्यानी साधक कहलाता है, लेकिन हां उसे आजीविका का अंग न बनाएं। मात्र धर्म प्रभावना व परोपकार की दृष्टि से साधक मंत्रों का प्रयोग कर सकता है। और फिर वैसे भी अपाय-विचय धर्मध्यान के महानेता के चरणों में जो भी जाता है उसका संकट दूर हो ही जाता है। और दूसरी बात संसार में संत, सरिता और सूर्य ही सच्चे परोपकारी हुआ करते हैं।
शायद इसलिए जैन आचार्यों, यतियों, सन्तों ने सूक्ष्म व गम्भीर गवेषणा करके अनेक उपयोगी मंत्रों, यंत्रों व तंत्रों की रचना की और उनका सफल प्रयोग भी किया, लेकिन प्रयोग अत्यन्त आवश्यकता पड़ने पर किया और वह भी केवल परोपकार या संघीय प्रभावना की दृष्टि से किया। यदि आज पूर्ण रूप से खोज की जाए तो निश्चित ही बहुत बड़ा उपयोगी साहित्य मन्त्र विज्ञान नष्ट हो चुका है। और जो शेष बचा है उसे समझने वाले नहीं हैं, क्योंकि मंत्रों को समझना बड़ा मुश्किल काम है और यदि कोई समझता-जानता है तो वह किसी दूसरे को नहीं बतलाना चाहता, इसलिए भी बड़ी मुश्किल होती है; क्योंकि कुछ मंत्रों के अक्षर छूटे हुए हैं, कुछ की विधि छूटी हुई है, किसी का सही अर्थ समझ में नहीं आता आदि अनेकों परेशानियां मंत्रों को पढ़ने में आती हैं। मैंने एक मंत्र पढ़ा था, उसका विधि विधान भी लिखा था और फल में लिखा कि
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मन्त्र को भुजा पर बांधने से 'निकिडा व निकिशा तन्तु ड़छो तीजा' है। काफी सोचने के बाद मुझे मालूम हुआ कि ये तो उल्टे अक्षरों में लिखा है, जैसे डाकिनी शाकिनी तुरन्त छोड़ जाती हैं आदि।
आपके मन में प्रश्न हो सकता है- आखिर मंत्र - यंत्र - तंत्र है क्या ? तो मेरी दृष्टि से यह एक वैज्ञानिक, अभूतपूर्व चमत्कारी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से साधक चिन्तित फल प्राप्त करता है। जैसे सूर्य की किरणों को एक कांच ( लेन्स) के माध्यम से एकत्रित करने पर अग्नि उत्पन हो जाती है, ठीक उसी प्रकार मन्त्र के माध्यम से मन को एकत्रित करके ऊर्जा (शक्ति) उत्पन्न हो जाती है, जिससे सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं । अतः हम कह सकते हैं कि मन्त्र फैली हुई ऊर्जा (शक्ति) को एकत्रित करता है, बढ़ाता है । इस विद्या में मुख्यतः तीन विशिष्ट क्रियाओं का समावेश होता है- मन्त्र - यन्त्र और तन्त्र ।
मंत्र - विशिष्ट प्रभावक शब्दों द्वारा निर्मित किया हुआ वाक्य मंत्र कहा जाता है। उसका बार-बार जाप करने पर शब्दों के पारस्परिक संघर्ष के कारण वातावरण में एक प्रकार की विद्युत तरंग उत्पन्न होने लगती है जिससे साधक की इच्छित भावनाओं को बल मिलने लगता है। फिर वह जो चाहता है, वही होता है। मंत्रों की सिद्धि के लिए उनके हिसाब से जाप की विभिन्न मात्रा में शब्द, अंक तथा विभिन्न प्रकार के पदार्थों से बनी मालाएँ, विभिन्न प्रकार के फल-फूल, आसन, दिशाएं, क्रियाएं इत्यादि का भी विशेष महत्व होता है।
यंत्र - जो किसी विशिष्ट प्रकार के कागज, पत्र या धातु पर, किसी विशिष्ट प्रकार के निर्धारित अंकों, शब्दों या आकृतियों को बनाकर विशेष प्रकार के मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाता है उसे यन्त्र कहते हैं । फिर उस यंत्र को किसी ताबीज आदि में रखकर किसी की बांह में बांध दिया जाता है या गले में लटका दिया जाता है अथवा किसी स्थान पर रख दिया जाता है अथवा चिपका दिया जाता है, जिससे कार्य सिद्धि होती है ।
तंत्र- तन्त्र का सम्बन्ध विज्ञान से है। इसमें कुछ ऐसी रसायनिक वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है, जिससे एक चमत्कार पूर्ण स्थिति पैदा की जा सके; लेकिन किसी प्रकार के मंत्र-यंत्र-तंत्र के प्रयोग के लिए बारह प्रकार की शुद्धियों का होना आवश्यक है।
१.द्रव्यशुद्धि ः- पंचेन्द्रिय तथा मन को वश में करने के लिए, शरीर को स्वच्छ व निर्मल रखना द्रव्य शुद्धि है; लेकिन बाह्य द्रव्य शुद्धि के साथ अन्तरंग द्रव्य शुद्धि भी अनिवार्य है । अर्थात् जाप करने के पहले यथाशक्ति अपने अन्दर के विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान, माया आदि) को हटाना आवश्यक है; क्योंकि यहां द्रव्यशुद्धि का अभिप्राय पात्र की अन्तरंग शुद्धि से है।
२. क्षेत्रशुद्धि: - निराकुल स्थान, जहां किसी प्रकार का शोरगुल / आवाज न होती हो, डॉस- मच्छर आदि बाधक जन्तु न हों, चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाले उपद्रव एवं शीत-उष्ण की बाधा न हो, ऐसा एकान्त निर्जन स्थान मंत्र साधना के लिए उत्तम है I
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अर्थात् शान्तप्रिय स्थान, जैसे-मन्दिर-चैत्यालय, नदी- सरोवर का किनारा, तीर्थक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, सिद्धक्षेत्र आदि मंत्र साधना के लिए उपयुक्त स्थान हैं।
३. समयशुद्धि :- प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या समय मन्त्र-आराधना के लिए उपयुक्त समय है। वैसे कालशुद्धि के अन्तर्गत मन्त्र जाप का प्रारंभिक समय भी लिया जाता है। अतः शुभ-दिन, शुभ-तिथि, शुभ-नक्षत्र, शुभ-लग्न, शुभ-योग और शुभअमृत-लाभ चौघड़िया में जाप प्रारंभ करना चाहिए
४. आहार शुद्धि :- मंत्र-साधक का आहार सात्विक व परिमित होना चाहिए। क्योंकि राजसिक व तामसिक आहार से मंत्र साधना में मन नहीं लगता तथा प्रमाद आता है। अतः साधक को शुद्ध, शाकाहारी, सात्विक, भूख से कम भोजन लेना चाहिए।
५. संबंध शुद्धि :- साधक को सच्चे आस्तिक लोगों के साथ रहना चाहिए जिससे उसका मंत्र एवं मंत्र प्रदाता पर विश्वास बना रहे; क्योंकि मंत्र या मंत्र प्रदाता पर विश्वास न होने से मंत्र सिद्ध नहीं होता।
६. आसन शुद्धि :- काष्ठ, शिला, भूमि, चटाई या शीतलपट्टी पर पूर्वदिशा या उत्तर दिशा की ओर मुँह करके पद्मासन, अर्धपद्मासन, खड़गासन, या सुखासन पर स्थिर होकर क्षेत्र तथा काल का प्रमाण करके मौन पूर्वक जाप करना चाहिए।
७. विनयशुद्धि :- जिस आसन पर बैठकर जाप करना हो, उस आसन को सावधानी पूर्वक ईर्यापथ शुद्धि के साथ साफ करना चाहिए तथा जाप करने के लिए नम्रता पूर्वक भीतर का अनुराग भी रहना चाहिए। क्योंकि जाप करने के लिए जब तक भीतर का उत्साह नहीं होगा, तब तक सच्चे मन से जाप नहीं किया जा सकता।
८. मन शुद्धि :- विचारों की गन्दगी का त्याग कर मन को एकाग्र करना, चंचल मन इधर-उधर न भटकने पाये इसकी चेष्ठा करना, मन को पूर्णतया पवित्र बनाने का प्रयास करना ही इस शुद्धि में अभिप्रेत है।
९. वचन शुद्धि :- धीरे-धीरे साम्यभाव-पूर्वक मन्त्र का शुद्ध जाप करना, अर्थात् उच्चारण करने में अशुद्धि न होने पाये इसका विवेक रखना वचन शुद्धि है। मन ही मन भी जाप किया जा सकता है।
१०. काय शुद्धि :-शौचादि क्रियाओं से निवृत्त होकर यत्नाचारपूर्वक शरीर को शुद्ध करके हलन-चलन रहित होकर जाप करना कायशुद्धि है।
११. मन्त्र शुद्धि :- जिस मंत्र का जाप करना हो उसके बीजाक्षरों का मिलान करके देख लें कि गलत तो नही हैं, फिर शुद्ध उच्चारण पूर्वक त्रियोग से जापकरना चाहिए। १२. विधि-विधान शुद्धि- पूर्व निर्धारित क्रिया पूर्वक जाप करना विधि-विधान
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शुद्धि है। अर्थात् जिस प्रकार की मंत्र-यंत्र-तंत्र में सिद्ध करने की क्रिया लिखी हो उसी प्रकार क्रिया करना विधि-विधान शुद्धि है।
___ यदि इस प्रकार की शुद्धि पूर्वक साधक साधना करता है तो नियम से सफल होता है। क्योंकि यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया भी है। वैसे मंत्र और विज्ञान दोनों में कुछ अन्तर भी है। जैसे विज्ञान का प्रयोग जहां भी किया जाता है, फल एक ही होता है। परन्तु मंत्र में यह बात नहीं है, उसकी सफलता साधक और साध्य के ऊपर निर्भर है। ध्यान के अस्थिर होने से भी मन्त्र असफल हो जाता है। मन्त्र तो तभी सिद्ध होता है जब श्रद्धा, इच्छा और दृढ़ संकल्प ये तीनों ही यथावत् कार्य करते हों। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य की अवचेतना में बहुत सी आध्यात्मिक शक्तियाँ भरी रहती हैं और इन्हीं शक्तियों को मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष द्वारा उत्तेजित किया जाता है। इस कार्य में केवल विचार शक्ति ही काम नहीं करती है, बल्कि इसकी सहायता के लिए उत्कृष्ट इच्छा शक्ति की इच्छा द्वारा ध्वनि - संचालन की भी आवश्यकता होती है। और यह मैंने पहले ही कहा है कि मन के साथ जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रकट होती है उन ध्वनियों के समुदाय को मंत्र कहते हैं। तो मंत्र शक्ति के प्रयोग की सफलता के लिए मानसिक योग्यता प्राप्त करनी पड़ती है, जिसके लिए नैष्ठिक आचार की आवश्यकता होती है।
___ मंत्र निर्माण के लिए- ओं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र:, हं स: क्लीं क्लू ब्लू, द्रां द्रीं दूं द्रः, श्रां श्रीं श्रौं श्रः, क्षां क्षीं दूं क्षौं क्षः, क्ष्वी हैं अं फट् वषट्, संवौषट् घे घे यः ठः खः हल्वयूँ, पं वं यं णं तं थं दं आदि बीजाक्षरों की आवश्यकता होती है। साधारण व्यक्ति को तो ये बीजाक्षर निरर्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु हैं ये सार्थक और इनमें ऐसी शक्ति अन्तर्निहित रहती है, जिससे आत्मशक्ति या देवताओं को उत्तेजित किया जा सकता है। अतः ये बीजाक्षर अन्तःकरण और वृत्ति की शुद्ध प्रेरणा के व्यक्त शब्द हैं, जिनसे अत्यधिक शक्ति का विकास किया जा सकता है और बीजाक्षरों की उत्पत्ति प्रधानतः णमोकार मंत्र से हुई है, क्योंकि मातृका ध्वनियां इसी मंत्र से उद्भूत हैं। इन सबमें प्रधान ‘ओं' बीज है, यह
आत्मवाचक मूलभूत है। इसे तेजो बीज, कामबीज और भवबीज भी माना गया है। पंचपरमेष्ठी वाचक होने से ‘ओं' को समस्त मंत्रों का सारतत्त्व बताया गया है। इसे प्रणववाचक भी कहा जाता है।
श्री को कीर्तिवाचक, ह्रीं को कल्याणवाचक, क्षीं को शान्तिवाचक, हं को मंगलवाचक, ॐ को सुखवाचक, क्ष्वी को योगवाचक, हूं को विद्वेष और रोष वाचक, प्रीं को स्तम्भवाचक और क्लीं को लक्ष्मी प्राप्ति वाचक कहा गया है। सभी तीर्थंकरों के नाम-अक्षरों को मंगलवाचक एवं यक्ष-यक्षिणियों के नामों को कीर्ति और प्रीति वाचक कहा गया है। आगम में बीजाक्षरों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया है- ॐ प्रणव, ध्रुव, ब्रह्मबीज या तेजो बीज
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है। ऐं वाग्भव बीज, लूं कामबीज, क्रों शक्ति बीज, हं सः विषापहार बीज, क्षीं पृथ्वी बीज, स्वा वायु बीज, हा आकाश बीज, ह्यं मायाबीज या त्रैलोक्यनाथ बीज, क्रों अंकुशबीज, जं पाश बीज, फट् विसर्जनात्मक या चालन- दूरकरणार्थक, वौषट् पूजाग्रहण या आकर्षणार्थक, संवौषट् आमन्त्रणार्थक, ब्लूं द्रावणबीज, क्लौं आकर्षण बीज, ग्लौं स्तम्भन बीज, ह्रौं महाशक्तिवाचक, वषट् आह्वानन वाचक, रं ज्वलन वाचक, क्ष्वीं विषापहार बीज, ठ: चन्द्रबीज, घे घै ग्रहण बीज, द्रं विद्वेषणार्थक, रोष बीज, स्वाहा शान्ति और हवन वाचक, स्वधा पौष्टिक वाचक, नमः शोधन बीज, हं गगनबीज, हूं ज्ञानबीज, यः विसर्जन या उच्चारण वाचक, नु विद्वेषणबीज, इवीं अमृत बीज, क्ष्वीं भोग बीज, हूँ दण्ड बीज, खः स्वादन बीज, झौं महाशक्ति बीज, यूँ पिण्डबीज, क्ष्वीं मंगल और सुख बीज, श्री कीर्तिबीज या कल्याण बीज, क्लीं धनबीज , कुबेरबीज, तीर्थंकर के नामाक्षर शान्तिबीज, ह्रौं ऋद्धि- सिद्धि बीज, ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः सर्व शान्ति, मांगल्य, कल्याण, विघ्न विनाशक, सिद्धिदायक, अ आकाश बीज, धान्यबीज, आ सुखबीज -तेजो बीज, ई गुणबीज, तेजोबीज, वायुबीज, क्षां क्षीं क्षं झें मैं क्षों क्षौं क्ष: सर्व कल्याण, सर्वशुद्धि बीज , वं द्रवणबीज , मं मंगल बीज, सं शोधनबीज, यं रक्षाबीज, झं शक्ति बीज और तं थं दं कालुष्यनाशक, मंगल वर्धक और सुखकारक बीज बताया गया है। इन समस्त बीजाक्षरों की उत्पत्ति णमोकार मन्त्र तथा इस मंत्र में प्रतिपादित पंचपरमेष्ठी के नामाक्षर तीर्थंकर और यक्ष यक्षिणियों के नामाक्षरों से हुई है।
मन्त्र शास्त्र के बीजों का विवेचन करने के उपरान्त आचार्यों ने उनके रूप का निरूपण करते हुए बतलाया है कि - अ आ ऋह श य क ख ग घ ङ ये वर्ण वायुतत्त्व संज्ञक हैं। च छ ज झ ञ इ ई ऋ अ र प ये वर्ण अग्नितत्त्व संज्ञक हैं। त ट द ड उ ऊ ण लु व ल ये वर्ण पृथ्वी संज्ञक हैं। ठ थ ध ढ न ए ऐ ल स ये वर्ण जलतत्त्व संज्ञक है एवं प फ ब भ म ओ औ अं अः ये वर्ण आकाश तत्त्व संज्ञक हैं और अ उ ऊ ऐ ओ औ अं क ख ग ट ठ ड ढ त थ प फ ब ज झ ध य स प क्ष ये वर्ण पुल्लिंग हैं। आ ई च छ ल व वर्ण स्त्रीलिंग और इ ऋ ऋ ल ल ए अ: घ भ य र ह द ज ण ङ ये वर्ण नुपंसकलिंग संज्ञक होते हैं। मन्त्र शास्त्र में स्वर और ऊष्म ध्वनियाँ ब्राह्मण वर्ण संज्ञक; अन्तस्थ और कवर्ग ध्वनियाँ क्षत्रिय वर्ण संज्ञक; चवर्ग और पवर्ग ध्वनियाँ वैश्यवर्ण संज्ञक एवं टवर्ग और तवर्ग ध्वनियाँ शूद्रवर्ण संज्ञक होती हैं।
वश्य, आकर्षण और उच्चाटन में हूँ का प्रयोग; मारण में 'फट' का प्रयोग; स्तम्भन, विद्वेषण और मोहन में, नम: का प्रयोग एवं शान्ति और पौष्टिक के लिए 'वषट्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। मन्त्र के अन्त में स्वाहा शब्द रहता है। यह शब्द पापनाशक, मंगल कारक तथा आत्मा की आन्तरिक शान्ति को उद्घाटित करने वाला बतलाया गया है। मन्त्र को शक्तिशाली बनाने वाली अन्तिम ध्वनियों में स्वाहा को स्त्रीलिंग; वषट्, फट्, स्वधा को पुल्लिंग और नमः को नपुंसक लिंग माना है।
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चार पीठ- मन्त्र-सिद्धि के लिए चार पीठों का वर्णन जैन शास्त्रों में मिलता हैश्मशानपीठ, शवपीठ, अरण्यपीठ और श्यामापीठ।
१.श्मशानपीठ- भयानक श्मशानभूमि में जाकर मन्त्र की आराधना करना श्मशानपीठ है। अभीष्ट मंत्र की सिद्धि का जितना काल शास्त्रों में बताया गया है, उतने काल तक श्मशान में जाकर मंत्र साधना करना आवश्यक है। भीरू साधक इस पीठ का उपयोग नहीं कर सकता है। प्रथमानुयोग में आया है कि सुकुमाल मुनिराज ने णमोकार मंत्र की आराधना इस पीठ में करके आत्म सिद्धि प्राप्त की थी। इस पीठ में सभी प्रकार के मंत्रों की साधना की जा सकती है।
२. शवपीठ- शवपीठ में कर्ण पिशाचिनि, कर्णेश्वरी आदि विद्याओं की सिद्धि के लिए मृतक कलेवर पर आसन लगाकर मंत्र साधना करनी होती है। आत्मसाधना करने वाला व्यक्ति इस घृणित पीठ से दूर रहता है । वह तो एकान्त निर्जन भूमि में स्थित होकर आत्मा की साधना करता है।
३. अरण्यपीठ- अरण्यपीठ में एकान्त निर्जन स्थान, जो हिंसक जन्तुओं से समाकीर्ण है, में जाकर निर्भय एकाग्र चित्त से मंत्र की आराधना की जाती है। निर्ग्रन्थ परम तपस्वी साधक ही निर्जन अरण्यों में जाकर पंचपरमेष्ठी की आराधना द्वारा निर्वाण लाभ प्राप्त करते हैं। क्योंकि राग-द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि विकारों को जीतने का एक मात्र स्थान अरण्य ही है। अत् एव महामंत्रों की साधना इसी स्थान पर यथार्थरूप से हो सकती है।
४. श्यामापीठ- एकान्त निर्जन स्थान में षोडशी नवयौवना सुन्दरी को वस्त्ररहित कर सामने बैठ कर मंत्र सिद्ध करना एवं अपने मन को तिलमात्र भी चलायमान नहीं करना और ब्रह्मचर्यव्रत में दृढ़ रहना श्यामापीठ है। इन चारों पीठों का उपयोग मंत्रसिद्धि के लिए किया जाता है। किन्तु णमोकार महामंत्र की साधना के लिए इस प्रकार के पीठों की आवश्यकता नहीं है। यह तो कहीं भी और किसी भी स्थिति में सिद्ध किया जा सकता है। यह णमोकार मंत्र समस्त द्वादशांग जिनवाणी का सार है , इसमें समस्त श्रुतज्ञान की अक्षर संख्या निहित है। जैन दर्शन के तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य, पर्याय, नय, निक्षेप, आस्रव, बन्ध आदि इस मंत्र में विद्यमान हैं और समस्त मंत्रशास्त्र की उत्पत्ति इसी महामंत्र से हुई है। समस्त मंत्रों की मूलभूत मातृकाएं इस महामंत्र में निम्न प्रकार से निहित (विद्यमान) हैं।
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं णमो उव ज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥
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विश्लेशण :- ण्+अ + म् + ओ + अ + र् + इ + ह् + अं + त् + आ + ण् + अं + ण् + अ + म् + ओ + स् + इ + द् + ध् + आ + ण् + अं + ण् + अ + म् + ओ + आ + इ + र् + इ + य् + आ + ण् + अं + ण् + अ + म् + ओ + उ + व् + अ + ज + झ + आ + य + आ + ण + अं+ ण + अ + म + ओ + ल + ओ + ए + अ + व् + व्+ अ + स्+ आ + ह् + ऊ + ण् + अ + म्।
इस विश्लेषण में से स्वरों को पृथक् किया तो- अ + ओ + अ + इ + अं + आ + अं + अ + ओ + इ + अ + अं + अ + ओ + आ + इ + इ + आ + अं + अ + ओ + उ + अ + आ + आ + अं+ अ + ओ + ओ + ए + अ + अ + आ + ऊ + अंपनरुक्त स्वरों को निकाल देने के पश्चात् रेखांकित स्वरों को ग्रहण किया तो शेष बचे स्वर- अ आ इ ई उ ऊ (र्) ऋ ऋ (ल) ल ल ए ऐ ओ औ अं अः।
व्यंजन- ण् + म् + र् + ह् + त् + ण् + ण् + म् + स् + द् + ध् + ण् + ण् + म् + र् + य् + ण् + ण् + म् + व् + ज् + झ् + य् + ण् + ण् + म् + ल् + स् + व् + व् + स् + ह् + ण् । पुनरुक्त व्यंजनों को निकाल देने के पश्चात् शेष व्यंजन- ण् + म् + र् + ह् + ध् + स् + य् + र् + ल् + व् + ज् + घ् + ह्।
ध्वनि सिद्धान्त के आधार पर वर्णाक्षर वर्ग का प्रति निधित्व करता है। अतः घ्= कवर्ग, झ्= चवर्ग, ण्= टवर्ग, ध्=तवर्ग, म्= पवर्ग, य र ल व श ष स ह । अतः इस महामंत्र की समस्त मातृका ध्वनियां निम्न प्रकार हुईं- अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ
ओ औ अं अः; क् ख् ग् घ् ङ्, च् छ् ज् झ् ञ्, ट् ठ् ड् ढ् ण् , त् थ् द् ध् न्, प् फ् ब् भ् म्, य् र् ल् व्, श् ष् स् ह। यह उपर्युक्त ध्वनियाँ ही मातृका कहलाती हैं। जयसेन प्रतिष्ठापाठ में लिखा है
अकारादिक्षकारान्ताः वर्णाः प्रोक्तास्तु मातृकाः।
सृष्टिन्यास-स्थितिन्यास-संतिन्यासतस्त्रिधा॥३७६ ॥ अकार से लेकर क्षकार (क्+ ष् + अ ) पर्यन्त मातृका वर्ण कहलाते हैं। इनका तीन प्रकार का क्रम है- सृष्टि क्रम, स्थिति क्रम और संहारक्रम।
णमोकार मंत्र में मातृका ध्वनियों का तीनों प्रकार का क्रम सन्निविष्ट है। इसी कारण यह मंत्र आत्मकल्याण के साथ-साथ लौकिक अभ्युदयों को देने वाला है। संहार क्रम कर्म विनाश को प्रकट करता है तथा सृष्टिक्रम और स्थितिक्रम आत्मानुभूति के साथ लौकिक
अभ्युदयों की प्राप्ति में भी सहायक है। इस मन्त्र की महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इसमें मातृका-ध्वनियों का तीनों प्रकार का क्रम सन्निहित है, इसलिए इस मन्त्र से मारण, मोहन और उच्चाटन इन तीनों प्रकार के मन्त्रों की उत्पत्ति हुई है। बीजाक्षरों की निष्पत्ति के
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मंत्र यंत्र और तंत्र
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संबंध में बताया गया है
हलो बीजानि चोक्तानि स्वराः शक्तय ईरिताः ॥३७७॥ अर्थात्- ककार से लेकर हकार पर्यंत व्यंजन बीजसंज्ञक हैं और अकारादि स्वर शक्ति रूप हैं। मन्त्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है। सारस्वत बीज, माया बीज, शुभनेश्वरी बीज, पृथ्वीबीज, अग्निबीज, प्रणवबीज, मारुतबीज, जलबीज, आकाशबीज, आदि की उत्पत्ति उक्त हल और अचों के संयोग से हुई है।
___ मंत्र शास्त्र का संक्षेप में विश्लेषण और विवेचन का निष्कर्ष यह है कि मंत्रों के बीजाक्षर, सन्निविष्ट ध्वनियों के रूप विधान में उपयोगी लिंग और तत्त्वों का विधान एवं मंत्र के अन्तिम भाग में प्रयुक्त होने वाला पल्लव अंतिम ध्वनि समूह का मूल स्रोत णमोकार महामंत्र है। जिस प्रकार समुद्र का जल नवीन घड़े में भर देने पर नवीन प्रतीत होने लगता है, उसी प्रकार णमोकार मन्त्र रूपी समुद्र में से कुछ ध्वनियों को निकालकर मंत्रो का सृजन हुआ है। कातंत्र रूपमाला का सूत्र ‘सिद्धो वर्णसमाम्नायः' बतलाता है कि वर्गों का समूह अनादि है। णमोकार मंत्र में कण्ठ, तालु, मूर्धन्य, अन्तस्थ, ऊष्म, उपध्यानीय, वरर्थ आदि सभी ध्वनियों के बीज विद्यमान हैं और बीजाक्षर मंत्रों के प्राण हैं। ये बीजाक्षर ही स्वयं इस बात को प्रकट करते हैं कि इनकी उत्पत्ति कहां से हुई है।
बीजाकोश में बताया गया है कि "ॐ" बीज समस्त णमोकार मंत्र से, "ह्रीं" की उत्पत्ति णमोकार मंत्र के प्रथम पद से, "श्रीं" की उत्पत्ति द्वितीय और तृतीय पदों से 'क्लीं' की उत्पत्ति प्रथम पद में प्रतिपादित तीर्थंकरों की यक्षिणियों से, अत्यन्त शक्तिशाली सकल मंत्रों में व्याप्त ‘हूँ' की उत्पत्ति णमोकार मंत्र के प्रथम पद से, 'द्रां द्रीं' की उत्पत्ति उक्त मंत्र के चतुर्थ और पंचम पद से हुई है 'ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः' बीजाक्षर प्रथम पद से और 'क्षां क्षीं झू झें मैं क्षौं क्षः' बीजाक्षरों की उत्पत्ति प्रथम, द्वितीय और पंचम पद से निष्पन्न हुई है। इसके अलावा णमोकार मन्त्र कल्प, भक्तामर यंत्र मंत्र, कल्याणमंदिर यंत्र मंत्र, यंत्र मंत्र संग्रह, पद्मावती मंत्रकल्प, ज्वालामालिनी कल्प, आदि मंत्र ग्रथों के अवलोकन से पता लगता है कि समस्त मंत्रों के रूप बीज पल्लव की उत्पत्ति इसी णमोकार महामंत्र से हुई है। और इतना ही नहीं चौरासी लाख मंत्रों की उत्पत्ति इसी महामन्त्र से हुई मानी जाती है। आचार्य शुभचन्द्र महाराज ने ज्ञानार्णव महा ग्रन्थ में लिखा है कि षोडशाक्षर, षडाक्षर, चतुराक्षर, द्वयाक्षर, एकाक्षर, पंचाक्षर, त्रयोदशाक्षर, सप्ताक्षर, अक्षरपंक्ति इत्यादि नाना प्रकार के मन्त्रों की उत्पत्ति इसी महामंत्र से हुई है। इसके अतिरिक्त सकलीकरण क्रिया मंत्र, ऋषिमन्त्र, पीठिकामन्त्र, प्रोक्षणमन्त्र, प्रतिष्ठामन्त्र, शांतिमंत्र, इष्टसिद्धि-अरिष्ट निवारक मंत्र, विभिन्न मांगलिक कार्यो के अवसर पर उपयोग में आने वाले मंत्र, विवाह मंत्र, यज्ञोपवीत धारण मंत्र, मूर्ति प्राणप्रतिष्ठा मंत्र, सूरि मंत्र, वेदी प्रतिष्ठा मंत्र, दीक्षा मंत्र, मातृका मंत्र, अनेक
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शुभाशुभ अवसरों पर हवन-पूजन आदि के लिए प्रयुक्त होने वाले समस्त मन्त्रों की उत्पत्ति णमोकार महामंत्र से हुई है। इस महामन्त्र की ध्वनियों के संयोग, वियोग, विश्लेषण और संश्लेषण के द्वारा ही मन्त्र शास्त्रों की उत्पत्ति हुई है।
प्रवचन-सरोद्धार की वृत्ति लिखा में है- यह णमोकार मंत्र सभी मंत्रों की उत्पत्ति के लिए समुद्र के समान है। जिस प्रकार समुद्र से अनेक मूल्यवान् रत्न उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार इस महामंत्र से अनेक उपयोगी और शक्तिशाली मन्त्र उत्पन्न हुए हैं। यह मन्त्रकल्पवृक्ष है, इसकी आराधना से सभी प्रकार की कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। इस मन्त्र से विष, सर्प, शाकिनी, डाकिनी, भूत, पिशाच, यक्ष, राक्षस आदि सब वश में हो जाते हैं। यह मन्त्र ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का सारभूत है। मन्त्रों के आचार्यों ने इसे वश्य, आकर्षण आदि नौ भागों में विभक्त किया है। ये नौ प्रकार के मन्त्र इसी महामन्त्र से निष्पन्न हुए हैं। क्योंकि उन मन्त्रों के रूप इस मन्त्रोक्त वर्णों या ध्वनियों से ही निष्पन्न हुए हैं। सभी मन्त्रों के प्राण बीजाक्षर इसी मन्त्र से निःसृत हैं इसी महामंत्र से सभी मंत्रों का विकास और निकास हुआ है अतः यह महामंत्र महासमुद्र है।
णमोकारादि मंत्र संग्रह ग्रंथों में बताया गया है कि इस महामंत्र के एक-एक पद का जाप करने से नवग्रहों की बाधा शान्त होती है। “ॐ णमो सिद्धाणं" के दस हजार जाप से सूर्य ग्रह की पीड़ा दूर होती है। “ॐ णमो अरिहंताणं" के दस हजार जाप से चन्द्रग्रह की पीड़ा, “ॐ णमो सिद्धाणं" के दस हजार जाप से मंगलग्रह की पीड़ा, “ॐ णमो उवज्झायाणं" के दस हजार जाप से बुधग्रह की पीड़ा, “ॐ णमो आइरियाणं" के दस हजार जाप से गुरु ग्रह की पीड़ा, “ॐ णमो अरिहंताणं" के दस हजार जाप से शुक्रग्रह की पीड़ा और “ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं" के दस हजार जाप से शनि ग्रह की पीड़ा दूर होती है। राहु ग्रह की पीड़ा शान्ति के लिए समस्त णमोकार मंत्र की जाप "ॐ" जोड़कर अथवा “ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं" मंत्र की ग्यारह हजार जाप तथा केतु ग्रह की पीड़ा शांति के लिए "ॐ" जोड़कर समस्त णमोकार मंत्र का जाप या “ॐ णमो सिद्धाणं" पद का ग्यारह हजार जाप करना चाहिए। भूत, पिशाच और व्यन्तर की बाधा को दूर
__भूत, पिशाच और व्यन्तर की बाधा को दूर करने के लिए निम्न प्रकार २१००० जाप करना चाहिए। इक्कीस हजार जाप करने के उपरान्त मन्त्र सिद्ध हो जाता है। फिर सिद्ध हो जाने के बाद ९ बार पढ़कर झाड़ देने से व्यन्तर बाधा दूर हो जाती है। मन्त्र यह है
मंत्र :-ॐ णमो अरिहंताणं, ॐ णमो सिद्धाणं, ॐ णमो आइरियाणं, ॐ णमो उवज्झायाणं, ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं, सर्व दुष्टान् स्तम्भय-स्तम्भय मोहय-मोहय अन्धय-अन्धय-मूकवत्कराय कराय ह्रीं दुष्टान् ठः ठः ठः।।
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विधि- इस मन्त्र द्वारा एक ही हाथ द्वारा खींचे गये जल को, (मन्त्र सिद्ध होने पर ९ बार और सिद्ध न होने पर १०८ बार) मन्त्रित करके, पश्चात् णमोकार महामंत्र पढ़ते हुए यह जल व्यन्तराक्रान्त व्यक्ति के ऊपर छिड़क देने से व्यन्तर, भूत, प्रेत, और पिशाच की बाधा दूर हो जाती है।
___ मंत्र जाप में अंगुलियों का महत्व :- इस मन्त्र को धर्मकार्य और मोक्ष प्राप्ति के लिए अंगुष्ठ और तर्जनी अंगुली से, शान्ति के लिए अंगुष्ठ और मध्यमा अँगुली से, सिद्धि के लिए अंगुष्ठ और अनामिका से एवं सर्वकार्य सिद्धि के लिए अंगुष्ठ और कनिष्ठा से जाप करना चाहिए।
__ मंत्र जाप में माला का महत्व :- सभी कार्यों की सिद्धि के लिए पंचवर्ण पुष्पों की माला से, दुष्ट और व्यन्तरों के स्तम्भन के लिए मणियों की माला से, रोग शान्ति और पुत्रप्राप्ति के लिए मोतियों की माला या कमलगट्टों की माला से एवं शत्रुच्चाटन के लिए रुद्राक्ष की माला से मंत्र का जाप करना चाहिए। वैसे यह मन्त्र तो सभी का हित साधक हैं, परन्तु साधना करने वाला अपने भावों के अनुसार मारण, मोहनादि कार्यों को सिद्ध कर लेता है। मन्त्र साधना में मन्त्र की शक्ति के साथ-साथ साधक की शक्ति भी कार्य करती है। एक ही मन्त्र का फल विभिन्न साधकों को उनकी योग्यता, परिणाम, स्थिरता आदि के अनुसार भिन्न-भिन्न मिलता है। अतः मन्त्र के साथ साधक का भी महत्वपूर्ण सम्बन्ध हैं। * वास्तविक बात यह है कि यह मंत्र ध्वनिरूप है और भिन्न-भिन्न ध्वनियाँ अ से लेकर ज्ञ तक भिन्न शक्ति स्वरूप हैं। प्रत्येक अक्षर में स्वतन्त्र शक्ति निहित है, भिन्न-भिन्न अक्षरों के संयोग से भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तियाँ उत्पन्न की जाती हैं। जो व्यक्ति इन ध्वनियों का मिश्रण करना जानता है, वह उन मिश्रित ध्वनियों के प्रयोग से उसी प्रकार के शक्तिशाली कार्यों को सिद्ध कर लेता है। णमोकार मन्त्र ध्वनि-समूह इस प्रकार का है कि इसके प्रयोग से भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य सिद्ध किये जा सकते हैं। ध्वनियों के घर्षण से दो प्रकार की विद्युत उत्पन्न होती है- एक धन विद्युत् और दूसरी ऋण विद्युत् । धन विद्युत् शक्ति द्वारा बाह्य पदार्थों पर प्रभाव पड़ता है और ऋणविद्युत् शक्ति अन्तरंग की रक्षा करती है। आज का विज्ञान भी मानता है कि प्रत्येक पदार्थ में दोनों प्रकार की शक्तियों निवास करती है और मंत्र का उच्चारण एवं मनन इन शक्तियों का विकास करता है। जिस प्रकार जल में छिपी हुई विद्युत-शक्ति जल के मन्थन से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार मन्त्र के बार-बार उच्चारण करने से मन्त्र के ध्वनि-समूह में छिपी शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं। भिन्न-भिन्न मन्त्रों में यह शक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है तथा शक्ति का विकास भी साधक की क्रिया और उसकी शक्ति पर निर्भर करता है। अतः सब मन्त्र की साधना सभी प्रकार के अभीष्टों को सिद्ध करने वाली और अनिष्टों को दूर करने वाली है।
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* यह मेरा अनुभव है कि किसी भी प्रकार का सिरदर्द हो, तो इक्कीस लौंग णमोकार मंत्र द्वारा मन्त्रित कर रोगी को खिला देने से सिरदर्द तत्काल बन्द हो जाता है। एक दिन के अन्तर से आने वाले बुखार में पीपल के पत्ते पर केसर से णमोकार लिखकर रोगी के हाथ में बाँध देने से बखार नहीं आता है। पेट दर्द में कपूर को णमोकार मन्त्र द्वारा मन्त्रित कर खिला देने से पेटदर्द तत्काल रुक जाता है। लक्ष्मी-प्राप्ति के लिए प्रतिदिन प्रात:काल स्नानादि क्रियाओं से पवित्र होकर- “ॐ श्रीं क्लीं णमो अरिहंताणं ॐ श्रीं क्लीं णमो सिद्धाणं ॐ श्रीं क्लीं णमो आइरियाणं, ॐ श्रीं क्लीं णमो उवज्झायाणं ॐ श्रीं क्लीं णमो लोए सव्वसाहूणं" इस मन्त्र का १०८ बार पवित्र शुद्ध धूप देते हुए जाप करने से निश्चय ही लक्ष्मी प्राप्ति होती है। लेकिन इन सब साधनाओं के लिए मन्त्र के ऊपर अटूट श्रद्धा होना चाहिए, क्योंकि श्रद्धा के अभाव में मंत्र फलदायक नहीं होता। और यदि श्रद्धा होने के बाद भी पूर्व कर्मोदय से मंत्र सिद्ध न हो या कार्य में सफलता न मिले, तो भी मंत्र की या मंत्र को देने वाले गुरु की निन्दा आलोचना नहीं करना क्योंकि की गई साधना कभी निष्फल नहीं होती। यदि आपकी साधना का, मंत्र जाप का फल अभी न मिले तो बाद में अवश्य मिलता है। कारण किसी भी कार्य का फल दो प्रकार से प्राप्त होता है- तात्कालिक और कालान्तर भावी। जैसे तत्वानुशासन में लिखा है कि णमोकार मंत्र के एक अक्षर का भाव सहित स्मरण करने से सात सागर के और पाँच अक्षरों का भक्ति पूर्वक उच्चारण करने से पचास सागर तक भोगे जाने वाले पाप नष्ट हो जाते हैं और सम्पूर्ण मंत्र का भक्तिभाव सहित विधिपूर्वक स्मरण करने से पाँच सौ सागर तक भोगे जाने वाले पाप नष्ट हो जाते हैं। अभव्य प्राणी भी इस मंत्र के स्मरण से स्वर्गादि के सुखों को प्राप्त करता है। भाव सहित स्मरण किया गया मंत्र असंख्यात दुःखों का क्षय करने वाला तथा इह लौकिक और पारलौकिक समस्त सुखों को देने वाला है। इस मन्त्र के चिन्तन, स्मरण और मनन करने से भूत, प्रेत, ग्रहबाधा, राजभय, चोर भय, दुष्टभय, रोगभय आदि सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। राग-द्वेष-जन्य अशान्ति भी इस मन्त्र के जाप से दूर होती है। श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी आदि की प्राप्ति इसी मन्त्र के जाप से होती है। कर्मों की ग्रन्थी को खोलने वाला यही मन्त्र है तथा भावपूर्वक नित्य जप करने से निर्वाण पद की प्राप्ति होती है। * आचार्य वादीभसिंह ने क्षत्रचूड़ामणि ग्रन्थ में लिखा है कि करुणावश जीवन्धर स्वामी ने मरणोन्मुख कुत्ते को णमोकार मन्त्र सुनाया था, तो इस मन्त्र के प्रभाव से वह पापाचारी श्वान भी स्वर्ग में सुदर्शन नामक यक्षेन्द्र देव के रूप में उत्पन्न हुआ था। राजकुमार पार्श्वनाथ ने जलते हुए नाग-नागिन को णमोकार मन्त्र सुनाया तो वे मरने के बाद धरणेन्द्रपद्मावती हुए। राजकुमार राम ने मरते हुए बैल को सुनाया तो वह बैल मरकर सुग्रीव हुआ। उसी महामंत्र के प्रभाव से अंजन चोर का भी उद्धार हुआ। अधिक क्या कहें पापी से पापी
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प्राणियों का भी इस णमोकार महामंत्र के जाप से उद्धार हुआ एवं होता है, अतः प्रतिदिन लोकैषणा, पुत्रैषणा और वित्तैषणा छोड़कर इस मंत्र का जाप अवश्य करना चाहएि। क्योंकि इस मंत्र के प्रभाव से जब निर्वाण पद तक की प्राप्ति हो सकती है तो फिर धन-वैभव, सुख-समृद्धि, चक्रवर्ती, अहमिन्द्र, इन्द्र आदि पदों की प्राप्ति क्या बड़ी बात है। इस मंत्र से तो लौकिक व पारलौकिक सभी प्रकार के कार्य सिद्ध होते हैं। पर इस संबंध में एक बात अवश्य है कि जाप करने वाला साधक, जाप करने की विधि, जाप करने के स्थान की भिन्नता से फल में भिन्नता हो जाती है। यदि जाप करने वाला सदाचारी, शाकाहारी,शुद्धात्मा, सत्यवक्ता, अहिंसक एवं ईमानदार है तो उसको इस मंत्र की आराधना का फल तत्काल मिलता है। अतः मन-वचन और काय की शुद्धिपूर्वक, विधिसहित आस्था-विश्वास के साथ एकाग्रचित्त होकर तल्लीनता पूर्वक जाप करना चाहिए। * लेकिन हाँ यह बात अवश्य है कि जिसने साधना की सीढ़ी पर प्रारम्भिक पैर रखा है, तो मन्त्र जाप करते समय उसके मन में दूसरे विकल्प जरूर आयेंगे, किन्तु उनकी परवाह नहीं करना चाहिए। कारण जिस प्रकार आरम्भ में अग्नि जलाने पर धुंआँ नियम से निकलता है, किन्तु जब कुछ देर अग्नि जलती रहती है, तो धुंआँ निकलना बन्द हो जाता है। ठीक इसी प्रकार प्रारम्भिक साधक की साधना के समक्ष नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प आते हैं किन्तु साधना पर कुछ आगे बढ़ जाने पर विकल्प स्वयं ही रुक जाते हैं। अत: संकल्प पूर्वक दृढ़ श्रद्धा के साथ मंत्र जाप करना चाहिए। * मंत्रों का बार-बार उच्चारण किसी सोते हुए को बार-बार जगाने के समान है। यह प्रक्रिया इसी के तुल्य है, जिस प्रकार किन्हीं दो स्थानों के बीच बिजली का सम्बन्ध लगा दिया जाये। साधक की विचार शक्ति स्विच का काम करती है और मन्त्र शक्ति विद्युत लहर का। जब मन्त्र सिद्ध हो जाता है तब आत्मिक शक्ति से आकृष्ट देवता साधक (मन्त्रिक) के समक्ष अपना आत्म-समर्पण कर देता है, और उस देवता की सारी शक्ति उस साधक में आ जाती है, जिससे साधक किमिच्छित कार्य करता है। सामान्यतः मन्त्रों के लिए नैतिकता की उतनी विशेष आवश्यकता नहीं है जितनी शुद्ध मन्त्रों के उच्चारण की। क्योंकि साधक बीजमन्त्र और उनकी ध्वनियों के घर्षण से अपने भीतर आत्मिक शक्ति प्रस्फुटित करता है। मन्त्र शास्त्र में इसी कारण हमारे पूर्वाचार्यों ने मन्त्रों के अनेक भेद बताये हैं, जो निम्नप्रकार हैं।
१. शान्ति मंत्रः जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा भयंकर से भयंकर व्याधि, व्यन्तर-भूत-पिशाचों की पीड़ा, क्रूर ग्रहपीड़ा, जंगम स्थावर विष-बाधा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्षादि, भय, उपसर्ग और चोर आदि का भय शान्त हो जाए उन ध्वनियों के सन्निवेष को शान्ति मन्त्र कहते हैं। अथवा मन कषायों के क्षय-उपशम या क्षयोपशम से आत्मस्वभाव में स्थिर हो जाय तो उसे शान्ति मंत्र कहते हैं।
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२. पौष्टिक मंत्र-जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा सुख सामग्रियों की प्राप्ति, सौभाग्य, यश, कीर्ति, सन्तान आदि की प्राप्ति हो उन ध्वनियों के सन्निवेश को पौष्टिक मंत्र कहते हैं। अथवा जिन भावों या बीज पदों के द्वारा मोक्षमार्ग के प्रति दृढ़ता मजबूती की वृद्धि हो उसे पौष्टिक मंत्र कहते हैं या संसार की अपेक्षा से रहित होकर उपसर्ग परिषहों को जीतने की सामर्थ्य उत्पन्न हो उसे पौष्टिक मंत्र कहते हैं।
३. स्तंभन मंत्र- जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा मनुष्य पशुपक्षी, सर्प, व्याघ्र, सिंह आदि जीवों की गति, हलचल का निरोध हो, भूत-प्रेत, पिशाच आदि दैविक बाधाओं को, शत्रुसेना के आक्रमण तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले कष्टों को दूर कर उनको जहां के तहाँ निष्क्रिय कर स्तम्भित कर दिया जाये, उन ध्वनियों के सन्निवेश को स्तम्भन मन्त्र कहते हैं। अथवा मन को एकमात्र किसी एक विषय में रोकने को स्तम्भन मंत्र कहते हैं।
४. मोहन मंत्र- जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा किसी मनुष्य पशु, पक्षी आदि को मोहित किया जाये, उन ध्वनियों के सन्निवेष को मोहन (मोहित) मंत्र कहते हैं। मेस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म आदि प्रायः इसी के अंग हैं। अथवा जिन बीजाक्षरों के द्वारा अपना मन अपनी आत्मा में प्रीति को प्राप्त हो उसे मोहन मंत्र कहते हैं।
५. उच्चाटन मंत्र- जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा किसी मनुष्य, पशु, पक्षी अपने स्थान से भ्रष्ट हों, इज्जत-सम्मान खो दें अथवा किसी का मन अस्थिर, उल्लासरहित, एवं निरुत्साहित होकर पदभ्रष्ट एवं स्थान भ्रष्ट हो जाये उन ध्वनियों के सन्निवेश को उच्चाटन मन्त्र कहते हैं। अथवा जिन मंत्र पदों के द्वारा दुर्ध्यानों से मन हटकर धर्मध्यान में लग जाय उसे उच्चाटन मंत्र कहते हैं । अर्थात् आर्तध्यान और रौद्रध्यानों से मन हट जाये उसे उच्चाटन मंत्र कहते हैं।
६. वशीकरण मंत्र- जिन ध्वनियों के सन्निवेश के घर्षण द्वारा इच्छित व्यक्ति को वश में किया जा सके, वह साधक व्यक्ति जैसा कहे सामने वाला वैसा करे, उन ध्वनियों के सन्निवेश को वशीकरण मंत्र कहते हैं। अथवा जिन आत्मभावों के द्वारा इन्द्रिय और मन अपने वश में होते हों उसे वशीकरण मंत्र कहते हैं।
७. आकर्षण मंत्र- जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण-द्वारा इच्छित वस्तु या व्यक्ति साधक के पास आ जाये- किसी का विपरीत मन भी साधक की अनुकूलता स्वीकार कर ले अथवा दूर रहने वाला मनुष्य, पशु, पक्षी आदि अपनी तरफ आकर्षित हो, अपने निकट आ जाये, उन ध्वनियों के सन्निवेश को आकर्षण मंत्र कहते हैं। अथवा अपना मन रत्नत्रय स्वरूप आत्मा में आ जाये उसे आकर्षण मंत्र कहते हैं। ८. मुंभण मंत्र- जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा शत्रु, भूत, प्रेत,
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व्यन्तर साधक की साधना से भयत्रस्त हो जायें, कांपने लगें अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी प्रयोग करने वाले की सूचना (आज्ञा ) के अनुसार कार्य करें, उन ध्वनियों के सन्निवेश को जृम्भण मंत्र कहते हैं। अथवा आत्म साधना के अनुसार इन्द्रिय और मन अपना कार्य करें उसे जृंभण मंत्र कहते हैं ।
९. विद्वेषण मंत्र - जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा दो मित्रों के बीच में फूट पड़े, सम्बन्ध टूट जाए अथवा कुटुम्ब, जाति, देश, समाज, राष्ट्र आदि में परस्पर कलह और वैमनस्य की क्रान्ति मच जाये, उन ध्वनियों के सन्निवेश को विद्वेषण मंत्र कहते हैं।
१०. मारण मंत्र - जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश घर्षण द्वारा जीवों की मृत्यु हो जाये, या साधक आततायियों को प्राणदण्ड दे सके, उन ध्वनियों के सन्निवेश को मारण मंत्र कहते हैं ।
मन्त्रों में एक से तीन ध्वनियों तक के मन्त्रों का विश्लेषण अर्थ की दृष्टि से नहीं किया जा सकता है, किन्तु इससे अधिक ध्वनियों के मन्त्रों का विश्लेषण हो सकता है। मन्त्रों से इच्छाशक्ति का परिष्कार या प्रसारण होता है, जिससे अपूर्व शक्ति आती है।
जैसे हम सूरज की किरणों को एक कांच के लैंस से इकट्ठा कर लें, तो आग पैदा हो जाती है। क्योंकि सूरज की किरणों में आग छिपी होती है। परंतु पृथक-पृथक रहने से ज्यादा से ज्यादा गरमी पैदा तो हो सकती है किन्तु आग नहीं निकल सकती; लेकिन हां यदि किरणों को एकत्र कर लिया जाए, किरणें इकट्ठी हो जाएं तो आग पैदा हो जाती है। ठीक इसी प्रकार आपके मन में भी बहुत बड़ी ऊर्जा शक्ति छिपी हुई है किन्तु वह अभी अलग-अलग है इसलिए सिर्फ उष्णता रहती है । यदि उसे मंत्रों के द्वारा इकट्ठा कर लिया जाये तो उस आग से अनंतों जन्म के कर्म जल सकते हैं। और आत्मा परमात्मा बन सकती है। अतः जैसे कांच (लैंस) सूर्य की किरणों को इकट्ठा करता है वैसे ही मंत्र हमारी शक्ति (गर्मी) को इकट्ठा करते हैं जिससे बड़ी गर्मी, बड़ी ऊर्जा इकट्ठी (पैदा) होकर कार्य सिद्धि होती है और यदि कोई सतत मंत्रों का प्रयोग करता रहे तो उसके जीवन में अनेक शक्ति की घटनाएं घटना शुरू हो जाएँगीं ।
हमने इस ग्रन्थ में कुछ मंत्र - यंत्र और तंत्रों को संकलित किया है जिससे आप लाभ उठा सकते हैं और अपने मानव जीवन को सुख शान्तिमय और आनंदमय बना सकते हैं। मंत्र साधना से इहलौकिक ही नहीं पारलौकिक सिद्धि भी होती है। वैसे इस ग्रन्थ में हमने सभी प्रकार के मंत्र यंत्र और तंत्रों का संग्रह किया है जिसमें कुछ अशुभ मंत्रों का वर्णन भी हो सकता है; किन्तु यह पूर्वाचार्यानुसार है; लेकिन साधकों से मेरा सविनय अनुरोध है कि आप मंत्रों का प्रयोग किसी अच्छे कार्य में ही करें, बुरे अशुभ, पाप वर्धक कार्यों में न करें। मारणउच्चाटनादि के प्रयोग भी, कभी भूलकर न करें, क्योंकि अशुभ मंत्रों के प्रयोग से इहलोक
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साथ-साथ परलोक भी बिगड़ता है। तथा अनेक जन्मों में दुख भोगना पड़ता है। अतः अशुभ मंत्र को छोड़कर शुभ मंत्रों को सिद्ध करें। लेकिन ध्यान रखें मंत्र को सिद्ध करना यानि सर्प की वामी में हाथ डालना है। क्योंकि मंत्र साधना में थोड़ी सी भी गलती हुई कि वह मंत्र सिद्ध नहीं होता अथवा उल्टा प्रभाव कर साधक को पागल भी कर सकता है या मृत्यु भी करा सकता है; इसलिए साधक को अपने गुरु से मंत्र लेकर ही सिद्ध करना चाहिए। देखा-देखी में या दूसरों के द्वारा प्रशंसा सुनकर अथवा पुस्तकों में महिमा आदि पढ़कर मंत्र सिद्ध नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे अनर्थ भी हो सकता है। अतः अनर्थ की आशंका वाले अशुभ मंत्रों को छोड़कर शुभ मत्रों को अपने गुरु से लेकर ही परोपकार के लिए सिद्ध करना चाहिए। * हमने इसे लोक कल्याण की उपयोगी वस्तु मानकर ही परिश्रम किया है। और जो मुझे स्वाध्याय, साधन, सत्संग से प्राप्त हुआ उसे आपके सामने प्रस्तुत किया है। यह प्राचीन ऋषि, मुनि, साधकों द्वारा उद्घाटित शब्द विज्ञान कहाँ तक प्रभावोत्पादक है, यह गवेषण वैज्ञानिकों, साधकों, चिन्तकों, अन्वेषकों और विचारकों पर निर्भर करता है। कहाँ तक इसकी सत्यता प्रमाणित हो पाती है, यह उन्हीं मनीषियों के अधिकार की बात है। लेकिन फिर भी यदि पाठकों व साधकों को इस ग्रन्थ से कुछ लाभ होता है या वह इस ग्रंथ से कुछ लाभ उठाकर अपने जीवन को सुख-समृद्धि, शान्ति और आनंदमय बनाकर प्रसन्न होते हैं तो मैं अपने परिश्रम को सफल सार्थक समझूगा।
___ अन्त में मेरी भावना है कि आपका जीवन पावन पवित्र व मंगलमय हो, आपके जीवन में सुख-शान्ति और आनंद का भंडार रहे एवं यह ग्रन्थ आपके लिए मंगलकारी सिद्ध हो यही मेरा आशीर्वाद है।
ॐ ह्रीं नमः
मुनि प्रार्थनास नोट :- १. किसी भी मंत्र, यंत्र, तंत्र का प्रयोग पुस्तकों में महिमा पढ़कर यसुनदेखी में सिद्ध न करें। २. मंत्र, यंत्र, तंत्र का प्रयोग योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही करें अन्यथा आपको हानि उठाना पड़ेगी, यहां तक कि बिना गुरु के दिये मंत्र सिद्ध करने पर अनेकों लोग पागल हो जाते हैं अथवा मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं; क्योंकि वह दैविक शक्ति को सहन नहीं कर पाते हैं। ३.गलत ढंग से मंत्रों का प्रयोग करने पर अथवा बिना गुरु के दिये मंत्रों का प्रयोग करने पर जो आपको हानि उठाना पड़ेगी उसके जवाबदार आप स्वयं होंगे, हम नहीं। ४. किसी भी मंत्र का प्रयोग गलत कार्य अर्थात् दूसरों का बुरा विचारने के उद्देश्य से न करें, क्योंकि इससे भारी पाप लगता है। ५. किसी भी मंत्र, यंत्र, तंत्र की कार्य सिद्धि में पूर्ण श्रद्धा का होना एवं विधि विधान पूर्णत: सही होना आवश्यक है। विशेष - ‘मंत्र, यंत्र और तंत्र' में कहीं अगर त्रुटि रह गई हो तो ज्ञानी पुरुष हमें अवगत करायें जिससे पुनः वह गलती न हो सके।
- मुनि प्रार्थना सागर
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मेरे विचार से
व्यक्ति के जीवन में उसकी इच्छानुसार कार्य न होना ही दु:ख व समस्या है। इसमें ९५ प्रतिशत समस्याएं व्यक्ति के स्वयं के कर्मों द्वारा व ५ प्रतिशत समस्याएं पूर्वजन्मकृत (भाग्य) कर्मों पर आधारित हैं। ज्यों - ज्यों हमारी महत्वाकांक्षाएं, इच्छाएं, अपेक्षाएं, अभिलाषाएं, मोहादि का दायरा बढ़ता जाता है कि त्यों-त्यों हमारी समस्याएं परेशानियां बढ़ती जाती हैं।
फिर हम मजबूरी वश अपनी समस्याओं की पूर्ति के लिए किसी तांत्रिक, ज्योतिषी या डॉक्टर के पास जाते हैं और ठगाएं जाते हैं।
मेरे निजी विचार से आज कोई कितना भी बड़ा ज्योतिषी, तांत्रिक या चमत्कारिक शक्ति आपके भाग्य व कर्म से अधिक कुछ भी नहीं दे सकते। जीवन-मरण, हानिलाभ, यश-अपयश, आदि सब आपके पूर्व व वर्तमान कर्मों पर निर्भर है। उपाय तो मात्र इतना कार्य कर सकते हैं कि जैसे नल पाईप में कोई कंकरी फँसी हो तो जल प्रवाह अवरुद्ध होता है, यदि उस अवरुद्ध (कंकरी) को हटा देते हैं तो पानी प्रवाहित होने लगता है। ठीक ऐसे ही जो ऊर्जा अन्यत्र जा रही थी उसे मंत्र द्वारा सही जगह पर लगाना ही समस्या का सही समाधान है। मेरे विचार से उपाय का अर्थ ऊर्जा का उपयोग है। क्योंकि ग्रह कोई ठोस व्यक्ति विशेष न होकर राशियों (गैसों) के पिन्ड हैं। और प्रत्येक व्यक्ति उन राशियों से कम या अधिक प्रभावित होता है। जिसे हम उपाय के माध्यम से न्यूनाधिकता को कम या ज्यादा कर सकते हैं जो कार्य सिद्धि में सहायक होती है।
वैसे उपायों में भी गहन विज्ञान छुपा है। जैसे पीली हल्दी की गाँठ को पूजा करके अपने पास रखने से धन शुभता का कार्य प्रशस्त होता है। क्योंकि पीली हल्दी गुरु का प्रतिनिधित्व करती है और गुरु धन व ज्ञान का कारण है। जब हम पूजा करते हैं तो हमारे दिमाग की तरंगें उसमें प्रविष्ट होकर उसका प्रभाव बढ़ाती हैं व उसे शरीर में रखने से यह शेष रंगों को अवशोषित करके पीले रंग को प्रभावी बनाती हैं, जिससे हमारे शरीर के पास या उस स्थान पर विशेष औरा बनाती हैं, जो अनूकूल होकर उससे संबंधित तत्त्वों को आकर्षित करती हैं। इसमें हमारी आस्था व विश्वास जितना प्रगाढ़ होगा, उतना ही अधिक ओरा (आभामण्डल) बढ़ेगा व आपसे संबंधित व्यक्ति या वस्तु
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स्वतः ही अनुकूल होंगी।
वैसे मंत्र कोई व्यक्ति के लिए वस्तु अनुकूल प्रतिकूल नहीं करते और न ही किसी समस्या का समाधान करते हैं। हाँ यह बात अवश्य है कि यदि इन्हें आस्था पूर्वक जपा जाय तो आपके मन मस्तिष्क व शरीर में विशेष प्रकार की ऊर्जा का संचार होता है, जिसके कारण आभामण्डल अधिक विकसित होकर यथायोग्य व्यक्ति द्वारा या अन्य कारणवश आपको नई दिशा या सोच का मार्ग प्रशस्त होकर समस्या के समाधान में सहायक सिद्ध होता है। जो दिल दिमाग व शरीर को भी स्वस्थ करता है। आस्था और विश्वास जितना प्रगाढ़ होता है उतनी ही अधिक शीघ्र सफलता मिलती है और फिर उपाय तो मात्र आस्था और विश्वास का ही विषय है तर्क का नहीं। मेरी दृष्टि से विश्वास का उदय भी वहीं से शुरु होता है जहाँ तर्क, विचार, बुद्धि, शब्द सब गौण हो जाते हैं। केवल आस्था व चेतना जागृत होती है तभी कल्याणकारी (चमत्कारी) लाभ मिलता है।
__ वैसे जीवन में चमत्कार नाम की कोई चीज नहीं होती, हाँ प्रकृति प्रदत्त प्रत्येक वस्तु स्वयं चमत्कार है। अतः सत्य केवल वह नहीं है जो प्रत्यक्षतः दिखता है; बल्कि सत्य वह भी है जो दिखता भी नहीं है किन्तु अनुभूत होता है। आज की कल्पना कल सत्य हो सकती है, मात्र श्रद्धा होना चाहिए। इस शास्त्र में दिये गए सभी उपाय शास्त्रीय पुस्तकों, शास्त्रों, पारम्परिक स्तर पर गाँवों में प्रयुक्त किए जाने वाली प्रक्रियाओं, वैद्यों एवं बुजुर्गों आदि से प्राप्त किए गए हैं और प्रमाणिक हैं, परन्तु सभी हमारे गुरुदेव द्वारा परीक्षित नहीं है। हाँ कुछ क्रियाओं का प्रयोग हमारे गुरुदेव द्वारा किया गया जिससे लोग लाभान्वित अवश्य हुए हैं। अतः हमें विश्वास है कि शेष उपाय भी प्रामाणिक सिद्ध ही होंगे। यदि इस पुस्तक में आपको कोई कमी महसूस हो तो मुझे अवगत करना जिससे भविष्य में गलती की पुनरावृत्ति न हो सके। आपके शब्द हमारे लिए प्रेरणादायक होंगे जो हमारी श्रद्धा को प्रगाढ़ता देंगे।
___ अंत में इस ग्रन्थ के प्रकाशन में द्रव्य सहयोगी सभी समाज का आभार व्यक्त करती हुई, परमात्मा से प्रार्थना करती हूँ कि ज्ञानदान प्रदाताओं के लिए एक दिन केवलज्ञान की प्राप्ति हो, जिससे वह संसार सागर से पार होकर शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकें। अन्त में मम गुरुदेव मुनि श्री प्रार्थना सागर जी महाराज के श्री चरणों में श्रद्धा-भक्ति पूर्वक कोटि कोटि वंदन।
-श्रीमती निर्मला पाटनी प्रधान संपादिका- प्रार्थना टाइम्स, मासिक Email:-prarthnatimes1@gmail.com
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णमोकार का चिंतन) मंत्र हमारी सुरक्षा करता है एवं मंत्रों से ही हमारा कवच बनता है। हमारे इर्द-गिर्द आभामण्डल को शब्द का संयोजित रूप मंत्र दृढ़ता देता है। मंत्र संकट का निवारण करता है। मंत्र से अनेक कार्य सम्पन्न होते हैं। शब्द के साथ संकल्प शक्ति जुड़ती है तो सर्व कार्य सम्पन्न हो जाते हैं। मंत्र का दुरुपयोग भी संभव है।
- जो पुनः-पुनः अभ्यास एवं मनन से सिद्ध होता है वह मंत्र है। इससे लौकिक व लोकोत्तर सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं। मंत्र दैवी शक्ति है जो ध्वनि के रूप में अभियोजित होती है। मंत्र के जाप से स्पन्दनों का निर्माण होता है। स्पन्दनों से आकृतियाँ बनती हैं। ये स्पन्दन शक्तिशाली आध्यात्मिक शक्तियाँ होती हैं। मंत्र का जाप करने से ये शक्तियाँ उद्घाटित होती हैं।
आचार्य सोमदेव महाराज ने यशस्तिलक चम्पू में लिखा है- भाष्य जप से जितना लाभ होता है, उससे हजार गुना लाभ अंतर्जप (उपांशु) जाप से होता है और अफ्रजप से जो लाभ होता है उससे हजार गुना लाभ मानसिक जप से होता है। मंत्र साहस बढ़ाने का माध्यम है। साहस के लिए जितनी ऊर्जा चाहिए, वह यदि प्राप्त होती है तो साहस जाग जाएगा।
___ अब हम नवकार मंत्र की बात करेंगे। नवकार मंत्र अनादिसिद्ध मंत्र है। इसे परमेष्ठी मंत्र भी कहते हैं। इसमें चौदह पूर्वो का सार है। सम्पूर्ण जैन वाङ्मय इसमें समाया है। यह परम मंगलकारी है। प्रथम दो पद देव कोटि में आते हैं। शेष तीन पद गुरु कोटि में आते हैं।
जिस स्थान पर मयूर अपने पंखों को फैलाकर नृत्य करते हैं उस स्थान पर रह रहे व्यक्तियों को सर्प का लेशमात्र भी भय नहीं रहता । वैसे ही नमस्कार महामन्त्र को मनोमंदिर में प्रति समय उपयोग पूर्वक स्मरण में रखने वाली आत्मा को भयंकर विडंबना दायक संसार कुछ नहीं कर सकता।
जापाज्जयेत्क्षयमराचक माग्निमांद्यं, कुष्ठोदरामकसनश्वनादि रोगान् । प्राप्नोतिचाऽप्रतिमवाग् महतीं महद्भयः,
पूजां परत्रच गतिं पुरुषोत्तमाप्ताम् । नवकार मंत्र के जाप से क्षय, अरुचि, अपच, कोढ़, आँवरोग, खाँसी, श्वास आदि रोगों का नाश होता है। जाप करने वाला अप्रतिम वाणी वाला बनता है। अंत में परमगति (मोक्ष) को प्राप्त होता है। शब्द अथवा शब्दों के समूह का अर्थ उनकी मानस पटल पर छवि, ज्ञान, ध्यान,
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आदि निम्नलिखित स्थितियों पर निर्भर करता है । जैसे महामंत्र में प्रथम पद णमो बोलने के बाद कोई ‘अरिहंताणं' तथा कोई ' अरहंताणं' शब्द समूह का उच्चारण करते हैं । किन्तु इन दोनों शब्दों में काफी अन्तर है । अरिहंत शब्द अरिहंत से बना है। जिसमें 'अरि' का अर्थ 'शत्रु' तथा 'हंत' का अर्थ 'नाश' होता है। अर्थात् इस अपेक्षा से अरिहंत का अर्थ हुआ 'शत्रुओं' को नाश करने वाले । वैसे शत्रु का अर्थ व्यापक है । व्यक्ति की व्यक्ति से, समाज की समाज से, राष्ट्र की राष्ट्र से, पशु की पशु से तथा जलचर, नारकी, तथा देवताओं में होने वाली शत्रुता भी शत्रुता कहलाती है । अतः अरिहंत शब्द के शाब्दिक अर्थ की अपेक्षा अपने शत्रु का हंत (नाश) करने वाला प्रत्येक जीव, वर्ग अरिहंत कहलाने का अधिकारी हो जावेगा ।
किन्तु यहाँ भाव शत्रु क्रोध, मान, माया, लोभ तथा घातिया कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय व अन्तराय जो जीव के मोक्ष जाने में बाधक हैं उन्हें लिया गया है। अतः जो इनका नाश करने वाले हैं वह सभी अरिहंत के अधिकारी हैं। वैसे अरिहंत और अरहंत में बहुत सूक्ष्म अन्तर है। अरिहंत का अर्थ है शत्रुओं का नाश करने वाले और अरहंत शब्द अ शब्द से बना है। 'अर्ह' शब्द का अर्थ है जिन, पूजनीय, सम्माननीय, योग्य तीर्थंकर आदि । आपके मन में शंका हो सकती है कि पूजनीय या सम्माननीय तो इन्द्र, चक्रवर्ती, सम्राट, राष्ट्रपति, देवी-देवता, आदि अनेक हैं फिर तो सभी अरहंत पद को प्राप्त हो जाएंगे, किन्तु ऐसा नहीं है, ‘अरहंत' से मतलब जो तीनों लोकों में सर्वोत्कृष्ट हैं । अरहन्त की समृद्धि के सामने इन्द्र व चक्रवर्ती की समृद्धि भी तुच्छ है । अरहंत तो इन्द्र, चक्रवर्ती, देवों से भी पूजित हैं । दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में अरहंत का अर्थ लिखा है- अतिशय पूजार्हत्वाव्दार्हन्तः । अर्थात् अतिशय पूजा के योग्य होने से अर्हंत संज्ञा प्राप्त होती है। इसलिए जो अतिशयों के योग्य हैं वह अरहन्त कहलाते हैं। जो देव, असुर और समस्त मनुष्यों से पूज्यता को प्राप्त होते हैं। अरिहंताणं और अरहंताणं शब्द में कुछ विचारणीय बातें:
१.
-
३.
'अरिहंत' शब्द में 'अरि' का अर्थ शत्रु होता है और 'हन्त' का अर्थ नष्ट करने वाला । अतः शत्रु का नाश करने वाला प्रत्येक जीव, समुदाय अरिहंत कहलायेगा ।
२. यदि 'अरि' का अर्थ कर्म शत्रुओं से लिया जावे और उनका हन्त करने वाले को अरिहंत कहा जावे तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्था तेरहवें गुणस्थान में होती है और उस समय उनके ६३ कर्म प्रकृतियों का क्षय हो जाता है, घातिया कर्म नहीं रहते, उनको हन्त करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहता है I
वीतराग के न कोई शत्रु हैं और न ही कोई मित्र हैं। अतः 'हन्त', घात क्रिया के द्योतक शब्द परमात्मा को अरिहंत कहना भी उचित नहीं है।
४. 'अरिहंत' पद में प्रयुक्त 'अरि' शब्द शत्रुओं का तथा 'हन्त' शब्द हनन, घात, नष्ट करने वाले अर्थात् प्रयुक्त होता है। जबकि णमोकार मंगलमय मंत्र में हंत धातु का
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प्रयोग अहिंसा संस्कृति के अनुकूल कदापि नहीं है। लौकिक व्यवहार में भी भोजन के समय मारना, नष्ट करना जैसे हिंसा वाची क्रिया पद के उच्चारण में अन्तराय माना जाता है। अतः कोई भी अहिंसक व्यक्ति इन शब्दों का प्रयोग मंगल कार्य में नहीं कर
सकता। ५. मंगल वाक्यों का स्मरण सर्वथा कल्याण कामना में किया जाता है। किसी भी मंगल
वाक्य में 'शत्रु' और 'हन्त' धातु जैसे पदों का प्रयोग कदापि मांगलिक नहीं माना जा
सकता। ६. साधक की दृष्टि सबसे पहले शब्दों पर जाती हैं तत्पश्चात अर्थ पर। यदि शब्द ही किसी दोष
से दुष्ट हो तो वह मंगल वाक्य कल्याण प्राप्ति का परिचायक नहीं हो सकता है। ७. बीजाक्षरों के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि अरिहंत पद में प्रयुक्त अरि' शब्द में निहित 'ह'
कार शक्ति बोधक बीज है। जिसका व्यवहार मारण और उच्चाटन के लिए किया जाता है अत:
मंगलमय आत्माओं के स्वरूपांकन में शक्ति बीज का न्यास संभव नहीं है। ९. अहिंसा संस्कृति आत्मशोधन पर विशेष बल देती है अतः 'अरि' 'अरु' और 'हन्त'
का प्रयोग संभव नहीं है। कारण 'उ' भी उद्वेग बीज माना गया है। १०. जो कर्मों को शत्रु मानते हैं वह उनका भ्रम है। क्योंकि कहा भी जाता है
कर्म विचार कौन भूल मेरी अधिकाई।
अग्नि सहे घनघात, लोह की संगत पाई॥ कर्म तो जड़ हैं, उनकी सुख-दुख देने की इच्छा नहीं है। जीव अपने रागादि परिणामों से पुद्गल को कर्म रूप परिणमित करके अपना बुरा करे तो इसमें कर्मों का क्या दोष? इसलिए योग्य पुरुष कर्मों को शत्रु (अरि) नहीं मानते। अतः कर्मों को 'हंत'
करने का ‘घात-नष्ट' करने का विचार भी महापुरुष के मन में नहीं आता।। ११. जो यह कहते हैं कि अरिहंत ने कर्मों को नष्ट किया, तो यह कथन भी अनुचित है। कारण
जीव अपने स्वरूप को भूलकर चौरासी लाख योनियों में अपने शुभ-अशुभ भाव के कारण भ्रमण करता है। जब जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान होता है तब वह 'पर' का पीछा छोडकर 'स्व' में रमण करना प्रारंभ करता है, इस अपेक्षा से जीव जब 'स्व' में रमण करता है तो कर्म उदय में आकर, क्षय होकर अलग हो जाते हैं। अत: यह कहना अनुचित है कि
जीव ने कर्मों का नाश किया है। १२. जो जीव कर्मों को शत्रु मानकर, मन में उनके प्रति द्वेष रखकर तप और जप करके
कर्मों का नाश करने का विचार करते हैं, वे केवलज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि कर्मों को शत्रु मानने से राग द्वेष सहज ही हो गया। जबकि जहाँ राग-द्वेष होता है वहाँ केवलज्ञान नहीं हो सकता।
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१३. शब्दों के समूह की विशिष्ट छवि मानस पटल पर बनती है । उस छवि के अनुसार ही व्यक्ति के भाव बनते हैं; श्रद्धा बनती है और उसके परिणाम होते हैं। जैसे शिखर जी व गिरनार जी का नाम लेने पर भिन्न भिन्न छवि बनती है, जिस प्रकार लड़कालड़की, मानव-मानवी, देव-देवी, शब्दों में केवल 'ई' की मात्रा का ही अन्तर है, फिर भी भिन्न-भिन्न छवि बनती हैं। वही स्थिति 'अरिहंत' और अरहंत की है । 'अरहंत' शब्द से ८ प्रातिहार्यों से युक्त, अनंत चतुष्टय से संपन्न, छियालीस गुणों वाले, इन्द्र व देवताओं से पूजित देवाधिदेव छवि वाले, समस्त लोक के आदरणीय वन्दनीय पूजनीय जिनेन्द्र देव ।
अभी आपको बचपन में मिले संस्कारों के कारण 'अरिहंत' शब्द का अभ्यास बना हुआ है, तथा उस रूप कर्म शत्रुओं का नाश करने वाले परमात्मा की छवि बनी हुई है, लेकिन अब आपको पुराने जमाने के संस्कारों को तोड़कर उस अरहंत परमात्मा की छवि बनाना है जो अनंत चतुष्टय युक्त, अष्टप्रातिहार्य सहित, चौतीस अतिशयों से सम्पन्न हैं। उस देवाधिदेव प्रभु की छवि अपने दिल-दिमाग में बनाने में थोड़ा समय जरूर लगेगा लेकिन उचित और हितकारी अवश्य रहेगा।
णमोकार का अर्थ है नमस्कार। और नमस्कार तभी होगा जब हमें अपने परमात्मा के प्रति विनय 'लघुता' होगी, कृतज्ञता - जिज्ञासा होगी, फिर आपके हृदय में 'हन्त' अर्थात् नष्ट के भाव कैसे आ सकेंगे । अरे !जब नमस्कार करते ही अहंकार, मद, गर्व, उच्चता, अभिमान, पलायन हो जाता है फिर हन्त (नष्ट) कैसे करोगे ? अरि (शत्रु) कैसे मानोगे ? क्योंकि अहंकार के छोड़े बिना णमोकार नहीं हो सकता । अहं के छोड़े बिना नमन् नहीं हो सकता। और नमन के बिना जीवन चमन नहीं हो सकता । तत्त्वानुशासन ग्रन्थ में आचार्य श्री ने णमोकार के नमस्कार में एक-एक अक्षर की महिमा के विषय में कहा है
णमोकार मंत्र के एक अक्षर का भी भक्ति पूर्वक नाम लेने से सात सागर के पाप कट जाते हैं, पाँच अक्षरों का पाठ करने से पचास सागर के पाप कट जाते हैं । पूर्ण मंत्र का उच्चारण करने से पाँच सौ सागर के पाप कट जाते हैं। इस मंत्र को ९८४२२ प्रकार से बोला जा सकता है और वैसे भी इस णमोकार महामंत्र से ८४ लाख मंत्रों की उत्पत्ति हुई है। इस महामंत्र के प्रभाव से अनेकों आत्माओं का उद्धार हुआ है। कुमार पारसनाथ ने जलते हुए नाग-नागिन को सुनाया जिससे वह मरकर धरणेन्द्र - पद्मावती हुये । राजकुमार जीवंधर स्वामी ने मरते हुये कुत्ते को सुनाया, जिससे वह मरकर सुदर्शन नामक यक्षेन्द्र देव हुआ । मरते हुये बैल को राम ने सुनाया जिससे वह बैल मरकर सुग्रीव हुआ। उसी णमोकार महामंत्र के प्रभाव से अंजन चोर का उद्धार हुआ। इसके जाप के विषय में प्राचीन आचार्यों ने कहा है
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अट्ठसंय अट्ठसहस्स, अट्ठलक्ख अट्ठ कोडिओ |
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जो गुणइ भत्ति सो, पावइ सासयं ठाणं । अर्थात् जो व्यक्ति इस महामंत्र की आठ करोड़, आठ लाख, आठ हजार, आठ सौ आठ बार जाप करता है वह शाश्वत सुख धाम मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। लगातार सवा लाख जाप करने से सब कष्ट दूर होकर दरिद्रता से मुक्ति मिलती है। एक लाख जाप करने से आई हुई विपत्तियाँ नष्ट होकर अभीष्ट फल प्राप्त होता है। इस महामंत्र को सिद्ध करने की अनेकों विधियाँ प्राचीन ग्रन्थों में मिलती है। एक जगह लिखा है।
जो गुणई लक्खमेगं, पुण्णइ विहिइ जिगनमुक्कारं ।
सो तईअभवे सिज्झइ, अहवा सात?मे जम्मे ॥ __ अर्थात् जो मनुष्य पूर्ण विधि सहित नमस्कार मंत्र का एक लाख जाप कर लेता है, वह तीसरे या सातवें या आठवें भव में नियम से सिद्ध हो जाता है। अन्यत्र भी कहा है
नमस्कारसमो मंत्र, शत्रुञ्जयसमो गिरी।
वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति। __नमस्कार जैसा मंत्र, शत्रुञ्जय जैसा पर्वत, वीतराग जैसे देव न भूतकाल में हुए हैं और न ही भविष्य काल में होंगे। मंत्र-विशारद कहते हैं कि इस मंत्र का नौ लाख जाप करने से नरक गति के बन्ध का निवारण होता है। अनेक प्रकार की सिद्धियाँ व संपत्तियाँ प्राप्त होती हैं। यदि प्रतिदिन एक माला का जाप करें तो २५ वर्ष में नौ लाख मंत्र जाप पूर्ण होता है। और यदि पाँच माला प्रतिदिन जाप करें तो पाँच वर्ष में नौ लाख जाप पूर्ण होता है।
मंत्र का सामर्थ्य:- मंत्र की रचना अक्षरों के समायोजन से होती है। और फिर कोई भी अक्षर निर्बीज नहीं होता- “निर्बीज अक्षरं नास्ति'। प्रत्येक अक्षर की सजीवता ही अनुकूल समायोजन पाकर शक्ति, शान्ति और समृद्धि को उत्पन्न करती है। आज विज्ञान ने नवीन तथ्यों का उद्घाटन किया है। उनमें "साउण्ड-एनर्जी"- ध्वनि शक्ति भी एक है। ध्वनि तरंगों से हीरे की कटाई आज सामान्य बात बन गई है। हीरे जैसे कठोर रत्न को ध्वनि-तरंगें काट सकती हैं, तब क्यों नहीं मंत्र-ध्वनि द्वारा कारक और मारक क्रियायें हो सकती हैं? जैसे ध्वनि के द्वारा आज रिमोट चलता है, मोबाईल चलता है, कम्प्यूटर चलता है, उसमें जो आवाज सेव कर दी जाती है उसी से वह ऑन-ऑफ होता है, ठीक उसी प्रकार प्राचीन आचार्य कहते हैं कि पंच नवकार मंत्र के चिन्तन मात्र से जल, अग्नि आदि स्थिर हो जाते हैं। शत्रु-महामारी, चोर तथा राज्य संबंधी घोर विघ्नों का नाश हो जाता है। शब्द के प्रयोग से व्याख्याता हजारों-लाखों श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर देता है। मंत्र में शब्दों के साथ-साथ साधक की भावनाओं का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। कुछ मंत्रों के तो अधिष्ठाता देवी-देवता होते हैं जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुसार कार्य करते हैं।
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मुनि प्रार्थना सागर
किन्तु योग्यता के अभाव में मन्त्र सिद्ध नहीं होता-यथा बाँझ स्त्री। इसलिए पूर्वाचार्यों ने मंत्र साधक में योग्य योग्यता होना भी बतलाई है। मंत्र साधना की योग्य विधि बतलाई है। कुछ लोग पुस्तकों में महिमा पढ़कर, दूसरों से महिमा-चमत्कार सुनकर मंत्र सिद्ध करने लगते हैं। किन्तु मैं उन लोगों से कहना चाहता हूँ कि अपने मन से, या पुस्तकों में महिमा पढ़कर कोई मंत्र सिद्ध न करें। योग्य गुरु से जो मंत्र-तंत्र के बारे में पूर्ण जानकारी रखते हों उन्हीं से मंत्र लेकर सिद्ध करें, अथवा अनर्थ भी हो सकता है। क्योंकि मन्त्रों को सिद्ध करना यानि सर्प की वामी में हाथ डालना है। मधुमख्खियों के छत्ते को हाथ से पकड़ना है, जलती हुई आग में कूदना है। क्योंकि प्रत्येक अक्षरों के, प्रत्येक मंत्रों के अधिष्ठाता देवी-देवता होते हैं जो गलती होने पर अशुभ भी करते हैं।
मन्त्रबीज और मन्त्र बनाने के विधान में बताया गया है कि 'स्वर और व्यंजन पर अनुस्वार (') बिन्दु लगाने पर वह मन्त्र बीज बनता है। वैसे प्रत्येक कार्यानुसार मन्त्र और साधना विधि का उसके साथ उल्लेख रहता है। यदि न हो और आवश्यकता की पूर्ति करनी हो तो उस दशा में नाम के प्रथम अक्षर पर बिन्दु लगावें और नाम के साथ चतुर्थीभक्ति जोड़ें। नाम के आगे प्रणय और अन्त में नम: पल्लव लगाने पर वह उस देव का मूल मन्त्र बन जाता है- जैसे पारसनाथ- “ॐ पां पारसनाथाय नमः"। यह भगवान पारसनाथ का मूल मन्त्र है।
ऐसे ही सरस्वती ज्ञान बीज (ऐं), कामबीज (क्लीं), मायाबीज (ह्रीं), लक्ष्मीबीज (श्री), मंगलबीज (ॐ) का सभी मन्त्रों के आदि में उपयोग होता है। (अपवाद को छोड़कर) इसी प्रकार अन्त में नम: का उपयोग होता है। किस मन्त्र का कहाँ किस रूप में उपयोग किया जाए यह प्रत्येक स्वर-व्यंजन में निहित शक्ति से ज्ञात होता है। मन्त्र में पल्लव की भी जानकारी होनी चाहिए। मंत्र के उच्चारण का प्रभाव भी साधक पर पड़ता है, वैसे भी मंत्र उच्चारण के आठ स्थान माने गये है- वक्ष, कंठ, सिर, जिह्वामूल, दांत, नासिका, ओष्ठ, और तालू। लेकिन यह तो स्थूल जगत की बात है। इसके पूर्व उच्चारण मूलाधार (शक्तिकेन्द्र) से प्रारंभ होकर तेजस केन्द्र पर पहुंचता है, वहाँ से आनन्द, विशुद्धि केन्द्र को पारकर तालू तक वही मंत्र पहुंचता है। पश्चात दर्शन केन्द्र (आज्ञाचक्र, भृकुटि के मध्य) तक पहुंच जाता है। तब तेजस्विता प्रकट होती है। मंत्र जाप अनेक प्रकार का होता है- जैसे मौन जाप, मुखर जाप, लेख जाप, एकाकी जाप, समुदाय जाप आदि। मंत्र की महिमा के बारे में पूर्वोचार्यों ने लिखा है
मंत्रं संसारसारं, त्रिजगदनुपम, सर्वपापारिमंत्रम्। संसारोच्छेदमंत्रं विषविषहरं कर्मनिर्मूलमंत्रम्॥ मंत्रं सिद्धिप्रदानं शिवसुखजननं केवलज्ञानमंत्रम्। मंत्रं श्री जैन मंत्रं जप-जप जपितं जन्मनिर्वाणमंत्रम्॥
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अर्थात् यह महामंत्र संसार में सारभूत है, तीनों लोकों में अद्भुत है, समस्त पापों को नष्ट करने वाला शत्रु है, जन्म-मरण रूप संसार का उच्छेदकर्ता है। विषमता रूप विष का हरणकर्ता है। कर्मों को निर्मूलन करने वाला है। यह मंत्र सिद्धि (मुक्ति) प्रदायक है, मोक्ष सुख का जनक है, केवलज्ञान रूपी मंत्र का उत्पादक है। यह राग-द्वेष विजेताओं का सूचक है, जन्म से लेकर निर्वाण तक जपने योग्य मंत्र है। इसलिए इस जपनीय महामंत्र का जाप करो, जाप करो। क्योंकि जैसे फूलों का सार इत्र है, दूध का सारभूत पदार्थ घी है, वैसे ही जिनशासन का सारभूत तत्व णमोकार महामंत्र है। जिसमें संक्षिप्त से चौदह पूर्व का सार सन्निहित है। यह महामंत्र जैन परम्परा से संबंधित है। किन्तु इसे तो जैन-अजैन कोई भी पढ़ सकते हैं। इसका उपयोग करके कोई भी सफलता प्राप्त कर सकता है। जैसे दूध से कोई भी मक्खन (घृत) निकाल सकता है, बस उसे उसकी विधि का ज्ञान होना चाहिए। जाति, लिंग, भाषा आदि उसमें बाधक नहीं बनते। ठीक ऐसे ही णमोकार महामंत्र से सभी लाभ ले सकते हैं।
हमारे आचार्यों ने पंचपरमेष्ठी को पाँच रंगों में विभक्त किया है। अरहंतों का श्वेत रंग, सिद्धों का लाल रंग, आचार्यों का पीला रंग, उपाध्यायों का नीला रंग तथा साधुओं का श्याम रंग बताया गया है। हमारा सारा मूर्त संसार पौद्गलिक है। पुद्गल में भी वर्ण, रस, गन्ध वा स्पर्श होता है। वर्ण का हमारे शरीर और मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। नीला रंग जब शरीर में कम होता है तब क्रोध की मात्रा बढ़ जाती है। और नीले रंग की पूर्ति होने पर क्रोध स्वतः ही कम हो जाता है। श्वेत रंग की कमी होने पर स्वास्थ्य लड़खड़ाने लगता है। लाल रंग की न्यूनता से आलस्य और जड़ता बढ़ने लगती है। पीले रंग की कमी से ज्ञानतन्तु निष्क्रिय हो जाते हैं, तब समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता। काले रंग की कमी होने पर प्रतिरोध की शक्ति कम हो जाती है। रंगों के साथ मानव के शरीर का कितना सम्बन्ध है, यह इससे स्पष्ट होता है। णमो अरहंताणं का ध्यान श्वेत वर्ण के साथ किया जाये, तो श्वेत वर्ण हमारी आन्तरिक शक्तियों को जागृत करने में सक्षम होता है। वह समूचे ज्ञान का संवाहक है। श्वेत वर्ण स्वास्थ्य का प्रतीक है। हमारे शरीर में रक्त की जो कोशिकाएं हैं, वे मुख्य रूप से दो रंगों की है-श्वेत रक्त कणिकाएं (W.B.C.) और लाल रक्त कणिकाएं (R.B.C.) जब हमारे शरीर में रक्त कणिकाओं का सन्तुलन बिगड़ जाता है तो शरीर रुग्ण हो जाता है। "णमो सिद्धाणं" का जाप हमारे शरीर में लाल वर्ण को जागृत करता है। "णमोआइरियाणं" का पीला रंग हमारे मन को सक्रिय बनाता है। शरीर शास्त्रियों का मानना है कि यह थायराइड ग्लेण्ड आवेगों पर नियंत्रण करता है। "णमो उवज्झायाणं" का नीला रंग शान्तिदायक, एकाग्रता पैदा करने वाला, कषायों को शान्त करने वाला है। इस पद के जाप से आनंद केन्द्र सक्रिय होता है। "णमो लोए सव्व साहूणं" का काला रंग शरीर में प्रतिरोध शक्ति बढ़ाता है। कुल मिलाकर णमोकार मंत्र
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का जाप वा ध्यान-इहलौकिक वा पारलौकिक सुखशांति देने वाला है। इस मंत्र की साधना से साधक संसार सागर से पार होकर सिद्धावस्था को प्राप्त कर सकता है।
णमो अरहंताणं तिलोय-पुज्जो य संधुओ भयवं।
अमर-नरराय-महिओ, अणाई-निहाणां सिवं दिसउ॥ अर्थात्- उन अर्हन्तों को नमस्कार हो, जो त्रिलोक द्वारा पूज्य, और अच्छी तरह स्तुत्य हैं तथा इन्द्र और राजाओं द्वारा वन्दित हैं, और जो जन्ममरण से रहित हैं, वे हमें मोक्ष प्रदान करें।
अरहंत वंदण नमसणशणि, अरहंत पूयसक्कारं।
सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण बुच्चंति ॥ जो वंदन और नमस्कार के योग्य हैं। जो पूजा, सत्कार, सिद्धिगमन के योग्य हैं, उन्हें अरहंत कहते हैं। अरहंत सर्वोच्च सामर्थ्य को धारण करने वाले हैं। जगत की समस्त अर्हतओं में उनका स्थान सर्वोच्च है, फिर चाहे वह ज्ञानबल हो, रूपबल हो, धनबल हो, सामर्थ्यबल हो, उनके तुल्य दूसरा कोई नहीं हो सकता।
कपिल पाटनी सोनकच्छ
विश सूचना - यह पुस्तक उनके लिए है जो मंत्रों आदि पर पूर्ण श्रद्धा,(विश्वास)रखते हैं। उ यह पुस्तक उनके लिए हैं जो देव शास्त्र गुरु पर पूर्ण आस्था रखते हैं। 3 यह पुस्तक उनके लिए हैं जो अपाय विचय धर्म ध्यानी साधक हैं। से यह पुस्तक उनके लिए हैं जो किसी भी प्रकार से दुखी परेशान हैं,
अथवा किसी दुखी परेशान व्यक्ति के दुखों को दूर करना चाहते हैं। - यह पुस्तक उनके लिए हैं जो जीवन में सुख शान्ति समृद्धि चाहते है।
यदि आपमें इनमें से कोई भी बात लागू होती है तो आप पुस्तक को पढ़ें...आप का स्वागत हैं, अन्यथा आप पुस्तक को बन्द कर दें,पुस्तक को ना पढ़ें, यह पुस्तक आप के लिए नही हैं।
____ मुनि प्रार्थना साना
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(जरा सोचो विचार करो जैसे कि दवाईयों की दुकान पर विभिन्न प्रकार की दवाईयों का संग्रह रहता है, मगर मरीज वही दवाई खरीदता है जिसकी उसे आवश्यकता होती है अथवा जिन्हें खरीदने की चिकित्सक सलाह देते हैं। उसे अन्य दूसरी दवाईयों से कोई प्रयोजन नहीं रहता। ठीक इसी प्रकार आपके लिए भी यह शास्त्र मंत्रों का भण्डार है, एक मेडीकल स्टोर है। अत: इसकी आवश्यकता उसे ही है जो रोगी हैरान-परेशान, दु:खी-पीड़ित है । स्वस्थ और सुखी जीवों को इससे दूर ही रहना चाहिए। क्योंकि बिना आवश्यकता के वस्तु की कीमत नहीं होती। अतः जिसे इसकी आवश्यकता हो वही इसका उपयोग करे और उसी मंत्र का उपयोग करे, जिसकी उसे आवश्यकता है, ऐसा नहीं कि थोड़ा सा यह कर लूँ, थोड़ा सा वह कर लूँ। अतः किसी योग्य अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन-निर्देशन में ही मंत्र सिद्ध करें।
यह शास्त्र तो मंत्रों का भण्डार है जैसे दवाई की दुकान दवाईयों का भण्डार है। उसमें सभी प्रकार की दवाईयाँ होती हैं । जीवन जीने की और मरने की भी, अब जिसे जो आवश्यकता हो वह खरीद लें, ठीक इसी प्रकार दुनिया में सभी प्रकार के मंत्र होते हैं जिसे जो आवश्यक हो वह सिद्ध कर लें लेकिन अन्य मंत्रों को बुरा कहकर निन्दा आदि न करें, क्योंकि कोई भी रोगी अपनी मतलब की दवाई के अलावा अन्य दूसरे प्रकार की दवाईयों को बुरा नहीं कहता। कारण पता नहीं कब किस दवाई की आवश्यकता पड़ जाये और उसे लेना पड़े। इसलिए वह अपने मतलब की मेडिकल स्टोर से दवाई लेकर अन्य प्रकार की दवाई से मध्यस्थ (तटस्थ) रहता है, ठीक उसी प्रकार आप भी अपने मतलब का मंत्र लेकर अन्य प्रकार के मंत्रों से मध्यस्थ रहें। उन्हें भला-बुरा कहकर उनकी निन्दा आदि न करें क्योंकि पता नहीं कब आपका भाग्य फूट जाए, कब कर्म रुठ जायें, कब दुर्भाग्य आ जाये, कब किस्मत पल्टा खा जाये और आपको दर-दर भटकना पड़ जाये फिर कहीं ऐसा न हो की वही मंत्र आपको कोई जपने को कहें, फिर क्या होगा, जरा सोचो ? विचार करो... ?
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मंत्र अधिकार
मुनि प्रार्थना सागर
तंत्र अधिकार
मंगलाचरण
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥ एसो पंच णमोयारो, सव्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥
चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो ।
चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरिहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि । साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि ॥
मंत्र विद्या
मकारं च मनः प्रोक्तं त्रकारं त्राण मुच्यते ।
मनस्त्राणत्व योगेन मंत्र इत्यभिधीयते ॥
अर्थात् 'मं' का अर्थ निज से संबंध रखने वाली मनोकामना, 'त्र' का अर्थ है रक्षा करना, इस प्रकार जो मनोकामना की रक्षा करे वह 'मंत्र' कहलाता है । वैष्णव धर्म के ग्रन्थों में लिखा है- 'मननात् त्रायेत यस्मात्तस्मान्मन्त्रः प्रकीर्तितः' अर्थात् 'म' कार से मनन और 'त्र' कार से रक्षण। अर्थात् जिन शब्दों वाक्यों, विचारों से मनोकामना की रक्षा हो उसे मंत्र कहते हैं । वैसे जिन शब्दों के जाप से कार्य सिद्ध हो उसे मंत्र कहते हैं या जिन शब्दों के जाप से मन में शान्ति हो उसे मंत्र कहते हैं। मंत्र शब्द का मूल अर्थ है गुप्त परामर्श क्योंकि मंत्र शब्द की उत्पत्ति मतृ धातु से हुई है जिसका अर्थ है गुप्त बोलना । आगम में लिखा भी है।
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मंत्र अधिकार
तेजस्करं मुक्ति करं प्राणांतेपि न दीयते, येन दत्तात्वियं विद्याऽनर्ध्यातेन जिनं वपुः । गता विद्या प्रतापश्च तेजस्कांतिवीर्यस्तथा, तेन विद्या न दातव्या प्राणांतेपि न धीधनैः ।।
मुनि प्रार्थना सागर
अर्थात् मंत्र तेज देने वाला, मुक्ति देने वाला है, इसको प्राणांत के समय भी किसी को नहीं देना चाहिए। जिसने भी इस अनमोल विद्या को दिया है, उसका तेज, कांति और वीर्य सब नाश को प्राप्त हो गया है। इसलिए प्राणों का अन्त होते समय अर्थात् मरते वक्त भी यह मंत्र विद्या किसी को भी नहीं देना चाहिए। कहा भी है
स्युमंत्रयंते गुप्तं भाष्यंते मंत्रविभिद्रिति मंत्राः।
अर्थ- जिनको गुप्त रूप से कहें वे मंत्र कहलाते हैं। यह शब्द का व्युत्पति के अनुसार अर्थ है । मंत्रों का मूल - अकारादिहकारान्त वर्णाः मंत्राः प्रकीर्तिताः ।
अर्थ- अकार से लेकर हकार तक के स्वतंत्र असहाय अथवा परस्पर मिले हुए वर्ण (अक्षर) मंत्र कहलाते हैं।
अथवा- “मननात् त्रायेत इति मन्त्रः - जिसके मनन करने से रक्षण हो वह मंत्र है। मंत्र साधना में मूल तथ्य है - मनन अर्थात् मन्त्री (साधक) की भावना व अक्षरों के साथ तादात्मय ही मंत्र की सार्थकता है और यही इसकी विराट शक्ति है। जिसके बल पर मंत्र असाध्य को भी साध्य कर देता है । अप्राप्य को भी प्राप्य कर देता है और इष्ट सिद्धि में सहायक होता है । मन्यते ज्ञायते आदेशों अनेन इति मंत्रः अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा का आदेश - अनुभव जाना जावे वह मंत्र है । अथवा मन्यते विचार्यते आत्मदेशो येन सः मंत्रः अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा के स्वरूप का विचार किया जावे वह मंत्र है। अथवा मन्यते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थितः आत्मा वा यक्षादि शासन देवता अनेन इति मंत्रः । अर्थात् जिसके द्वारा परमपद स्थित पंच परमेष्ठियों का अथवा यक्षादि शासन देवों का साधन किया जाये वह मंत्र है।
"
अथवा - "मननात् मन्त्रः मनन करने के कारण ही मन्त्र नाम पड़ा है । मन्त्र, मनन को उत्प्रेरित करता है, वह चिन्तन को एकाग्र करता है । अध्यात्मिक ऊर्जा (शक्ति) को बढ़ाता है। जैसे सूर्य की किरणों को एक कांच ( लेन्स) के माध्यम से एकत्रित करने पर अग्नि उत्पन्न हो जाती है, ठीक उसी प्रकार मन्त्र के माध्यम से मन को एकत्रित करके ऊर्जा (शक्ति) उत्पन्न हो जाती है जिससे सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं।
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मंत्र अधिकार
मुनि प्रार्थना सागर
मंत्र साधक के लक्षण गुरु के लक्षण
अथातः संप्रवक्ष्यामि मंत्रिलक्षणमुत्तमम् । यो मंत्रादिविधौ प्रोक्तस्सज्जातीयस्त्रिवर्णभृत्॥ रत्नत्रयधनः शूरः कुशलो धार्मिकः प्रभुः । प्रबुद्धाखिलशास्त्रार्थः, परार्थनिरतः कृती॥ शांत: कृपालु निर्देषः, प्रपन्नः शिष्यवत्सलः । षट्कर्म कर्मवित्साधु, सिद्धविद्यो महायशाः ॥ सत्यवादी जितासूर्यो, निरासो निरहंकृतिः । लोकज्ञः सर्वशास्त्रज्ञो, तत्वज्ञो भावसंयुतः ॥
अर्थ - मंत्र सिद्ध कराने वाले गुरु में निम्नलिखित लक्षण होने चाहिये । वह बीजाक्षरों को बनाने और मंत्रों को शुद्ध करने में समर्थ हो। वह बीजकोष, मंत्र व्याकरण और मंत्र सामान्य विधान का अच्छा ज्ञान रखने वाला हो । उत्तम वर्ण वाला, साहसी, धार्मिक, सब शास्त्रों का अर्थ जानने वाला, दूसरों का उपकार करने में आनंद मानने वाला, कृतज्ञ, शान्त, कृपालु, चतुर, शिष्यों से प्रेम करने वाला, लोक को पहचानने वाला, यशस्वी, तेजस्वी, सत्यवादी, ईर्ष्या रहित, अभिमान न करने वाला और द्वेष रहित पुरुष ही मंत्रों को सिद्ध कराने में गुरु बन सकता है।
शिष्य के लक्षण
दक्षो जितेन्द्रियो मौनी, देवताराधनोद्यतः ॥ निर्भयो निर्मदो मंत्री, जपहोमरतः सदा । धीरः परिमिताहारः, कषायरहितः सुधी ॥ सुदृष्टि विगतालस्यः, पाप भीरु दृढ व्रतः । शीलोपवाससंयुक्तो, धर्मदानादितत्परः ॥ मंत्राराधनशूरो धर्म दयास्व गुरु विनयशीलयुतः । मेधा विगतनिद्रः प्रशस्तचित्तोऽभिमानरतः ॥ देवजिनसमयभक्तः सविकल्पः सत्वाक विदग्धाश्च । वाक्पटुरपगतशंकः शुचिरार्द्रमना विगतकामः ॥ गुरुभणितमार्गवर्ती प्रारब्धस्यांतदर्शनोद्युक्तः । बीजाक्षरावधारी शिष्यः स्यात्सद्गुणोपेतः॥
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मुनि प्रार्थना सागर
अर्थ- मंत्र साधना करने वाले शिष्य में निम्नलिखित गुण होने चाहिये- जो बुद्धिमान, चित्त को व इंद्रियों को संयम में रखने वाला, मौन से रहने वाला, देवता की आराधना करने को उद्यत हो, भय से रहित, मान से रहित, सुधी, सम्यग्दृष्टि, आलस्य रहित, पाप से डरने वाला, ग्रहण किए व्रतों को दृढ़ता से निर्वाह करने वाला, शील तथा उपवास से युक्त, धर्म तथा दानादि में लीन, मंत्र सिद्ध करने में वीर, दया भाव रखने वाला, अपने गुरु की विनय करने वाला, जप के समय ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, मेधावी, निद्रा को जीतने वाला, प्रसन्न रहने वाला, स्वाभिमानी, देव और शास्त्र की आराधना व भक्ति करने वाला, नि:शंक, सच बोलने वाला, पवित्र मन वाला, कामदेव को जीतने वाला, गुरु के बताये मार्ग पर चलने वाला, बीजाक्षरों को पहचानने वाला तथा अपने भाग्य के फल को भोगने को तैयार रहने वाला ही शिष्य हो सकता है।
मंत्र साधना के अयोग्य पुरुष सम्यग्दर्शन दूरो वाक्कुंठ श्छांद सो भय समेतः । शून्य ह्रदयोप लजो, मंत्रश्रद्धाविहीनश्च ॥ आलस्यो मंदबुद्धिश्य, मायावी क्रोधनो विटः । गर्वी कामी मदोद्रिक्तो, गुरुद्वेषी च हिसकः॥ अकुलीनोऽतिबालश्च, वृद्धोऽशीलोदयश्च नः। चर्मादि श्रृंगके शादि-धारी चाधर्मवत्सलः ॥ ब्रह्महत्यादिदोषाढ्यो, विरूपो व्याधिपीडितः।
ईदृशो न भवेद्योग्यो, मंत्रवादेषु च सर्वथा ॥ निम्न दोषों वाला मनुष्य कभी मंत्र साधक नहीं बन सकता, अत: गुरु को उचित है कि उसको मंत्र न दे
अर्थ- जो सम्यग्दर्शन से दूर हो ,पाप करने वाला, कुंठित वाणी वाला, भय करने वाला, शून्य हृदय, निर्लज्ज, मंत्रों में श्रद्धा न रखने वाला, आलसी, मंद बुद्धि,मायावी, क्रोधी, भोगी, इन्द्रियलोलुपी, कामी, गुरु से द्वेष रखने वाला, हिंसक, शीलरहित, अंगभंग, अत्यन्त बालक, अत्यन्त वृद्ध, १६ वर्ष से कम उमर वाला, रोगी हो वह साधक नहीं हो सकता।
गुरु का महत्व गुरुरेव भवेन्माता गुरुरेव भवेत् पिता। गुरुरेव सखा चैव, गुरुरेव भवेद्वतं ॥ गुरुः स्वामी गुरुर्भर्ता, गुरुर्विद्या गुरुर्गुरुः । स्वर्गो गुरुर्गुरुर्मोक्षो, गुरुबंधुः गुरुः सखा॥
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गुरुपदेशादिह मंत्रबोधः प्रजायते शिष्यजनस्यसम्यक् ।
तस्माद्गुरुपासनमेव कार्य, मंत्रान्बुभुत्सोर्विनयेन नित्यम् ॥
अर्थ- प्रत्येक मनुष्य को पहले किसी योग्य गुरु के चरणों में बैठकर शिष्य बनने की योग्यता प्राप्त करनी चाहिये और फिर गुरु की आज्ञा पाने पर मंत्र की आराधना में हाथ लगाना चाहिए। शिष्य को आदि से अन्त तक तन-मन और धन से सेवा करते हुए विनय करते रहना चाहिए। क्योंकि मंत्र विधि में सब आपत्तियों से प्राणों की रक्षा करने के कारण गुरु ही माता, गुरु ही पिता और गुरु ही हितकारी है। इसके अतिरिक्त साधक के योग्य उत्तम उपदेश देने के कारण गुरु ही स्वामी, गुरु ही भर्ता, गुरु ही विद्या, स्वर्ग और मोक्ष का दाता है तथा गुरु ही मित्र होता है। शिष्य को गुरु के उपदेश से ही भली प्रकार मंत्र का ज्ञान होता है। अतः ज्ञान की इच्छा रखने वाले को सदा ही विनयपूर्वक गुरु की उपासना करनी चाहिए। मंत्र गुरु से ही ग्रहण करना चाहिए।और भी कहा है
ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति,पूजा मूलं गुरुः पद्म। मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यं ,मोक्ष मूलं गुरुः कृपाः॥
गुरु से ही मंत्र ग्रहण का विधान मंत्र को कभी भी देख - सुनकर या अपनी इच्छा से कभी आरम्भ न करें अन्यथा उससे अनर्थ होता है। अतएव साधक गुरु के मुख से ही मंत्र को लेकर सिद्धि के लिए विनयपूर्वक जपें। शिष्य कलिंग फल, वृताक, वरकंज, बैंगन, लहसुन, पुराना अनाज, दूध
और घी आदि कभी न खावें एवं सप्त व्यसन (जुआ, मांस, शराब,शिकार,वेश्यागमन,चोरी,परस्त्री सेवन )से दूर रहें। मंत्र गुरु के दिये जाने पर विशेष गुणकारी होता है। अन्यथा देवता अनर्थ करते हैं और मंत्र का फल भी कुछ नहीं होता। मंत्र छः कानों में जाने से छिन्न-भिन्न हो जाता है, इसलिए एकांत में ही गुरु शिष्य को मंत्र का उपेदश करें। गुरुवत् शिष्य भी परोपकार के अर्थ उपदेश दें। किन्तु प्रगट रूप से इस ग्रन्थ में लिखा मिल जाने पर भी स्वयं न लेकर गुरु के द्वारा ही मंत्र लेकर सिद्ध करें।
मंत्राराधना में दिशा बोध १. पूर्व यमान्तक
मृत्यु का अन्त करने वाली २. दक्षिण प्रज्ञान्तक
बुद्धि का अन्त करने वाली ३. पश्चिम दिशा पद्यान्तक- हृदय को नष्ट कारक ४. उत्तर विघ्नान्तक
विघ्नों का अन्त करने वाली। (प्र. र. ५४०)
पूजा हेतु दिशा बोध पूर्व- शान्ति पुष्टी,
दक्षिण- सन्तान अभाव, पश्चिम- संतान विच्छेद,
उत्तर-__धन लाभ,
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आग्नेय- धनहानि,
वायव्य- सन्तान अभाव, नैऋत्य- कुल का क्षय,
ईशान- सौभाग्य नाशक। (प्र. र. पे. ५४०)
मंत्र जाप विधि क्रम दिशा चार्ट -
दिशा- वशीकरण कर्म को उत्तराभिमुख उत्तर
होकर, आकर्षण कर्म को दक्षिणाभिमुख होकर, वायव्य /ईशान । स्तंभन कर्म को पूर्वाभिमुख होकर, शान्तिकर्म पश्चिम - पूर्व को पश्चिम की ओर मुख कर, पौष्टिक कर्म को
नैऋत्य की ओर मुखकर, मारण कर्म को नैऋत्य / | \ आग्नेय
ईशानाभिमुख होकर, विद्वेषण कर्म को आग्नेय दक्षिण
की ओर व उच्चाटन कर्म को वायव्य की ओर
मुंह कर साधना करना चाहिए। काल- शान्ति कर्म को अर्धरात्रि में, पौष्टिक कर्म को प्रभात में, वशीकरण, आकर्षण व स्तंभन कर्म को दिन के बारह बजे से पहले पूर्वाह्नकाल में, विद्वेषण कर्म को मध्याह्नकाल में, उच्चाटन कर्म को दोपहर बाद अपराह्न काल में व मारण कर्म की संध्या समय में साधना करना चाहिए।
मुद्रा- वशीकरण में सरोज मुद्रा, आकर्षण कर्म में अंकुश मुद्रा, स्तंभन कर्म में शंख मुद्रा, शान्ति कर्म व पौष्टिक कर्म में ज्ञान मुद्रा, मारण कर्म में वज्रासन मुद्रा, विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में पल्लव मुद्रा का उपयोग करना चाहिए।
आसन- आकर्षण कर्म में दण्डासन, वशीकरण में स्वस्तिकासन, शान्ति कर्म व पौष्टिक कर्म में पद्मासन, स्तंभन कर्म में वज्रासन, मारण कर्म में भ्रदासन, विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में कुक्कुटासन का प्रयोग करना चाहिए।
वर्ण- आकर्षण कर्म में उदय होते हुए सूर्य जैसे वर्ण का, वशीकरण कर्म में रक्त वर्ण, स्तंभन कर्म में पीतवर्ण, शान्ति कर्म व पौष्टिक कर्म में चन्द्रमा के समान सफेद वर्ण, विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में धूम्रवर्ण तथा मारण कर्म में कृष्ण वर्ण ध्यातव्य है।
तत्त्व ध्यान- आकर्षण कर्म में अग्नि, वशीकरण कर्म व शान्ति कर्म में जल, स्तंभन व पौष्टिक कर्म में पृथ्वी, विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में वायु व मारण कर्म में व्योम ध्यातव्य है।
माला-आकर्षण कर्म व वशीकरण में मूंगे की माला, स्तंभन कर्म में सुवर्ण की माला, शान्ति कर्म में स्फटिक की माला, पौष्टिक कर्म में मोती की माला, मारण, विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में पुत्रजीवक की माला व्यवहार्य है।
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पुष्प- स्तंभन कर्म में पीले, आकर्षण कर्म व वशीकरण कर्म में लाल, मारण, उच्चाटन, विद्वेषण कर्म में काले, शान्तिकर्म व पौष्टिक कर्म में सफेद पुष्प प्रयोजनीय हैं।
हस्त- आकर्षण, स्तंभन, शान्ति कर्म, पौष्टिक कर्म, मारण, विद्वेषण व उच्चाटन में दक्षिण (दाहिना हाथ) तथा वशीकरण में वामहस्त का प्रयोग निहित है।
अंगुलि- आकर्षण कर्म में कनिष्ठा, शान्ति कर्म में व पौष्टिक कर्म में मध्यमा, वशीकरण में अनामिका, स्तंभन, मारण, विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में तर्जनी का प्रयोग किया जाता है।
पल्लव- आकर्षण में वौषट्, वशीकरण में वषट्, स्तंभन व मारण कर्म में घे घे, शान्ति कर्म व पौष्टिक कर्म में स्वाहा, विद्वेषण कर्म में हूं, उच्चाटन कर्म में फट् आदि इस तरह पल्लव समझना चाहिए।
मंडल- वशीकरण कर्म में अग्नि मंडल के बीच, शान्ति कर्म में व पौष्टिक कर्म में वरुण मंडल के बीच, स्तंभन मोहन आदि में महेन्द्र मंडल के बीच, चक्र व साध्य का नाम रखना चाहिए।
हाथों की मुद्राएं- आह्वानन आदि पंचोपचार पूजा में मुद्राओं का भी विधान है। कुछ मुद्राओं का विवरण निम्न प्रकार है
आह्वानन मुद्रा- दोनों हाथ बराबर कर अंजलि की तरह अंगूठों को अनामिका के मूल पर्व के पास लगायें, इसे आह्वाननी मुद्रा कहते हैं।
स्थापना मुद्रा- आह्वानन मुद्रा को उल्टा करें तो वह स्थापना मुद्रा हो जाती है।
सन्निधान मुद्रा- दोनों हाथों की मुट्ठियां बन्द कर अंगूठों को ऊपर सीधा करके रखें, इसे सन्निधान मुद्रा कहते हैं।
सन्निरोध मुद्रा- दोनों हाथों की मुट्ठियां बन्द कर अंगूठों को भी भीतर दबा लें, इसे सन्निरोध मुद्रा कहते हैं।
अवगुण्ठन मुद्रा- दोनों हाथों की मुट्ठियां बन्द कर दोनों तर्जनी अंगुलियों को लम्बा करें व अंगूठों को मध्यमा अंगुलियों पर रखें, इसे अवगुण्ठन मुद्रा कहते हैं।
अस्त्र मुद्रा- दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा अंगुली लम्बी करें, इसे अस्त्र मुद्रा कहते हैं।
जाप की परिभाषा मकारं च मनः प्रोक्तंत्रकारं त्राणमुच्यते, मनस्त्राणत्व योगेन इति प्रोक्तः जनम् पाप विनाशकम् ।।प्र.र. ॥
जप के प्रकार
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मन्त्राक्षरों की बार बार आवृत्ति करना, पुनरावृत्ति करना, रटना जप कहलाता है। इस प्रकार 'जप' स्मरण का एक विशिष्ट विस्तृत स्वरूप है। परन्तु यह अपनी विशेषता रखता है। मन्त्रविदों ने इसे निम्न प्रकार कहा है।
ज करो जन्मविच्छेदः प करो पाप नाशकः।
तस्माज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः। अर्थात्- 'ज' कार जन्म का विच्छेद करने वाला है। और 'प' कार पाप नाशक कहा है। अतः जप यथाविधि हो तो सिद्धि के लिए कोई शंका नहीं रहती। आचार्यों ने कहा है कि जप तीन प्रकार से किया जाता है१. मानस जप : जिस जप में मन्त्र के पद, शब्द और अर्थ का मन द्वारा बार-बार चिन्तन
होता है उसे मानस जप कहते हैं। यह सर्वश्रेष्ठ प्रकार की जप है। २. उपांशु जप : जिस जप में केवल जिह्वा हिलती है या इतने हलके स्वर से जप होता
है जिसे कोई सुन न सके, मात्र ओंठ ही हिलते नजर आयें, तो उसे उपांश जप कहते
हैं यह मध्यम प्रकार की जप है। ३. वाचिक जप : जप करने वाले ऊंचे-नीचे स्वर से स्पष्ट या अस्पष्ट मन्त्र बोलकर जप
करता है। उसे वाचिक जप कहते हैं। लेकिन यह जघन्य प्रकार की जप है।
मन्त्र विशारद वाचिक जप से एक गुना फल, उपांशु जप से सौ गुना फल तथा मानस जप से हजार गुना फल बताते हैं।
त्रियोग जाप का फल १. मानसिक जाप- कार्य सिद्धि के लिये मन में करना। २. वाचनिक जाप- पुत्र प्राप्ति के लिये उच्च स्वर से जाप करना। ३. कायिक जाप- धन प्राप्ति के लिये, बिना बोले मंत्र पढ़ना जिससे ओंठ हिलते रहें।
जाप एवं हवन में मंत्र का प्रयोगजप काले नमः शब्दों, मंत्रस्यान्ते प्रयोजयेत्। होम काले पुनः स्वाहा, मंत्रस्यायं सदाक्रमः ॥
जप स्थान का फल गृहे जपफलं प्रोक्तं बने शतगुणं भवेत् । पुष्यारापे तथा रण्ये सहस्रं गुणितं मतम् ॥ पर्वते दशसहस्रं च नद्यां लक्षमुदाहतं ॥ कोटी देवालये प्राहुरनन्तं जिनसन्निधौ ॥
विद्या १२ गो. प्र. चित्रा ८५५
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अर्थ- घर में मंत्राराधना करने से एक गुणा फल, वन में सौ गुना, नसिया एवं वन में हजार गुना, पर्वत पर बैठकर १० हजार गुना, नदी के किनारे लाख गुना, देवालय में करोड़ गुना जिनेन्द्र देव के सामने अनंत गुना फल मिलता है।
जाप का फल कब नहीं मिलता जो श्रावक जप करते समय प्रमादी होकर ऊंघते हैं, नींद का झोंका लेते हैं अथवा बार-बार उबासी लेते हैं या किसी प्रकार का प्रमाद करते हैं उनका जाप करना न करने के समान है और जो कोई अपने हृदय में उद्वेग व चंचलता रखता हुआ जप करता है अथवा माला के मेरुदंड को उल्लंघन कर जप करता है अथवा जो उंगली के नख के अग्रभाग से जप करता है उसका वह सब जप निष्फल होता है। लिखा भी है व्यग्रचिन्तेन यज्जप्तं-२ मरुलंघने। नरवाग्रेण च यज्जप्तं तज्जप्तं निष्फलं भवेत्।
जाप करने का विधान मोक्ष प्राप्ति के लिए अंगूठे से जपना चाहिये, औपचारिक कार्यों में तर्जनी से, धन और सुख की प्राप्ति के लिये मध्यमा से, शान्ति कार्यों के लिये अनामिका ऊंगली से, आव्हानन के लिये कनिष्ठा से शत्रु ,नाश के लिये तर्जनी से, धन संपदा के लिये मध्यमा से, सर्व कार्य की सिद्धि के लिये कनिष्ठा से जाप करना चाहिये एवं अंगूठे पर माला रखना चाहिये।
मंत्र साधना के निर्देश १. मंत्र-साधना के लिए स्थान पवित्र, शुद्ध, स्वच्छ, शान्त, एकान्त, आवाज रहित होना
चाहिए। २. जिस स्थान पर बैठकर मंत्र साधना करना है, उस स्थान के रक्षक देवी देवताओं से
पहले अनुमति लेकर ही वहाँ बैठना चाहिए। ३. मंत्र साधना के लिए आवश्यक सामग्री पास रखना चाहिए एवं किसी एक योग्य
विश्वास पात्र व्यक्ति को अपने पास बैठाना चाहिए। ४. मंत्र-साधना के समय तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अवश्य करना चाहिए एवं भूमि
शयन करना चाहिए तथा सात्विक, अल्प, शुद्ध शाकाहारी भोजन करना चाहिए। ५. मंत्र साधना के दिनों में कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि) का
त्याग कर अच्छे विचारों को मन में लाकर प्रसन्न रहना चाहिए। जहां तक बन सके
तो मौन रहना चाहिए। ६. मंत्र के जाप की जितनी संख्या निश्चित है, उतना संकल्प लेकर विधि पूर्वक करना
चाहिए। जाप का संकल्प अधूरा नहीं छोड़ना चाहिए और न ही मंत्र के जाप के
समय का परिवर्तन करना चाहिए। ७. मंत्र साधना के पहले रोज सकलीकमा अवश्य करना चाहिए।
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८. यदि मंत्र साधना में कोई रक्षक देवी-देवता किसी प्राणी रूप या किसी अन्य रूप में
साधना के समय सामने आ जाये, तो साधक को बिलकुल भी नहीं घबराना चाहिए। ९. मंत्र साधना में माला, आसन, धोती-दुपट्टा आदि कपड़े उसी रंग के उपयोग में
लेना चाहिए जो विधि में बतलाये गये हों। १०. मंत्र की उपासना, साधना, आराधना, ध्यान, पूजन और जाप पूर्ण श्रद्धा-विश्वास
पूर्वक करना चाहिए। ११. मंत्र साधना के बीच यदि मलमूत्र के लिए जाना पड़े तो कायोत्सर्ग पूर्वक स्थान छोड़ें
एवं ग्रहण करें तथा जाप के कपड़े पहनकर कभी भी मलमूत्र विसर्जन न करें।
अर्थात् वस्त्रों की शुद्धि का पूर्ण ध्यान रखें। १२. मंत्र साधक को ओढ़ने-बिछाने के कपड़े सफेद रंग के उपयोग में लेना चाहिए या
फिर जो रंग के वस्त्र जाप विधि में बतलाये हों वैसे ही कपड़े लेना चाहिए। १३. मंत्र साधना में शुद्ध घी का दीपक अवश्य जलाना चाहिए, लेकिन बाई तरफ धूप
रखना चाहिए और दाहिनी तरफ दीपक रखना चाहिए। १४. प्रत्येक मंत्र साधना के लिए जो वस्त्र, आसन, माला, दिशा, समय, मुद्रा और
दीपकादि दिया रहता है उसी के अनुसार जप करें। चार्ट पीछे देखें पेज नं. (91) १५. यदि मंत्र साधना में कोई निश्चित दिशा न बतलाई गई हो तो फिर पूर्व दिशा में मुख
करके ही बैठना चाहिए। १६. स्थान स्वच्छ व शुद्ध होना चाहिए। हर रोज झाडू लगाकर उसे गीले कपड़े से
पौंछना चाहिए। १७. अन्य व्यक्तियों के साथ वार्तालाप व उनका स्पर्श नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे
दूषित परमाणुओं से पवित्रता नष्ट होती है। १८. असत्य नहीं बोलना चाहिए, क्रोध नहीं करना चाहिए तथा जहाँ तक हो सके मौन
रहना चाहिए। १९. भोजन व पानी लेते समय मूल मंत्र से अभिमंत्रित कर ग्रहण करना चाहिए। २०. जमीन पर ही सोना चाहिए। वह भी जहां पर साधना की जाय उसी के पास व
नीचे कपड़ा या चटाई बिछाकर सोना चाहिए व अंधेरे में नहीं सोना चाहिए। २१. हजामत नहीं बनानी चाहिए तथा गरम पानी से स्नान नहीं करना चाहिए, साबुन
आदि का उपयोग नहीं करना चाहिए। २२. किसी को शाप या आशीर्वाद नहीं देना चाहिए तथा किसी की भी निन्दा आलोचना नहीं करना चाहिए।
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२३. मंत्र व मंत्र प्रदाता गुरु तथा परमात्मा पर पूर्ण आस्था रखना चाहिए तथा मंत्र-देवता
व गुरु-प्रभु की उपासना श्रद्धा-भक्ति पूर्वक पूर्ण विश्वास से करनी चाहिए। २४. मन्त्र को गुप्त रखना अर्थात् मंत्र किसी को भी नहीं बताना चाहिए अन्यथा मंत्र सिद्ध
नहीं होता। २५. जप की संख्या का परिमाण निश्चित कर लेना चाहिए, फिर प्रतिदिन उतनी ही
जाप करना चाहिए। निश्चित संख्या से कम या अधिक जप नहीं करना चाहिए। २६. प्रतिदिन निश्चित समय पर निश्चित स्थान पर बैठकर निश्चित संख्या में जाप करें। २७. जाप करते समय प्रतिदिन दीपक अवश्य जलाकर रखें तथा सुगंधित अगरबत्ती या
धूपबत्ती भी जलायें। २८. मंत्र में जिस रंग की माला लिखी हो उसी रंग का आसन यानि बिस्तर या वस्त्र
(धोती दुपट्टा) आदि श्रेष्ठ माना गया है। २९. मंत्र संकल्प पूर्ण होने पर हवन अवश्य करें जितनी संख्या में जाप की हो उससे
दशांस हवन करें तभी मंत्र आराधना पूर्ण मानी जाएगी। ३०. प्रमाद (आलसी) अवस्था में, अशान्त अवस्था में, व्याकुलचित्त अवस्था में जाप न
करें। ३१. माला के शिखर वाले (मेरु के) तीन दानों का उल्लंघन करके जाप न करें। ३२. मंत्र जाप करते समय प्राण प्रतिष्ठित किया हुआ श्रीमहायंत्र अथवा मंत्रित श्री मंगल
कलश, णमोकार मंत्र या जिनेन्द्र देव अथवा गुरु के चित्र (फोटो) को सामने
रखकर जाप करें। ३३. सुआ-सूतक (सूतक-पातक) में भी जाप करना न छोड़ें। स्त्रियों को रजस्वला होने
पर भी जाप करते रहना चाहिए। स्नान करने के पश्चात् मन्त्र का जाप मन में करें
जोर से बोलकर न करें और न ही माला काम में ले। ३४. जप का संकल्प पूर्ण होने पर यथाशक्ति दान-पुण्य अवश्य करना चाहिए। ३५. सकलीकरण- मंत्र साधने के पहले सकलीकरण क्रिया अवश्य करें।
सकलीकरण किसे कहते हैं ? निर्विघ्न इष्ट कार्य की सिद्धि के लिये विद्या साधन के इच्छुक साधक की जिससे
रक्षा होती है, वह क्रिया सकलीकरण कहलाती है। २. निर्विघ्न इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए अपनी रक्षा हेतु जो क्रिया की जाती है उसे
सकलीकरण क्रिया कहते हैं। 36. मंत्रों के पंचोपचार- मंत्राधि देवताओं (मंत्र स्वामी)के पांच उपचार कहे हैं
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आह्वानन, स्थापना, सन्निधिकरण, अष्टद्रव्य से पूजन और विसर्जन। १. आह्वानन- मंत्राधिदेवता के बुलाने को आह्वानन कहते हैं।
स्थापन- उन देवता या प्रतिबिंब के उचित स्थान में स्थापन करने को स्थापना कहते हैं। ३. सन्निधिकरण- देवता का पूजन करते समय साक्षात्कार करने को सन्निधिकरण
कहते हैं। पूजन- देवता का अभिषेक पूर्वक अष्ट द्रव्यों से अर्चन गुणानुवाद करने को पूजन कहते हैं। विसर्जन- उनको आदर सत्कारपूर्वक अपने स्थान पर भेजने को विसर्जन कहते हैं। विशेष :- पूजन विधि देंखे यंत्र अधिकार में, पेज नं. (264) जैसे वहां पर यंत्रों
की पूजन की गयी है उसी प्रकार मंत्र देवताओं की पूजन करें। 37. दीपक में घी व तेल का प्रयोजन- गाय के दूध के घी का दीपक सर्व सिद्धि कारक,
भैंस के घी का मारण में, ऊंटनी के घी का विद्वेषण में, भेड़ के घी का शांतिकर्म में, बकरी के घी का उच्चाटन में, तिल के तेल का सर्वसिद्धि में, सरसों तेल मारण में
प्रयोग किया जाता है। 38. बत्ती का महत्व- वशीकरण में श्वेत बत्तियों का, विद्वेषण में पीत, मारण में हरी,
उच्चाटन में केसरिया, स्तम्भन में काली, शान्ति के लिए सफेद रंग की बत्तियों का
प्रयोग किया जाता है। 39. दिशा विचार- पूर्व दिशा में दीपक का मुख रखने से सर्व सुख की प्राप्ति, स्तम्भन,
उच्चाटन, रक्षण तथा विद्वेषण में पश्चिम दिशा की ओर, लक्ष्मी प्राप्ति के लिए
उत्तराभिमुख तथा मारण में दक्षिणाभिमुख दीपक रखना चाहिए। 40. कलश में वस्तुएं रखने का महत्व- सामान्यतः कलश को जल से भरते हैं। किन्तु
विशेष प्रयोजन में विशेष वस्तुएं रखे जाने का विधान मिलता है। जैसे- धन लाभ हेतु मोती व कमल का प्रयोग करते हैं, विजय के लिए अपराजिता, वशीकरण के लिए मोर पंखी, उच्चाटन के लिए व्याघ्री, मारणा के लिए काली मिर्च, आकर्षण के लिए धतूरा, भरने का विधान है।
माला का महत्व रुद्राक्ष माला पहनने से ब्लडप्रेशर नहीं होता, पपीते के बीज की माला पहनने से प्लेग नहीं होता, कमल बीज की माला पहनने से रोग नहीं होता, मूंगे की माला पहनने से रक्त वृद्धि व शुद्धि होती है। ध्यान दें- सोते समय माला धारण न करें प्रातः स्नान के बाद ही धारण करें। जपते समय सुमेरु का उल्लंघन न करें। अर्थात् माला पूरी होते ही लांघे नहीं
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बल्कि आँखों को लगाकर पुनः जाप प्रारम्भ करें। खंडित माला से जाप न करें।
आसन विधान बांस की आसन से दरिद्रा, पाषाण से रोगी, भूमि पर करने से दु:ख, लकड़ी की आसन से दुर्भाग्य, घास की आसन से यश हानि, पत्रों की आसन से भ्रान्ति, वस्त्र पर बैठकर करने से मन चंचल, चमड़ा के आसन से ज्ञान नाश, कंबल के आसन से मान भंग। अतएव डाब की आसन सर्वश्रेष्ठ है, इसलिए डाब की आसन पर बैठकर जाप करना चाहिये। यही प्रशंसनीय माना जाता है।(विद्यानुवाद -५४०)
तृण, घास के आसन पर बैठकर जाप पूजा करने से यश की हानि होती है,नीले रंग के वस्त्र से अधिक दुःख भोगना पड़ता है, हरे वस्त्र के आसन पर सदा मान भंग होता है, सफेद वस्त्र पर बैठकर करने से यश वृद्धि होती है, हल्दी के रंग वाले वस्त्र के आसन से हर्ष की वृद्धि होती है, लाल वस्त्र के आसन पर कार्यों की सिद्धि होती है; किन्तु सर्वश्रेष्ठ डाब का आसन है। (धर्मरीसका नामक ग्रन्थ एवं चर्चासागर पृ. २८)। 43.
हवन विधिसकलीकरण से शुद्धि, यज्ञोपवीत तथा मंत्रस्नान करके पर्यंकासन से हवन करें।
होम (हवन) कुण्ड :होम कुण्ड तीन प्रकार के होते हैं- १.त्रिकोण-यह कुण्ड मारण, आकर्षण और वशीकरण के काम आता है। २. गोलकुण्ड- यह विद्वेषण व उच्चाटन इन दो कर्मों में काम आता है। ३. चौकोर - यह शान्ति, पौष्टिक और स्तंभन कर्म में काम आता है। 44. धूप विचार- मुख्यतः अगर, तगर, देवदारु, छरीला, गूगल, लौंग, लोबान, कपूर,
चंदन, कस्तूरी, खस, नागरमोथा से धूप बनायी जाती है। 45. जाप-होम-मंत्र-जाप के समय मंत्र के अन्त में नमः शब्द लगावे और होम के
समय "स्वाहा' शब्द जोड़े। मूल मंत्र की संख्या से दसवाँ भाग होम की आहुतियाँ अवश्य दें।
समिधाएं- सामान्य रूप से हवन के लिए पलाश (ढाक) की लकड़ी मुख्य मानी गई है। इसलिए यही समिधाएं ली जाती हैं, और उसके अभाव में दूध वाले वृक्षों की समिधाएं ली जाती हैं। लेकिन क्षुद्र कर्मों मारणादि में बहेड़े, नीम, धतूरे आदि की समिधाएं लेना चाहिए।
विशेष- शान्ति और पौष्टिक कर्म में लाल कनेर के पुष्पों से हवन करें। क्षोभ कर्म में गूगल, कमलगट्टे आदि से होम किया जाता है। वशीकरण के लिए सुपारी के फल तथा पत्तों से हवन किया जाता है। योगी वशी के लिए चमेली फूलों से तथा धन-धान्य आदि
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की वृद्धि के लिए घी, तिल, उड़द, सरसों, धान्य, बांस के बीज, गेहूँ, मूंग आदि से हवन किया जाता है। शान्ति, पौष्टिक, वशीकरण तथा आकर्षण आदि शुभ कर्मों के लिए उत्तम द्रव्यों से प्रसन्न चित्त होकर हवन करें एवं मारण, उच्चाटन, विद्वेषण, और स्तंम्भन में अशुद्ध द्रव्यों से क्रोध सहित होम किया जाता है । पलाश के होम से यक्षिणी वश और आम व घी से विद्याधर वश में होता है। यदि वह न मिले तो दूध वाले वृक्ष (पीपल आदि) की सूखी लकड़ी बिना कीड़ों वाली होनी चाहिए। होम में दूध, घी तथा अष्टांग धूप आदि द्रव्य लेना चाहिए। अशुभ कार्य ( मारणादि) में बिना कीड़ों वाली अशुभ द्रव्य व शुभ कार्य (शांति आदि) में उत्तम सामग्री और प्रसन्न चित्त से कार्य होते हैं ।
पहले जल चन्दनादि अष्टद्रव्यों से मन्त्र जपते हुए अग्नि की पूजा करें, फिर दूध, घी, गुड़ सहित एक लकड़ी को होम कुण्ड में रखें। फिर अनि स्थापित कर पहले घी की आहुतियाँ स्तोत्र श्लोक पढ़ते हुए दें। पीछे लकड़ियों को रखकर आहुति द्रव्य को मिलाकर जाप का मंत्र बोलते हुए आहुतियाँ देवें । हवन को पांच कलश की स्थापना करके करना चाहिए। जिसने भी सम्पूर्ण विधि से अच्छी तरह से एक मन्त्र भी सिद्ध कर लिया, तो फिर उसे थोड़े ही समय में दूसरे मंत्र भी सिद्ध हो सकते हैं ।
होम द्रव्य - होम करने के लिए एक सेर दूध, एक सेर घी और अष्टांग धूपादि से मिला हुआ द्रव्य लेवें ।
नोट- होम के समय मंत्र के अन्त में स्वाहा लगा लेवें । तथा मंत्र जाप की संख्या के दशांश से हवन करें।
45. द्रव्य (सामग्री) शुद्धि:- हाथ में जल लेकर मंत्रित करके सर्व पूजा की सामग्री पर छिड़कें अर्थात् शुद्धि करें।
मंत्र - ॐ ह्रीं अर्हं झोंझों वं मं हं सं तं पं इवीं क्ष्वीं हं सः असि आ उ सा समस्त तीर्थ जलेन शुद्ध पात्रे निक्षिप्य पूजाद्रव्याणि शोधयामि स्वाहा ।
कार्य सिद्धि के लिए आसन और वस्त्र का विधान
वशीकरण का मंत्र :- वशीकरण मंत्र सिद्ध करने के लिए माला, आसन एवं सभी वस्त्र पीले होना चाहिए ।
आकर्षण मंत्र :- आकर्षण के लिए मंत्र साधना करते समय माला, आसन व सभी वस्त्र हरे रंग के होना चाहिए।
मोहित मंत्र - मोहित करने के लिए माला, आसन एवं वस्त्र लाल रंग के उपयोग करना चाहिए। शान्ति पौष्टिक मंत्र :- शान्ति और धन लाभ के लिए माला, आसन और वस्त्र सफेद रंग के होना चाहिए ।
मारण- उच्चाटन - विद्वेषण आदि में काले वस्त्र, माला और आसन का उपयोग होता है । 61
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वस्त्र विधान- नीले रंग के वस्त्र पहनकर जाप करने से बहुत दुख होता है। हरे रंग के वस्त्र पहनकर जाप करने से मान भंग होता है। श्वेत रंग के वस्त्र पहनकर जाप करने से यश की वृद्धि होती है, पीले रंग के वस्त्र पहनकर जाप करने से हर्ष बढ़ता है । लाल रंग के वस्त्र पहनकर जाप करने से लाभ होता है तथा यह श्रेष्ठ वस्त्र भी है। नोट- साधक को कोई भी मंत्र मिलाने पर ऋण या धन की संख्या आती हो तो उसमें मंत्र के प्रारम्भ में ॐ ह्रीं श्रीं या क्लीं इन बीजाक्षरों में से कोई भी एक बीजाक्षर जोड़ देने पर साधक को अवश्य ही मंत्र सिद्ध होगा और फल प्राप्त होगा ।
माह के अनुसार मंत्र जपने का फल
चैत माह में मन्त्र जाप्य शुरु करने से सर्वपुरुषार्थ सिद्धि, वैशाख में- रत्न लाभ; ज्येष्ठ में-मरण; आषाढ़ में बन्धुनाश, श्रावण भाद्रा - क्वाँर (अश्विनी) में - रत्नलाभ; कार्तिक में- मंत्र सिद्धि, मगसिर (अगहन) में - मंत्र सिद्धि; पौष में- शत्रुवृद्धि व पीड़ा, माघ में - मेधा (बुद्धि) वृद्धि; फाल्गुन में सर्व कार्य सिद्धि होती है ।
वार के अनुसार जाप का फल
रविवार को मंत्र जाप आरंभ करें तो धन लाभ, सोमवार को - शान्ति, मंगलवार को - आयुष्य क्षय, बुध को- सुन्दरता, गुरुवार को - ज्ञान वृद्धि, शुक्रवार को - सौभाग्य, शनिवार को - वंश हानि होती है।
तिथियों के अनुसार जाप का फल
१. प्रतिपदा को मंत्र जाप आरंभ करने से - बुद्धि हानि, २. द्वितीया को - बुद्धि विकास, ३. तृतीया को- शुद्धि, ४. चतुर्थी को - आर्थिक हानि, ५. पंचमी को - ज्ञान वृद्धि, ६. षष्ठी को - ज्ञान नाश, ७. सप्तमी को- सौभाग्य वृद्धि, ८. अष्टमी को - बुद्धिक्षय, ९. नवमी को शरीर हानि, १०. दशमी को - राज्य की सफलता, ११. एकादशी को - शुद्धता, १२. द्वादशी को - सर्वकार्य हानि, १३. त्रयोदशी को - सर्वकार्य सिद्धि, १४. चतुर्दशी को - तिर्यंचयोनि; १५. अमावस्या को - सिद्धि नहीं और पूर्णिमा को - सिद्धि होती है।
नोट - जिन तिथि, वार तथा माह में कार्य वर्ज्य हैं उनमें भी विशेष योग जैसे सिद्धियोग आदि, विशेष नक्षत्र - पुष्य आदि में तथा तीर्थंकरों की पंचकल्याणक तिथियों में कार्य करने पर सफलता मिलती है । ( आचार्य विमल सागर जी महाराज की डायरी अनुसार)
नक्षत्र अनुसार जाप का फल
१. अश्विनी - शुभ, २. भरणी -मरण, ३. कृतिका - दुख, ४. रोहिणी - ज्ञान लाभ, ५. मृगशीर्ष - सुख, ६. आर्द्रा-बन्धुनाश, ७. पुनर्वसु- धन, ८. पुष्य- शत्रुनाश, ९. अश्लेषा -
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मुनि प्रार्थना सागर
मृत्यु, १०. मघा- दुखमोचन, ११. पूर्वा फाल्गुनी-सौन्दर्य, १२. उत्तरा फाल्गुनी-ज्ञान, १३. हस्त-धन, १४. चित्रा-ज्ञानवृद्धि, १५. स्वाति-शत्रुनाश, १६. विशाखा-दुख, १७. अनुराधा-बंधुवृद्धि, १८. ज्येष्ठा-पुत्र हानि, १९. मूल-कीर्तिवृद्धि, २०. पूर्वाषाढ़ा-यश वृद्धि, २१. उत्तराषाढ़ा- यश वृद्धि, २२. श्रवण-दुख, २३. धनिष्ठा- दारिद्रय, २४. शतभिषा-बुद्धि, २५-२६. पूर्वाभाद्रपद व उत्तरा भाद्रपद-सुख, २७. रेवती-कीर्ति वृद्धि।
नोट- मकर संक्रान्ति, कर्क संक्रान्ति, सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, सोमवार-अमावस्या, मंगलवार-चतुर्दशी, रविवार-सप्तमी हो तो मंत्र ग्रहण करने में शुभ हैं।
मंत्र यंत्र तंत्र शक्ति का महात्म्य अचिन्त्यं ही तपो विया मणि मन्त्रो शधिशक्त्यतिशयं माहात्म्यं दृष्ट त्वभावत्वात्। स्वभावोऽतर्कगोचर इति समस्तवादिसंयतत्वात्।
अर्थ-विद्या, मणि,मंत्र, औषध आदि की अचिन्त्य शक्ति का माहात्म्य प्रत्यक्ष देखने में आता है। स्वभाव तर्क का विषय नहीं है, ऐसा समस्त वादियों ने कहा है। मंत्र-तंत्र की शक्ति पौद्गलिक है
जोणि पाहडे भणिदमंत-तंतसत्तीयो-पोग्गलाणुभागौ त्ति धेत्तव्यो। अर्थ- योनि प्रभृत में कहे गए मंत्र-तंत्र रूप शक्तियों का पुद्गलानुभाग है।
___ मंत्र तंत्र सिद्धि का मोक्ष मार्ग में निषेध वशीकरण,आकर्षण, विद्वेषण, मारण, उच्चाटन, जल, अग्नि, विष, सेना आदि का स्तम्भन, नगर में क्षोभ उत्पन्न करना, इन्द्र-जाल साधन, जीत हार विद्या, परविद्या छेदन, ज्योतिष का ज्ञान, वैद्यक विद्या साधन, यक्षिणी मंत्र, गड़े धन देखने का अंजन, शस्त्रादि का साधन, भूत व सर्प साधन, इत्यादि व क्रिया रूप कार्यों में रत पुरुष दोनों लोकों को नष्ट करता है।
परिस्थिति वश मंत्र प्रयोग की आज्ञा स्तेनै रूपद्रूयमाणानां तथा श्वापदैः दुष्टर्वा भूमिपालै नदीरो धकैर्माया च तदुपवनिरास: विद्यादिभिः।
अर्थ-जिन मुनियों को चोर से उपद्रव हुआ हो, दुष्ट पशुओं से पीड़ा हुई हो, दुष्ट राजा से कष्ट पहुंचा हो, नदी के द्वारा रूक गए हों, भारी रोग से पीड़ित हो गए हों तो उसका उपद्रव विद्यादिकों से नष्ट करना उनकी वैय्यावृत्ति है। किन्तु मंत्र द्वारा साधु का आजीविका करने का निषेध
जो साधु मंत्र द्वारा धनोपार्जन करते हैं, वास्तव में वे निर्लज्ज अपनी माता को जैसे वैश्या बनाते हैं (ज्ञा. ४१५६-५७) जो मुनि मंत्र-तंत्र औषध द्वारा आजीविका करके वैश्योंवत् धन-धान्य का ग्रहण करता है वह साधु मार्ग को दूषित करता है।
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मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
माला विधान स्फटिक, मोती, चांदी, सोना, मूंगा, पोत, रेशम, कमलबीज, सूत ये नौं प्रकार की माला श्रेष्ठ हैं और अग्नि द्वारा पकी हुई मिट्टी, हड्डी, लकड़ी और रुद्राक्ष आदि की मालाएं कुछ फल देने वाली नहीं हैं, ये मालाएं अयोग्य हैं, ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। (चर्चा सा. पृ. २४)
___ माला बनाने में धागा का उपयोग- सफेद रंग का धागा पौष्टिक शान्ति कारक, लाल रंग का धागा आकर्षण वशीकरण में, पीले रंग का धागा स्तंभन में और काले रंग का धागा मारण आदि कार्य में प्रयुक्त किया जाता है।
माला का उपयोग- वशीकरण व आकर्षण में मूंगे या लाल चंदन की माला, स्तंभन कर्म में सुवर्ण की माला, शान्ति कर्म में स्फटिक की माला, पौष्टिक कर्म में मोती की माला, मारण-विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में पुत्रजीवा की माला, व्यवहार में लेना चाहिए।
माला में मड़िकों का महत्व- मारण, मोहन, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरण आदि में १५ मनकों की माला, मोक्ष प्राप्ति व अभिचार कर्म में २५ मनकों की माला, मोक्ष सिद्धि के लिए, प्रिय प्राप्ति के लिए तथा समस्त सिद्धि के लिए ५४ व १०८ मनकों की माला तथा पुष्टि व धन के लिए ३० मनकों की माला श्रेष्ठ मानी गयी है। माला-निर्देश १. माला दाहिने हाथ में ही रखनी चाहिए। २. माला पृथ्वी पर नहीं गिरनी चाहिए तथा उस पर धूल व गर्द नहीं जमनी चाहिए । ३. माला अंगूठे पर रख कर मध्यमा या अनामिका अंगुली से फेरनी चाहिए
मनकों (दानों) में नाखून नहीं लगाना चाहिए। ५. माला में जो सुमेरु होता है, उसे लांघना नहीं चाहिए। यदि और आगे अधिकमाला
फेरनी हो तो माला को वापस बदल लेना चाहिए। माला फेरते वक्त जमीन पर नहीं छूना चाहिए। माला जपने के पूर्व माला की शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिए। पहले पंचामृत से अभिषेक के जल में धोकर एक प्लेट में रख लें फिर निम्न मंत्र
को ७ बार बोलकर पुष्प चढ़ाएं तथा बाद में मस्तक पर लगाकर उपयोग में लें। मंत्र- ॐ ह्रीं रत्नैः सुवर्णै।जैर्या रचिता जप मालिका, सर्व जपेषु सर्वाणि वाञ्छितानि प्रयच्छतु।
माला विधान प्रकारान्तर से- पुत्र प्राप्ति के लिए मोती की माला, स्तम्भन विधि के लिए, रोग शान्ति के लिए, दुष्ट या व्यंतर देवों के उपद्रव दूर के लिए कमल बीज या मोती की
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माला, शत्रु उच्चाटन के लिए रुद्राक्ष की माला से जाप करना चाहिए तथा सर्व कार्य सिद्धि के लिए पंच वर्ण पुष्पों की माला तथा सदा सुख देने वाली सूत की माला होती है।
___माला का फल- अंगुलियों से जाप की गणना करने में एक गुना फल मिलता है, रेखा से जप की गणना करने पर आठ गुना, पुत्रजीवक के बीज की माला से दस गुना, शंख की माला से सौ गुना, आँवले की माला से पाँच सौ गुना, मूंगे की माला से हजार गुना, लौंग की माला से पाँच हजार गुना, स्फटिक की माला से दस हजार गुना, मोती की माला से लाख गुना, पद्याक्ष (कमल बीज) की माला से दस लाख गुना, सोने की माला से करोड़ गुना फल मिलता है। लेकिन माला के साथ-साथ भावों की शुद्धि भी अनिवार्य है। सूत की माला सदा सुख देने वाली होती है।
मंत्र जाप निषेध १. नग्न होकर जप नहीं करना चाहिए। २. सिले हुए वस्त्र पहन कर जप नहीं करना चाहिए ३. शरीर व हाथ अपवित्र हों तो जप नहीं करना चाहिए। ४. मस्तक के बाल खुले रखकर जप नहीं करना चाहिए।
आसन बिछाये बिना जाप नहीं करना चाहिए। ६. बातें करते हुए जप नहीं करना चाहिए। मस्तक को ढ़ककर जप करना चाहिए। ७. अन्य मनुष्यों की उपस्थिति में जाप नहीं करनी चाहिए।
अस्थिर चित्त से जप नहीं करना चाहिए।
रास्ते चलते हुए या रास्ते में बैठकर जप नहीं करना चाहिए। १०. भोजन करते समय जप नहीं करना चाहिए। ११. निद्रा लेते समय जप नहीं करना चाहिए।
उल्टे-सीधे बैठकर या पैर फैलाकर अथवा लेटकर जाप नहीं करना चाहिए १३. भयभीत अवस्था में जाप नहीं करना चाहिए। १४. अंधकार वाले स्थान में जाप नहीं करना चाहिए। १५. अशुद्ध व अशुचि युक्त स्थान में जाप नहीं करना चाहिए। १६. जाप करते समय छींक नहीं लेनी चाहिए, खंखारना नहीं चाहिए, थूकना नहीं
चाहिए तथा नीचे के अंगों का स्पर्श भी नहीं करना चाहिए। १७. मन में बुरे-विचार आते समय जप नहीं करना चाहिए। विक्षिप्त अवस्था में जाप
नहीं करना चाहिए।
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१८. मंत्र साधना के समय यदि लघुशंका या दीर्घशंका (मलमूत्र त्याग) के लिये; लिये
हुए संकल्प के बीच में उठना भी पड़े तो कायोत्सर्ग (नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर) करके उठना चाहिए व कायोत्सर्ग पूर्वक पुनः आसन ग्रहण करना चाहिए।
दीपानादि प्रकार १. मंत्र के प्रारंभ में नाम की स्थापना करें तो दीपन कहा जाता है। जैसे- देवदत्त ह्रीं। २. मंत्र के अंत में नाम की स्थापना करें तो पल्लव कहा जाता है। जैसे- ह्रीं देवदत्त । ३. मंत्र के मध्य भाग में नाम की स्थापना करे तो संपुष्ट कहा जाता है। जैसे- ह्रीं देवदत्त
ह्रीं। ४. मंत्र के प्रारंभ में व मध्य में नामोल्लेख करें तो रोधान कहा जाता है, जैसे- देव ह्रीं
दत्त ह्रीं। ५. एक मंत्राक्षर दूसरा नामाक्षर, तीसरा मंत्राक्षर चौथा नामाक्षर इस तरह संकलित करें
तो ग्रन्थ कहा जाता है। जैसे- ह्रीं दे ह्रीं व ह्रीं द ह्रीं त्त। मंत्र के दो दो अक्षरों के बाद एक एक नामाक्षर रखें तो उसे संकलित कहते हैं जैसे- ह्रीं ह्रीं दे ह्रीं ह्रीं व ह्रीं ह्रीं द ह्रीं ह्रीं त्त।
व्रज आठ होते हैं- वम्ल्यूँ, ख्ल्यूँ, झल्व्यूं, भल्ल्यूँ, म्यूँ, रम्ल्यूँ, स्म्ल्यूँ, म्ल्यूँ, मल्ल्यूँ,
पिंडाक्षर १४ होते हैं- वम्ल्यूं, ख्ल्यूँ, , छ्म्ल्यूँ, झम्ल्यूँ, ड्म्ल्यूँ, त्म्यूँ, भव्यूँ, म्म्ल्यूँ, यम्ल्यूँ, रम्ल्यूं, स्मल्यूं, म्ल्यूँ, मल्ल्यूँ।
बिना विचारे सिद्ध करने योग्य मंत्र जिन मंत्रों के आदि में अथ: हो उनको सिद्धादि, जिनके आरंभ में ॐ हो उनको सुसिद्धादि मंत्र कहते हैं। यह दोनों ही शुभ होते हैं। इनको सिद्ध कर लेवें। किन्तु जिनके आदि में विद्वेषी पद हो उनको साध्यादि कहते हैं उनको सिद्ध न करें। सुसिद्धादि मंत्र पाठ मात्र से सिद्धादि जाप से, और साध्यादि जाप होम आदि से साधक को फल देते हैं। प्रणव (ॐ), ह रि (उ), माया ( हृीं ), व्योनव्यापी ( हुँ ), शड़ क्षय ( ष ), प्रासाद ( हं ) और बहुरूपी ( भ ) यह सात साधारण ( प्रणव ) माने गए हैं। इनका योग विचार करने की आवश्यकता नहीं। सौरीमंत्र और जिन मंत्रों में भी सिद्ध, साध्य-सुसिद्ध और शत्रु के विचार की आवश्यकता नहीं है। आम्नाय से चले आये हुए गण मंत्रों में प्रणव (ॐ) के, प्रासाद (हं) के और सपिण्डाक्षरों के भी सिद्ध और शत्रु का विचार न करें। एकाक्षर मंत्र, मूलमंत्र और सैद्धान्तिक मंत्रों के भी सिद्ध और शत्रु को न देखें । स्वप्न में दिये हुए, स्त्री से दिये हुए और नपुंसक मंत्र के भी सिद्ध और शत्रु को न विचारे। हंस, अष्टाक्षर मंत्र तथा एक, दो और तीन आदि बीजों के सिद्ध और शत्रु को न विचारे। अकार से लेकर क्षकार तक के
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अनुस्वार सहित मातृका अक्षरों से सीधे क्रम अथवा वर्णमाला से पृथक प्रत्येक वर्ण को साथ लगाकर जपने से शीघ्र ही सिद्धि मिलती हैं । सब मंत्रों को आदि में हृल्लेखा (ह्रीं), कामबीज ( क्लीं ) और श्री बीज को मंत्र की शुद्धि के लिए मंत्र में लगाकर जप करना चाहिए। भार नामक मंत्राक्षर से सम्पुट किया जाने से दुष्ट मंत्र भी सिद्ध हो जाता है और जिसकी जिसमें भक्ति होती है वह मंत्र भी सिद्ध हो जाता है। मंत्र महोदधि के अनुसार एक वर्ण, तीन वर्ण, पांच वर्ण, छ: वर्ण, दस वर्ण, आठ वर्ण, नौ वर्ण, ग्यारह वर्ण और बत्तीस वर्णवाले मंत्रों को बिना विचारे सिद्ध करना चाहिए । स्वप्न में पाये हुए, स्त्री से पाये हुए, माला, मंत्र, नृसिंह मंत्र, प्रासादा, "हूं" सूर्य मंत्र बाराह मंत्र मातृका अक्षरों पर (ह्रीं) त्रिपुरा मंत्र और काम मंत्र जप से सिद्ध हो जाते हैं। गरुड़ मंत्र, बौद्ध मंत्र और जैन मंत्रों में भी सिद्ध आदि का शोधन न करें। इसके अतिरिक्त अन्य मंत्रों की शुद्धि अत्यन्त आवश्यक
है ।
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गृहीत शत्रु मंत्र को त्याग करने की विधि
यदि भूल से शत्रु मंत्र का अनुष्ठान आरंभ कर दिया हो तो उसके त्याग करने की विधि भी है। किसी उत्तम दिन में सर्वतोभद्रमण्डल में कलश की स्थापना करके मंत्र को उल्टा बोलते हुए कलश को जल से भरे । उस पर वस्त्र ढककर उसमें देवता का आह्वानन करें। फिर उसके सामने अग्निकुण्ड बनाकर उसमें अग्नि की प्रतिष्ठा करके ग्रहण किए हु मूल मंत्र को उल्टा करके घी की एक सौ आठ आहुतियां देवें । फिर खीर और घी की दिक्पालों को बलि देवें । इसके पश्चात देवों के देव भगवान ऋषभदेव से निम्नलिखित शब्दों से प्रार्थना करें - "हे भगवान मुझ चंचल बुद्धि वाले ने मंत्र की अनुकूलता बिना विचार किये ही जो इस मंत्र को ग्रहण करके इसका पूजन किया है, इससे मेरे मन में क्षोभ हो रहा है। हे भगवान! आप कृपा करके मेरे मन के क्षोभ को दूर कीजिये । और मेरा उत्तम कल्याण करके मुझे अपनी निर्मलभक्ति दीजिये" । इस प्रकार प्रार्थना करके उस मंत्र को ताड़पत्र कपूर- अगर और चन्दन से उल्टा लिखकर पहले उसका पूजन करें और फिर उसको अपने सिर से बांधकर उस घड़े जल से स्नान करें। उस कलश में फिर से जल भरकर उसके मुख में उस पत्र को डाल दें। फिर उस घड़े का पूजन करके उसको किसी नदी या तालाब में डालकर सच्चे सात साधुओं को आहार दान दें अथवा उत्तम श्रावक को भोजन करावें । इस प्रकार वह उस मंत्र के कष्ट से छूट जाता है।
दुष्ट मंत्र को जपने की विधि
यदि मंत्र उपरोक्त प्रकार से अनेक बार शोधन किया जाने पर भी शुद्ध न हो तो उसके दोष को दूर करने के वास्ते उसकी आदि में ह्रीं क्लीं' श्रीं, बीजों को लगाकर जपें । अथवा ‘ॐ' के सम्पुट में जपा जाने से दुष्ट मंत्र भी सिद्ध हो जाता है। अथवा उल्टे या सीधे क्रम से वर्णमाला को लगाने से भी मंत्र सिद्ध हो जाता है।
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मंत्र सिद्ध होगा या नहीं देखने की विधि
मंत्र के अक्षरों को ३ से गुणा करें, फिर अपने नाम के अक्षरों को और मिला देवें, उस संख्या में १२ का भाग देवें, शेष जो रहे, उसका फल निम्नलिखित जानें।
५-९- बाकी बचे तो मन्त्र सिद्ध होगा। ६-१०- बचे तो देर से सिद्ध होगा। ७-११- बचे तो मन्त्र अच्छा होगा।
८-१२- बचे तो सिद्ध नहीं होगा। पुरुष का ऋणी धनी विचार
किसी पुरुष या स्त्री से कोई कार्य लेने के लिए मंत्र जपना हो तो निम्नलिखित उपाय से विचार करें कि काम देने वाला व्यक्ति साधक का ऋणी है या नहीं। यदि साधक ऋणी होगा तो कार्य निश्चय रुप से पूर्ण होगा। नीचे लिखे कोष्ठक से वर्णों और उनकी शत्रु मित्रता का ज्ञान हो जावेगा। इस कोष्ठक में ऋणी-धनी इस रीति से देखा जा सकता है कि दोनों पुरुषों के अक्षरों की संख्या को पृथक्-पृथक् कर दो से गुणा करें, फिर जो-जो संख्या आये उसमें प्रथम में दूसरे व्यक्ति के नाम अक्षरों की संख्या को और दूसरे में प्रथम व्यक्ति के नाम अक्षरों की संख्या को जोड़कर आठ का भाग दें। फिर दोनों में जिसका अंक शेष अधिक हो वह ऋणी जिसका न्यून हो वह धनी। अर्थात् अधिक अंश वाला न्यून अंक वाले को धन देगा। जैसे सेठ भगवानदास के पास नन्दकिशोर नौकरी चाहता है तो उसको मिलेगी या नहीं। अब देखों भगवानदास की संख्या छह है और नन्दकिशोर की पांच हैं। दोनों को दो से गुणा किया तो ६४२=१२ और ५४२= १० अब इसमें एक दूसरे की वर्ग संख्या जोड़ दो आठ का भाग दो। १२+५=१७’ ८=१शेष। १०+६= १६’ ८ =० शेष। यहां पर शून्य के शेष से भगवानदास का शेष १ अधिक है। अतः भगवानदास नन्दकिशोर को नौकरी पर रख लेगा। संख्या वर्ग का स्वामी वर्ग के अक्षर शत्रु मित्र उदासीन १. गरुण
अ ई उ ए सर्प श्वान सिंह बिलाव क ख ग घ ङ मूषक
श्वान च छ ज झ ञ मृग मूषक सर्प श्वान ट ठ ड ढ ण
मृग मूषक ५. सर्प
त थ द ध न गरुड़ मेष मृग ६. मूषक
प फ ब भ म बिलाव गरुड मेष य र ल व सिंह बिलाव गरुड
= 68
सिंह
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प
मग
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८. मेष
श ष स ह श्वान सिंह बिलाव कलियुग के सिद्धिप्रद मंत्र
एकाक्षर के मंत्र, दो व तीन अक्षर वाले मंत्र, तीन प्रकार के नृसिंह मंत्र, एकाक्षर अर्जुन मंत्र, दो प्रकार के चिंतामणि मंत्र, क्षेत्रपाल मंत्र, यक्षाधिपति भैरव के मंत्र, गणेश मंत्र, चेटका मंत्र, यक्षिणी मंत्र, मातंगी मंत्र, सुन्दरी मंत्र, श्यामा मंत्र, तारा मंत्र, कर्णपिशाची मंत्र, शवरी मंत्र, एकजटा मंत्र, वामा मंत्र, काली मंत्र, नील सरस्वती मंत्र, त्रिपुरा मंत्र और कालरात्रि मंत्र कलियुग में सिद्ध होते हैं। मंत्र के अधिकारी द्विजवर्णों के योग्य मंत्र
___ अघोर मंत्र, दक्षिणामूर्ति मंत्र, उमा मंत्र, माहेश्वर मंत्र, हयग्रीव मंत्र, बाराह मंत्र, लक्ष्मी मंत्र, नारायण मंत्र, प्रणव के आरम्भ होने वाले मंत्र, चार अक्षरों के मंत्र, अग्नि के मंत्र, सूर्य के मंत्र, प्रणव से आरंभ होने वाला गणेश मंत्र, हरिद्रा गणेश पड़क्षर राम मंत्र, को
और वैदिक मंत्रों को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को ही देने चाहिए। निंद्य कार्य वालों को नहीं। ब्राह्मण और क्षत्रियों के योग्य मंत्र
सुदर्शन मंत्र, पाशुपत मंत्र, आग्नेयास्त्र और नृसिंह मंत्र को ब्राह्मण और क्षत्रिय को ही देना चाहिये अन्य को नहीं। चारों वर्गों के योग्य मंत्र
छिन्नमस्ता, मांतगी, त्रिपुरा, कालिका, शिव, लघु श्यामा, कालरात्रि, गोपाल, राम उग्र तारा और भैरव के मंत्र चारों वर्णों को देने चाहिये। यह मंत्र स्त्रियों को विशेष रुपसे सरलता से सिद्ध होते हैं। इसकी अधिकारी चारों वर्गों की स्त्रियां ही होती हैं। वर्ण क्रम से बीजों के अधिकारी
ह्रीं, क्लीं, श्रीं और ऐं बीज ब्राह्मण को देवें। क्लीं, श्रीं और ऐं क्षत्रिय को देवें। श्रीं और ऐं वैश्य को देवें तथा 'ऐं' बीज शूद्र को देवें। अन्यों को फट् बीज देवें।
वर्णों के भेद वर्ण-रंग व मण्डल की अपेक्षा
स्वरोष्माणो द्विजाः श्वेता, अबूमण्डलसंस्थिताः । कंतस्या भूर्भुजो रक्ता-स्तेजोमंडलसंस्थिताः । चूपूवैश्यान्वयौ पीतौ पृथ्वीमंडलभागिनौ।
दुतु कृष्णत्विषौ शूद्रौ वायुमण्डलसंभवौ। अक्षर वर्ण रंग
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मंत्र यंत्र और तंत्र
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कवर्ग
रक्त
अनि
शूद्र
कृष्ण
कृष्ण
शवर्ग
अर्थ- स्वर ब्राह्मण वर्ग श्वेत
जलमण्डली क्षत्रिय चवर्ग वैश्य
पीत
क्षिति टवर्ग
वायु तवर्ग शूद्र
वायु पवर्ग वैश्य
पीत
क्षिति यवर्ग क्षत्रिय
रक्त
अग्नि ब्राह्मण श्वेत
जल नोट- मंत्र व्याकरण के अनुसार ई ऊ ल ल का रंग पीत व जल मण्डली है। 'ष' का पीत रंग व आकाश मण्डली कहा है। तिथि-वार व गति की अपेक्षा
प्रतिपन्नवमी रवि शनिवासरे द्विजसिद्विरथ चतुर्थ्या च। द्वादश्ये कादश्योः सितवारे भूपसिद्धिः स्यात् । कुजवारे पंचम्यां षष्ठयां च चतुर्दशी-त्रयोदश्योः । वैश्याक्षरसंसिद्धिः संभनकर्मात्र कर्त्तव्यं । वहिन्स्तंभन शांतिक पौष्टिककर्माणि कृत्यानि । लक्ष योजन गा विप्रास्त दर्द्धगतयो नृपाः ।
तदर्द्ध गामिनो वैश्या शूद्रास्तद्दल यायिनः ।
अर्थ- विशिष्ट ब्राह्मणादि वर्ण की सिद्धि की तिथि, वार व उसकी गति की तालिका निम्न प्रकार हैं। अक्षर तिथि
वार
गति ब्राह्मण प्रतिपदा, नवमी रवि,शनि एक लाख योजन कार्य क्षत्रिय ११,१२,४
पचास हजार योजन कार्य वैश्य ५,६,१३,१४ मंगलवार पच्चीस हजार योजन कार्य स्तम्भन
सोमवार
शूद्र पर्व के दिन १४ गुरुवार १२ १/२ हजार योजन कार्य पौष्टिक आदि तथा ७ को
अक्षरों की शत्रु-मित्रता मण्डलों की अपेक्षा
अप्पाक्षरमग्न्याक्षरमरयो मरुदग्निबीजमपि मित्रं । भूम्यक्षरमाप्याक्षरमुभे च मित्रत्वं बीजं च॥
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
धरानिलजवर्णानामन्योन्यमिह सर्वदा।
न मित्रत्वं न वैरत्वमौदासीन्यं तु केवलं ॥ अर्थ- जलमण्डली अक्षर और अग्नि अक्षर एक दूसरे के शत्रु हैं। वायु अक्षर और अग्नि मण्डली अक्षर परस्पर मित्र हैं। पृथ्वीमण्डली, जलमण्डली और खबीज भी मित्र होते हैं। परन्तु पृथ्वी अक्षर और वायु अक्षर परस्पर उदासीन होते हैं अर्थात् न शत्रुता होती है न
मित्रता।
चतुर्वर्णाक्षरों की अपेक्षा
एक: शूद्रस्त्रिभिर्विप्रैर्मित्रत्वं प्रतिपद्यते। त्रिभिः शूरैर्द्विजोप्येकस्तथा क्षत्रियवैश्ययोः । एकभागों भवेद्विप्र-स्यैकः क्षत्रियवैश्ययोः । शूद्रस्याप्येकभागश्चेत्संयुक्तो मित्रतां व्रजेत॥ सर्वमंत्रान्त्वैकस्मिन्वर्गोऽभीष्टफलप्रदा।
विमुच्याक्षरसंघातमिति सर्वज्ञभाषितं ॥ अर्थ- एक शूद्र की तीन ब्राह्मणों के साथ, तीनों शूद्रों की एक ब्राह्मण के साथ तथा क्षत्रिय और वैश्य की परस्पर मित्रता नहीं होती। लिंग की अपेक्षा
सप्तकला: पुल्लिंगाः नपुंसकास्तत्र संति सप्तकलाः । द्वे च कले स्त्री ज्ञेये कलासु मध्ये तु षोड़शेषु ॥ आदिमपंचमषष्ठद्वादशमुख पंच दशकपर्यताः । पुल्लिंगाः स्त्रीलिंगौ द्वितीयतूर्यस्वरौ स्यातां ॥ सप्तक लादिरु द्र प्रमाणपर्यंत सकलां तकलः । त्रिकलापि सप्त षष्ठा इत्युदिता मंत्रवादेत्र ॥ क वर्गाद्य त्रयो वर्णाष्टवर्गाद्यचतुर्थकाः। तवर्गाद्य द्विवर्णौ च पवर्गाद्य त्रयोपि च ॥ क्षः कूटाक्षरेणैते सर्वे मिलितैकोनविंशतिः । पुल्लिंगसंज्ञिनो वर्णा: मंत्रव्याकरणे मताः ॥ उष्मणादिमो वर्णश्च वर्गाद्यक्षरद्वयं । पवर्गांत्यद्विणौ च स्त्रीणां पंचाक्षराणि वै ॥ कपवर्गा तुर्य्यवर्णावंतस्था अक्षरद्वयं शांतं ।
पंचमवर्गतृतीयो ज टु ज ण नवास्तु च षंढाः स्युः ॥ अर्थ- सोलह कलाओं में सात पुल्लिंग, सात नपुंसक लिंग और दो स्त्री लिंग वाली हैं।
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मुनि प्रार्थना सागर
पुल्लिंगी अक्षर- अ उ ऊ ऐ ओ औ अं ये सात स्वर तथा क ख ग ट ठ ड ढ त थ प फ
ब ज झ ध म ष स और क्ष। इन १९ वर्णों को पुल्लिंगी कहा है। नपुंसकलिंगी- इ ऋ ऋलु ए अ: घ भ य र ह द ञ ण और ङ। ऐसे सात स्वर
व नौ व्यञ्जानों को नपुंसक लिंगी कहा गया है। स्त्री लिंगी- श च छ ल और व इन पांचों को स्त्रीलिंगी कहा है। तथा ई, आ
ये दो स्वर स्त्रीलिंगी हैं।
लिंग ध्यान संकेत अक्षर
पुल्लिंग स्त्रीलिंग
नपुंसक लिंग अआ इई उ ऊ ऋ ऋ अ उ ऊ
ई आ
इ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओऔ अं अः । ओ औ अं ऐ
ल ल ए अ: क ख ग घ ङ
क ख ग च छ ज झ ञ
च छ ट ठ ड ढ ण
ट ठ ड ढ त थ द ध न
त थ ध
जझ
चठ
प फ
ब भ म
प फ
ब म
ल व
।
य र ल व श ष स ह
ष स
क्ष त्र ज्ञ
१. क प वर्गा तुर्यवर्णा वान्तस्था अक्षर द्वयं शान्ति ॥ पञ्चम वर्ग २. क च वर्गा तुर्यवर्णा वान्तस्था अक्षर द्वयं शान्तं।
३. पञ्चम् वर्ग तृतीयाद्वि ङ ज ण न वान्ते पंडा स्युः। नोट- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र प्रत्येक का एक एक भाग हो तो यह मिलकर
मित्रता रूप से परिणत हो जाता है।
एक ही वर्ग में (सब मंत्र) अभीष्ट फल को नहीं देते। किन्तु एक वर्ग के अक्षर संघात को बचाकर ही फल देते हैं, ऐसा सर्वज्ञ देव ने कहा हैं। लिंग की अपेक्षा
पुल्लिंगाक्षरमित्रत्वं रामा क्षरसमं सदा।
नपुंसक मुदासीनमक्षरं तद्वयोरपि ॥ अर्थ- पुल्लिंग अक्षरों के साथ स्त्रीलिंग अक्षरों की सदा ही मित्रता होती है।
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
किन्तु नपुंसक उन दोनों में ही उदासीन रहता है।
मंत्रों के भेद व लक्षण १. अक्षर संख्या की अपेक्षा- (१) मंत्र के तीन भेद हैं- बीजमंत्र, मंत्र और मालामंत्र।
एक अक्षर से लगाकर नौ अक्षर तक के मंत्र को बीजमंत्र कहते हैं। दस अक्षर से बीस अक्षर तक के मंत्र को 'मंत्र' और बीस अक्षर से अधिक वालों को माला मंत्र
कहते हैं। (२) बीज मंत्र सदा ही सिद्ध हो जाते हैं और सदा ही फल देते हैं। मंत्र वाले मंत्र, मंत्री
(साधक)को यौवनावस्था में ही फल देते हैं। मालामंत्र वृद्धावस्था में फल देते हैं। (३) प्रकारान्तर से-सोलह अक्षरों तक माला मंत्र और उससे आगे कल्प कहलाते हैं।
कल्प इस लोक और परलोक दोनों स्थान में फल देते हैं। २. लिंग की अपेक्षा
लिंग की दृष्टि से मंत्र के तीन भेद हैं- स्त्री, पुरुष और नपुंसक। जिन मंत्रों के अंत में 'श्री व स्वाहा' शब्द होता है वह स्त्रीमंत्र कहलाते हैं। हूं, वषट्, फट् घे तथा स्वधा आदि पल्लव जिनमें होते हैं वे पुल्लिंगी मंत्र हैं और नमः अंत वाले मंत्र नपुंसक होते हैं। स्त्रीमंत्रों का प्रयोग पाप नष्ट करने में, पुरुष मंत्रों का उपयोग शुभ कर्म, मारण, उच्चाटन, निर्वषीकरण और वशीकरण में करें और उच्चाटनादि शेष कर्मों
में नपुंसक मंत्रों का प्रयोग करें। ३. आग्नेय और सौम्य की अपेक्षा
प्रणव, अग्नि और आकाश बीजों वाले आग्नेय मंत्र कहलाते हैं। दूसरे आचार्य सौर्यबीजों को सौम्य और फट अंत वालों को आग्नेय कहते हैं। आग्नेयों के ही अंत में 'नमः' लगा देने से वह सौम्य हो जाते हैं। मारण, उच्चाटन आदि में आग्नेय मंत्र बतलावें। शांत वशीकरण, पौष्टिक आदि कर्मों में सौम्य मंत्रों को बतलावें। आग्नेय मंत्र के लिए सायंकाल वाम स्वर और जागृत
मंत्र कहा है तथा सौम्य के लिए इससे उल्टा लेना चाहिये। ४. प्रबुद्ध व स्वाप की अपेक्षा
मंत्रों की दो अवस्थायें होती हैं- स्वाप (सोया हुआ) और बोध (जागता) आग्नेय की स्वाप दशा होती है। बायें बहना प्रबोध या बोध और दायें बहना स्वाप कहलाता है। यह एक दूसरे के विपरीत होते हैं। यदि मंत्र दोनों में बह रहा हो तो
दोनों ही भेदों को जानना चाहिये। केवल प्रसुप्त और केवल प्रबुद्ध सिद्ध नहीं होते। ५. मंत्रों का षडङ्गन्यास
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पण्डित पुरुष हृदय में 'नमः', मस्तक में 'स्वाहा', चोटी अर्थात शिखा स्थान में वषट् कवच में 'ॐ' और नेत्रों में क्रम से संवौषट् और फट् लगावें । जिस मंत्र के पृथक् अंग भेदों का वर्णन न हो बुद्धिमानी से ही उनकी कल्पना कर लें। एक मंत्र का षडङ्ग न्यास होता है । उस न्यास में पांच अंग का उपदेश भी किया जाता है। पंचांग मंत्र का नेत्र सहित अनुष्ठान करें ।
६. ॐ पंचपरमेष्ठी का वाचक है
ओंकार पंचपरमेष्ठी का द्योतक है। यह अरहंत, अशरीर (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय और मुनि का प्रथम अक्षर अ+ अ + आ + उ +म्- लेकर बनाया गया है। ७. मंत्रों के दस कर्म
१. शान्ति - जिस मंत्र से रोग, ग्रह पीड़ा, उपसर्ग शान्ति व भयशमन हो उसे शान्ति कर्म कहते हैं ।
२. स्तंभन - जिस मन्त्र के द्वारा मनुष्य, पशु-पक्षी आदि जीवों की गति, हलनचलन का निरोध हो, उसे स्तंभन कर्म कहते हैं ।
३. मोहन- जिस मन्त्र के द्वारा मनुष्य, पशु-पक्षी मोहित हों, उसे मोहन या सम्मोहन कहते हैं । मेस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म आदि प्रायः इसी के अंग है ।
४. उच्चाटन - जिस मन्त्र के प्रयोग से मनुष्य, पशु-पक्षी अपने स्थान से भ्रष्ट हो, इज्जत, मान-सम्मान खो दें उसे उच्चाटन कर्म कहते हैं। I
५. वशीकरण - जिस मंत्र के प्रयोग से अन्य व्यक्ति या प्राणी को वश में किया जा सके फिर साधक जो जैसा कहें सामने वाला या प्राणी वह वैसा करें उसे वश्यकर्म कहते हैं।
६. आकर्षण - जिस मंत्र के द्वारा दूर रहने वाला मनुष्य, पशु-पक्षी आदि अपनी तरफ आकर्षित हों, अपने निकट आ जायें, उसे आकर्षण कर्म कहते हैं ।
७. जृंभण- जिस मन्त्र के द्वारा मनुष्य, पशु-पक्षी प्रयोग करने वाले की सूचनानुसार कार्य करें उसे जृंभण कर्म कहते हैं ।
८. विद्वेषण - जिस मन्त्र के द्वारा दो मित्रों के बीच फूट पड़े, संबंध टूट जाये उसे विद्वेषण कर्म कहते हैं ।
९. मारण - जिस मन्त्र के द्वारा अन्य जीवों की मृत्यु हो जाय उसे मारण कर्म
कहते हैं
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१०. पौष्टिक - जिस मन्त्र के द्वारा धन, धान्य, सौभाग्य, यश व कीर्ति आदि में वृद्धि हो उसे पौष्टिक कर्म कहते हैं ।
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मंत्र यंत्र और तंत्र
अ
इ
उ
ऊ
ऋ
ॠ
- पद्मासन, गज और सर्प वाहन, श्वेत वर्ण, शंख, चक्र, पद्म और अंकुश का धारण करने वाला, दो मुख और आठ भुजायें, सर्पभूषण, अत्यन्त शोभित, बड़ी कान्ति, तीस सहस्र योजन वाला, विस्तीर्ण, स्त्रीलिंगी ।
ई
कमलासन, वराह वाहन, मंद गूमन अमृतरस, सुगन्ध, दो भुजायें, फल और कमल का धारक, श्वेतवर्ण, सौ योजन चौड़ा, दो सौ योजन ऊँचा, दिव्य शक्ति धारी, स्त्रीलिंग |
मंत्र अधिकार
ऌ
मुनि प्रार्थना सागर
अक्षरों का लक्षण और माहात्म्य
गोल आसन, पीतवर्ण, कुंकुमगंध, नमक का स्वाद, जम्बूद्वीप में विस्तीर्ण, चतुर्मुख, अष्ट भुजायें, काले नेत्र, मुकुटधारी, श्वेतवर्ण, मोतियों के आभूषण, अत्यन्त गंभीर और पुल्लिंग ।
ए
चौखूंटासन, कछुआ वाहन, हेमवर्ण, वज्र आयुध एक योजन लम्बा, दुगुना चौड़ा और ऊंचा, कषायला स्वाद, वज्र और वैडूर्य के वर्ण से अलंकृत, मंदस्वर, नपुंसक और क्षत्रिय ।
त्रिकोणासन, चकवा वाहन, दो भुजायें, मूसल और गदा आयुध, धूमवर्ण, कठोर और कटु स्वाद, सौ योजन चौड़ा, दो सौ योजन ऊँचा, कठोर गंध, वशीकरण और आकर्षण करना ।
त्रिकोणासन, ऊँट वाहन, रक्तवर्ण, कषाय रस, निष्ठुर गंध, फल और फूल को लिए हुए, दो भुजायें, नपुंसक और सौ योजन विस्तीर्ण ।
ऊँट का स्वभाव, ऊँट के जैसा स्वर, सौ योजन चौड़ा, दुगुना लम्बा, ऊँट के मुख की सुगंधि जैसा रस, नाग आभरण और सब विघ्न ।
- घोड़े के जैसा स्वभाव, रस और स्वर, सौ योजन चौड़ा, दुगुना लम्बा, शूरवीर वाहन, मूसल, माला और कमल लियें हुए, चार भुजायें, कमलासन, नाग आभरण, सब विघ्नों का करना, नपुंसक ।
पद्मासन, मोर वाहन, कपिलवर्ग, चार भुजायें, सौ योजन चौड़ा, दो सौ योजन लम्बा, चमेली की गंध, मधुर स्वाद, हेम आभरण, नपुंसक ।
मोतियों का मुकुट, यज्ञोपवीत और कुंडल आभूषण, माला और कमल लिए हुए, दो भुजायें, चमेली की गंध, पचास योजन चौड़ा और दुगुना लम्बा नपुंसक, क्षत्रिय और उच्चाटन रूप ।
जटा और मुकुटधारी, मोती का आभूषण, यज्ञोपवीत, शंख-चक्र कमल और परशु लिए हुए, चार भुजायें, दिव्य स्वाद, सर्वप्रिय सुगन्धि, शुभ लक्षण, गोल आसन और नपुंसक ।
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मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
ऐ
मुनि प्रार्थना सागर त्रिकोणासन, गरुड़ वाहन, त्रिशूल और गदा लिए हुए, दो भुजायें, अग्निवर्ण, निष्ठुर गंध, दूध का स्वाद, घर्घर स्वर, दस योजन चौड़ा, दुगुना लम्बा, वशीकरण और आकर्षण शक्ति रखना ।
ओ- बैल वाहन, तपे हुए सोने के समान वर्ण, सब शास्त्रों सहित, लोक और अलोक में व्याप्त, महाशक्ति, त्रिनेत्र, बारह सहस्र भुजायें, पद्मासन, सर्व देवताओं से पूज्य, सब मंत्रों को सिद्ध करने वाला, सब लोकों से पूज्य, सबको शांत करने वाला, सबके अनुग्रह रूप शरीर वाला, पृथ्वी - जल अग्नि - यजमान - आकाश- सूर्य और चंद्र आदि के करने वाला, (कर्ता), सब आभूषणों से युक्त, दिव्य स्वाद, सुगन्ध वाला, सबकी रक्षा करना, शुभ देह, स्थावर और जंगम का आश्रय, सब जीवों पर दया करना, परम अव्यय और पंच अक्षर गर्भित ।
औ - गोल आसन, चकवा वाहन कुंकुम गंध, पीतवर्ण, वज्र और पाश धारण किये हुए, चार भुजाएं, कसायला स्वाद, श्वेत मालादि पहने, स्तम्भन शक्ति, सौ योजन विस्तीर्ण, दुगुनी लम्बाई ।
पद्मासन श्वेत वर्ण, नीलकमल के समान सुगन्ध, कौस्मुभ मणि का आभरण, पद्म और पाश को लिए हुए, दो भुजायें, यज्ञोपवीतधारी, प्रसन्नमति, मधुर स्वाद, सौ योजन चौड़ा और दुगुना लम्बा ।
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अः - त्रिकोणासन, पीतवस्त्र, कुंकुम गंध, धूम्रवर्ण, कठोर स्वर, निष्ठुर दृष्टि नमकीन स्वाद, दो भुजाऐं, शूल आयुध, निष्ठुर गति, सुन्दर कृति, नपुंसक और शुभ कर्म बतलाना । क- चौखूंटा आसन, चार दांत वाले, हस्ती की सवारी, पीतवर्ण, सुगंधित मालाओं और सुगंधित लेप सहित, स्थिर गति, प्रसन्न दृष्टि, दो भुजाएं, वज्र और मूसल के आयुध, जटा और मुकुटधारी, सब आभूषणों से भूषित, सहस्र योजन चौडा, सहस्र योजन ऊँचा, पुल्लिंग, क्षत्रिय, इंद्रादि देवताओं वाली स्तम्भन - शांति- पौष्टिकवशीकरण और आकर्षण कर्म की शक्ति सहित ।
ख
ग
पिंगली वाहन, मोर की गर्दन के समान वर्ण, तोमर और शक्ति लिए हुए, दो भुजाएं, सर्पका यज्ञोपवीत, अच्छा स्वर, तीस योजन चौड़ा, आकाशगामी क्रिया, क्षत्रिय, सुगंधित माला और अनुलेप युक्त, अग्नि के भी नगर को कंपाने वाला, सोचे हुए मनोरथ को सिद्ध करने वाला और पुल्लिंग खकार का माहात्म्य है।
हंस वाहन, पद्मासन, माणिक का आभरण, इंगलीक वर्ण, ह्रदय को प्रसन्न करने वाला, श्वेत वस्त्र वाला, सुगंधित मालाओं और अनुलेप से युक्त, कुंकुम और चन्दन को पसन्द करने वाला, क्षत्रिय, पुल्लिंग, सबको शान्ति करने वाला, सौ योजन विस्तीर्ण, सब आभरणों से भूषित, फल और पाश को लिए हुए, दो भुजाएँ, यक्ष आदि देवताओं वाला, अमृत का स्वाद, प्रसन्न दृष्टि, गकार का माहात्म्य है।
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
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च
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ऊंट का वाहन, उलूक आसन, वज्र और गदा युक्त, दो भुजाएँ, धूम्रवर्ण, सहस्र योजन विस्तीर्ण, हंस का स्वर, कठोर गंध वाला, नमकीन स्वाद वाला, महाबली, उच्चाटन-छेदन मोहन और स्तम्भन कर्म करने वाला, पांच सौ योजन विस्तीर्ण, नपुंसक रौद्र शक्ति, क्षत्रिय, सबको शान्ति करने वाला और महाबलवान देवता रुप घकार का माहात्म्य है। सर्प को खाने वाला, दुष्ट स्वर वाला, बुरी दृष्टि, दुराचारी, करोड़ योजन चौड़ा, सहस्र योजन ऊँचा, कार्य का आसन, रात्रि को पसन्द करने वाला, मूसल- गदाशक्ति- मुष्टि, भुशुंडि और परशु लिए हुए, छ: भुजाएँ, नपुंसक, यम आदि देवता रूप ङकार की शक्ति है। सुन्दर हंस का वाहन, श्वेतवर्ण एक सौ करोड़ सहस्र योजन अर्थात् दस खरब योजन चौड़ा, वज्र वैडूर्य और मोतियों के आभूषणों से भूषित, शुभचक्र फल और कमल से युक्त, चार भुजाएँ, जटा और मुकुटधारी, अच्छे स्वर वाला, पुष्प प्रिय, ब्राह्मणी और यक्ष आदि देवताओं वाला, चकार की शक्ति है। मकर वाहन, कमलासन, बड़े घंटे का सा स्वर , उदय होते सूर्य के समान कांति, सहस्त्र योजन विस्तीर्ण, आकर्षण आदि रौद्र कर्म करने वाला, अच्छे मन वाला, सुगंधित, श्यामवर्ण, दिव्य आभरणों से भूषित, चार भुजाओं वाला, चक्र-वज्रशक्ति और गदा आयुध, सब कार्यों में सिद्धि करने वाला, गरुड़ देवता रूप छकार की शक्ति है। शूद्र, पुल्लिंग, परशु-पाश-पद्म और वज्र लिए हुए चार भुजायें, अमृत का स्वाद, जटा और मुकुटधारी, मोती और हीरे के आभूषणों से सुसज्जित, वशीकरण और आकर्षण कर्म करने वाला, सत्यवादी, सुगंध को पसन्द करने वाला, सौ कमलों के समान कांति और गरुणादि देवता रूप जकार का माहात्म्य है। पुरुष, वैश्य, धर्म-अर्थ काम और मोक्ष को आकर्षित करने वाला, कुबेर आदि देवता रूप, शंख और चक्र लिए हुए दो भुजायें, मोती और हीरों के आभूषणों से सुसज्जित, सत्यवादी, पीतवर्ण, पद्मासन, सुगंधित और अमृतस्वाद झकार की शक्ति है। काकवाहन, गंधक की गंध, कृष्ण वर्ण, दूत कर्म करने वाला, नपुंसक, सौ योजन विस्तीर्ण, त्रिशूल, परशु-निष्ठुर और गदा लिए हुए चार भुजाएँ, महाक्रूर स्वर, सब जीवों को भय करने वाला, शीघ्र चलने वाला, व्यभिचार कर्म से युक्त, नमकीन स्वाद, रौद्र दृष्टि और यम देवता रूप। गोल आसन, कबूतर का वाहन, कपिल वर्ण, वज्र और गदा लिए हुए दो भुजाएँ,
ज
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ञ
ट-
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मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
सौ योजन विस्तीर्ण, पुल्लिंग, मृदु स्वर, मन्द गंध वाला, नमकीन स्वाद, शीतल
स्वाभाव, सर्प का यज्ञोपवीत और चन्द्र देवता रूप। ठ- चौखूटा आसन, गज वाहन, शंख के जैसी प्रभा, वज्र और गदा लिए हुए दो
भुजाएँ, जम्बूद्वीप के बराबर विस्तीर्ण, अमृतस्वाद, पुल्लिंग, रक्षामोहन और स्तम्भन कार्य को करने वाला, सब आभरणों से भूषित क्षत्रिय देवता रूप। चौखूटा आसन, शंख के समान प्रभा, जम्बूद्वीप के बराबर विस्तृत, दूध और अमृत के समान स्वाद, पुल्लिंग, वज्र और पद्म लिए हुए दो भुजाएँ, रक्षा-स्तम्भ और मोहन करने वाला, कपूर के जैसी गंध, सब आभूषणों से भूषित, केले का स्वाद, अच्छे स्वर वाला, कुबेर देवता रूप। चौखूटा आसन, मोहन करने वाला, जम्बूद्वीप के बराबर विस्तृत, पुल्लिंग, परशुपाशवज्र-मूसल-भिण्डपाल, मुद्गर-धनुष-हल-बाण लिए हुए अष्ट भुजाएँ, अच्छा स्वाद, अच्छा स्वर, सिंह के शब्द जैसी महाध्वनि, रक्तवर्ण, ऊपर को मुख वाला, दुष्टों का निग्रह और शिष्टों (सज्जनों) का पालन करने वाला, सौ योजन विस्तीर्ण, सहस योजन घेरे वाला, उसके आधे परिणाम ऊंचा, जटा और मुकुटधारी, अच्छी गंध निश्वास युक्त, किन्नर और ज्योतिष देवों से पूज्य, महान् धीरता युक्त, प्रलयकाल की अग्नि के समान भयंकर, शक्ति, वशीकरण और आकर्षण करने
वाला, क्षणमात्र में सिद्ध होने वाला और अग्निदेवता रूप ढकार की शक्ति है। ण- त्रिकोण आसन, व्याघ्र, सौ योजन लम्बा, उसके आधा चौड़ा, छह भुजाएँ,
चन्द्रमा-तोमर-भुशुण्डि-भिंडपाल-परशु और त्रिशूल शस्त्रों वाला, कठोर गंध , शाप और अनुग्रह दोनों में समर्थ, रौद्रदृष्टि, नमकीन स्वाद, नपुंसक और वायु देवता
रूप। त- __ पद्मासन, गज वाहन, चमकते हुए आभूषण, सौ योजन लम्बा, उसके आधा चौड़ा,
चंपे की गंध, परशु-पाश-पद्म और शंख लिए हुए चार भुजाएँ, पुल्लिंग, चन्द्रादि देवताओं से पूजित, मधुर स्वाद, सुगंधप्रिय तकार की शक्ति है। बैल वाहन, आठ भुजाएँ, शक्ति-तोमर-परशु-धनुष-दंड-पाश-गदा-और चक्र का धारक, कृष्णवर्ण, कृष्णवस्त्र, जटा-मुकुटधारी, करोड़ योजन लम्बा, इसके आधा चौड़ा, क्रूर दृष्टि, कठोर गंध, धतूरे के रस को पसन्द करने वाला, सब काम और अर्थ को सिद्ध करने वाला, अग्नि देवतारूप थकार की शक्ति है। महिष वाहन, कृष्ण वर्ण, तीन मुख, छ: भुजाएँ, गदा-मूसल-त्रिशूल-भुशुण्डिवज्र और तोमर का धारक, करोड़ योजन विस्तीर्ण उसका आधा चौड़ा, दिगम्बर, लोह के आभूषण वाला, सर्प के यज्ञोपवीत वाला, निष्ठुर ध्वनि, कमल को छुड़ाने
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मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
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वाले, मन्त्र को सिद्ध करने वाले, यम देवता रूप, कृष्णवर्ण और नपुंसक दकार का माहात्म्य है। पुल्लिंग, कषायवर्ण, तीन नेत्र, चार योजन लम्बा चौड़ा, रौद्र कार्य को करने वाला, छह भुजाएँ, चक्र-पाश-गदा-भुशुण्डि-मूसल-वज्र और बाण के धारक, कृष्णवर्ण, काले सर्प का यज्ञोपवीत, जटा और मुकुट के धारक, हुंकार रूप महान् शब्द वाला, महान् शूर, कठोर धूएँ को पसन्द करने वाला, रौद्र दृष्टि, नैऋति देवता रूप धकार की शक्ति है। कृष्ण वर्ण, नपुंसक, त्रिशूल और मुद्गर के शस्त्रवाला, उठे हुए बालों वाला, सब शरीर चमड़े से लिपटा हुआ, रौद्र दृष्टि, कठोर स्वाद, कृष्ण, सर्प प्रिय, कौओ के जैसा स्वर, सौ योजन लम्बा, उससे आधा चौड़ा, बिनौले-गूगल-तिल के तेल और धूप को पसन्द करने वाला, दुर्जन प्रिय, रौद्रकर्म को धारण करने वाला, यम आदि देवता रूप। कृष्ण वर्ण पुल्लिंग, चमेली के फूल के समान गंध, दस सिर, बीस भुजाएँ, अनेक आयुध, मुद्रा में लीन, कोटि योजन चौड़ा, दुगुना लम्बा, तीन करोड़ योजन तक शक्ति वाला, गरुड़ वाहन, पद्मासन, सब आभरणों से भूषित, सर्प का यज्ञोपवीत पहने, सर्व देवताओं से पूजित, सर्व देवोमय, सब दुष्टों के नाश करने में प्रलय के पवन के समान, चन्द्र आदि देवता रूप पकार की शक्ति है। बिजली के समान तेज, पुल्लिंग, पद्मासन, सिंह वाहन, दस कोटि योजन लम्बा, उसके आधा चौड़ा, परशु और चक्र लिए हुए दो भुजाएँ, केतकी पुष्प की गंध, सिद्ध और विद्याधरों से पूजित, मधुर स्वाद, व्याधि-विष और दुष्ट ग्रहों को नष्ट करने वाला, सबको अत्यंत आनंद दायक महादिव्य शक्तियुक्त, शान्ति कारक, ईशान देवता रूप फकार का माहात्म्य है। इंगलिका के समान प्रभावाला, दस करोड़ योजन ऊँचा, उससे आधा लम्बाचौड़ा, मोतियों के आभूषण और यज्ञोपवीत का धारक, दिव्य आभरणों से भूषित, शंख-चक्र-गदा-मूसल-कांड-कण धनुष-बाण और तोमर को लिए, अष्ट भुजाएँ, हंस वाहन, कमलासन, बेर फल के जैसा स्वाद, गंभीर स्वर, चंपे की गंध, वशीकरण और आकर्षण के प्रिय, कुबेर देवता रूप। नपुंसक, दस सहस्र योजन ऊँचा, उससे आधा घेरा, निष्ठुर मनवाला, रूखे और कठोर स्वाद वाला, शीघ्र गति से चलने वाला, ऊर्ध्व मुख, तीन नेत्र, चक्र-शूलगदा और शक्ति लिए हुए चार भुजाएँ, त्रिकोणासन, व्याघ्र वाहन, लाल नेत्र, तीक्ष्ण, ऊर्ध्वकेश, विकृतरूप, रौद्रकांति, क्षणमात्र में शरण देने वाला, सिद्धि करने वाला,
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मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
य
नैऋत्य देवता रूप भकार की शक्ति है। उदय होते हुए सूर्य के समान कांति, अनंत योजन प्रभा, सर्व व्यापि, अनन्तमुख, अनन्तबाहु, भूमि आकाश और समुद्र तक दृष्टि, सर्व कार्य का साधक, अमर और दीपन करने वाला, सब गंध की मालाओं और अनुलेप युक्त, धूप-चरु और अक्षत को पसन्द करने वाला, सब देवताओं में रहस्य रूप, सब काम करने वाला, प्रलय काल की अग्नि के समान चमकने वाला, सबका स्वामी, पद्मासन, अग्निदेवता रूप मकार की शक्ति है। नपुंसक, भूमि-आकाश और सब दिशाओं में व्याप्त, अरूपी, शीघ्र और मंद दोनों प्रकार की गतिवाला, प्रसन्नता युक्त, व्यभिचार कर्मप्रिय, सब देवताओं की अग्नि तथा प्रलय की अग्निरूप, तीव्र ज्योतिवाला, अनंतमुख, अनंत बाहु, सब कर्मों का कर्ता, सर्व लोकप्रिय, हरिण वाहन, गोलासन, अंजनवर्ण, महामधुर ध्वनि युक्त, वायव्य देवता रूप यकार की शक्ति है। नपुंसक, सर्वव्यापि, बारह आदित्यों के समान प्रभायुक्त, अग्निस्वरूप कोटि योजन तक कांति वाला, सब लोकों का कर्ता, सर्व होम प्रिय, रौद्र शक्ति, स्त्रियों के लिए पांच बाण, दूसरे की विद्या का नाशक, अपने कर्म का साधक और मोहन करने वाला, त्रिकोणासन, अग्नि देवता रूप रकार की शक्ति है। पीतवर्ण, वज्र-चक्र-शूल और गदा लिए हुए चार भुजाएँ, हस्तिवाहन, स्तम्भन और मोहन करने वाला, जम्बूद्वीप प्रमाण विस्तृत, मंद गति को पसन्द करने वाला, महात्माओं लोक अलोक से पूजित, सब जीवधारी रूप, चौंखूटा आसन, पृथ्वी को जीतने वाला, इन्द्र देवता रूप लकार की शक्ति है। श्वेतवर्ण, बिंदु सहित, मधुर नमकीन स्वाद नपुंसक, मकर वाहन, पद्मासन, वश्यआकर्षण, निर्विष और शांत कर्मों को करने वाला, वरुणादि देवतारूप वकार की शक्ति है। रक्तवर्ण, दस सहस्र योजन लम्बा, उसका आधा चौड़ा, चंदन की गंध, मधुर स्वाद, मधुर रस, चकवे पर चढ़े हुए, कमलासन, शंख-चक्र-फल और पद्म लिए हुए चार भुजाएँ, प्रसन्न दृष्टि, अच्छे मन वाले, सुगंधित धूपप्रिय, लाल हार, सुन्दर आभूषण तथा जटा और मुकुट पहने हुए, वश्य-आकर्षण-शांतिक और पौष्टिक कर्मों के कर्ता, अत्यंत प्रकाशित, विद्या को धारण करने वाले, चन्द्र आदि देवता रूप शकार की शक्ति
ल
व-
श
ष
पुल्लिंग, मोर की शिक्षा के समान वर्ण, फल और चक्र लिए दो भुजाएँ, प्रसन्न दृष्टि, एक योजन लम्बा, इसका आधा चौड़ा, खट्टा रस, सुंदर गंध, कूर्मासन,
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मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
कूर्मवाहन, दृष्टि प्रिय, सब आभरणों से भूषित, स्तम्भन और मोहनकारक, इन्द्र आदि देवता रूप।
स
मंत्र अधिकार
ह
पुल्लिंग, श्वेतवर्ण, वज्र-चक्र- शंख और गदा लिए हुए चार भुजाएँ, एक पक्ष योजन प्रमाण, मधुर स्वर, हीरे-मोती और वैडूर्य के आभूषण, सुगंधित माला, और अनुप से युक्त, श्वेत वस्त्र प्रिय, सब कर्मों के कर्ता, सब मंत्रों से पूजित, महा मुकुटधारी, वश्य और आकर्षण के कर्ता, प्रसन्न दृष्टि, हंस वाहन, कुबेर देवता रूप सकार की शक्ति है।
नपुंसक, सर्वव्यापी, श्वेतवर्ण, श्वेतगंध प्रिय, श्वेतमाला और अनुलेप से युक्त श्वेत वस्त्रप्रिय, सब कर्मों के कर्ता, सब मंत्रों में प्रधान, नव देवताओं से पूजित, महान कांति वाले, अनेक मुद्राओं शस्त्र और युक्तियों से युक्त, अचिंत्य गति वाले, चलायमान को भी विजय करने वाले चिंतित मनोरथ सब देवताओं का आकर्षण करने वाले, भूत भविष्य वर्तमान ऐसे तीन लोक और तीन काल को देखने वाले सब लक्ष्मी आदि देवता रूप हकार की शक्ति है।
क्ष - पुल्लिंग, पीतवर्ण, जम्बूद्वीप के समान ध्यान करने योग्य, असंख्यात द्वीप और समुद्रों में व्यापी, एक मुख, वायु के समान गंभीर, वज्र -पाश- मूशल - भुसुण्डि - गदा-शंख और चक्र लिए आठ भुजाएँ, गज वाहन, चौखूटां आसन, सब आभरणों सेभूषित, जटा और मुकुट के धारक, सब लोगों से पूजित, स्तम्भन रूप सुगंधित मालाओं को पसन्द करने वाले, सबकी रक्षा करने वाले, सर्वप्रिय, सर्वकाल के ज्ञान वाले, माहेश्वर, सब यंत्रों को पसन्द करने वाले, रुद्र और अग्निदेवताओं से पूजित क्षकार की शक्ति है ।
मंत्रों के जप में गूंथने के भेद
मंत्रों को जपने के निम्नलिखित तेरह प्रकार हैं जिनको विन्यास कहते हैं- ग्रथित, सम्पुट ग्रस्त, समस्तयायोग, विदर्भित, आक्रान्त, आद्यान्त, अगर्भित या गर्भस्थ, सर्वतो मुख, विदर्भ, विदर्भ ग्रसित, रोधन और पल्लव।
ग्रथित- साध्य के नाम के एक अक्षर के साथ मंत्र के एक एक अक्षर को एक बार प्रयोग करने को ग्रथित कहते हैं । यह वश्य और आकर्षक कर्मों में फलदायक होता है। सम्पुट - जिसमें आदि में मंत्र, फिर साध्य का नाम और अन्त में फिर मंत्र बोला जाये उसे सम्पुट कहते हैं। यह शांति और पुष्टि करने वाला तथा तीन लोक के ऐश्वर्य को देने वाला है।
ग्रस्त - जिसमें आदि और अन्त में आधा-आधा मंत्र और बीच में साध्य का नाम हो उसे ग्रस्त कहते हैं। इसको मारणादि सभी अशुभ कर्मों में प्रयोग किया जाता है।
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मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
समस्तयायोग- जिसमें पहले नाम और फिर मंत्र बोला जावे उसे समस्तया योग कहते हैं। विदर्भित- जिसमें मंत्र के दो-दो अक्षर और एक-एक साध्य के नाम का अक्षर आवे उसे
विदर्भित कहते हैं। यह वशीकरण करता है। आक्रान्त- यदि साध्य का नाम चारों ओर मंत्र के अक्षरों से घिरा हुआ हो तो उसे आक्रान्त
कहते हैं। यह सब कार्यों की सिद्धि, स्तम्भन, आवेशन, वश्य और उच्चाटन
कर्मों को करता है। आद्यन्त- जिसमें आदि में एक बार पूरा मंत्र, मध्य में साध्य का नाम और अन्त में फिर पूरा
मन्त्र लगाया जावे उसे आद्यन्त कहते हैं, यह विद्वेषण करता है। आदि और अन्त में दो-दो बार मंत्र का प्रयोग करके बीच में एक बार साध्य का नाम रखने को गर्भस्थ या गर्भित कहते हैं। यह मारण, उच्चाटन, वश्य, नदी स्तम्भन, नौका
भंजन और गर्भ स्तम्भन में प्रयोग किया जाता है। सर्वतोमुख- जिसमें आदि और अंत में तीन-तीन बार मंत्र जपा जावे और नाम बीच में
एक ही बार रहे उसे सर्वतोमुख कहते हैं। विदर्भ- सब उपसर्गों को शांत करने वाला सब सौभाग्यों को करने वाला तथा देवताओं
को भी अमृत देने वाला है। जिसमें आदि में मंत्र और फिर नाम और फिर मंत्र इस प्रकार तीन-तीन बार किया गया हो उसे विदर्भ कहते हैं। यह सब
व्याधियों को नष्ट करने वाला तथा भूत और मृगी के रोग को दूर करता हैं। विदर्भ ग्रसित- जिसमें साध्य के नाम के एक-एक अक्षर को विदर्भ रूप में करके पहले के
समान आदि और अन्त में प्रयोग किया जावे उसे विदर्भ ग्रसित कहते हैं। यह
सब कार्यों को करने वाला और सभी ऐश्वर्यों के फलों को देने वाला है। रोधन- नाम के आदि, मध्य और अन्त में मंत्र रखने को रोधन कहते हैं। मंत्र के अन्त में __ नाम रखने को पल्लव कहते हैं।
__ बीजों का प्रयोजन ये अक्षर स्त्रीलिंगी हैं
इ, ऊ, व, रू,ण। ये अक्षर विकल्प से स्त्रीलिंगी हैं- ऋ ऋ लू लृ ङ ज ण न म द ए ऐ उ ऊ। ये अक्षर विकल्प से नंपुसकलिंगी हैं- ज, य, म। शेष अक्षर पुल्लिगीं हैं।
इस प्रकार अक्षरों के तीन प्रकार के गण करें। नाम का विकल्प से प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार नपुंसक अक्षर कहेंगे। ई, ष, ल लू और ऊ पीत अक्षर हैं।
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मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
ऋ ,ऋ, ष, ण, य, द, क्ष और र कठिन भेद और कार्य-कारण संबंध वाले कार्यों को करते हैं। शेष अक्षर मिले हुए तिल और चावलों के समान रहते हैं। मंत्र को जानने वाले मनुष्य अपनी बुद्धि से काम लें। अकार आकार का प्रतिषेधक है। अकार बिन्दु सहित होने पर शांतिक, पौष्टिक, वश्य और आकर्षण कर्मों को करता है। उ ऊ ऋ ऋ ए ऐ और अनिर्विष कर्म तथा व्यभिचार करते हैं। अकार सबका उच्चाटन करता है। खकार निर्विष कर्म को और विकल्प से वशीकरण करता है। धकार वशीकरण; किन्तु विकल्प से स्तंभन, भेदन और व्यभिचार कर्मों को करता है। चकार और छकार शांतिक और पौष्टिक को करता है और विकल्प से भेद और व्यभिचार को
करता है। ज झ निर्विष करता है और विकल्प से स्तंभन और व्यभिचार करता है।
आकर्षण को और विकल्प से व्यभिचार को भी करता है। वश्य और व्यभिचार को करता है व्यभिचार को करता है
शांति और पौष्टिक करता है। ____ व्यभिचार करता है।
व्यभिचार करता है। शान्तिक और पौष्टिक करता है। क्षोभ और स्तंभन करता है। सर्व कर्मों को और विकल्प से सब सिद्धि को करता है। सब व्यभिचार के कर्म और विकल्प से आकर्षण करता है। स्तंभन, वशीकरण, मोहन तथा विकल्प से निर्विष करता है। निर्विष करता है। शांतिक, पौष्टिक, वश्य और आकर्षण करता हैं। स्तंभन और मोहन करता है। वाणी की सिद्धि करता है। सब कार्य करता है। सब योगों को करने वाला है।
= 83
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________________
मंत्र यंत्र और तंत्र
मन्त्री को अक्षर के प्रति सभी प्रयत्न करने चाहिये ।
क्र.
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
बीजाक्षर
अं
आं
इं
3.
१०.
११. एं १२. ऐं
१३. ओं
१४. औं
१५. अं
१६.
अः
१७. कं
खं
१८.
१९. गं
२० घं
२१. डं
२२. चं
२३. छं
मंत्र अधिकार
२४. जं
बीजाक्षरों की सामर्थ्य
मुनि प्रार्थना सागर
बीजाक्षरों के कार्य
मृत्यु नाशन, अतिबली, गंभीर
आकर्षण, महाद्युति कारक
पुष्टिकर, दिव्य शक्ति कारक
आकर्षण
बलकारक, वशीकरण, आकर्षण
उच्चाटन
क्षोभणं, सर्वविघ्न विनाशक
मोहन, व्यभिचार, मोहन
विद्वेषण, सर्वविघ्नकारी
उच्चाटन कारक
वश्य, शुभकारक
पुरुष वश्य
लोक वश्य
राजा वश्य, स्तम्भन शक्ति
नपुं.
नपुं.
हस्ति वश्य, प्रसन्न, अतिमधुर मृत्यु नाशक, शुभकर्म शासन
नपुं.
विष बीज, स्तंभन शान्ति, पौष्टिक, वश्याकर्षणकारी नपुं.
स्तंभन, चिन्तित मनोरथकारी
नपुं.
गणपति, सर्वशान्तिकर
पु.
स्तंभन, उच्चाटन, छेदन, मोहन, सर्वशान्तिकर,
महाशक्ति
असुर, दुर्दृष्टि, दुष्टस्वर
सुरबी
लाभ और मृत्यु नाशक, आकर्षणादि रौद्रकर्म, सर्वकार्यसिद्धि कारक
लिंग
ब्रह्मराक्षस और मृत्यु नाशक, वश्याकर्षण, सत्यवादी
84
(b)
पु
स्त्री
नपु
स्त्री
स्त्री
स्त्री
नपुं.
नपुं.
नपुं.
नपुं.
नपुं.
नपुं.
........
नपुं.
नपुं.
नपुं.
वर्ण
हेम
श्वेत
हेम
श्वेत
धूम्र
रक्त
कपिल
पीत
पीत
?
अग्नि
स्वर्ण
पीत
श्वेत
धूम्र
पीत
धूम्र
श्वेत
श्याम
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________________
मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
||
२५. झं
|
पीत कृष्ण कपिल
२७. टं
في
कि v foy
शंख
३०.
ढं
रक्त
३१. णं
कृष्ण -
.
३२.
त
३३. थं ३४. दं ३५. धं
चन्द्र-बीज, काम्य और धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को देता है, राज वश्य और आकर्षण कारक पु. मोहन, महाक्रूरस्वर, सर्वजीव भयंकर क्षोभन और चित्र कलंककारी, मृदुस्वर चन्द्रबीज विष मृत्यु, रक्षा, स्तंभन, मोहन, कार्यसिद्धि कारक गरुड़ बीज, विष नाशक, रक्षा, स्तंभन, मोहन, शुभस्वर
___ - कुबेर बीज, उत्तराभिमुख होकर चार लाख जप से सिद्ध होता है। धन-धान्य समृद्धि, शंख और पद्मनिधि को करने वाला, दुष्टनिग्रह, रुद्रशक्ति, वश्याकारी - असुर बीज और तीन लाख जप से सिद्ध होता है। शापानुग्रहहारी
नपुं. अष्टवसुधा बीज, जपात् धन-धान्य समृद्धि कारक।पु. यमराज बीजं, मृत्युनाशनम्, सर्व कामादि साधन - दुर्गा बीज, वश्य-पुष्टिकारक
नपुं. सूर्य बीजं, जय सुखकरं, रौद्र कार्यकारक, रौद्रदृष्टि - ज्वर बीजं, स्वर देवतां रौद्र कार्यकारक, रौद्रदृष्टि - वीरभद्र बीज, सूर्य विघ्न विनाशनं विष्णु बीज, धन-धान्य वर्द्धक, व्याधि, विष, । दुष्टग्रह विनाशक, शान्तिकारक ब्रह्म बीज, वात-पित्त-कफ-श्लेष्म नाशक वश्याकृष्टि प्रसंगप्रिय भद्रकाली बीज, भूत-प्रेत-पिशाचभयोच्चाटनं रौद्रकान्ति मालाग्नि रुद्र बीज, स्तंभन, मोहन, विद्वेषणकर भूत-प्रेत-पिशाचाद्यावाहननं अष्ट महा-सिद्धिकर, सर्वकार्य साधक वायु बीजं, उच्चाटन, व्यभिचार कर्मप्रिय, सर्वलोक प्रिय
नपुं. = 85 =
कृष्ण कषाय कृष्ण
.
३६.
३७.
पं
व.
३८.
फं
३९.
बं
४०.
भं
४१.
मं
४२. यं
अरूपी
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________________
मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
RI.
.
.
व. व.
४८.
.
४३. रं आग्नेय बीज, उग्रकर्म कार्यकारक, परविद्याछेदक, स्तंभादि कारक
नपुं. आदित्य ४४.
इन्द्रबीज धन-धान्य सम्पत्कर, स्तंभन, मोहनकारक - पीत वरुणबीज, विष-मृत्यु नाशक, वश्याकर्षण, शान्तिकारक
- श्वेत ४६. शं सूर्यबीज, एक लाख जप से श्री कारक, धर्म, अर्थ
काम व मोक्ष प्रदाता, वश्याकर्षण, शान्ति, पौष्टिक - ४७. षं वाग्बीज, धर्मार्थकाम-मोक्ष कारक, स्तंभन, मोहन पुं. पीतमाबील
लक्ष्मीबीज-इसका एक लाख जप करने से लक्ष्मी की
प्राप्ति होती है, सर्वकार्यकर्ता, वश्यकर्ता ४९. हं
शिवबीज, दस हजार जप से कार्य सिद्धि, सर्वकर्मकर्ता, चिन्तित मनोरथसाधक ___ नपुं. - नृसिंह बीज, दस हजार जप से मृत्यु नाश होता है, सर्वरक्षक, सर्वप्रिय, त्रिकालज्ञान
पु. पीत नोट- इन अक्षरों की सिद्धि पृथक-पृथक की जाती है। ह्रींकार को मध्य में और अकारादि
क्ष पर्यंत अक्षरों को लिखकर उनमें अक्षरों की मणिरूप स्थापना कर उनमें जप करने पर सब कार्य सिद्ध होते हैं।
वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर सर्व- शक्तिशाली मंत्र है। उसके गुनने व मनन करने से विशिष्ट शक्ति का उपार्जन होता है, इससे इष्ट कर्म की सिद्धि होती है और विविध प्रकार के भय से रक्षण होता है। हम सिद्धियां व चमत्कार चाहते हैं, सामान्य परिश्रम से ही सब कुछ प्राप्त करना चाहते हैं और जब निष्फल हो जाते हैं तो निराश होकर सभी ओर से आस्थाहीन बन जाते हैं- मंत्रों पर, शब्दों पर विश्वास नहीं होता, परन्तु पूरी तरह विषय को न समझ सकने के कारण हमें भटकाव हो जाता है। वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर के उच्चारण से मनुष्य के शरीर पर विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। ओकल्ट रिसर्च कॉलेज के प्रिंसिपल करमकर ने एक बार बताया कि 'र' अक्षर को बिन्दु सहित यानी 'र' का एक हजार बार उच्चारण करें तो आपके शरीर की उष्णता एक डिग्री बढ़ जाएगी व 'ख' को बिन्दु सहित उच्चारण करते रहें तो आपके लीवर की शिकायत मिट जाएगी। इन्हीं अक्षरों से बीजाक्षर बनते है और उन्हीं से मंत्र और वे अपना विशिष्ट कार्य करते हैं। यहां यह और स्पष्ट करना चाहता हूं कि प्रत्येक अक्षर को अनुस्वार लगाने के बाद ही मनन करना चाहिए जैसे- अं ऊं कं सं दं आदि। प्रत्यक वर्ण को ह्रींकार से युक्त करके जप करने से शीघ्र फल की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार ह्रीं रं ह्रीं रं ह्रीं रं ह्रीं आदि।
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मंत्र यंत्र और तंत्र
बीजाक्षरों का संक्षिप्त कोष
ॐ -
ऐं
क्लीं
सौं ह्सौं हसौं
हो
क्षि
प
स्वा
हा :
हीं
कौ
आ
फटू
वषट्
वोषट्
संवौषट्
ब्लूं
ब्लै
ग्लौं
क्ष्वीं
द्रां द्रीं क्लीं - ब्लूं
हूं
स्वाहा
स्वधा
नमः
श्रीं
अर्हं
इं
मंत्र अधिकार
प्रणव, ध्रुव, विनय और तेजस् बीज है।
वाग् और तत्त्व बीज है ।
काम - बीज है।
यह शक्ति बीज है।
शिव और शासन बीज है ।
पृथ्वी बीज है।
अप बीज है।
वायु बीज है।
आकाश बीज है।
माया और त्रैलोक्य बीज है। अंकुश और निरोध बीज है ।
- बीज है।
विसर्जन और चलन बीज है।
दहन बीज है।
आकर्षण और पूजा ग्रहण बीज है।
आकर्षण बीज है।
पाश
द्रावण बीज है।
आकर्षण बीज है।
स्तंभन बीज है।
विषापहार बीज है ।
ये पांच द्रावण बीज हैं।
द्वेष और विद्वेषण बीज है ।
हवन और शान्ति बीज है ।
पौष्टिक बीज है।
शोधन बीज है।
लक्ष्मी बीज है I
ज्ञान बीज है।
विष्णु बीज है।
मुनि प्रार्थना सागर
87
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________________
मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
या
ब्लौं
ग्लैं
क्षः फट् -
शस्त्र बीज है। यः
उच्चाटन और विसर्जन बीज है।
विद्वेषण बीज है। श्लीं
अमृत बीज है।
सोम बीज है। हंस
विष को दूर करने वाला बीज है। म्यूँ
पिंड बीज है। क्षं
कूटाक्षर बीज है। स्वी, क्ष्वीं, हंस:- वाग्भव बीज है। क्षिप ॐ स्वाहा- शत्रु बीज है। हाः
निरोधन बीज है। ठः
स्तंभन बीज है। विमल पिंड बीज है। स्तम्भन बीज है।
वध बीज है। द्राँ द्रीं
द्रावण संज्ञक हैं। ह्रां ह्रीं हूं, हैं ह्रौं ह्र:- शून्य रूप बीज हैं। बीजाक्षरों के लिए कुछ सांकेतिक शब्द:ॐ तार
ध्रुव,वेदादि,नैगमादि श्रुत्यादि। ह्रीं
माया, लज्जा, शक्ति, शिव, पार्वती, भुवनेश, गिरिजा- नाम
और बीज है।
वर्म, कवच, त्रितत्त्व, क्रोध, छंद बीज। ग्लौं
नर बीज ।
कूच दीर्घ वर्म, दीर्घ तनुच्छद है। नमः
शिरोमं, अग्निवाच, वनिता, अग्निप्रिया, दहनप्रिया, पावक, द्विठ:
ठद्वयं है। आं ह्रीं कों
ये तीन पाशादि- बीज हैं। एं, ह्रीं, श्रीं
त्रिबीज है। तारा बीज है।
: 88
घे
hotes
त्री
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________________
मंत्र यंत्र और तंत्र
त्रा
स्त्रीं
स्वीं
क्ष्मं
जं
नः
य:
ऐं
क्रम वार तिथि
१. रवि
२.
३.
ऋतु विचार
एक दिन की साठ घड़ियों का उपयोग छहों ऋतुएं भी करती हैं । प्रत्येक दिन में ६ ऋतुएं इस प्रकार आती हैं- पूर्वाह्न सूर्योदय से चार घंटे तक लगभग ११ बजे तक के समय को बसंत ऋतु कहते हैं । मध्याह्न लगभग ११ बजे से ३ बजे तक के समय को ग्रीष्म ऋतु कहते हैं। ३ बजे से सूर्यास्त तक को शिशिर ऋतु, पूर्व रात्रि लगभग सूर्यास्त से चार घंटे तक लगभग ११ बजे तक के समय को वर्षाऋतु, मध्य रात्रि लगभग ११ बजे से तीन बजे तक को शरद ऋतु और रात्रि के अन्त लगभग तीन बजे से सूर्योदय तक के समय को हेमन्त ऋतु कहते हैं।
१-८-९
५.
सोम २-९
मंगल ३,६,८,१३
४. बुध २, ७, १२
चंडी बीज है।
स्त्री बीज है।
इन्दु बीज है।
पीठ बीज है I
मंत्र अधिकार
सृष्टि बीज है।
मल बीज है।
अचल बीज है।
वाग् बीज है।
गुरु ५,१०,११,१५
६. शुक्र १,६,११,१३
मुनि प्रार्थना सागर
शुभ तिथि, वार एवं नक्षत्र
नक्षत्र
हस्त, पुनर्वसु, रेवती, मृगसिर, तीनों उत्तरा पुष्य, मूल, अश्विनी, धनिष्ठा
मृगसिर, रोहिणी, अनुराधा, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, श्रवण, शतभिषा, पुष्य
अश्विनी, रेवती, उत्तराभाद्र, मूल, विशाखा, उत्तरा फा., कृतिका, मृग, पुष्य, आश्लेषा
अनु, श्रवण, ज्येष्ठा, पुष्य, हस्त, कृतिका, रोहिणी, पूर्वाषाढ़, उ.फा.
पुष्य, अश्विनी, पुनर्वसु, पूर्वा फा., पूर्वाषाढ़, पू.भा., आश्लेशा, धनि, विशा, रेवती, स्वा., विश., अनु. । रेवती, अश्विनी, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, अनु., मृगसिर, श्रवण, धनिष्ठा, पू.फा., पुनर्वसु ।
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________________
मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
७. शनि ४,८,९,१४ रो.,श्र., धनिष्ठा, अश्विनी, स्वाती, पुष्य, अनुराधा,
मघा, शतभिषा।
बीजाक्षरों के भेद प्राकृत भाषा की अपेक्षा तेतीस व्यंजन, सत्ताईस स्वर और योगबाह (जोडाक्षर) चार कुल मिलकर चौसठ मूल वर्ण होते हैं। संस्कृत में सोलह स्वर, पच्चीस व्यंजन, अन्तस्थ चार, ऊष्म चार, क्ष, त्र, ज्ञ ये तीन, मिलाकर ५२ स्वर और व्यंजन होते हैं। इन सभी बीजाक्षरों की उत्पत्ति पंच नमस्कार मंत्र से ही हुई है, सर्व मातृका ध्वनि इसी मंत्र से उद्भूत है। इन सब में प्रधान 'ॐ' बीज है। आत्मवाचक है, इसी को तेजोबीज (अग्निबीज) काम बीज और भावबीज भी कहते हैं। यह ॐ बीज भी समस्त मंत्रों का सार है। कीर्तिवाचक
विद्वेष रोषवाचक शान्तिवाचक
प्रौं-प्री- स्तम्भनवाचक कल्याणवाचक
क्लीं
लक्ष्मी प्राप्ति वाचक मंगलवाचक
तीर्थंकर नाम- मंगलवाचक सुखवाचक
क्ष्वीं- योगवाचक यक्ष और यक्षणियों के नाम
कीर्ति और प्रीतिवाचक वशीकरण, उच्चाटन में
'हूँ' का प्रयोग करना चाहिए। मारण में
'फट' का प्रयोग करना चाहिए। स्तम्भन, विद्वेषण, मोहन में,
'नम:' का प्रयोग करना चाहिए। शान्ति और पौष्टिक में
'वषट्' का प्रयोग करना चाहिए। मंत्र शास्त्र के बीजों का विवेचन करने पर आचार्यों ने उनके रूपों का निरूपण करते हुए लिखा हैअ आ ऋह श य क ख ग घ ङ
यह वर्ण वायु तत्त्व संज्ञक हैं। इ ई ऋ च छ ज झ ञ क्ष र थ
यह वर्ण अग्नि तत्त्व संज्ञक हैं। ल व ल उ ऊ त ट द ड ण
यह वर्ण पृथ्वी तत्त्व संज्ञक हैं। ए ऐ ल थ ध ठ ढ ध न स
यह वर्ण जल तत्त्व संज्ञक हैं। ओ औ अं अः प फ ब भ म -
यह वर्ण आकाश तत्त्व संज्ञक हैं। ____ मंत्र के अन्त में 'स्वाहा' शब्द रहता है। जो पाप नाशक, मंगलकारक तथा आत्मा की आन्तरिक शान्ति दृढ करने वाला है। मंत्र को शक्तिशाली करने वाले अन्तिम ध्वनि मेंस्वाहा -स्त्रीलिंग, वषट् फट्- पुल्लिंग तथा नमः शब्द नपुंसकलिंग होता है।
जप में दिशा-कालादि का विचार
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मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
टन वश्य
उच्चाटन वायव्य अपराह्न
शान
मुद्रा
वज्र
खड्ग
वज्रासन
स्वधा
धूम
काले
श्वेत
वर्ण
पीत
धूम गूढ़ धूम्र समस्त आद्यंत गर्भित
अष्टकर्मों के जप में दिशादि का चार्टनं. कर्म स्तंभन विद्वेषण आकर्षण पौष्टिक शांतिक १. दिशा पूर्व
आग्नेय दक्षिण नैऋत्य पश्चिम समय पूर्वाह्न मध्याह्न पूर्वाह्न अंतरात्रि मध्य रात्रि
गदा मूशल पाश कमल ज्ञानमुद्रा ४. आसन विकटासन कुर्कुटासन दंडासन पद्मासन पद्मासन पल्लव ठः ठः
वौषट्
स्वाहा ६. वस्त्र पीत
उदयार्क श्वेत श्वेत पुष्प पीत
अरुण
श्वेत
उदयार्क श्वेत श्वेत विन्यास आक्रांत पाद्यांत ग्रंथित संपुट श्वेत गर्भित रोधन
सर्वतो मुख विदर्भ
ग्रसित १०. प्राणायाम कुंभक रेचक पूरक पूरक पूरक ११. माला नीम के फल रीठे के फल कमल के बीज - १२. मणियें स्वर्ण पुत्रजीवि मूंगा मोती स्फटिक १३. अंगुली कनिष्ठा अंगुष्ठा तर्जनी कनिष्ठा मध्यमा मध्यमा १४. हाथ दक्षिण दक्षिण वाम दक्षिण दक्षिण १५. स्वर दक्षिण
वाम वाम नं. कर्म स्तंभन विद्वेषण आकर्षण पौष्टिक शांतिक १६. ऋतु
ग्रीष्म बसंत हेमन्त शरद् १७. मण्डल
वायु
जल जल १८. योग
चर स्थिर पूरक पूरक १९. करण -
वव, बालव
कौलव २०. दानोंकीसंख्या १५
१०८ १०८ १०८ २१. दिवस रवि, शनि शुक्र, शनि
रवि, शनि बुध, गुरु मंगल
मंगल - २२. पक्ष कृष्ण
कृष्ण शुक्ल २३. तिथि अष्टमी, पूर्णा ८,९,१०,११
४,८,९,१४ २,३,५,७ अमावस्या २४. नक्षत्र अश्विनी, वैवाहिक पुष्य, उत्तरा
आश्ले.मघा-ज्येष्ठा
मारण उत्तर पर्वाह्न संध्या पाश स्वस्तिकासन भद्रासन वषट् अरुण रक्त काले रक्त कृष्ण मन्थन सस्त आर्चत गर्भित गर्भित पल्लव विदर्भित पूरक रेचक कमल के बीज - मूंगा पुत्रजीवी अनामिका तर्जनी वाम दक्षिण वाम वश्य मारण बसन्त शिशिर जल अग्नि स्थिर
रेचक
दक्षिण
वाम
दक्षिण
पुत्रजीवि तर्जनी दक्षिण दक्षिण उच्चाटन वर्षा वायु चर
बसंत पृथ्वी
अग्नि
१५ ।। शनि
गुरु, सोम
रवि, शनि,
मंगल
शुक्ल
कृष्ण
कृष्ण ८,१४
वैनाशिक
पुष्य,उत्तरा
वैनाशिक
___ मूला, रेवती
सिंह
वृश्चिक
२५. लग्न २६. तत्त्वोदय २७. अक्षर - ल
वृश्चिक पृथ्वी पृथ्वी बीज ह
आकाश अग्नि आकाश बीज जलबीज व स
जल चंद्रबीज स
वृश्चिक वायु वायुबीज व
- अग्नि जलबीज र
अग्निबीज
य
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________________
मंत्र अधिकार मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर मंत्र सिद्ध (जाप) करने की विधि मंगलाष्टक पढ़ें, पात्र शुद्धि (स्वयं की शुद्धि) दिग्बंधन, रक्षा मंत्र, रक्षा सूत्र, यज्ञोपवीत धारण, दीपक स्थापना, कलश स्थापना, यंत्र स्थापना, यंत्राभिषेक, पूजा, आरती, आसन गृहण, जाप संकल्प और फिर मौन ग्रहण करके मन्त्र का उत्कीलन करके एवं मन्त्र की प्राण प्रतिष्ठा करके ही जाप शुरु करें। नोट- मंत्र आराधना के पूर्व व पश्चात् कायोत्सर्ग करके ही स्थान छोड़ें व ग्रहण करें।
(1) मंगलाष्टक अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धीश्वराः, आचार्या जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः। श्री सिद्धान्तसुपाठका मुनिवराः रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु ते मङ्गगलम् ॥१॥ श्रीमन्नम्र-सुरा-सुरेन्द्र - मुकुट, प्रद्योत-रत्नप्रभा, भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः । ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगता-स्ते पाठकाः साधवः, स्तुत्या योगिजनैश्च पञ्चगुरवः, कुर्वन्तु ते मङ्गगलम् ॥२॥ सम्यग्दर्शन-बोध-वृत्तममलं, रत्नत्रयं पावनं, मुक्ति श्री - नगराधिनाथ - जिनपत्युक्तोपवर्गप्रदः । धर्मः सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं, चैत्यालयं श्रयालयः, प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी, कुर्वन्तु ते मङ्गगलम् ॥३॥ नाभेयादिजिनाः प्रशस्त-वदनाः, ख्याताश्चतुर्विंशतिः, श्रीमन्तो भरतेश्वर-प्रभृतयो, ये चक्रि णो द्वादश। ये विष्णु-प्रतिविष्णु लाङ्गलधराः, सप्तोत्तरा विंशतिस्, त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टि-पुरुषाः, कुर्वन्तु ते मङ्गगलम् ॥४॥ देव्यऽष्टौ च जयादिका द्विगुणिता विद्यादिका देवता, श्रीतीर्थंकर मातृकाश्च जनका यक्षाश्च यक्ष्यश्तथा। द्वात्रिंशत् त्रिदशाऽधिपास्तिथिसुरा दिक्कन्यकाश्चाष्टधा। दिक्पालादश चेत्यमी सुरगणाः कुर्वन्तु ते मङ्गगलम् ॥५॥ ये सर्वौषध-ऋद्धयः सुतपसां, वृद्धिंगताः पञ्च ये,ये ये चाष्टांग-महानिमित्तकुशला, चाष्टौ विधच्चारिणः ।
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मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
___मुनि प्रार्थना सागर
पञ्चज्ञानधरास्त्रयोऽपि बलिनो, ये बुद्धिऋद्धीश्वराः, सप्तैते सकलार्चिता मुनिवराः, कुर्वन्तु ते मङ्गगलम् ॥६॥ ज्योतिर्व्यन्तर-भावनामरगृहे, मेरौ कुलाद्रौ स्थिताः, जम्बू-शाल्मलि-चैत्य-शाखिषु तथा, वक्षार रूप्याद्रिषु। इष्वाकार-गिरौ च कुंडल-नगे, द्वीपे च नंदीश्वरे, शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः, कुर्वन्तु ते मङ्गगलम् ॥७॥ कै लासे वृषभस्य निर्वृतिमही, वीरस्य पावापुरे, चम्पायां वसुपूज्यसज्जिनपतेः, सम्मेदशैलेऽर्हताम् । शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरे, ने मीश्वरस्याहतो, निर्वाणावनयः प्रसिद्धविभवाः, कुर्वन्तु ते मङ्गगलम् ॥८॥ सो हारलता-भवत्यसिलता, सत्पुष्पदामायते, सम्पद्येत रसायनं विषमपि, प्रीतिं विधत्ते रिपुः । देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनसः, किं वा बहु ब्रूमहे, धर्मादेव नभोऽपि वर्षति नगैः, कुर्वन्तु ते मङ्गगलम् ॥९॥ यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां, जन्माभिषेकोत्सवो, यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो, यः केवलज्ञानभाक् । यः कैवल्यपुर-प्रवेश-महिमा, सम्पादितः स्वर्गिभिः, कल्याणानि च तानि पञ्च सततं, कुर्वन्तु ते मङ्गगलम् ॥१०॥ इत्थं श्रीजिन-मङ्गलाष्टकमिदं, सौभाग्य-सम्पत्करं, कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्, तीर्थंकराणामुषः । ये शृणवन्ति पठन्ति तैश्च सुजनै, धर्मार्थ-कामान्विता, लक्ष्मीराश्रयते व्यपाय-रहिता, निर्वाण लक्ष्मीरपि ॥११॥
(2) अंग शुद्धि मंत्रहाथ में जल लेकर मंत्रित कर अपने सिर पर डालें। मंत्र-ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि इवीं क्ष्वीं पं पं वं वं मं मं सर्वाङ्ग शुद्धि कुरु कुरु स्वाहा। मंत्र पढ़कर अपने ऊपर पानी के छींटे मारे।
(3) मंत्रों से दिशा बंधन करें १. ॐ ह्रां णमो अरहंताणं ह्रां पूर्वदिशात् समागत-विघ्नान् निवारय निवारय मां एतान्
सर्व रक्ष रक्ष स्वाहा। (पूर्व दिशा में पीले सरसों फेकें)
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मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
२. ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं ह्रीं दक्षिणदिशात् समागत-विघ्नान् निवारय निवारय मां एतान्
सर्व रक्ष रक्ष स्वाहा। (दक्षिण दिशा में पीले सरसों फेकें) ३. ॐ हूं णमो आइरियाणं हूं पश्चिमदिशात् समागत-विघ्नान् निवारय निवारय मां
एतान् सर्व रक्ष रक्ष स्वाहा। (पश्चिम दिशा में पीले सरसों फेकें) ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं ह्रौं उत्तर-दिशात् समागत-विघ्नान् निवारय निवारय मां एतान् सर्व रक्ष रक्ष स्वाहा। (उत्तर दिशा में पीले सरसों फेकें) ॐ ह्र: णमो लोएसव्वसाहूणं ह्र: ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ऊर्ध्व, अधो आदि सर्व दिशा-विदिशात् समागत-विघ्नान् निवारय निवारय मां एतान् सर्व रक्ष रक्ष स्वाहा। (सभी दिशाओं में पीले सरसों फेकें)
अथवा ॐ क्षां ह्राँ पूर्वे । ॐ ह्रीं अग्नौ। ॐ क्षीं ह्रीं दक्षिणे। ॐ क्षे हें नेऋते। ॐ . हैं पश्चिमे। ॐ क्षों हों वायव्ये। ॐ क्षौं ह्रौं उत्तरे। ॐ शं हं ईशाने। ॐ क्षः ह्र: भूतले। ॐ क्षीं ह्रीं उ॰। ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते समस्त दिग्बंधनं करोमि स्वाहा।
अथवा ॐ नमोऽर्हते सर्वं रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। इस मंत्र से पुष्प या पीली सरसों को ७ बार मंत्रित करें और सर्व दिशा में फेंके। तथा मंत्र बोलते हुए सब दिशाओं में ताली बजावें व तीन बार चुटकी बजावें।
(4) रक्षा मंत्र पढ़ेप्रथम रक्षा मंत्र-ॐ हूँ झुं फट् किरिटिं-किरिटिं घातय-घातय पर-विघ्नान् स्फोटय
स्फोटय सहस्रखण्डान कुरु-कुरु पर मुद्रान छिंद-छिंद पर मंत्रान भिन्द-भिन्द क्षों क्षः वः वः हूं फट् स्वाहा । (मंत्र पढ़कर अपने ऊपर पुष्प या पीली सरसों का क्षेपण
करें) (प्रतिष्ठा रत्नाकर पेज १७) द्वितीय रक्षा मंत्र-ॐ णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं,
णमो लोए सव्व साहूणं। एसो पंच णमोकारो सव्व पावप्पणासणो। मंगलाणं च
सव्वेसिं पढमं हवई मंगलं ॐ हूं फट् स्वाहा। तृतीय रक्षा मंत्र-ॐ णमो अरहंताणं ह्रां ह्रदयं रक्ष-रक्ष हूँ फट् स्वाहा ।
ॐ णमो सिद्धाणं ह्रीं शिरो रक्ष-रक्ष हूँ फट् स्वाहा । ॐ णमो आयरियाणं हूँ शिखां रक्ष-रक्ष हूँ फट् स्वाहा । ॐ णमो उवज्झायाणं ह्रौं एहि एहि भगवति वज्र कवच वज्रिणी रक्ष-रक्ष हूँ फट् स्वाहा।
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मंत्र अधिकार मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर ॐ णमो लोए सव्व साहूणं ह्रः क्षिप्रं साधय साधय वज्रहस्ते भूलिनि दुष्टान रक्ष-रक्ष हूँ फट् स्वाहा। यह पढ़कर अपने चारों तरफ अंगुली से कुण्डल सा खींचे यह ख्याल कर लें कि यह मेरे चारों और वज्र मय कोट है। यह कोट बनाकर चारों तरफ चुटकी बजावें। इसका मतलब है कि जो उपद्रव करने वाले हैं वे सब चले जावें। मैं वज्रकोट के अन्दर वज्रशिला पर बैठा हूं। इससे किसी प्रकार का विघ्न नहीं होता है।
(5) रक्षा सूत्र बंधनॐ ह्रीं नमोऽर्हते सर्व रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा। दाहिने हाथ में तीन बार लपेट कर बांधे।
__(6) यज्ञोपवित धारण मंत्रॐ नमः परमशान्ताय शान्ति कराय पवित्रीकरणायहम् रत्नत्रय स्वरूपं यज्ञोपवीत दधामि, मम गात्रं पवित्रं भवतु अहँ नमः स्वाहा। (प्रतिष्ठा रत्नाकर १०६)
(7) मंगल कलश स्थापन मंत्र कलश स्थापना प्रथम मंत्र:-ॐ ह्रां ह्रीं ढूं ह्रौं ह्र: नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पद्म-महापद्म
तिगिंछ-केसरि-पुण्डरीक-महापुण्डरीक-गंगा-सिन्धु-रोहिद्रोहितास्या हरिद्धहरिकान्ता सीता सीतोदा नारी नरकान्ता सुवर्णकूला रूप्यकूला रक्ता रक्तोदा क्षीराम्भोनिधि-शुद्ध जलं सुवर्णघटं प्रक्षालित-परिपूरितं नवरत्न-गंधाक्षत-पुष्पार्चितममोदकं पवित्रं कुरु कुरु झं झं झौं झौं वं वं मं मं हं हं क्षं क्षं लं लं पं पं द्रां द्रां द्रीं द्रीं हं सः स्वाहा।
मंत्र- ॐ ह्रीं स्वस्ति विधानाय मंगल कलश स्थापनं करोमि। प्र. र. ८४ कलश स्थापना द्वितीय मंत्रः-ॐ अद्य भगवतो महा पुरुषस्य श्रीमदादिब्रह्मणो मतेऽस्मिन्
विधीयमाने कर्मणी श्री वीर निर्माण संवत्सरे ....... मासे........ पक्षे..... तिथौ.....वासरे......प्रशस्त लगने......कार्यस्य निर्विघ्नं समाप्त्यर्थे नवरत्न गंध पुष्पाक्षत
श्री फलादि शोभितं मंगल कलश स्थापनम् करोमि। श्रीं झ्वी हं सः स्वाहा। (8) यंत्र स्थापना मंत्र- ॐ ह्रीं स्वस्ति विधानाय मंगल श्रीमहायंत्र स्थापनं करोमि। (9) दीपक स्थापन मंत्र :-ॐ ह्रीं अज्ञान तिमिर हरं दीपकं स्थापयामि। (10) ध्वाजारोहण मंत्र- ॐ णमो अरिहंताणं स्वस्ति भद्रं भवतु। सर्व लोक शान्ति
__ भवतु स्वाहा। (11) श्रीमहायंत्राभिषेक,श्रीमहायंत्र पूजा (देखें पे.नं . 264) ( 12 ) श्रीमहायंत्र/मंगल कलश की आरती (देखें पे.नं . 269) (13) आसन गृहण मंत्र- ॐ ह्रीं अहँ नि:सहि हूँ फट् दर्भासने उपविशामि।
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मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
(14) जाप का संकल्प.......जापस्य संकल्पं कुर्मः निर्विघ्नं समाप्तिर्भवतु अहँ नमः स्वाहा। (15) मौन गृहण मंत्र- ॐ ह्रीं अहँ यूं मौन स्थिर्थम् मौन व्रतं गृहणामि। (प्र.र.१११) (16) मंत्र का उत्कीलन मंत्र -पहले सकलीकरण करें फिर किसी भी मंत्र का
उत्कीलन करें। ध्यान : पंच परमेष्ठी का ध्यान करते हुए निम्न मंत्र पढ़ें- ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं सर्व मंत्र
तंत्र-यन्त्रादि नाम उत्कीलन स्वाहा। मूल मंत्र प्रथम :- ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं षट पंचाक्षराणा मुत्कीलय उत्कीलय स्वाहा। द्वितीय :- ॐ जूं सर्व मन्त्र-तन्त्र मन्त्राणां संजीवन कुरु कुरु स्वाहा। तृतीय :- ॐ ह्रीं जूं अं आं इ ई उ ऊ ऋ कंठें लूं ए ऐ ओं औं अं अः
कं खं गं घं डं, चं छं जं झं जं, टं ठं डं ढं णं, तं थं दं धं नं, पं फं बं भं मं, यं रं लं वं, शं सं षं हं क्षं मात्रक्षराणं सर्वम् उत्कीलनं कुरु स्वाहा। ॐ सो हं हं सो हं (११ बार) ॐ जूं सों हं हं सः ॐ ॐ (११ बार) ॐ हं जूं हं सं गं (११ बार) सो हं हं सो यं (११ बार) लं (११ बार)
ॐ (११ बार) यं (११ बार)। चतुर्थ : ॐ ह्रीं मन्त्राक्षराणां उत्कीलय उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा। पंचम : ॐ ह्रीं जूं सर्व मन्त्र तन्त्र यन्त्र स्तोत्र कवचादीनां संजीवय संजीवय कुरु कुरु स्वाहा।
__(17) मंत्र प्राण प्रतिष्ठा मंत्र मंत्र प्राण प्रतिष्ठा मंत्र :-ॐ ह्रीं क्रों अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः
मल्ल्यूँ ठम्ल्यूँ नमः परमात्मने ॐ हं सः क ख ग घ ङ ॐ हाँ णमो अरहंताणं म्यूँ देवदत्ताणं - प्राणाः च छ ज झ ञ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं फम्ल्यूँ जल देवतायां x प्राणा: ट ठ ड ढ ण ॐ हूँ णमो आइरियाणं यल्ल्यूँ अग्नि देवताणां x प्राणाः त थ द ध न ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं रम्ल्यूँ वायु देवतायां x प्राणाः प फ ब भ म ॐ ह्रः णमो लोए सव्वसाहूणं म्ल्यूँ आकाश देवतायां x प्राणाः य र ल व, श स ष ह क्ष, ॐ णमो अरहंत केवलिणो इम्ल्यूँ अनंतदेवतायां - प्राणाः इह स्थिता सर्व यंत्र, मंत्र, तंत्र रूपेण दिव्य देहाय सप्त धातु रूप कायेन्द्रियाणि देवदत्तस्य x काय वाङ्मनश्चक्षु श्रोत घ्राण जिव्हेन्द्रियाणि सुरुचिरं सुखं चिरं तिष्ठंतु स्वाहाः ।
नोट- (x) ऐसे निशान पर मंत्र का नाम उच्चारण करें।
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