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________________ मंत्र यंत्र और तंत्र मुनि प्रार्थना सागर आदि निम्नलिखित स्थितियों पर निर्भर करता है । जैसे महामंत्र में प्रथम पद णमो बोलने के बाद कोई ‘अरिहंताणं' तथा कोई ' अरहंताणं' शब्द समूह का उच्चारण करते हैं । किन्तु इन दोनों शब्दों में काफी अन्तर है । अरिहंत शब्द अरिहंत से बना है। जिसमें 'अरि' का अर्थ 'शत्रु' तथा 'हंत' का अर्थ 'नाश' होता है। अर्थात् इस अपेक्षा से अरिहंत का अर्थ हुआ 'शत्रुओं' को नाश करने वाले । वैसे शत्रु का अर्थ व्यापक है । व्यक्ति की व्यक्ति से, समाज की समाज से, राष्ट्र की राष्ट्र से, पशु की पशु से तथा जलचर, नारकी, तथा देवताओं में होने वाली शत्रुता भी शत्रुता कहलाती है । अतः अरिहंत शब्द के शाब्दिक अर्थ की अपेक्षा अपने शत्रु का हंत (नाश) करने वाला प्रत्येक जीव, वर्ग अरिहंत कहलाने का अधिकारी हो जावेगा । किन्तु यहाँ भाव शत्रु क्रोध, मान, माया, लोभ तथा घातिया कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय व अन्तराय जो जीव के मोक्ष जाने में बाधक हैं उन्हें लिया गया है। अतः जो इनका नाश करने वाले हैं वह सभी अरिहंत के अधिकारी हैं। वैसे अरिहंत और अरहंत में बहुत सूक्ष्म अन्तर है। अरिहंत का अर्थ है शत्रुओं का नाश करने वाले और अरहंत शब्द अ शब्द से बना है। 'अर्ह' शब्द का अर्थ है जिन, पूजनीय, सम्माननीय, योग्य तीर्थंकर आदि । आपके मन में शंका हो सकती है कि पूजनीय या सम्माननीय तो इन्द्र, चक्रवर्ती, सम्राट, राष्ट्रपति, देवी-देवता, आदि अनेक हैं फिर तो सभी अरहंत पद को प्राप्त हो जाएंगे, किन्तु ऐसा नहीं है, ‘अरहंत' से मतलब जो तीनों लोकों में सर्वोत्कृष्ट हैं । अरहन्त की समृद्धि के सामने इन्द्र व चक्रवर्ती की समृद्धि भी तुच्छ है । अरहंत तो इन्द्र, चक्रवर्ती, देवों से भी पूजित हैं । दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में अरहंत का अर्थ लिखा है- अतिशय पूजार्हत्वाव्दार्हन्तः । अर्थात् अतिशय पूजा के योग्य होने से अर्हंत संज्ञा प्राप्त होती है। इसलिए जो अतिशयों के योग्य हैं वह अरहन्त कहलाते हैं। जो देव, असुर और समस्त मनुष्यों से पूज्यता को प्राप्त होते हैं। अरिहंताणं और अरहंताणं शब्द में कुछ विचारणीय बातें: १. - ३. 'अरिहंत' शब्द में 'अरि' का अर्थ शत्रु होता है और 'हन्त' का अर्थ नष्ट करने वाला । अतः शत्रु का नाश करने वाला प्रत्येक जीव, समुदाय अरिहंत कहलायेगा । २. यदि 'अरि' का अर्थ कर्म शत्रुओं से लिया जावे और उनका हन्त करने वाले को अरिहंत कहा जावे तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्था तेरहवें गुणस्थान में होती है और उस समय उनके ६३ कर्म प्रकृतियों का क्षय हो जाता है, घातिया कर्म नहीं रहते, उनको हन्त करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहता है I वीतराग के न कोई शत्रु हैं और न ही कोई मित्र हैं। अतः 'हन्त', घात क्रिया के द्योतक शब्द परमात्मा को अरिहंत कहना भी उचित नहीं है। ४. 'अरिहंत' पद में प्रयुक्त 'अरि' शब्द शत्रुओं का तथा 'हन्त' शब्द हनन, घात, नष्ट करने वाले अर्थात् प्रयुक्त होता है। जबकि णमोकार मंगलमय मंत्र में हंत धातु का 40
SR No.009370
Book TitleMantra Yantra aur Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrarthanasagar
PublisherPrarthanasagar Foundation
Publication Year2011
Total Pages97
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, L000, & L020
File Size1 MB
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