________________
मंत्र यंत्र और तंत्र
मुनि प्रार्थना सागर
शुद्धि है। अर्थात् जिस प्रकार की मंत्र-यंत्र-तंत्र में सिद्ध करने की क्रिया लिखी हो उसी प्रकार क्रिया करना विधि-विधान शुद्धि है।
___ यदि इस प्रकार की शुद्धि पूर्वक साधक साधना करता है तो नियम से सफल होता है। क्योंकि यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया भी है। वैसे मंत्र और विज्ञान दोनों में कुछ अन्तर भी है। जैसे विज्ञान का प्रयोग जहां भी किया जाता है, फल एक ही होता है। परन्तु मंत्र में यह बात नहीं है, उसकी सफलता साधक और साध्य के ऊपर निर्भर है। ध्यान के अस्थिर होने से भी मन्त्र असफल हो जाता है। मन्त्र तो तभी सिद्ध होता है जब श्रद्धा, इच्छा और दृढ़ संकल्प ये तीनों ही यथावत् कार्य करते हों। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य की अवचेतना में बहुत सी आध्यात्मिक शक्तियाँ भरी रहती हैं और इन्हीं शक्तियों को मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष द्वारा उत्तेजित किया जाता है। इस कार्य में केवल विचार शक्ति ही काम नहीं करती है, बल्कि इसकी सहायता के लिए उत्कृष्ट इच्छा शक्ति की इच्छा द्वारा ध्वनि - संचालन की भी आवश्यकता होती है। और यह मैंने पहले ही कहा है कि मन के साथ जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रकट होती है उन ध्वनियों के समुदाय को मंत्र कहते हैं। तो मंत्र शक्ति के प्रयोग की सफलता के लिए मानसिक योग्यता प्राप्त करनी पड़ती है, जिसके लिए नैष्ठिक आचार की आवश्यकता होती है।
___ मंत्र निर्माण के लिए- ओं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र:, हं स: क्लीं क्लू ब्लू, द्रां द्रीं दूं द्रः, श्रां श्रीं श्रौं श्रः, क्षां क्षीं दूं क्षौं क्षः, क्ष्वी हैं अं फट् वषट्, संवौषट् घे घे यः ठः खः हल्वयूँ, पं वं यं णं तं थं दं आदि बीजाक्षरों की आवश्यकता होती है। साधारण व्यक्ति को तो ये बीजाक्षर निरर्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु हैं ये सार्थक और इनमें ऐसी शक्ति अन्तर्निहित रहती है, जिससे आत्मशक्ति या देवताओं को उत्तेजित किया जा सकता है। अतः ये बीजाक्षर अन्तःकरण और वृत्ति की शुद्ध प्रेरणा के व्यक्त शब्द हैं, जिनसे अत्यधिक शक्ति का विकास किया जा सकता है और बीजाक्षरों की उत्पत्ति प्रधानतः णमोकार मंत्र से हुई है, क्योंकि मातृका ध्वनियां इसी मंत्र से उद्भूत हैं। इन सबमें प्रधान ‘ओं' बीज है, यह
आत्मवाचक मूलभूत है। इसे तेजो बीज, कामबीज और भवबीज भी माना गया है। पंचपरमेष्ठी वाचक होने से ‘ओं' को समस्त मंत्रों का सारतत्त्व बताया गया है। इसे प्रणववाचक भी कहा जाता है।
श्री को कीर्तिवाचक, ह्रीं को कल्याणवाचक, क्षीं को शान्तिवाचक, हं को मंगलवाचक, ॐ को सुखवाचक, क्ष्वी को योगवाचक, हूं को विद्वेष और रोष वाचक, प्रीं को स्तम्भवाचक और क्लीं को लक्ष्मी प्राप्ति वाचक कहा गया है। सभी तीर्थंकरों के नाम-अक्षरों को मंगलवाचक एवं यक्ष-यक्षिणियों के नामों को कीर्ति और प्रीति वाचक कहा गया है। आगम में बीजाक्षरों का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया है- ॐ प्रणव, ध्रुव, ब्रह्मबीज या तेजो बीज
25