________________
मंत्र अधिकार
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
१८. मंत्र साधना के समय यदि लघुशंका या दीर्घशंका (मलमूत्र त्याग) के लिये; लिये
हुए संकल्प के बीच में उठना भी पड़े तो कायोत्सर्ग (नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर) करके उठना चाहिए व कायोत्सर्ग पूर्वक पुनः आसन ग्रहण करना चाहिए।
दीपानादि प्रकार १. मंत्र के प्रारंभ में नाम की स्थापना करें तो दीपन कहा जाता है। जैसे- देवदत्त ह्रीं। २. मंत्र के अंत में नाम की स्थापना करें तो पल्लव कहा जाता है। जैसे- ह्रीं देवदत्त । ३. मंत्र के मध्य भाग में नाम की स्थापना करे तो संपुष्ट कहा जाता है। जैसे- ह्रीं देवदत्त
ह्रीं। ४. मंत्र के प्रारंभ में व मध्य में नामोल्लेख करें तो रोधान कहा जाता है, जैसे- देव ह्रीं
दत्त ह्रीं। ५. एक मंत्राक्षर दूसरा नामाक्षर, तीसरा मंत्राक्षर चौथा नामाक्षर इस तरह संकलित करें
तो ग्रन्थ कहा जाता है। जैसे- ह्रीं दे ह्रीं व ह्रीं द ह्रीं त्त। मंत्र के दो दो अक्षरों के बाद एक एक नामाक्षर रखें तो उसे संकलित कहते हैं जैसे- ह्रीं ह्रीं दे ह्रीं ह्रीं व ह्रीं ह्रीं द ह्रीं ह्रीं त्त।
व्रज आठ होते हैं- वम्ल्यूँ, ख्ल्यूँ, झल्व्यूं, भल्ल्यूँ, म्यूँ, रम्ल्यूँ, स्म्ल्यूँ, म्ल्यूँ, मल्ल्यूँ,
पिंडाक्षर १४ होते हैं- वम्ल्यूं, ख्ल्यूँ, , छ्म्ल्यूँ, झम्ल्यूँ, ड्म्ल्यूँ, त्म्यूँ, भव्यूँ, म्म्ल्यूँ, यम्ल्यूँ, रम्ल्यूं, स्मल्यूं, म्ल्यूँ, मल्ल्यूँ।
बिना विचारे सिद्ध करने योग्य मंत्र जिन मंत्रों के आदि में अथ: हो उनको सिद्धादि, जिनके आरंभ में ॐ हो उनको सुसिद्धादि मंत्र कहते हैं। यह दोनों ही शुभ होते हैं। इनको सिद्ध कर लेवें। किन्तु जिनके आदि में विद्वेषी पद हो उनको साध्यादि कहते हैं उनको सिद्ध न करें। सुसिद्धादि मंत्र पाठ मात्र से सिद्धादि जाप से, और साध्यादि जाप होम आदि से साधक को फल देते हैं। प्रणव (ॐ), ह रि (उ), माया ( हृीं ), व्योनव्यापी ( हुँ ), शड़ क्षय ( ष ), प्रासाद ( हं ) और बहुरूपी ( भ ) यह सात साधारण ( प्रणव ) माने गए हैं। इनका योग विचार करने की आवश्यकता नहीं। सौरीमंत्र और जिन मंत्रों में भी सिद्ध, साध्य-सुसिद्ध और शत्रु के विचार की आवश्यकता नहीं है। आम्नाय से चले आये हुए गण मंत्रों में प्रणव (ॐ) के, प्रासाद (हं) के और सपिण्डाक्षरों के भी सिद्ध और शत्रु का विचार न करें। एकाक्षर मंत्र, मूलमंत्र और सैद्धान्तिक मंत्रों के भी सिद्ध और शत्रु को न देखें । स्वप्न में दिये हुए, स्त्री से दिये हुए और नपुंसक मंत्र के भी सिद्ध और शत्रु को न विचारे। हंस, अष्टाक्षर मंत्र तथा एक, दो और तीन आदि बीजों के सिद्ध और शत्रु को न विचारे। अकार से लेकर क्षकार तक के
66