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________________ मंत्र अधिकार मंत्र यंत्र और तंत्र मुनि प्रार्थना सागर ७. शनि ४,८,९,१४ रो.,श्र., धनिष्ठा, अश्विनी, स्वाती, पुष्य, अनुराधा, मघा, शतभिषा। बीजाक्षरों के भेद प्राकृत भाषा की अपेक्षा तेतीस व्यंजन, सत्ताईस स्वर और योगबाह (जोडाक्षर) चार कुल मिलकर चौसठ मूल वर्ण होते हैं। संस्कृत में सोलह स्वर, पच्चीस व्यंजन, अन्तस्थ चार, ऊष्म चार, क्ष, त्र, ज्ञ ये तीन, मिलाकर ५२ स्वर और व्यंजन होते हैं। इन सभी बीजाक्षरों की उत्पत्ति पंच नमस्कार मंत्र से ही हुई है, सर्व मातृका ध्वनि इसी मंत्र से उद्भूत है। इन सब में प्रधान 'ॐ' बीज है। आत्मवाचक है, इसी को तेजोबीज (अग्निबीज) काम बीज और भावबीज भी कहते हैं। यह ॐ बीज भी समस्त मंत्रों का सार है। कीर्तिवाचक विद्वेष रोषवाचक शान्तिवाचक प्रौं-प्री- स्तम्भनवाचक कल्याणवाचक क्लीं लक्ष्मी प्राप्ति वाचक मंगलवाचक तीर्थंकर नाम- मंगलवाचक सुखवाचक क्ष्वीं- योगवाचक यक्ष और यक्षणियों के नाम कीर्ति और प्रीतिवाचक वशीकरण, उच्चाटन में 'हूँ' का प्रयोग करना चाहिए। मारण में 'फट' का प्रयोग करना चाहिए। स्तम्भन, विद्वेषण, मोहन में, 'नम:' का प्रयोग करना चाहिए। शान्ति और पौष्टिक में 'वषट्' का प्रयोग करना चाहिए। मंत्र शास्त्र के बीजों का विवेचन करने पर आचार्यों ने उनके रूपों का निरूपण करते हुए लिखा हैअ आ ऋह श य क ख ग घ ङ यह वर्ण वायु तत्त्व संज्ञक हैं। इ ई ऋ च छ ज झ ञ क्ष र थ यह वर्ण अग्नि तत्त्व संज्ञक हैं। ल व ल उ ऊ त ट द ड ण यह वर्ण पृथ्वी तत्त्व संज्ञक हैं। ए ऐ ल थ ध ठ ढ ध न स यह वर्ण जल तत्त्व संज्ञक हैं। ओ औ अं अः प फ ब भ म - यह वर्ण आकाश तत्त्व संज्ञक हैं। ____ मंत्र के अन्त में 'स्वाहा' शब्द रहता है। जो पाप नाशक, मंगलकारक तथा आत्मा की आन्तरिक शान्ति दृढ करने वाला है। मंत्र को शक्तिशाली करने वाले अन्तिम ध्वनि मेंस्वाहा -स्त्रीलिंग, वषट् फट्- पुल्लिंग तथा नमः शब्द नपुंसकलिंग होता है। जप में दिशा-कालादि का विचार 90
SR No.009370
Book TitleMantra Yantra aur Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrarthanasagar
PublisherPrarthanasagar Foundation
Publication Year2011
Total Pages97
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, L000, & L020
File Size1 MB
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