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________________ मंत्र यंत्र और तंत्र मुनि प्रार्थना सागर जुड़ा हुआ है। सर्वज्ञ भाषित, गणधर देव द्वारा ग्रंथित द्वादशांग में बारहवां अंग दृष्टिवाद है। उसके पांच विभाग हैं- १.परिकर्म, २.सूत्र, ३.प्रथमानुयोग, ४.पूर्वगता और ५.चूलिका। जिसमें पूर्वगता के चौदह पूर्व होते हैं, उनमें दसवां विद्यानुवादपूर्व है। जो एक करोड़ दस लाख पद का माना गया है। विद्यानुवाद पूर्व मुख्यतः साधनाओं, सिद्धियों एवं उनके साधकों से संबंधित यंत्र, मंत्र, तंत्र और विद्याओं का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में मतिसागर द्वारा संग्रहीत विद्यानुशासन की पाण्डुलिपियां मिलती है। जयपुर के शास्त्र भण्डार में विद्यानुवाद के नाम से ग्रन्थ उपलब्ध है जो मल्लिषेण द्वारा निबद्ध है। इसके अतिरिक्त गणधर वलय मंत्र, घंटाकर्ण कल्प, भैरवपद्मावती कल्प, ज्वालामालनी कल्प, ऋषिमंडल कल्प, भक्तामर कल्प, कल्याणमंदिर कल्प, णमोकारमंत्र कल्प आदि अनेक ग्रंथ मंत्र-यंत्रों से भरपूर हैं, जिनके माध्यम से मनुष्य अपना मानव जीवन सफल व सार्थक कर सकता है। । वैसे भी मानव जीवन अति दुर्लभ है। उसका अन्तिम साध्य आवागमन या जन्ममरण के बन्धन से उन्मुक्त होना है, जिसका साधन धर्म की साधना- आराधना है। धर्म का आधार मानस की पवित्रता, भावनाओं की उज्ज्वलता, तपमूलक आचार का अनुसरण है, पर केवल आदर्श की परिधि में नहीं, व्यवहारिक भूमिका पर जरा विचार करें, यह सब कब सध सकता है, जब मनुष्य के घर की स्थिति सन्तोषजनक हो। दूसरे शब्दों में उसे दैनंदिन जीवन-निर्वाह की समीचीन व्यवस्था हो, अधिक स्पष्ट कहें तो उसका सांसारिक जीवन सुखमय हो। जिस व्यक्ति के पास दोनों समय के भोजन की व्यवस्था नहीं है और रहने को स्थान तक नहीं है, जिसके बच्चे क्षुधा से पीड़ित रहते हैं, रुग्ण होने पर जिन्हें औषधि तक उपलब्ध नहीं होती, क्या उनके लिए संभव होगा, वे अपने को आत्म-ध्यान में रमा सकेंगे? व्यवहार की भूमिका पर सोचने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ऐसा असंभव नहीं तो दु:संभव अवश्य है। शायद कतिपय मन्त्र-विद्या वेत्ताओं और मंत्राराधकों के मानस में यह आया हो कि जो कुछ उन्होंने अर्जित किया है, उससे वे समाज को लाभान्वित कर सकें ताकि श्रद्धालु लोग उन प्रयोगों के द्वारा पीड़ा, रोग, शोक व कष्ट आदि से छुटकारा पा सकें, शान्ति, सुख-समृद्धि अर्जित कर सकें। अतएव उन्होंने मन्त्र, तंत्र व यंत्र- जिन्हें प्रायः गोप्य रखने की परम्परा रही है, उन्हें अधिकारी जनों के समक्ष उद्घाटित किये, जिससे लोग लाभान्वित हुए और आज भी हो रहे हैं। भगवान् महावीर के लगभग डेढ़ शताब्दी बाद भद्रबाहु आचार्य द्वारा रचित उवसग्गहर स्तोत्र, तदनन्तर सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित कल्याणमन्दिर स्तोत्र, मानतुंग सूरि द्वारा रचित भक्तामर स्तोत्र, नन्दिषेण मुनि द्वारा रचित शान्ति स्तवन आदि मंत्रशास्त्र की 19
SR No.009370
Book TitleMantra Yantra aur Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrarthanasagar
PublisherPrarthanasagar Foundation
Publication Year2011
Total Pages97
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, L000, & L020
File Size1 MB
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