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________________ मंत्र यंत्र और तंत्र मुनि प्रार्थना सागर प्राणियों का भी इस णमोकार महामंत्र के जाप से उद्धार हुआ एवं होता है, अतः प्रतिदिन लोकैषणा, पुत्रैषणा और वित्तैषणा छोड़कर इस मंत्र का जाप अवश्य करना चाहएि। क्योंकि इस मंत्र के प्रभाव से जब निर्वाण पद तक की प्राप्ति हो सकती है तो फिर धन-वैभव, सुख-समृद्धि, चक्रवर्ती, अहमिन्द्र, इन्द्र आदि पदों की प्राप्ति क्या बड़ी बात है। इस मंत्र से तो लौकिक व पारलौकिक सभी प्रकार के कार्य सिद्ध होते हैं। पर इस संबंध में एक बात अवश्य है कि जाप करने वाला साधक, जाप करने की विधि, जाप करने के स्थान की भिन्नता से फल में भिन्नता हो जाती है। यदि जाप करने वाला सदाचारी, शाकाहारी,शुद्धात्मा, सत्यवक्ता, अहिंसक एवं ईमानदार है तो उसको इस मंत्र की आराधना का फल तत्काल मिलता है। अतः मन-वचन और काय की शुद्धिपूर्वक, विधिसहित आस्था-विश्वास के साथ एकाग्रचित्त होकर तल्लीनता पूर्वक जाप करना चाहिए। * लेकिन हाँ यह बात अवश्य है कि जिसने साधना की सीढ़ी पर प्रारम्भिक पैर रखा है, तो मन्त्र जाप करते समय उसके मन में दूसरे विकल्प जरूर आयेंगे, किन्तु उनकी परवाह नहीं करना चाहिए। कारण जिस प्रकार आरम्भ में अग्नि जलाने पर धुंआँ नियम से निकलता है, किन्तु जब कुछ देर अग्नि जलती रहती है, तो धुंआँ निकलना बन्द हो जाता है। ठीक इसी प्रकार प्रारम्भिक साधक की साधना के समक्ष नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प आते हैं किन्तु साधना पर कुछ आगे बढ़ जाने पर विकल्प स्वयं ही रुक जाते हैं। अत: संकल्प पूर्वक दृढ़ श्रद्धा के साथ मंत्र जाप करना चाहिए। * मंत्रों का बार-बार उच्चारण किसी सोते हुए को बार-बार जगाने के समान है। यह प्रक्रिया इसी के तुल्य है, जिस प्रकार किन्हीं दो स्थानों के बीच बिजली का सम्बन्ध लगा दिया जाये। साधक की विचार शक्ति स्विच का काम करती है और मन्त्र शक्ति विद्युत लहर का। जब मन्त्र सिद्ध हो जाता है तब आत्मिक शक्ति से आकृष्ट देवता साधक (मन्त्रिक) के समक्ष अपना आत्म-समर्पण कर देता है, और उस देवता की सारी शक्ति उस साधक में आ जाती है, जिससे साधक किमिच्छित कार्य करता है। सामान्यतः मन्त्रों के लिए नैतिकता की उतनी विशेष आवश्यकता नहीं है जितनी शुद्ध मन्त्रों के उच्चारण की। क्योंकि साधक बीजमन्त्र और उनकी ध्वनियों के घर्षण से अपने भीतर आत्मिक शक्ति प्रस्फुटित करता है। मन्त्र शास्त्र में इसी कारण हमारे पूर्वाचार्यों ने मन्त्रों के अनेक भेद बताये हैं, जो निम्नप्रकार हैं। १. शान्ति मंत्रः जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा भयंकर से भयंकर व्याधि, व्यन्तर-भूत-पिशाचों की पीड़ा, क्रूर ग्रहपीड़ा, जंगम स्थावर विष-बाधा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्षादि, भय, उपसर्ग और चोर आदि का भय शान्त हो जाए उन ध्वनियों के सन्निवेष को शान्ति मन्त्र कहते हैं। अथवा मन कषायों के क्षय-उपशम या क्षयोपशम से आत्मस्वभाव में स्थिर हो जाय तो उसे शान्ति मंत्र कहते हैं। 33
SR No.009370
Book TitleMantra Yantra aur Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrarthanasagar
PublisherPrarthanasagar Foundation
Publication Year2011
Total Pages97
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, L000, & L020
File Size1 MB
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