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________________ मंत्र यंत्र और तंत्र मंत्र अधिकार मुनि प्रार्थना सागर मंत्र साधक के लक्षण गुरु के लक्षण अथातः संप्रवक्ष्यामि मंत्रिलक्षणमुत्तमम् । यो मंत्रादिविधौ प्रोक्तस्सज्जातीयस्त्रिवर्णभृत्॥ रत्नत्रयधनः शूरः कुशलो धार्मिकः प्रभुः । प्रबुद्धाखिलशास्त्रार्थः, परार्थनिरतः कृती॥ शांत: कृपालु निर्देषः, प्रपन्नः शिष्यवत्सलः । षट्कर्म कर्मवित्साधु, सिद्धविद्यो महायशाः ॥ सत्यवादी जितासूर्यो, निरासो निरहंकृतिः । लोकज्ञः सर्वशास्त्रज्ञो, तत्वज्ञो भावसंयुतः ॥ अर्थ - मंत्र सिद्ध कराने वाले गुरु में निम्नलिखित लक्षण होने चाहिये । वह बीजाक्षरों को बनाने और मंत्रों को शुद्ध करने में समर्थ हो। वह बीजकोष, मंत्र व्याकरण और मंत्र सामान्य विधान का अच्छा ज्ञान रखने वाला हो । उत्तम वर्ण वाला, साहसी, धार्मिक, सब शास्त्रों का अर्थ जानने वाला, दूसरों का उपकार करने में आनंद मानने वाला, कृतज्ञ, शान्त, कृपालु, चतुर, शिष्यों से प्रेम करने वाला, लोक को पहचानने वाला, यशस्वी, तेजस्वी, सत्यवादी, ईर्ष्या रहित, अभिमान न करने वाला और द्वेष रहित पुरुष ही मंत्रों को सिद्ध कराने में गुरु बन सकता है। शिष्य के लक्षण दक्षो जितेन्द्रियो मौनी, देवताराधनोद्यतः ॥ निर्भयो निर्मदो मंत्री, जपहोमरतः सदा । धीरः परिमिताहारः, कषायरहितः सुधी ॥ सुदृष्टि विगतालस्यः, पाप भीरु दृढ व्रतः । शीलोपवाससंयुक्तो, धर्मदानादितत्परः ॥ मंत्राराधनशूरो धर्म दयास्व गुरु विनयशीलयुतः । मेधा विगतनिद्रः प्रशस्तचित्तोऽभिमानरतः ॥ देवजिनसमयभक्तः सविकल्पः सत्वाक विदग्धाश्च । वाक्पटुरपगतशंकः शुचिरार्द्रमना विगतकामः ॥ गुरुभणितमार्गवर्ती प्रारब्धस्यांतदर्शनोद्युक्तः । बीजाक्षरावधारी शिष्यः स्यात्सद्गुणोपेतः॥ 50
SR No.009370
Book TitleMantra Yantra aur Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrarthanasagar
PublisherPrarthanasagar Foundation
Publication Year2011
Total Pages97
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, L000, & L020
File Size1 MB
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