SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मंत्र यंत्र और तंत्र मुनि प्रार्थना सागर (जरा सोचो विचार करो जैसे कि दवाईयों की दुकान पर विभिन्न प्रकार की दवाईयों का संग्रह रहता है, मगर मरीज वही दवाई खरीदता है जिसकी उसे आवश्यकता होती है अथवा जिन्हें खरीदने की चिकित्सक सलाह देते हैं। उसे अन्य दूसरी दवाईयों से कोई प्रयोजन नहीं रहता। ठीक इसी प्रकार आपके लिए भी यह शास्त्र मंत्रों का भण्डार है, एक मेडीकल स्टोर है। अत: इसकी आवश्यकता उसे ही है जो रोगी हैरान-परेशान, दु:खी-पीड़ित है । स्वस्थ और सुखी जीवों को इससे दूर ही रहना चाहिए। क्योंकि बिना आवश्यकता के वस्तु की कीमत नहीं होती। अतः जिसे इसकी आवश्यकता हो वही इसका उपयोग करे और उसी मंत्र का उपयोग करे, जिसकी उसे आवश्यकता है, ऐसा नहीं कि थोड़ा सा यह कर लूँ, थोड़ा सा वह कर लूँ। अतः किसी योग्य अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन-निर्देशन में ही मंत्र सिद्ध करें। यह शास्त्र तो मंत्रों का भण्डार है जैसे दवाई की दुकान दवाईयों का भण्डार है। उसमें सभी प्रकार की दवाईयाँ होती हैं । जीवन जीने की और मरने की भी, अब जिसे जो आवश्यकता हो वह खरीद लें, ठीक इसी प्रकार दुनिया में सभी प्रकार के मंत्र होते हैं जिसे जो आवश्यक हो वह सिद्ध कर लें लेकिन अन्य मंत्रों को बुरा कहकर निन्दा आदि न करें, क्योंकि कोई भी रोगी अपनी मतलब की दवाई के अलावा अन्य दूसरे प्रकार की दवाईयों को बुरा नहीं कहता। कारण पता नहीं कब किस दवाई की आवश्यकता पड़ जाये और उसे लेना पड़े। इसलिए वह अपने मतलब की मेडिकल स्टोर से दवाई लेकर अन्य प्रकार की दवाई से मध्यस्थ (तटस्थ) रहता है, ठीक उसी प्रकार आप भी अपने मतलब का मंत्र लेकर अन्य प्रकार के मंत्रों से मध्यस्थ रहें। उन्हें भला-बुरा कहकर उनकी निन्दा आदि न करें क्योंकि पता नहीं कब आपका भाग्य फूट जाए, कब कर्म रुठ जायें, कब दुर्भाग्य आ जाये, कब किस्मत पल्टा खा जाये और आपको दर-दर भटकना पड़ जाये फिर कहीं ऐसा न हो की वही मंत्र आपको कोई जपने को कहें, फिर क्या होगा, जरा सोचो ? विचार करो... ? - 47
SR No.009370
Book TitleMantra Yantra aur Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrarthanasagar
PublisherPrarthanasagar Foundation
Publication Year2011
Total Pages97
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, L000, & L020
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy