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________________ मंत्र यंत्र और तंत्र मुनि प्रार्थना सागर है। ऐं वाग्भव बीज, लूं कामबीज, क्रों शक्ति बीज, हं सः विषापहार बीज, क्षीं पृथ्वी बीज, स्वा वायु बीज, हा आकाश बीज, ह्यं मायाबीज या त्रैलोक्यनाथ बीज, क्रों अंकुशबीज, जं पाश बीज, फट् विसर्जनात्मक या चालन- दूरकरणार्थक, वौषट् पूजाग्रहण या आकर्षणार्थक, संवौषट् आमन्त्रणार्थक, ब्लूं द्रावणबीज, क्लौं आकर्षण बीज, ग्लौं स्तम्भन बीज, ह्रौं महाशक्तिवाचक, वषट् आह्वानन वाचक, रं ज्वलन वाचक, क्ष्वीं विषापहार बीज, ठ: चन्द्रबीज, घे घै ग्रहण बीज, द्रं विद्वेषणार्थक, रोष बीज, स्वाहा शान्ति और हवन वाचक, स्वधा पौष्टिक वाचक, नमः शोधन बीज, हं गगनबीज, हूं ज्ञानबीज, यः विसर्जन या उच्चारण वाचक, नु विद्वेषणबीज, इवीं अमृत बीज, क्ष्वीं भोग बीज, हूँ दण्ड बीज, खः स्वादन बीज, झौं महाशक्ति बीज, यूँ पिण्डबीज, क्ष्वीं मंगल और सुख बीज, श्री कीर्तिबीज या कल्याण बीज, क्लीं धनबीज , कुबेरबीज, तीर्थंकर के नामाक्षर शान्तिबीज, ह्रौं ऋद्धि- सिद्धि बीज, ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः सर्व शान्ति, मांगल्य, कल्याण, विघ्न विनाशक, सिद्धिदायक, अ आकाश बीज, धान्यबीज, आ सुखबीज -तेजो बीज, ई गुणबीज, तेजोबीज, वायुबीज, क्षां क्षीं क्षं झें मैं क्षों क्षौं क्ष: सर्व कल्याण, सर्वशुद्धि बीज , वं द्रवणबीज , मं मंगल बीज, सं शोधनबीज, यं रक्षाबीज, झं शक्ति बीज और तं थं दं कालुष्यनाशक, मंगल वर्धक और सुखकारक बीज बताया गया है। इन समस्त बीजाक्षरों की उत्पत्ति णमोकार मन्त्र तथा इस मंत्र में प्रतिपादित पंचपरमेष्ठी के नामाक्षर तीर्थंकर और यक्ष यक्षिणियों के नामाक्षरों से हुई है। मन्त्र शास्त्र के बीजों का विवेचन करने के उपरान्त आचार्यों ने उनके रूप का निरूपण करते हुए बतलाया है कि - अ आ ऋह श य क ख ग घ ङ ये वर्ण वायुतत्त्व संज्ञक हैं। च छ ज झ ञ इ ई ऋ अ र प ये वर्ण अग्नितत्त्व संज्ञक हैं। त ट द ड उ ऊ ण लु व ल ये वर्ण पृथ्वी संज्ञक हैं। ठ थ ध ढ न ए ऐ ल स ये वर्ण जलतत्त्व संज्ञक है एवं प फ ब भ म ओ औ अं अः ये वर्ण आकाश तत्त्व संज्ञक हैं और अ उ ऊ ऐ ओ औ अं क ख ग ट ठ ड ढ त थ प फ ब ज झ ध य स प क्ष ये वर्ण पुल्लिंग हैं। आ ई च छ ल व वर्ण स्त्रीलिंग और इ ऋ ऋ ल ल ए अ: घ भ य र ह द ज ण ङ ये वर्ण नुपंसकलिंग संज्ञक होते हैं। मन्त्र शास्त्र में स्वर और ऊष्म ध्वनियाँ ब्राह्मण वर्ण संज्ञक; अन्तस्थ और कवर्ग ध्वनियाँ क्षत्रिय वर्ण संज्ञक; चवर्ग और पवर्ग ध्वनियाँ वैश्यवर्ण संज्ञक एवं टवर्ग और तवर्ग ध्वनियाँ शूद्रवर्ण संज्ञक होती हैं। वश्य, आकर्षण और उच्चाटन में हूँ का प्रयोग; मारण में 'फट' का प्रयोग; स्तम्भन, विद्वेषण और मोहन में, नम: का प्रयोग एवं शान्ति और पौष्टिक के लिए 'वषट्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। मन्त्र के अन्त में स्वाहा शब्द रहता है। यह शब्द पापनाशक, मंगल कारक तथा आत्मा की आन्तरिक शान्ति को उद्घाटित करने वाला बतलाया गया है। मन्त्र को शक्तिशाली बनाने वाली अन्तिम ध्वनियों में स्वाहा को स्त्रीलिंग; वषट्, फट्, स्वधा को पुल्लिंग और नमः को नपुंसक लिंग माना है। 26
SR No.009370
Book TitleMantra Yantra aur Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrarthanasagar
PublisherPrarthanasagar Foundation
Publication Year2011
Total Pages97
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, L000, & L020
File Size1 MB
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