Book Title: Launkagacchha aur Sthanakvasi
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Kalyanvijayji
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौंकागच्छ और स्थानकवासी लेखक- इतिहासवेत्ता विद्वद्वर्य पं. श्री कल्याणविजयजी गणि . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह पुस्तिका (लेखक - इतिहासवेत्ता पं. श्री कल्याणविजयजी गणि) पुस्तक के चतुर्थ परिच्छेद से उद्धृत की गई है। लौकाशाह के सत्य इतिहास को इसमें प्राचीनप्रमाण और तर्क से पेश किया है। पूर्वग्रह से मुक्त होकर मध्यस्थभाव से इस प्रामाणिक इतिहास को पढ़ें, सोचे, विचारें, समझे और आत्मकल्याण का पथ अपनाईए। मुद्रक संकेत आर्ट ७/३०१८, सैयदपूरा, तुरावा महोल्लो, सूरत. प्राप्ति स्थान सुनिल बालड जमना विहार, भीलवाड़ा. फोन : ९८२८३ ८१५७९ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थों का गच्छ - प्रवर्तन +++++++++ लौकामत - गच्छ की उत्पत्ति सूत्रकाल में स्थविरों के पट्टकम की यादी को "थेरावली" अर्थात् "स्थविरावली" इस नाम से पहिचाना जाता था, क्योंकि पूर्ववरों के समय में निर्ग्रन्यश्रमरण बहुधा वसति के बाहर उद्यानों में ठहरा करते थे और पृथ्वीशिलापट्ट पर बैठे हुए ही श्रोतागणों को धर्मोपदेश सुनाते थे, न कि पट्टी पर बैठकर । देश, काल, के परिवर्तन के वश श्रमणों ने भी उद्यानों को छोड़कर ग्रामों नगरों में ठहरना उचित समझा भोर धीरे-धीरे जिननिर्वाण से ६०० वर्ष के वाद प्रधिकांश जैन श्रमरणों ने वसतिवास प्रचलित किया । गृहस्थ वर्ग जो पहले " उपासक" नाम से सम्बोधित होता था वह धीरे-धीरे नियत रूप से धर्म-श्रवरण करने लगा, परिरणाम स्वरूप प्राचीन श्रमणोपासकश्रमणोपासका समुदाय श्रावक श्राविका के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह सब होते हुए भी तब तक श्रमरणसंघ धार्मिक मामलों में प्रपनी स्वतंत्रता कायन रक्खे हुए था । उपर्युक्त समय दर्मियान जो कोई निर्ग्रन्थ श्रमण श्रपनी कल्पना के बल से धार्मिक सिद्धान्त के विरुद्ध तर्क प्रतिष्ठित करता तो श्रमरण-संघ उसको समझा-बुझाकर सिद्धान्तानुकूल चलने के लिए बाध्य करता, यदि इस पर भी कोई अपने दुराग्रह को न छोड़ता तो श्रमण संघ उसको प्रपने से दूर किये जाने की उद्घोषणा कर देता । श्रमरण भगवान् महावोर को जीवित अवस्था में हो ऐसी घटनाएं घटित होने लगी थीं। महावीर को तीर्थ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग कर पद प्राप्त होने के बाद १४ वें भोर २० वें वर्ष में क्रमशः जमालि पोर तिष्य गुप्त को श्रमरण-संघ से वहिष्कृत किये जाने के प्रसंग सूत्रों में उपलब्ध होते हैं, इसी प्रकार जिन-वचन से विपरीत अपना मत स्थापित करने वाले जैन साधुनों के संघहिष्कृत होने के प्रसंग "मावश्यक-नियुक्ति" में लिखे हुए उपलब्ध होते हैं, इस प्रकार से संघ बहिष्कृत व्यक्तियों को शास्त्र में निह्वव इस नाम से उल्लिखित किया है और "पोपपातिक" "स्थानाङ्गसूत्र" एवं मावश्यकनियुक्ति में उनकी संख्या ७ होने का निर्देश किया है। वीरजिन-निर्वाण को सप्तम शती के प्रारंभ में नग्नता का पक्ष कर अपने गुरु से पृथक् हो जाने और अपने मत का प्रचार करने की आर्य शिवभूति की कहानी भी हमारे पिछले भाष्यकार तथा टीकाकारों ने लिखी है, परन्तु शिवभूति को संघ से बहिष्कृत करने की बात प्राचीन साहित्य में नहीं मिलती। इसका कारण यही है कि तब तक जेन श्रमण बहुधा वसतियों में रहने वाले बन चुके थे और उनके पक्ष, विपक्ष में खड़े होने वाले गृहस्थ श्रावकों का उनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बन चुका था। यही कारण है कि पहले "श्रमण-संघ" शब्द की व्याख्या "श्रमणानां संघः श्रमरण-संघः" अर्थात् "साधुओं का संघ" ऐसी की जाती थी, उसको बदलकर "श्रमणप्रधानः संघः श्रमणसंघः' अर्थात् जिससंघ में साधु प्रधान हों वह "श्रमणसंघ" ऐसी व्याख्या को जाने लगी। मार्य स्कन्दिल के समय में जो दूसरी बार भागमसूत्र लिखे गए थे, उस समय श्रमणसंघ शब्द की दूसरी व्याख्या मान्य हो चुकी थी और सूत्र में ."चाउवणे संघो" शब्द का विवरण, “समणा, समणीमो, सावगा, साविगानो" इस प्रकार से लिखा जाने लगा था। इसका परिणाम श्रमरणसंघ के लिए हानिकारक हुमा, अपने मार्ग में उत्पन्न होने वाले मतभेदों और माचार-विषयक शिथिलतानों को रोकना उनके लिए कठिन हो गया था। जिननिर्वाण की १३ वीं शती के उत्तराध से जिनमार्ग में जो मतभदों का और आचारमार्ग से पतन का साम्राज्य बढ़ा उसे कोई रोक नहीं सका। वर्तमान भागमों में से "प्राचारांग" और "सूत्रकृतांग" ये दो सूत्र मौर्यकालीन प्रथम प्रागमवाचना के समय में लिखे हुए हैं। इन दो में से Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग "माचारांग " में केवल एक "पासत्था" शब्द श्राचारहीन साधु के लिए प्रयुक्त हुना उपलब्ध होता है, तब "सूत्रकृतांग" में एक शब्द जो प्राचारहीनता का सूचक है अधिक बढ़ गया है । वह शब्द है "कुरा'ल" । ३ उपर्युक्त दो सूत्रों के अतिरिक्त अन्य अनेक सूत्रों में "पाइर्वस्थ, कुशील, अवसन्न, संक्त, मोर ययाछन्द" इन पांच प्रकार के कुगुरुपों की परिगणना हुई; परन्तु आगे चलकर " नियय" अर्थात् 'नियत" रूप से "वसति" तथा "आहार" प्रादि का उपभोग करने वालों को छट्ठ े कुगुरु के रूप में परिगमना हुई। यह सब होने का मूल कारण गृहस्थों का संघ में प्रवेश और उनके कारण से होने वाला एक दूसरे का पक्षपात है । साधुमों के समुदाय जो पहले "गरण" नाम से व्यवहृत होते थे "गच्छ" बने और "गच्छ" में भी पहले साघुत्रों का प्राबल्य रहता था वह घोरे-वीरे गृहस्थ श्रावकों के हाथों में गया, गच्छों तथा परम्पराम्रों का इतिहास बताता है कि कई " गच्छपरम्पराएं" तो केवल गृहस्थों के प्रपत्र से ही खड़ी हुई थी, मौर उन्होंने श्रमणगरणों के संघटन का भयंकर नाश किया था। मामला यहीं समाप्त नहीं हुआा, आगमों का पठन पाठन जो पहले श्रमणों के लिए ही नियत था, श्रावकों ने उसमें भी अपना दखल शुरू कर दिया, वे कहते - प्रमुक प्रकार के शास्त्र गृहस्थ-श्रावक को क्यों नहीं पढ़ाये जायें ? मर्यादारक्षक प्राचार्य कहते - श्रावक सुनने के अधिकारी हैं, वाचना के नहीं, फिर भी कतिपय नये गच्छ वालों ने अमुक सीमा तक गृहस्थों को सूत्र पढ़ाना सुनाना प्रचलित कर दिया, परिणाम जो होना था वही हुमा, कई सुधारक नये गच्छों की सृष्टि हुई और अन्धाधुन्ध परिवर्तन होने लगे, किसी ने सूत्र- पंचांगी को ही प्रमाण मानकर परम्परागत प्राचार - विधियों को मानने से इन्कार कर दिया, किसी ने द्रव्य-स्तव भावस्तवों का बखेड़ा खड़ा करके, अमुक प्रवृत्तियों का विरोध किया, तब कइयों ने श्रागम, परम्परा दोनों को प्रमाण मानते हुए भी अपनी तरफ से नयी मान्यताएं प्रस्तुत करके मौलिकता को तिरोहित करने की चेष्टा की, इस अन्धाधुन्ध मत सर्जन के समय में कतिपय गृहस्थों को भी साधुनों के उपदेश और प्रदेशों Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग का विरोध कर अपनी स्वयं की मान्यताओं को मूर्त रूप देकर अपने मत गच्छ स्थापित करने का उत्साह बढ़ा। ऐसे नये मतस्थापकों में से यहां हम दो मतों की चर्चा करेंगे, एक "लौकामत" की और दूसरी "कडुवामत" की। पहला मत मूर्तिपूजा के विरोध में खड़ा किया था, तब दूसरामत वर्तमानकाल में शास्त्रोक्त माचार पालने वाले साधु नहीं हैं, इस बात को सिद्ध करने के लिये । लौका कौन थे ? __ लौकागच्छ के प्रादुर्भावक लौका कौन थे ? यह निश्चित रूप से कहना निराधार होगा। लौंका के सम्बन्ध में प्रामाणिक बातें लिखने का माधारभूत कोई साधन नहीं है, क्योंकि लौंकाशाह के मत को मानने वालों में भी इस विषय का ऐकमत्य नहीं है। लौंका के सम्बन्ध में सर्वप्रथम लौकागच्छ के यतियों ने लिखा है पर वह भी विश्वासपात्र नहीं। बीसवीं शती के लेखकों में शाह वाडीलाल मोतीलाल, स्थानकवासी साधु मरिणलालजी आदि हैं, पर ये लेखक भी लौका के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न दिशाओं में भटकते हैं। शाह वाडीलाल मोतीलाल लौकाशाह का जन्म अहमदाबाद में हुप्रा मानते हैं और इनको बड़ा भारी साहूकार एवं शास्त्र का बड़ा मर्मज्ञ विद्वान् मानते हैं, तब स्थानकवासी साधु मुनिश्री मणिलालजी अपनी पट्टावली में लौंका का जन्म "अहंटवाडा" में हुमा बताते हैं और लिखते हैं - अहमदाबाद में आकर लौंका बादशाह की नौकरी करता था और कुछ समय के बाद नौकरी छोड़ कर पाटन में यति सुमतिविजय के पास वि० सं० १५०६ में यतिदीक्षा ली थी और अहमदाबाद में चातुमास्य किया था, परन्तु वहां के जैनसंघ ने यति लौंका का अपमान किया, जिससे वे उपाश्रय को छोड़ कर चले गये थे। इसके विपरीत लौंका के समीपवर्ती काल में बमे हुए चौपाई, रास आदि में लोकाशाह को गृहस्थावस्था में हो परलोकवासी होना लिखा है । इन परस्पर विरोधी बातों को देखने के बाद लोकाशाह Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली -पराग के सम्बन्ध में कुछ भी निश्चित रूप से अभिप्राय व्यक्त करना साहस मात्र ही माना जायगा । ५ Marite aौर इनका मन्तव्य लोकाशाह का अपना खास मन्तव्य क्या था, इसको इसके अनुयायी भी नहीं जानते । लौका को मौलिक मान्यताओं का प्रकाश उनके समोपकालवर्ती लेखकों की कृतियों से ही हो सकता है, इसलिए पहले हम लौका के अनुयायी तथा उनके विरोधी लेखकों को कृतियों के अाधार से उनके मत का स्पष्टीकरण करेंगे । लौकागच्छीय पति श्री भानुचन्द्रजीकृत "दयाधर्म चौपाई" के अनुसार लौंका के मत को हकीकत punto यति भानुचन्द्रजी कहते हैं - " भस्मग्रह के अपार रोप से जैनधर्म अन्धकारावृत हो गया था । भगवान् महावीर का निर्वारण होने के बाद दो हजार वर्षों में जो जो बरतारे बरते उनके सम्बन्ध में हम कुछ नहीं कहेंगे, जब से शाह लोंका ने धर्म पर प्रकाश डाला और दयाधर्म की ज्योति प्रकट हुई है उसके बाद का कुछ वर्णन करेंगे | १२ | " "सोगराष्ट्र देश के लींबड़ी गांव में डुङ्गर नामक दशा श्रीमाली गृहस्थ बसता था । उसकी स्त्री का नाम था चूड़ा। चूड़ा वड़े उदार दिल की स्त्री थी, उसने संवत् १४५२ के वैशाख वदि १४ को एक पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम दिया लोका । लौंका जब श्राठ वर्ष का हुा तब उसका पिता शा. डुंगर परलोकवासी हो गया था | ३ | ४|" "लौंका की फूफी का बेटा लखमसी नामक गृहस्थ था, जिसने लौंका का धनमाल अपने कब्जे में रक्खा था । लोका की उम्र १६ वर्ष की हुई तब उसकी माता भी स्वर्ग सिधार गई । लौका लीम्बड़ी छोड़कर ग्रहमदाबाद प्राया और वहां नारणावट का व्यापार करने लगा। हमेशा वह धर्म सुनने धौर पोपधशाला में जाता और त्रिकाल पूजा, सामायिक करता, व्या Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग - ख्यान में वह साधुनों का प्राचार सुनता, परन्तु उस समय के साघुपों में शास्त्रोक्त-प्राचार पालन न देखकर उनको पूछता-माप कहते तो सही हैं परन्तु चलते उससे विरुद्ध हैं, यह क्या ? लौका के इस प्रश्न पर यति उसको कहते-धर्म तो हमसे ही रहता है, तुम इसका मर्म क्या जानो। तुम पांच प्राश्रवसेवतो हो और साधुनों को सिखामन देने निकले हो। ५ ६७।८।" “यति के उक्त कथन पर शाह लोंका ने कहा-शास्त्र में तो दया को धर्म कहा है, पर तुम तो हिंसा का उपदेश देकर अधर्म की स्थापना करते हो? इस पर यति ने कहा-फिट भोण्डे ! हिंसा कहां देखी ? यति के समान कोई दया पालने वाला है ही नहीं। लौंका ने यति के उत्तर को अपना अपमान माना और साधुनों के पास पौषधशाला जाने का त्याग किया। स्थान-स्थान वह दया-धर्म का उपदेश देता, मौर कहता-पाज ही हमने सच्चा धर्म पाया है। दूकान पर बैठा हुमा भी वह लोगों को दया का उपदेश दिया करता, जिसे सुनकर यति लोग उसके साथ क्लेश किया करते थे, पर लौका अपनी धुन से पीछे नहीं हटा । फलस्वरूप संघ के कुछ लोग भो उसके पक्ष में मिले, बाद में शाह लौंका अपने वतन लीबड़ी गया, लीबड़ी में लौका को फूफी का बेटा लखमसी कारभारी था, उसने लौका का साथ दिया और कहा-हमारे राज्य में तुम धर्म का उपदेश करो। दया-धर्म हो सब धर्मों में खरा धर्म है । ६।१० ११।१२" । "शाह लौका और लखमसी के उद्योग से बहुत लोग दया-धर्मी बने । इतने में लॊका को भारणा का संयोग मिला । लौका बुढ्डा होने माया था, इसलिए उसने दीक्षा नहीं ली, पर तु भाणा ने साधु का वेष ग्रहण किया प्रोर जिसका शाह लौंका ने प्रकाश किया था उस दया-धर्म की ज्योति भाणा ने सर्वत्र फैलायी। शाह लौंका संवत् १५३२ में स्वर्गवासी हुए ।१३।१४।" "दशा-धर्म जयवन्त है, परन्तु कुमति इसकी निन्दा और बुराइयां करते हैं, कहते हैं-'लों का साधुनों को मानने का निषेध करता है, पौषध, अतिक्रमण, प्रत्याख्यान, जिनपूजा और दान को नहीं मानता।' परन्तु हे Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग कुमतियो! यह क्या कहते हो? लोंका ने किस बात का खण्डन किया है, वह समझ तो लो। "लोका सामायिक को दो से अधिक बार करने का निषेध करता है, पर्व विना पोषध का निषेध करता है, व्रत बिना प्रतिक्रमण करने का निषेध करता है। वह भाव-पूजा से ज्ञान को प्रच्छा बताता है, वह द्रव्य-पूजा का निषेध करता है, क्योंकि उसमें धर्म के नाम से हिंसा होती है । ३२ सूत्रों को वह सच्चा मानता है, समता-भाव में रहने वालों को वह साधु कहता है।" उक्त प्रकार से लौका का धर्म सच्चा है। परन्तु भ्रम में पड़े हुए मनुष्य उसका मर्म नहीं समझते । १५॥ १६।१७।१८।१६" "जो कुमति है वह हठवाद करता है, जैसे बिच्छू के काटने से उन्मादी हुमा बन्दर । झठ बोलकर जो कर्म बांधता है वह धर्म का सच्चा मर्म नहीं जानता। यतना में धर्म है और समता में धर्म है, इनको छोड़कर जो प्रवृत्ति करते हैं वे कर्म बांघते हैं, जो परनिन्दा करते हैं वे पाप का संचय करते हैं, जिनमें समता नहीं है उनके पास धर्म नहीं रहता। श्रीजिनवर ने दया को धर्म कहा है, शाह लौंका ने उसको स्वीकार किया है और हम उसी की आज्ञा को पालते हैं, यह तुमको बुरा क्यों लगता है ? क्या तुम दया में पाप मानते हो जो इतना विरोध खड़ा कर दिया है, तुम सूत्र के प्रमाण देखो, दया विना का धर्म नहीं होता. जो जिन आज्ञा का पालन करते हैं, उनको मेरा नमस्कार हो । मेरे इस कथन से जिनके मन में दुःख हुया हो उनके प्रति मेरा मिथ्यादुष्कृत हो। सं० १५७८ के माघ सुदी ७ को यति भानुचन्द ने अपनी बुद्धि के उल्लास से लौका के दया-धर्म पर यह चौपाई लिखी है, जो पढ़ने वालों के मन का उल्लास बढ़ाये । २०१२१॥२२॥ २३।२४।२।" ऊपर जिसका सारांश लिखा है उस दया-धर्म चौपाई से शाह लौका का जीवन कुछ प्रकाश में माता है। उसका जन्म-गांव, माता-पिता के नाम भौर जन्म-समय पर यह चौपाई प्रकाश डालती है। लौका मरहटवाड़ा में नहीं पर लीम्बड़ी (सौराष्ट्र) में जन्मे थे, उनका जन्म १५वीं शती के मन्तिम चरण में हुआ था। अपनी २८ वर्ष की उम्र में उसने यतियों Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग से विरुद्ध होकर उनके सामने "दया-धर्म के नाम से अपना मूर्तिपूजा विरोधी मत स्थापित किया था" और २२ वर्ष तक उन्होंने महेता लखमसी के सहकार से उसका प्रचार किया। सं० १५३२ में अपने पीछे भागजी को छोड़कर लौंका परलोकवासी हुए। भारगजी ने साधु का वेश लौकाशाह के जीवनकाल में धारण किया था या उनके स्वर्गवास के बाद ? इसमें दो मत प्रतीत होते हैं। उक्त "दया-धर्म चौपाई ' में लौका यति भानुचन्द्रजी ने सं० १५३२ में लौंकाशाह का स्वर्गवास माना है। लौकाशाह ने खुद ने दीक्षा नहीं ली पर भारणा ने वेष-धारण किया था ऐसा चौपाई में लिखा है। इसके विपरीत लोकागच्छ के यति केशवजी-कृत लौंकाशाह के सिलोके में लौंका द्वारा सं० १५३३ में भारगजी को दीक्षा देने और उसी वर्ष में लौंका के स्वर्गवास प्राप्त करने का लिखा है। केशवषि-कृत लौंकाशाहसिलोके में लेखक ने कुछ ऐतिहासिक बातें भी लिखी हैं इसलिए सिलोका के माधार से लौकामत को कुछ बातें लिखते हैं सौराष्ट्र में नागनेरा नदी के तट पर पाए एक गाव में हरिचन्द्र नाम का एक सेठ रहता था। उसको स्त्री का नाम मूगोबाई था। पूनमोया गच्छ के गुरु को सेवा से पीर शय्यद के माशीर्वाद से सं० १४७७ में उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम "लक्खा" दिया गया। लक्खा ज्ञानसागर गुरु की सेवा करता हुआ पढ़-लिखकर "लहिया" बना और वहीं पुस्तक लिखने का काम करने लगा। इस कार्य में लक्खा को द्रव्य की प्राप्ति होती थी, श्रत की भक्ति होती थी, और ज्ञान-शक्ति भी बढ़ती थी। आगम लिखतेलिखते उसके मन में शंका उत्पन्न हुई कि "पागम में कहीं भी दान देने का विधान नहीं दीखता, प्रतिमा-पूजा, प्रतिक्रमण, सामायिक मौर पौषध भी मूल सूत्रों में कम दीखता है।" राजा श्रेरिणक, कुरिणक, प्रदेशी तथा तु गिया नगरो के श्रावक जो तत्वगवेषी थे उनमें से किसी ने प्रतिक्रमण नहीं किया, न किसी को दान दिया। सामायिक और पूजा एक ठट्ठा है, मौर यतियों की चलाई हुई यह पोल है, प्रतिमा-पूजा बड़ा सन्ताप है, इसको करके हम धर्म के नाम पर थप्पड़ खाते हैं। लक्खा को लोग "लुम्पक" कहते हैं सो ठीक ही है, क्योंकि वह प्रविधि का लोप करने वाला है । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग लखा का दूसरा नाम लऊका भी है। वह संयत नहीं है, फिर भी यति से अधिक है। लोगों ने लौका-मत को परख लिया है। सं० १५०८ में सिद्धपुर में नौका ने सोज-पूर्वक शुद्ध जिन मत की स्थापना की है। लौंका मत प्रसिद्ध हुपा । बादशाह मुहम्मद लुका-मत को प्रमाण मानता है। सूबा, सेवक सव कोई इसको मानते हैं और लखा गुरु के चरणों में शिर नवांते हैं। उस समय सोरठ देश में लीम्बड़ी गांव का लखमसी नामक एक कामदार था, उसने लुकागुरु का उपदेश ग्रहण किया और देश-विदेश में विस्तार किया। इस मत के सम्बन्ध में जो कोई वाद-विवाद करता है तो न्यायाशीश भी 'लोका' का पक्षपात करता है । "सं० १५३३ के वर्ष में लौका-मत के प्रादुर्भावक शाह लोंका ने ५६ वर्ष को उम्र में स्वर्गवास प्राप्त किया और १५३३ में ही लोंका ने भारगजी को शिक्षा दी थी।" भागजी ऋषि सत्य का और जीव-दया का प्रचार करते थे। वर्धमान की पेढी के नायक बनकर भागजी ऋषि देश-विदेश में विचरते थे और अब तक उनकी शुद्ध परम्परा चलती है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौंकाँगन्छ की पहावली (१) - सिलोके में केशवजी कहते हैं - अन्तिम तीर्थङ्कर श्री बर्द्धमान के गुणवान् ११ गणधर हुए इसलिए उनकी पाट-परम्परा कहते हैं - १ महावीर के पंचम गणधर सुधर्मास्वामी हुए। २ सुधर्मा के शिष्य गुणवान् जम्बू हुए। ३ जम्बू के प्रभव, ४ प्रभव के शय्यम्भव, ५ यशोभद्र, ६ संभूति, ७ बाहुस्वामी, ८ स्थूलभद्र, ६ महागिरि, १० सुहस्ती, ११ बहुल और १२ बल्लिस्सह स्वाति, १३ कालिकसूरि, १४ स्कन्दिलस्वामो, १५ मार्यसमुद्र, १६ श्रीमंगू, १७ श्रीधर्म, १८ भद्रगुप्त, १६ वज्रस्वामी, २० सिंहगिरि, २१ वज्रसेन, २२ चन्द्र, २३ समन्तभद्र, २४ मल्लवादी, २५ वृद्धवादी; २६ सिद्धसेन, २७ वादीदेव, २८ हेमसूरि, २६ जगच्चन्द्रसूरि, ३० विजयचन्द्र, ३१ खेमकीतिजी, ३२ हेमजीस्वामी, ३३ यशोभद्र, ३४ रत्नाकर, ३५ रत्नप्रग, ३६ मुनिशेखर, ३७ धर्मदेव, ३८ ज्ञानचन्द्रसूरि । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौकागच्छ की पट्टावली (2) हमारे भण्डार में श्री कल्पसूत्र मूल की एक हस्तलिखित प्रति है, उसके अन्तिम पत्र १७२ से १७४ तक में लोकागच्छीय पट्टावली दी हुई है | यह कल्पसूत्र सं० १७६४ में लिखा गया था ऐसा इसकी निम्नोद्धृत पुष्पिका से ज्ञात होता है। "इति कल्पसूत्र समाप्त "छ" श्री श्री संवत् १७९४ वर्षे शा० १६६० प्रवर्तमाने चैत्रमासे, कृष्णपक्षे ६ गुरौ लि० पूज्य श्री ५ नायाजी, तत् शिष्य ५ मनजीजी तत् शिष्य श्री ५ मूलजो, गुरुभ्राता प्रेमजी लिपी कृतं स्वात्मायें ।" उपर्युक्त पुष्पिका से ज्ञात होता है कि यह पट्टावली श्राज से लगभग सवा दो सौ वर्ष पहले लिखी गई है और इसके लिखने वाले लोकागच्छ के श्रीपूज्य मूलजी के गुरुभाई प्रेमजी यति थे । पट्टावली का प्रारम्भ श्री स्थूलभद्रस्वामी से किया है, धन्य पट्टावली - लेखकों की तरह इसके लेखक ने भी अनेक युगप्रधानों के नामों तथा समयनिरूपण में गोलमाल किया है, फिर भी हम इसमें कुछ भी मौलिक परिवर्तन न करके पट्टावली को ज्यों का ज्यों उद्धृत करते हैं ॥६॥ तत् पटे श्री स्थूलभद्रस्वामीत्र स्थूलभद्रजीकथा सवं जांरणवी ॥७॥ दशपूर्वधारी महावीर पछी १७० वर्षे देवलोक पहोंतो ॥ तत्पटे झार्य महागिरी १० पूर्वघर ॥८॥ तत्पट्टे धार्य सुहस्तस्वामी ॥६॥ तत्पट्टे श्री गुरागार स्वामी ॥१०॥ तत्पट्टे श्री कालिकाचार्य, ॥११॥ तत्पट्टे श्री संडिलस्वामी ॥१२॥ तत्पट्टे श्री रेवतगिरस्वामी ॥१३॥ तत्पट्टे सौधर्माचार्य, 3 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पट्टावली पराग ॥१४॥ तत्प? श्रीगुप्तास्वामी, ॥१५॥ तत्पट्टे श्री प्रार्यमंगुस्वामी, ॥१६॥ तत्प? श्री प्रार्यसुधर्मस्वामी, ॥१७॥ तत्प? श्री वृद्धवादधरस्वामी, ॥१८॥ तत्पट्टे श्री कुमुदचन्द्रस्वामी, ॥१६॥ तत्पट्टे श्री सिंहगिरिस्वामी, ॥२०॥ तत्प? श्री वयरस्वामी दशपूर्वघर, ॥२१॥ तत्पट्टे श्री भद्रगुप्ताचार्य स्वामी, ॥२२॥ तत्प? श्री मार्यनन्द स्वामी, ॥२३॥ तत्पट्टे श्री प्रार्थनागहस्ती स्वामी, ॥२४॥ तेणे वारे बोजी पट्टावलीमा सत्तावीसमे पाटे देवर (घि) गणि जेणे सर्व सूत्र पुस्तके चढाव्या ते समस्य जाणव्यो, मायनागहस्ती, तत्प? श्री रेवतस्वामी, ॥२५॥ तत्पट्टे श्री ब्रह्मदिनस्वामी, ॥२६॥ तत्पट्टे श्री संडिलसूरि, ॥२७॥ तत्प? श्री हेमवन्तरि, ॥२८॥ तत्प? श्री नागार्जुनस्वामी, ॥२६॥ तत्प? श्री गोवन्दवाचक स्वामी, ॥३०॥ तत्प? श्री संभूतिदिनवाचक स्वामी, ॥३१॥ तत्प? श्री लोहगिरिस्वामी, ॥३२॥ तत्पट्टे श्री हरिभद्रस्वामी, ॥३३॥ तत्पट्टे श्री सिलंगाचार्यस्वामी ॥३४॥ तिवारपनी (छी) १२ दुकाली जोगे पाट लोहडीवडी पोसाल मां चाल्या जात पौशालिक धर्म प्रवत्यों। पौशालिक कालि माहात्मा नामघरवुई छ ॥ पाट ३३ । ३४ सूची पूर्वधर छ, पछ पूर्व विद्या ढांको पोसाल प्रवर्ति जातां जातां पाट १० । १२ पोसाल मां थया, तिणे समें सूत्रने ढांकी अनेरा दहेरा पोशालना माहातम प्रत्यकरी पूजाऽर्धा धर्म चलायो, वीर पछी १२ सौ वर्षे देहरा प्रवा, जावत् महावीर पछी बेसहस्र वर्ष वुओं तिहां सूधी पोशाल धर्म प्रवर्तना थई । तेणे समें श्री गुजर देशे प्रणहल्लपुर पाटन ने विषे मोटी पौशाल सूरी सूरपाट प्रवति थई, तेरणे समे ते नगरमां लोकासाह इसई नामई विवहारी वसे छे, जावत सिद्धवंत छ, लिखत कला छ, ते माटे एकदा समे सूरि सूरे सिद्धान्त परत जुनी थाई जांणी लका साहर्ने लिखवा दीधी, ते लिखतां वीरवाणी सिधांत जाण्यों, १ परत पोती ने अर्थ लिखें, १ परत सुरिसर ने लिखी देखें, एम करतां ३२ सूत्र लिख्यां, तेणे समे सूरिशरे जाण्यो ते पोतानो प्रति पण लिखे छ पछ मंडारमाथी लिखवा दोषी नहीं। पाटन ना भंडार मा ४ सूत्र छै. बोजी प्रागमोक्त सर्व विद्यापण छ, पण ३२ सूत्र लकेसाहिं लिस्पांति श्रावक प्रागेवांची साधना गुरण विषाडे । वीरवारणी पोलखाववे इस करतां केतलाक सूत्र रुचि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग " श्रावक थया, साध मूर्त मानता थया, तेणे समय मारवाड थी एक संघ से जानी जात्राएं जाई, तेमां ८ संघ मुखी छे, भाषा, भीदा, जगमाल, सरवा प्रमुख ते पाटरण प्राव्या, ते लकासाह नो नवीन धर्म प्रबोध सांभलवा श्राव्या, तेरणे प्रबोध दई सिद्धान्त प्रोटखाव्यो, तेणे पोसाली धर्म, देहरों, प्रतमा पुजा मुकी, सघियया, तारे लके साही सूत्र ३३ साधने ते सूप्य हवे, तुम्यों वाचो धर्म धुरंधर, त्यार पट्टी भरणादिक साधे वीरधर्मवारणी साघु धर्म देशे २ प्रवर्तना कोंधी, इम सूरिसरे जप्यो जे सर्वे ए धर्म ग्रहसे, तारि पोसालमाथी पाटधारों सूरि क्रियाउधारो निकल्या, नाम "तपगछ" घराणों, इम करतां भारषा, भीदाना साधप्रवर्त्या, तेणे प्राचार्यपद धरयो लके साहि धर्म प्रवर्ताव्यो ते माटे प्राचायें "लुंका नामे गच्छ स्थापना कीधी" लंकागच्छ स्थापना जागवी । श्रीवीरवारणी महापन्नवरणा सूत्र मां तथा दुसरा ग्रन्थ मां कह्यो छे, जे पंचमा प्रारा मां 'रूपा, जीवा दो धारीया भवई", ते प्राचार्य प्रेमना साध धर्म प्रवर्त्या, तेरणे समे संवत् १५०० मध्ये दक्षरण देशे निकलंकी राजा ने घरे धर्मदत्त पुत्र उपनो, लोक मां बुध अवतारे कहवांरणो, गुप्त परणे साधुधर्म प्रकासे, जिनशासन धर्मउदे करी संबुध कला ज्ञानप्रकासी पाचमां देवलोके देवता थया । तेलकगच्छ मां थया, तीर्थं गौत्री ते वीरवांगी सूत्र मांही छे, ते रूप रुष धर्म धूरंधर मंहत पुरुष धर्माचार्य भवप्रारणो उवारक यया तिल (तेह) ना पाट लिखिये छे॥ छ ॥ प्रथम पाट युगप्रधान श्री ६ श्री रुपरखजी (१), तत्ःट्टे श्री युगप्रधान श्री ६ जीवरुषजी जी ॥ २॥ तत्पट्टे यु० श्री ६ वरुद्धवरसंगाजी ॥३॥ तत्पट्टे यु० श्री ६ षी सघुषरसंगजी ॥४॥ तत्पट्टे यु० जसवंतजी ॥५u, तत्पट्टे यु० श्री ६ रूपसहजी ॥६॥ तत्वट्टे यु० श्री ६ दामोदरजी ॥७en, तत्पट्टे यु० ६ श्री क्रमसिहजी ॥८॥ तत्पट्टे युग० श्री ६ केशवजी ॥८॥, तत्पट्टे ० तेजसहनी ॥१०॥ तत्पट्टे यु० श्री ६ लख्यमचंद्रजी ॥११॥ तत्पट्टे श्री ६ श्री दुलसिहबी ॥१२॥ तत्पट्टे यु० श्री ६ श्री जगरूपजीजी जयजयवन्त, अस्मिन् जंबुद्वीपे श्रस्मिन् भरतखण्डे, दक्षण भरते, अस्मिन् देशे, अस्मिन् ग्रांमनगरे, अस्मिन् चतुमति चतुविष संग धर्म प्रबोधित तेहुना १३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पट्टावली-पराग गुणकोतिनां करता संघ ने गर्भ (परम) कल्याणनी कोड हुई ॥श्रीरस्तु॥ तत्प? श्री ६ श्री जगजीवनजी, तत्पष्टुं श्री मेघराजजी, तत्पट्टे युगप्रधान जयवंता श्री ६ श्री सोमचंदजी, तत्पट्टे श्री ६ श्री हर्षचन्द्रजी, तत्पट्टे श्री ६ युगप्रवर्तक जयचन्द्रजी, तत् श्री युगप्रवर श्री ६ कल्याणचन्द्र पूरिसर छ ।" Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौकागाछ की पहावली (३) (बड़ोदे की गादी) तपगच्छ की बड़ी पोशाल के प्राचार्य ज्ञानसागरसूरि के पुस्तक-लेखक लोका गृहस्थ ने मूर्तिपूजा के विरुद्ध में अपना लौकामत चलाया, उसके मतानुयायी ऋषि नामक वेशधारियों की एक परम्परा नीचे मुजब है - १. भाणजी ऋषि २. भीदाजी । ३. नूनाजो , ४. भीमाजी , ५. जगमालजी, ६. सर्वाजी , ७. रुपजी , ८. जीवाजी , (१) ६. वरसिंहजी (वृद्ध) को सं० १६१३ के ज्येष्ठ वदि १३ को वड़ोदे के भावसारों ने श्रीपूज्य का पद दिया, तब से उनकी गादी बड़ोदे में स्थापित हुई मौर "गुजराती लौकागच्छ मोटीपक्ष" ऐसा नाम प्रसिद्ध हुमा। इसी दान महमदाबाद के मूल गादी के श्रीपूज्य कुवरची ऋषि के उत्तराधिकारी श्री मेघजी ऋषि ने २६ ऋषियों के साथ प्राचार्य श्री हीरसूरि के पास दीक्षा स्वीकार की, सं० १६२८ में । (२) १० वरसिंहबी ऋषि (लघु) दूसरे वरसिंहजी जिनका स्वर्गवास Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ पट्टावली-पराग - १६५२ में हुअा था, के शिष्य कलाजो ने भी संवेग. मार्ग स्वीकार किया था जो विजयानन्दसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। ११. यशवन्त ऋषि १२. रुपसिंहजी, १३. दामोदरजो, १४, कर्मसिंहजी, १५. केशवजो , गुजराती लौकागच्छ के बड़े पक्ष का दूसरा नाम "केशवजी पक्ष" भी है। १६. तेजसिंहजो , १७. कानजी , १८. तुलसीदासजी, १६. जगरूपजी २०. जगजीवनजी, २१. मेघराजगी , २२. सोमचन्दजी , २३. हरकचन्दजी, २४. जयचंदजी , २५. कल्याणचन्दजी, २६. खूबचन्दजी । २७. श्रीपूज्य न्यायचन्द्रसरि Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालापुर की गादी की लौंका पट्टावली (8) ५. ऋषि जीवाजी ε., १४. "" १०. ११. १२. केशवजी स्व० सं० १६८६ में । १३. शिवजी इनके शिष्य धर्मसिंह के शिष्य धर्मदासजी ने १५. १६. 17 "" ;; "" #3 ?? 37 सुखमलजी - भागचन्द्रजी १७. बालचंदजी १८. १६. २०. २१. २२. 11 11 11 कुंवरजी - 22 श्रीमलजी रत्नसिंहजी 17 - संघराजजी - इनको बालापुर के श्रावकों ने श्रीपूज्य का पद दिया, तब से इनकी गादी बालापुर में स्थापित हुई मोर "गुजराती लोकापक्ष का छोटा पक्ष '' इस नाम से वह प्रसिद्ध हुई । इनके शिष्य ऋषि मेवजी अहमदाबाद की गादी ऊपर थे, जिन्होंने संवेगो-मागं ग्रहण किया था । "दुष्टिय।" मत चलाया । स्व० सं० १७२५ में । आनन्द ऋषि ने अपने शिष्य ऋषितिलक को श्रीपूज्य बनाकर नया गच्छ स्थापित किया जो "प्रदारिया" के नाम से प्रसिद्ध हुम्रा । स्वर्ग सं० १७६३ में । माणिक्यचंदजी मूलचंदजी - जगराचंदजी स्वर्ग सं० १८७६ रतनचंदजो नृपचंदजी - (मुनि मणिलाल -कृत "प्राचीन संक्षिप्त इतिहास " ) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती लौकागच्छ की पट्टावली (१) ( पू० जयराजजो ' ( पू० ) ऋ० मेघराजजी ) (" कृष्णाजी ) (,, ( ," (" ( 17 (" ' 11 19 "" " " 12 वगलमलजी ) परसरामजी ) ज्योतिरूपजी ) सं० १८१५ हर्षजी ) जिनदासजी ) सं० १९१० आगरा क Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशवर्षि वर्णित लौकागच्छ की पडावली (९) भारगाजी ऋषि के पाट पर सुबुद्धिभद्र ऋषि हुए । भीमाजी स्वामी जगमाल ऋषि सर्वा स्वामी इस समय कुमति वोजा पापी निकला जिसने फिर जिन प्रतिमा की स्थापना की । सर्वा स्वामी के बाद-रूपजी । जीवाजी । कुंवरजी । श्रीमलजी ऋषि जो विचर रहे हैं, इन पूज्य के चरणों को प्रणाम करके केशव ने यह गुरुपरम्परा गाई है । उपर्युक्त लोकाशाह - सिलोका के लेख के श्री केशवजी ऋषि ने श्रीमल जी को अपना गुरु बताया है श्रोर श्रीमलजी लोकाशाह के आठवें पट्टधर श्री जीववि के तीन शिष्यों में से एक थे, इससे सिलोका के लेखक केशवजी सं. १६०० के भासपास के व्यक्ति होने चाहिए । इनसे २५-३० वर्ष पूर्ववर्ती लौका- मच्छीय यति भानुचन्द्रजी लोंका की मान्यता के सम्बन्ध में मन्दिर - मागियों की तरफ से होने वाले माक्षेपों का उत्तर देते हुए कहते हैं"लोका यतियों को नहीं मानता, लोका सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, जिनपूजा, दान नहीं मानता इत्यादि ।" क्या कहा ? लुका ने क्या उत्थान किया है ? वह तो दो बार से अधिक बार सामायिक करने, पवंदिन बिना पौषध करने, १२ व्रत बिना प्रतिक्रमण करने, आगार-सहित Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग प्रत्याख्यान करने घोर असंयत को दान देने का निषेध करता है । तब भानुचन्द्रजी से बाद में होने वाले केशवजी ऋषि मन्दिर - मार्गियों की तरफ से किये जाने वाले प्राक्षेपों का खण्डन न करके अपने लोकाशाह के सिलोका की गाथा १३, १४, १५ में उनका समर्थन करते हैं। वे कहते हैं- "दान देने में श्रागम साक्षी नहीं है । प्रतिमापूजा, प्रतिक्रमण, सामायिक और पौषध भी प्रागम में नहीं है । राजा श्रेणिक, कुणिक, प्रदेशी और तत्त्वगवेवक तुंगिया के श्रावकों में से किसी ने प्रतिक्रमण नहीं किया, न पर को दान दिया । सामायिक पूजा यह ठट्ठा है औौर यतियों की चलाई हुई पोल है, प्रतिमा-पूजा सन्ताप रूप है तो इसको करके हम धर्म को थप्पड़ क्यों लगाएं ? यति भानुचन्द्रजी और केशवजी ऋषि की इन परस्पर विरोधी बातों से मालूम होता है कि लोकाशाह की मान्यताओं के सम्बन्ध में होने वाले आक्षेप सत्य थे। यदि ऐसा नहीं होता तो केशवजी ऋषि उनका समर्थन नहीं करते, इसके विपरीत यति भानुचन्द्रजी ने इन प्राक्षेपजनक बातों का रूपान्तर करके बचाव किया है । इससे निशिचित होता है कि लौंका की प्रारम्भिक मान्यतानों के सम्बन्ध में लोंका के अनुयायी ऋषियों में ही बाद में दो मत हो गये थे, कुछ तो लोकाशाह के वचनों को ऋक्षरशः स्वीकार्य्यं मानते थे, तब कतिपय ऋषि उनको सापेक्ष बताते थे । कुछ भी हो एक बात तो निश्चित है कि कोई भी लोंका का अनुयायी लौंका के सम्बन्ध में पूरी जानकारी नहीं रखता था । यति भानुचन्द्रजी ने लौंका के सम्बन्ध में जो कुछ खास बातें लिखी हैं, केशवजी ऋषि ने अपने लों का सिलोका में उनसे बिल्कुल विपरीत लिखी हैं। का जन्म सं० १४५२ के वैशाख वदि १४ को लिखते हैं, उसका गांव लीम्बड़ी, जाति दशा श्रीमाली और माता-पिता के नाम शाह डुंगर और चूड़ा लिखते हैं तथा लोंका का परलोकवास १५३२ में हुमा बताते हैं । इसके विपरीत केशव ऋषि लौंका का गांव नागनेरा नदी के तट पर बताते हैं और माता पिता के नाम सेठ हरिचन्द्र और मूंगीबाई लिखते हैं, लौंका का नाम लखा लिखते हैं और उसका जन्म १४७७ में बताते हैं मोर लोका का स्वर्गवास सं० १५३३ में होना लिखते हैं । इस प्रकार लोकाशाह के निकटवर्ती अनुयायी ही उनके सम्बन्ध में एक-मत नहीं थे तो अन्य गच्छ भानुचन्द्रजी लोंका २० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग २१ तथा सम्प्रदाय की मान्यता का निर्देश करके इस विषय को बढ़ाना तो बेकार ही होगा। लौका के जन्म-स्थान और जाति के सम्बन्ध में तो इतना प्रज्ञान खाया हुआ है कि उसका किसी प्रकार से निर्णय नहीं हो सकता। कोई इनको दशा-श्रीमाली और लोम्बड़ी में जन्मा हुमा मानते हैं, कोई इनको प्रोसवाल जातीय मरहटवाड़ा का जन्मा हुआ मानते हैं, कोई इनको दशा-पोरवाल जाति में पाटन में जन्मा हुमा मानते हैं। कोई इनको नागनेरा नदी-तट के गांव में जन्म लेने वाला मानते हैं, कोई इनको जालोर मारवाड़ समीपवर्ती पोषालिया निवासी मानते हैं, कोई इनका जन्म-स्थान जालोर को मानते हैं, तब स्वामी जेठमलजी, श्री अमोलक ऋषिजी, श्री सन्तबालजी और शा० वाड़ीलाल मोतीलाल लोकाशाह को अहमदाबाद निवासी मानते हैं। पूर्वोक्त लोकाशाह के संक्षिप्त निरूपण से इतना तो निश्चित हो जाता है कि लोकाशाह १५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण से १६वीं शती के द्वितीय चरण तक जीवित रहने वाले एक गृहस्थ व्यक्ति थे। लौका ने मूर्तिपूजा के अतितिक्त अनेक बातों को अशास्त्रीय कहकर खण्डन किया था, परन्तु उनके अनुयायी ऋषियों ने एक मूर्तिपूजा के अतिरिक्त शेष सभी लौका द्वारा निषिद्ध बातों को मान्य कर लिया था और कालान्तर में लौकागच्छ के अनुयायी यतियों मोर गृहस्थों ने मूर्तिपूजा का विरोध करना भी छोड़ दिया था। आज तक कई स्थानों में लुकागच्छ के यति विद्यमान हैं जो मूर्तियों के दर्शन करते हैं और उनकी प्रतिष्ठा भी करवाते हैं और लौकापच्छ का अनुयायी गृहस्ववर्य जिन-मूर्तियों को पूजा भी करता है । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौंकागछ और स्थानकवासी लौकागच्छ के अनुयायी यति और गृहस्थ जब लौका को मान्यताओं को छोड़ कर अन्य गच्छों के यतियों की मर्यादा के बिलकुल समीप पहुंच गए तब उनमें से कोई कोई यति क्रियोद्धार के नाम से अपने गुरुओं से जुदा होकर मुंह पर मुहपत्ति बांध कर जुदा फिरने लगे । इन क्रियोद्धारकों में पहला नाम "धर्मसिंहजी" का है, लौकागच्छ दालों ने इनको कई कारणों से गच्छ बाहर कर दिया था। इस सम्बन्ध में नीचे लिखा दोहरा पढने योग्य है - "संवत् सोलह पंच्च्यसिए, अहमदाबाद मझार । शिवजी गुरु को छोड़ के. धर्मसिंह हुमा गच्छ बहार ॥" कियोद्धारकों में दूसरे पुरुष यति लवजी थे जो लौकागच्छीय यति बजरंगजी के शिष्य थे। गुरु के मना करने पर भी लवजी मुंह पर मुहपत्ति बांधकर उनसे अलग हो गये। धर्मसिंह और लवजी सूरत में मिले, दोनों क्रियोद्धारक थे, दोनों मुंहपत्ति बांधते थे, पर छ:-कोटि आठ-कोटि के बखेड़े के कारण ये दोनों एक दूसरे से सहमत नहीं हुए, इतना ही नहीं, वे एक दूसरे को जिनाज्ञाभंजक और मिथ्यात्वी तक कहते थे। तीसरे क्रियोद्धारक का नाम था धर्मदासजी। ये धर्मसिंहजी तथा लवजी में से एक को भी नहीं मानते थे और स्वयं मुहपत्ति बांधकर क्रियो. द्धारक के रूप में फिरते थे। इन क्रियोद्धारकों से समाज और लौकागच्छ को जो नुकसान हुप्रा है उसके सम्बन्ध में वाड़ीलाल मोतीलाल शाह का निम्नोद्धृत अभिप्राय पढ़ने योग्य है। शाह कहते हैं - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली -पराग २३ " x x x इतना इतिहास देखने के बाद मैं पढ़ने वालों का ध्यान एक बात पर खींचना चाहता हूं कि स्थानकवासी व साधुमार्गी जैन-धर्म का जब से पुनर्जन्म हुप्रा तब से यह धर्म अस्तित्व में प्राया भोर भाज तक यह जोर-शोर में था या नहीं ! अरे ! इसके तो कुछ नियम भी नहीं थे, यतियों से अलग हुए मोर मूर्तिपूजा को छोड़ा कि ढूंढिया हुए । × × × "3 " x x x मेरी मल्पबुद्धि के अनुसार इस तरकीब से जैन-धर्म का बड़ा भारी नुकसान हुआ, इन तीनों के तेरह सौ भेद हुए । xxx " ऊपर के विवरण से सिद्ध होता है कि भाज का स्थानकवासी - सम्प्रदाय लोकागच्छ का अनुयायी नहीं है, किन्तु लौंकागच्छ से बहिष्कृत धर्मदासजी लवजी तथा स्वयं वेशधारी धर्मसिंहजी का अनुयायी है, क्योंकि मुँह पर मुँहपत्ति बाँध कर रहना उपर्युक्त तीन सुधारकों का ही माचार है । लोकाशाह स्वयं श्रसंयत दान का निषेध करते थे, तब उक्त क्रियोद्धारक अभयदान का शास्त्रोक्त मतलब न समझ कर पशुओं, पक्षियों को उनके मालिकों को पैसा देकर छोड़ाने को अभयदान कहते थे । श्राज तक स्थानकवासी - सम्प्रदाय में यह मान्यता चली श्रा रही है । भाजकल के कई स्थानकवासी सम्प्रदायों ने अपनी परम्परा में से शाह लौका का नाम निकाल कर ज्ञानजी यति, अर्थात् "ज्ञानचन्द्रसूरिजी " से अपनी पट्टपरम्परा शुरु की है। खास करके पंजाबी और कोटा की परम्परा के स्थानकवासी साधु लोंका का नाम नहीं लेते, परन्तु पहले के लौका गच्छ के यति लोकाशाह से ही अपनी पट्टपरम्परा शुरु करते थे । हमने पहले जिस लोकाशाह के शिलोके को दिया है उसमें केशवजी ऋषि द्वारा लिखी हुई पट्टावली केशवर्षि वरिणत, “लौंकागच्छ की पट्टावली ( ६ )", इस शीर्षक के नीचे दी है । श्री देवद्धि गरिण के बाद ज्ञानचन्द्रसूरि तक के प्राचार्यों के नामों की सूची देकर केशवजी लोकाशाह का वृत्तान्त लिखते हैं तथा लोकाशाह के उत्तराधिकारी के रूप में भारगजी ऋषि को बताते हैं भोर भारगजी के बाद Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पट्टावली-पराग भद्र ऋषि लवण ऋषि भोमाजी जगमाल ऋषि सर्वा स्वामी रूपजी जीवाजी कुवरजी और श्रीमलजी के नाम लिखकर उनको प्रणाम करते हैं। इस लेख से प्रमाणित होता है कि लंकागच्छ वालों ने अपना सम्बन्ध वृद्धपोषालिक पट्टावली से जोड़ा था, परन्तु उनमें से निकले हुए धर्मदासजी लवजी और धर्मसिंहजी के बाद उनके अनुयायियों में अनेक परम्पराएं और आम्नाय स्थापित हुए। इन प्राम्नायों के अनुयायी स्थानकवासी साधु अपना सम्बन्ध प्रसिद्ध अनुयोगधर श्री देवद्धिगरिण क्षमा-श्रमण से जोड़ना चाहते हैं, इसके लिए उन्होंने कल्पित नाम गढ़कर अपना सम्बन्ध जोड़ने का साहस भी किया है, परन्तु इसमें उनको सफलता नहीं मिली, क्योंकि लौकागच्छ वालों ने तो, ज्ञानचन्द्रसूरि तक के पूर्वाचार्यों को अपने पूर्वज मान कर सम्बन्ध जोड़ा था और वह किसी प्रकार मान्य भी हो सकता था, परन्तु स्थानकवासी समाज के नेता ५२५ वर्ष से अधिक वर्षों को कल्पित नामों से भर कर अपने साथ जोड़ते हैं, यह कभी मान्य नहीं हो सकेगा। इस समय हमारे पास स्थानकवासो-सम्प्रदाय की चार पट्टावलियां मौजूद हैं - (१) पंजाबी स्थानकवासी साधुओं द्वारा व्यवस्थित की गई पट्टावली। (२) अमोलक ऋषिजी द्वारा संकलित । (३) कोटा के सम्प्रदाय द्वारा मानी हुई पट्टावली और (४) श्री स्थानकवासी साधु श्री मणिलालजी द्वारा व्यवस्थित की हुई पट्टावली। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग २५ ये चारों ही पट्टावलियां प्राचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण पर्यन्त की हैं। इनमें गणघर सुधर्मा से लेकर नवमें पट्टधर प्राचार्य महागिरि तक के नाम सव में समान हैं, बाद के १८ नामों में एक दूसरे से बहुत ही विरोध है, परन्तु इसकी चर्चा में उतर कर समय खोना बेकार है। पंजाव के स्थानकवासियों को पट्टावली में देवद्धिगरिण के बाद के १८ नाम छोड़ कर आगे के नाम निम्न प्रकार से लिखे हैं - ___"४६ हरिसेन, ४७ कुशलदत्त, ४८ जीवर्षि, ४६ जयसेन, ५० विजयषि, ५१ देवर्षि, ५२ सूरसेनजी, ५३ महासेन, ५४ जयराज, ५५ विजयसेन, ५६ मिश्र(ब)सेन, ५७ विजयसिंह, ५८ शिवराज, ५६ लालजीमल्ल, ६० ज्ञानजी यति । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग प्रस्तुत पट्टावली-लेखक जैनशास्त्र भोर ज्योतिषशास्त्र से कितना दूर था यह बात उसके निम्नलिखित शब्दों से स्पष्ट होती है Governme २६ लेखक इन्द्र के मुख से भगवान् महावीर को कहलाता है - " ग्रहो भगवन्त ! पूज्य तुमारी जन्मरास उपरे भस्म ग्रहो बेठो छे, दोय हजार वरसनो सीघस्थ छ ।" भगवान् महावीर की जन्मराशि पर दो हजार वर्ष की स्थिति वाला भस्मग्रह बैठने और उसको "सिहस्थ" कहने वाले लेखक ने "कल्प-सूत्र" पढ़ा मालूम नहीं होता, क्योंकि कल्पसूत्र देखा होता तो वह भगवन्त की जन्मराशि न कहकर जन्म-नक्षत्र पर दो हजार वर्ष की स्थिति का भस्मग्रह बैठने की बात कहता, और "भस्मग्रह को सिंहस्थ " मानना भी ज्योतिष से विरुद्ध है । प्रथम तो भगवान् महावीर के समय में राशियों का प्रचलन ही नहीं हुम्रा था, दूसरा महावीर की जन्मराशि " कन्या" है श्रौर जन्म नक्षत्र "उत्तरा फाल्गुनी ।" इस परिस्थिति में उक्त कथन करना ज्ञानसूचक है । अब हम पट्टावलीकार की लिखी हुई देवद्विगरिण क्षमा-श्रमण तक की पट्टपरम्परा उद्धृत करके यह दिखायेंगे कि मुद्रित लोकागच्छ की सभी पट्टावलियों में देवगिरिण की परम्परा नन्दी - सूत्र के अनुसार देने की चेष्टा की गई है, वह परम्परा वास्तव में देवद्ध की गुरु-परम्परा नहीं है, किन्तु अनुयोगघर वाचकों की परम्परा है । तब प्रस्तुत पट्टावली में लेखक ने देवगिरिण क्षमा-श्रमण की गुरु-परम्परा समझकर दी है, जिससे कई स्थानों पर भूलें दृष्टिगोचर होती हैं। प्रस्तुत पट्टावली की देवर्द्धिगखि- परम्परा : (१) सुधर्मा (४) शय्यम्भव (७) भद्रबाहु (१०) सुहस्ती (१३) पार्यदिन (२) जम्बु (५) यशोभद्र (८) स्थूलभद्र (११) सुप्रतिबुद्ध (१४) वज्रस्वामी (३) प्रभव (६) संभूतविजय (e) महागिरि (१२) इन्द्रदिन (१५) वज्रसेन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासियों की हस्तलिखित पट्टावली १. स्थानकवासी पट्टावलियों के सम्बन्ध में ऊपर हमने जो ऊहापोह किया है, वे सभी मुद्रित पट्टावलियां हैं। अब हम एक हस्तलिखित पट्टावली के सम्बन्ध में विचार करेंगे। हमारे पास स्थानकवासी सम्प्रदाय की एक ११ पत्र की पट्टावली है जिसका प्रारंभ निम्नलिखित शब्दों से होता है "प्रथः श्री गुरुभ्यो नमो नमः" ॐ ह्री श्री मोतीचन्दजी, श्री बर्दीचन्दजी श्री नमो नमः ।" "अथः श्री पटावली लिखते" "वली पाट परंपराये चाल्यो भावे छे ते कहे छे -" "श्री जेसलमेर ना भंडार मांहे थी पुस्तक लोके महेताजी कडावी जोया छे, तिरगमांहे ऐसी वीगत निकली छे ॥" उपर्युक्त प्रारम्भ वाली पट्टावली किसी स्थानकवासी पूज्य ने सं० १९३६ के वर्ष में गांव सीतामऊ में लिखी हुई है, ऐसा अन्तिम पुष्पिका से ज्ञात होता है । "पटावली" यह अशुद्ध नाम स्वयं बताता है कि इसका लेखक संस्कृत का जानकार नहीं था, उसने इस पट्टावली में सुनी-सुनाई बातें लिखी हैं और जैसलमेर के भण्डार में से पुस्तकें लोंका महेता ने निकालकर देखने की बात तो कोरी डींग है, क्योंकि लौंका महेता ने अहमदाबाद और लीम्बड़ी के बीच के गांवों के अतिरिक्त कोई गांव देखे ही नहीं थे । लौंका के परलोकवास के बाद भारगजी मादि ने गुजरात भोर अन्य प्रदेशों में फिरकर लौंका के मत का प्रचार किया था पर उनमें से कोई जैसलमेर गया हो ऐसा प्रमाण नहीं मिलता । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पट्टावली पराण (१६) मार्य रोहण (१७) पुष्यगिरि (१६) धरणीधर स्वामी (२०) शिवभूति (२२) मार्यनक्षत्र (२३) मार्यरक्ष (२५) जेहलविसन स्वामी (२६) संदिदत्र (१८) युगमन्त्र (२१) प्रार्यभद्र (२४) नाग (२७) देवढि पट्टावली लेखक यह परम्परा नन्दीसूत्र के माधार से लिखी बताते हैं जो गलत है। इस परम्परा के नामों में आर्य-महागिरि और प्रार्य-सुहस्ती को एक पट्ट पर माना है, तब प्रार्य सुहस्ती के बाद के नामों में से कोई भी नाम नन्दी में नहीं है, किन्तु पिछले सभी नाम कल्पसूत्र की स्थविरावली के हैं , इसमें दिया हुआ ११ गं सुप्रतिबुद्ध का नाम अकेला नहीं किन्तु स्थविरावली में "सुस्थित सुप्रतिबुद्ध" ऐसे संयुक्त दो नाम हैं। आर्य-दिन्न के बाद इसमें वज्रस्वामी का नाम लिखा है जो गल्त है। आर्यदिन के बाद पट्टावली में प्रार्य सिंहगिरि का नाम है, बाद में उनके पट्टधर पत्रस्वामी है। वचस्वामी के शिष्य वनसेन के बाद इसमें प्रार्य-रोहण का नाम लिखा है जो गल्त है । आर्यरोहण पायंसुहस्ती के शिष्य थे, न कि वज्रसेन के, वज्रसेन के शिष्य का नाम 'आर्य-रथ' था। पुष्यगिरि के बाद इसमें १८३ पट्टधर का नाम "युगमन्त्र" लिखा है जो अशुद्ध है। पुष्यगिरि के उत्तराधिकारी का नाम आर्य "फल्गुमित्र" था, फल्गुमित्र के बाद के पट्टघर का नाम कल्पस्थविरावली में आर्य "धनगिरि" है जिसको विगाड़कर प्रस्तुत पट्टावली में "धरणीधर-स्वामी" लिखा है। आर्य-नक्षत्र के पट्टधर का नाम कल्पस्थविरावली में "आर्य-रक्ष" है, जिसके स्थान पर प्रस्तुत पट्टावलीकार ने "क्षत्र" ऐसा गल्त नाम लिखा है। प्रायनाग के बाद "कल्पस्थविरावली" में "जेहिल" मोर इसके बाद "विष्णु" का नम्बर माता है, तब प्रस्तुत पट्टावली में उक्त दोनों नामों को एक ही नम्बर के नीचे रख लिया है। विष्णु के बाद कल्पस्थविरावली में "पार्यकालक" का नम्बर है, तब प्रस्तुत पट्टावली में इसके स्थान पर "सढिल" यह नाम है जो शाण्डिल्य का उपभ्रंश है । शाण्डिल्य देवद्धिगरिण के पूर्ववर्ती भाचार्य थे, जबकि पट्टावली लेखक विष्णु के बाद के अनेक आचार्यों के नाम छोड़कर देवदिगरिण के समीपवर्ती शाण्डिल्य का नाम खींच लाया है, इसके बाद Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ पट्टावली पराग देवद्वरिण क्षमा श्रमरण का नाम लिखकर उन्हें २७वां पट्टधर मान लिया है । वास्तव में देवद्ध गरि क्षमा श्रमरण की गुरु-परम्परा गिनने से उनका नम्बर ३४वां माता है, जबकि देवद्ध गरिण क्षमा-श्रमण २७ व पुरुष माने गये हैं, सो वाचक-परम्परा के क्रम से, न कि गुरु-शिष्य परम्परा-क्रम से । इस भेद को न समझने के कारण से ही प्रस्तुत पट्टावलीकार ने कल्पस्थविरावली के क्रम से देवद्विर्गाणि को २७वां पुरुष मानने की भूल को है । देवद्विरिण तक के नाम लिखकर पट्टावली लेखक कहता है - ये २७ पाट नन्दी सूत्र में मिलते हैं, "ये २७ पट्टधर जिनारणा के अनुसार चलते थे, तब इनके बाद में पाट परम्परा द्रव्यलिंगियों की चली, श्रात्मार्थी साघु शुद्धमार्ग को चलायेंगे उनका अधिकार आगे कहते हैं ।" फिर कालान्तर में लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि देवद्धरण के बाद जो साधु परम्परा चली वह मात्र वेषधारियों की परम्परा थी । भाव साधुनों की नहीं । यहां लेखक को पूछा जाय कि भावसाधु देवगिरिण के बाद नहीं रहे और सं० १० १७०६ से भगवान् के दयाधर्म का प्रचार स्थानकवासी साधुत्रों ने किया, तब देवगिरिण क्षमाश्रमरण के स्वर्गवास के बाद और स्थानकवासी साधुयों के प्रकट होने के पहले के १२०० वर्षों में भगवान् का दयाधर्म नहीं रहा था ? क्योंकि जैन शासन के चलाने वाले तो निर्ग्रन्थ भावसाधु ही होते थे । तुम्हारी मान्यता के अनुसार देवद्ध के बाद की श्रमरणपरम्परा केवल लिंगघारियों की थी तब तो सं० १७०६ के पहले के १२०० वर्षों में जैन दयाघर्म विच्छिन्न हो गया था, परन्तु भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने अपना धर्मशासन २१ हजार वर्षों तक प्रविच्छिन्न रूप से चलता रहने की बात कही है, मब भगवतीसूत्र का कथन सत्य माना जाय या प्रस्तुत स्थानकवासी पट्टावली के लेखक पूज्यजी का कथन ? समझदारों के लिए तो यह कहने की भावश्यकता ही नहीं है, कि वर्तमान प्रवर्गापरणी के चतुर्थ श्रारे के अन्तिम भाग में भगवान् महावोर ने श्रमरणसंघ की स्थापना करने के साथ धर्म की जो स्थापना की है वह भाज तक अविच्छिन्न रूप से चलती रही है और पंचम श्रारे के अन्त तक चलती रहेगी, चाहे स्थानकवासी सम्प्रदाय Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० पट्टावली-पराग बढे घटे या विच्छिन्न हो जाय, जैनधर्म के अस्तित्त्व में उसका कोई प्रसर नहीं पड़ेगा। यद्यपि प्रस्तुत स्थानकवासी पट्टावली ११ पानों में पूरी की है, फिर भी देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण की परम्परा के अतिरिक्त इसमें कोई भी व्यवस्थित परम्परा या पट्टकम नहीं दिया । पार्यकालक की कथा, पंचकाली, सप्तकाली, बारहकाली सम्बन्धो कल्पित कहानियां और दिगम्बर तथा निह्नवों के उटपरांग वर्णनों से इसका कलेवर बढ़ाया है, हमको इन बातों की चर्चा में उतरने की कोई प्रावश्यकता नहीं। "लौंकागच्छ तथा “स्थानकवासी सम्प्रदायों" से सम्बन्ध रखने वाली कुछ बातों की चर्चा करके इस लेख को पूरा कर देंगे। पट्टावली के आठवें पत्र के दूसरे पृष्ठ में प्रस्तुत पट्टावलीकार लिखते हैं - श्री महावीर स्वामी के बाद दो हजार तेईस के वर्ष में जिनमत का सच्चा श्रद्धालु और भगवन्त महावीर स्वामी का दयामय धर्म मानने वाला लौकागच्छ हुअा।" लौकागच्छ के यति भानुचन्द्रजी और केशवजी ऋषि अपने कवित्तों में लौंकाशाह के धर्मप्रचार का सं० १५०८ में प्रारम्भ हुया बताते हैं और १५३२ में तथा ३३ में भागजीऋषि की दीक्षा और लौकाशाह का देवलोक गमन लिखते हैं, तब स्थानकवासो पट्टावली लेखक वोरनिर्वाण २०२३ में अर्थात् विक्रम सं० १५३३ में लौकागच्छ का प्रकट. होना बताते हैं, जिस समय कि लौकाशाह को स्वर्गवासी हुए २० वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो चुका था। पट्टावली लेखक कितना असावधान और अनभिज्ञ है यह बताने के लिए हम ने समयनिर्देश पर ऊहापोह किया है। यहां पर पट्टावलोकार ने लोकागच्छ को उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक कल्पित कथा दी है जिसका सार यह है - १. "श्री महावीर पछे २०२३ वरजिनमति साचीसरदाका घणी भगवन्त महावीर स्वामी नो धर्म दया में चाल्यो लौ कागच्छ हुवां ।" (पट्टावली का मूल पाठ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ३१ "पुस्तक भंडार में से पुस्तक निकाले तो कुछ पाने दीमक खा गया था, यह देख यति ने उनके पास गए हुए मेहता लुका को कहा - महेताजी। एक जैन मार्ग का काम है, महेता ने कहा - कहिये क्या काम है ? यति ने कहा - सिद्धान्त के पांने दीमक खा गया है, उन्हें लिख दो तो उपकार होगा, लोका ने उनका वचन मान लिया। यति ने "दशवकालिक" को प्रत लों का को दी। लौका ने मन में सोचा-वीतराग भाषित दयाघमं का मार्ग दशवकालिक में लिखे अनुसार है, आजकाल के वेषधारी इस आचार को छोड हिंसा की प्ररूपणा करते हैं, वे स्वय धर्म से दूर हैं इसलिए लोगों को शुद्धधर्म-मार्ग नहीं बताते, परन्तु इस समय इनको कुछ कहूंगा तो यानेंगे नहीं, इसलिए किसी भी प्रकार से पहले शास्त्र हस्तगत करलू तो भविष्य में उपकार होगा, यह सोचकर महेता लुका ने दशवकालिक को दो प्रतियां लिखी, एक अपने पास रखी, एक यति को दो । इस प्रकार सब शास्त्रों की दो-दो प्रतियां उतारी और एक-एक प्रति अपने पास रखकर खासा शास्त्र-संग्रह कर दिया। महेत' अपने घर पर सूत्र की प्ररूपणा करने लगा' बहुत से लोग उनके पास सुनने जाते और सुनकर दयाधर्म की प्ररूपणा करते। उस समय हटवारिणया के परिणक् शाह नागजी १, मोतीचन्दजी २, दुलीचन्दजी ३, शम्भुजी ४, और शम्भुजी के बेटा की बेटी मोहीबाई और मोहीबाई की माता इन सब ने मिलकर संघ निकाला। घाड़ो, गोड़े, ऊंट, बैल, इत्यादि साज सामान के साथ निकले परन्तु मार्ग में जलवृष्टि हो गई, जहां लोका महेता अपने मत का उपदेश करता था वहां यात्रिक पाए और लोका को वाणो सुनने लगे । लौका महेता भी बड़ी तत्परता से दयावर्म का प्रतिपादन करते थे। सारा यात्री संघ लुका महेता वाले गांव में पाया और वहां पड़ाव डालकर महेता की वाणी सुनने लगा, उस समय संघ के गुरु वेशधारी साधु ने सोचा - अगर संघ के लोग सिद्धान्त शंली सुनेंगे तो मागे चलेंगे नहीं और हमारी बात भी मानेंगे नहीं, यह विचार कर वेशधारी साधु संघनायक के पास पाया और कहने लगा -संघ के लोग खर्च और पानी से दुःखो हैं, तब संघनायक ने कहा - मार्ग में तो सजीव और Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पट्टावली पराग हरिगलो के अंकुर निकल जाने से प्रयतना बहुत दोख रही है वास्ते अभी ठहरो ! इस पर द्रव्यलिंगी गुरु बोले - शाहजी धर्म के निमित्त होने वाली हिंसा को हिंसा नहीं माना, यह सुनकर संघवी ने सोचा कि लौका महेना के पास जो सुना था कि वेशधारी साधु अनाचारी हैं, छः काय की दया से हीन हैं, वह बात आज प्रत्यक्ष दीख रही है, द्रव्यलिंगी यति वापस लौट गया और संघ के साथ सिद्धान्त सुनता वहीं ठहरा, सुनते-सुनते उनमें से ४५ जनों को वैराग्य उत्पन्न हुप्रा और संयम लिया, उनके नाम - सर्वोजी, भारगोजी, नयनोजो, जगमोजी मादि थे, इस प्रकार ४५ साधु जिनमाग के दयाधर्म की प्ररूपणा करने लगे और अनेक जोवों ने दयाधर्म का स्वीकार किया, उस समय लोकाशाह ने पूछा तुम कैसे साधु कहलाते हो ? साधु बोले - महेताजी हमने तीर्थङ्कर का धर्ममार्ग प्रापसे पाया है, इमलिए हम “लौका साधु" कहलाते हैं और हमारा समुदाय “लौकागच्छ' कहलाता है । कल्पित कथा के प्रारंभ में "दशवकालिक" के पांने दीमक रवाने की बात कही गई है । और “दशवकालिक" की प्रति लौंका को देने का कहा है. अब विचारणीय बात यह है कि पुस्तक के पाने दीमक द्वारा नष्ट हो गये तो उसो "दशवकालिक" की प्रति के ऊपर से लौका ने दो प्रतियां कैसे लिखी ? क्योंकि लौका के पास तो पुस्तक भंडार था नहीं और लौका को लिखने के लिए पुस्तक देने वाले यतिजी ने उसे "दशवकालिक" की अखंडित प्रति देने का का सूचन तक नहीं है, केवल "दशवकालिक" ही नहीं यतिजो के पास से दूसरे भी सूत्र लिखने के लिए लौंका ले जाता था और उनकी एक-एक नकल अपने लिए लिखता था। यदि भण्डार के तमाम सूत्रों में दीमक ने नुकशान किया था और यतिजी भंडार के पुस्तकों को लिखवाते थे तो साथ में प्रखड़ित सूत्रों को प्रतियां देने की आवश्यकता थी, परन्तु इस कहानी से ऐसो बात प्रमारिणत नहीं होती अतः “लौकाशाह जिनमार्ग का काम समझकर सूत्रों की प्रतियां लिखते थे, यह कथन सत्यता से दूर है।" सत्य बात तो यह है कि लौंकाशाह लेखक का धन्धा करता था। मेहनताना देकर साधु उससे पुस्तक लिखवाते थे, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ३३ उनमें से लोंका ने लिखवाने वाले की प्राज्ञा के बिना अपने लिए पुस्तक की एक-एक प्रति लिख ली हो तो असम्भव नहीं है, परन्तु एक बात विचारगीय यह है कि लौंका के समय में जैनसूत्रों पर टिब्बे नहीं बने थे। सूत्रों पर टिब्बे सर्वप्रथम पार्श्वचन्द्र उपाध्याय ने लिखे थे भोर पार्श्वचन्द्र का समय शाह लौका के बाद का है। लौका "संस्कृत" या "प्राकृत" भाषा का जानकार भी नहीं था फिर उसने सूत्रों की नकल करते-करते मूल सूत्रों का अगर उसकी पंचांगी का तात्पर्य कैसे समझा कि सूत्रों में साधु का प्राचार ऐसा है और साधु उसके अनुसार नहीं चलते हैं। सच बात तो यह है कि वह साधुओं के व्याख्यान सुना करता था, इस कारण से वह साधुओं के प्राचारों से परिचित था। वृद्ध पौषधशालिक आचार्य श्री ज्ञानचन्द्रसूरि का पुस्तक लेखन का कार्य लौकाशाह कर रहा था और इस व्यवसाय को लेकर ही ज्ञानचन्द्रसूरि ने लोंका को फिटकारा और लौंका ने साधुनों के पास न जाने की प्रतिज्ञा की थी और उनके प्राचार-विचार के सम्बन्ध में टोका-टिप्पणियां करने लगा था। लौकामत को कल्पित कहानी में दी गई, हटवारिणयां गांव के संघ की कहानी भी सरासर झूठो है। क्योंकि पहले तो "हटवाणिया" नामक कोई गांव ही मारवाड़ अथवा गुजरात में नहीं है, दूसरा चातुर्मास्य प्रागे लेकर संघ निकालने की पद्धति जनों में नहीं है, फिर लौंकाशाह के निकट पहुंचने के लगभग जलवृष्टि होना और वनस्पति के अंकुरों के उत्पन्न होने आदि की बातें केवल कल्पना-कल्पित हैं। विद्वान् साधुनों की विद्वत्तामयी धर्मदेशना सुनकर हजारों में से शायद ही कोई दीक्षा के लिये तैयार होता है। तब लोकाशाह के उपदेश से केवल यांत्रिक-संघ में से ४५ जनों के दोक्षा लेने की बात सफेद झूठ नहीं तो और क्या हो सकती है । लौकाशाह के थोड़े हो वर्षों के बाद होने वाले लौका भानुचन्द्रजी ऋषि और लौका केशवजी ऋषि अपनी रचनामों में लोकाशाह के अन्तिम समय में केवल एक भागजी की दीक्षा होने की बात लिखते हैं। तब बीसवीं शती का स्थानकवासी पट्टावलीकार ४५ बनों के दीक्षा की बात कहता है और लोकाशाह के द्वारा पुलवाता है कि "तुम कैसे साधु कहलाते हो ?" साधु Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ पट्टावली -पराग कहते हैं कि "हम लौकागच्छ के साधु कहलाते हैं" यह क्या मामला है ? पट्टावलीकार के लेखानुसार लोकाशाह के स्वर्गवास के बाद २१ वें वर्ष में लोकागच्छ की उत्पत्ति होती है और ४५ साधु लोकाशाह के सामके कहते हैं- "हम लौंकाशांह के साधु कहलाते हैं" क्या यह अन्धेरगर्दी नहीं है ? लौकागच्छ को कहलाने वाली सभी स्थानकवासी पट्टावलियां इसी प्रकार के श्रज्ञान से भरी हुई हैं । न किसी में अपनी परम्परा का वास्तविक क्रम है न व्यवस्था, जिसको जो ठीक लगा वही लिख दिया, न किसी ने कालक्रम से सम्बन्ध रक्खा, न ऐतिहासिक घटनाओं की श्रृंखला से । पट्टावली - लेखक आगे लिखता है ww उसके बाद रूपजी शाह पाटन का निवासी संयमी होकर निकला, वह "रूपजी ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह लौकागच्छ का पहला पट्टधर हुआ ।" लवजो ने सोचा उसके बाद सूरत निवासी शाह जीवा ने रूपजी ऋषि के पास दीक्षा ली श्रौर जीवजी ऋषि बने । व्यवहार से हम इनको शुद्ध साघु जानते हैं । बाद में स्थानक दोष सेवन करने लगे । आहार की गवेषणा से मुक्त हुए, वस्त्र पात्र की मर्यादा लोपी, तब सं० १७०६ में सूरत निवासी बहोरा वीरजी का दोहिता शा० लवजी जो पढ़ा-लिखा था, उसको वैराग्य उत्पन्न हुआ और संयम लेने के लिए अपने नाना वीरजी से प्रज्ञा मांगी । वीरजी ने कहा लौकागच्छ में दीक्षा ले तो आज्ञा दूं, अभी प्रसंग ऐसा ही है, एक बार दीक्षा ले हो लूं यह ने लोकागच्छ के यति बजरंगजी के पास दीक्षा ली । सिद्धान्त पढ़ा । कालान्तर में अपने गुरु से पूछा - सिद्धान्त में साधु का प्राचार जो लिखा है उस प्रकार भाजकल क्यों नहीं पाला जाता ?, गुरु ने कहा प्राजकल पांचवां आरा है । इस समय श्रागमोक्त प्राचार किस प्रकार पल सकता है ?, शिष्य लवजी ने कहा - स्वामिन् ! भगवन्त का मार्ग २१ हजार वर्ष तक चलने वाला है, सो लौंकागच्छ में से निकलो, आप मेरे और में आपका शिष्य । बजरंगजी ने कहा गुरु विचार कर लवजो उनके पास सूत्र मैं तो गच्छ से Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ३५ निकल नहीं सकता, तब लवजी ने कहा - मैं तो गच्छ का त्याग कर चला जाता हूं, यह कह कर ऋषि लवजी, ऋषि भाणोजी और ऋषि सुखजी तीनों वहां से निकल गये और तीनों ने फिर से दीक्षा ली। गांव नगरों में विचरते हुए जैनधर्म की प्ररूपणा की, अनेक लोगों को धर्म समझाया, तब लोगों ने उनका "दुण्ढिया" ऐसा नाम दिया। अहमदाबाद के कालुपुर के रहने वाले शाह सोमजी ने लवजी के पास दोक्षा ली। २३ वर्ष की अवस्था में दीक्षा लेकर बड़ी तपस्या को, उनके अनेक साधु-साध्वियों का परिवार बढ़ा जिनके नाम हरिदासजी १, ऋषि प्रेमजी २, ऋषि कानाजी ३, ऋषि गिरधरजी ४, लवनी प्रमुख वजरंगजी के गच्छ से निकले थे जिनके अनुयायियों का नाम प्रमोपालजी १, ऋषि श्रीपालजी २, ऋ० धर्मपालजी ३, ऋ० हरजी ४, ऋ० जीवाजी ५, ऋ० कर्मणजी ६, ऋ० छोटा हरजी ७, और ऋ० केशवजो ८ । इन महापुरुषों ने अपना गच्छ छोड़ कर दीक्षा ली भोर जैनधर्म को दीपाया । बहुत टोले हुए, समर्थजी पूज्यश्री धर्मदासजी, श्री गोदाजी, फिर होते ही जाते हैं। इनमें कोई कहता है - मैं उत्कृष्ट हूं, तब दूसरा कहता है - मैं उत्कृष्ट हूं। उपर्युक्त शुद्ध साधुनों का वृत्तान्त है, पीछे तो केवली स्वीकारे, सो सही। यह परम्परा को पट्टावली लिखी है । पट्टावलो-लेखक ने रूपजी ऋषि को लौकागच्छ का प्रथम पट्टधर लिखा है, परन्तु लोंकागच्छीय ऋषि भानुचन्द्रजी तथा ऋषि केशवजी ने लौकामच्छ का और लोकाशाह का उत्तराधिकारी भारणजी को बताया है। उपर्युक्त दोनों लेखकों का सत्ता-समय लोकाशाह से बहुत दूर नहीं था; इससे इनका कथन ठोक प्रतीत होता है। पट्टावलीकार रूपजी ऋषि को लोकागच्छ का प्रथम पट्टधर कहते हैं वह प्रामाणिक नहीं है । पट्टावलीकार रूपजी जीवाजी को महापुरुष और शुद्ध साधु कहकर उनको उसी जीवन में स्थानक-दोष, माहार-दोष, वस्त्रापात्र आदि मर्यादा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ पट्टावली पराग का लोप भादि दोषों के कारण शिथिलाचारी बताता है. मोर १७०६ में शा० लवजी की दीक्षा की बात कहता है । लवजी दीक्षा लेने के बाद अपने गुरु बजरंगजो को लौकागच्छ से निकालने का आग्रह करते हैं, और इनके इन्कार करने पर भी ऋ० लवजी, ऋ० भाजी और ऋ० सुखंजी के साथ लौकागच्छ को छोड़कर निकल जाते हैं, और तीनों फिर दीक्षा लेते हैं और लोग उनको "दुढ़िया" यह नाम देते हैं। पट्टावलोकार ने उक्त त्रिपुटी को दीक्षा तो लिवाली, पर दीक्षा-दाता गुरु कौन थे ? यह नहीं लिखा। अपने हाथ से कल्पित वेश पहिन लेना यह दीक्षा नहीं स्वांग होता है । दीक्षा तो दीक्षाधारी अधिकारी-गुरु से ही प्राप्त होती है, न कि वेश-मात्र धारण करने से । लौकागच्छ के साधु स्वयं गृहस्थ-गुरु के चेले थे तो उनमें से निकलने वाले लवजी आदि नया वेश धारण करने से नये दीक्षित नहीं बन सकते। पट्टावली के अन्त में लेखक ऋषि लवजी के मुंह से . कहलाता है - "अरे भाई ! पांचवां पारा है, ऐसी कठिनाई हम से नहीं पलेगी, ऐसा करने से हमारा टोला बिखर जाय । पट्टावलीकार ने पूर्व के पत्र में तो लवजी को महात्यागी और लौकागच्छ का त्याग करके फिर दीक्षा लेने वाला बताया और आगे जाकर उन्हीं लवजी के मुंह से पंचम आरे के नाम से शिथिलाचार को निभाने की बात कहलाता है। यह क्या पट्टावली-लेखक का ढंग है ! एक व्यक्ति को खूब ऊंचा चढ़ाकर दूसरे ही क्षण में उसे नीचे गिराना यह समझदार लेखक का काम नहीं है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुरादक - मत की पट्टावली २. श्री प्रात्मारामजी महाराज के हाथ से लिखी हुई स्थानकवासियों की पट्टावली सम्यक्त्व शल्योद्धार के आधार से नीचे दी जाती है - पूज्य लेखक का कथन है कि "यह पट्टावली हमने अमरसिंहजी के परदादा श्री मुल्कचन्दजी के हाथ से लिखी हुई, ढुंढकपट्टावली के ऊपर से ली है ।" हमने सभी स्थानकवासियों की अन्यान्य पट्टावलियों की अपेक्षा से इसमें कुछ वास्तविकता देखकर यहां देना ठीक समझा है। पट्टावलीकार लिखते हैं कि " अहमदाबाद में रहने वाला लका नामक लेखक ज्ञानजी यति के उपाश्रय में उनके पुस्तक लिखकर अपनी आजीविका चलाता था, एक पुस्तक में से सात पांने उसने यों ही छोड़ दिए । यतिजी को मालूम हुआ कि लोंका ने जान बुझकर बेईमानी से पांने छोड़ दिये हैं, उसे फटकार कर उपाश्रय में से निकाल दिया और दूसरे पुस्तक लिखाने वालों को भी सूचित कर दिया कि इस लुच्चे लेखक लों का के पास कोई पुस्तक न लिखावें । " उक्त प्रकार से लोंका की आजीविका टूट जाने से वह जैन साधुनों का द्वेषी बन गया, पर अहमदाबाद में उसका कुछ नहीं चला, तब वह ग्रहमदाबाद से ४० कोस की दूरी पर आये हुए लोम्बड़ी गांव गया, वहां उसका मित्र लखमशी नामक राज्य का कार्यभारी रहता था । लौका ने लखमशी से कहा "भगवान् का मार्ग लुप्त हो गया है, लोग उल्टे मार्ग चलते है, मैंने अहमदाबाद में लोगों को सच्चा उपदेश किया, पर उसका परिणाम उल्टा माया, में तुम्हारे पास इसलिए माया हूं कि में सच्चे दयाधर्म की प्ररूपणा करूं और तुम मेरे सहायक बनों ।” लखमशी ने लों का को आश्वासन देते हुए कहा - खुशी से अपने राज्य में तुम दयाधर्म का प्रचार करो, मैं तुम्हारे खान-पान आदि की व्यवस्था कर दूंगा । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ पदावली-पराग सं० १५०८ में लौका ने जैन साधुनों के विरोध में मन्दिर मूर्तिपूजा प्रादि का खण्डन करना शुरू किया, लगभग २५ वर्ष तक दयाधर्म-सम्बन्धी चौपाइयां सुना-सुनाकर लोगों को मन्दिरों का विरोधी बनाता रहा, फिर भी उसका उत्तराधिकारी बनकर उसका कार्य सम्हालने वाला कोई नहीं मिला। सं० १५३४ में भाणा नामक एक बनिया उसे मिला, अशुभ कर्म के उदय से वह लौका का पनन्य भक्त बना । इतना ही नहीं, वह लो का के कहने के अनुसार विना गुरु के ही साधु का वेश पहन कर प्रज्ञ लोगों को लों का का भनुयायो बनाने लगा। लौ का ने ३१ सूत्र मान्य रखे थे । व्यव. हार सूत्रों को वह मानता नहीं था मोर माने हुए सूत्रों में भी जहां जिनप्रतिमा का अधिकार प्राता वहां मनःकल्पित अर्थ लगाकर उनको समझा देता। सं० १५६८ में भागजी ऋषि का शिष्य रूपजी हुआ। सं० १५७८ में माघ सुदि ५ के दिन रूपजी का शिष्य जीवाजो हुआ। सं० १५८७ के चेत्र वदि १४ के दिन जीवाजी का शिष्य वृद्धवरसिंहजी नामक हुप्रा। सं० १६०६ में उनका शिष्य वरसिंहजी हुमा। सं० १६४६ में वरसिंहजी का शिष्य यशवन्त नामक हुआ और यशवन्त के पीछे बजरंगजी नामक साधु हुआ, जो बाद में लौ कागच्छ का प्राचार्य बना था। __उस समय सूरत के रहने वाले बोहरा वीरजी की पुत्री फूलांबाई के दत्तपुत्र लवजी ने लोंकाचार्यजी के पास दीक्षा लो और दोक्षा लेने के बाद उसने अपने गुरु से कहा - दशवकालिक सूत्र में जो साधु का आचार बताया है, उसके अनुसार माप नहीं चलते है। लवजी की इस प्रकार की बातों से बजरंगजी के साथ उनका झगड़ा हो गया और वह लौ कामत और अपने गुरु का सदा के लिए त्याग कर थोमण ऋषि आदि कतिपय लौका साधुनों को साथ में लेकर स्वयं दीक्षा ली और मुख पर मुंहपत्ति बांधी। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग 38 - लवजो के सोमजी और कानजी नामक दो शिष्य हुए। कानजो के पास एक गुजराती छीपा दीक्षा लेने पाया था, परन्तु कानजी के प्राचरण अच्छे न जानकर उनका शिष्य न होकर वह स्वयं साधु बन गया और मुंहपर मुहपत्ति बांध ली। धर्मदास को एक जगह उतरने को मकान नहीं मिला, तब वह एक दुण्ढे (फुटे टुटे खण्डहर) में उत्तरा तब लोगों ने उसका नाम "दुण्ढक" दिया। लोकामति कुंवरजी के धर्मशी; श्रीपाल और अभीपाल ये तीन शिष्य थे, इन्होंने भी अपने गुरु को छोड़कर स्वयं दीक्षा ली, इनमें से पाठ कोटि प्रत्याख्यान का पन्य चलाया, जो भाजकल गुजरात में प्रचलित है । धर्मदास के धनजी नामक शिष्य हुए। धनजी के भूदरजी नामक शिष्य हुए और भूदरजी के रघुनाथजी जयमलजी और गुमानजी नामक तीन शिष्य हुए जिनका परिवार मारवाड़ गुजरात और मालवा में विचरता है। रघुनाथजी के शिष्य भीखमजी ने १३ पंथ चलाया। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीखमजी के तेरापंथ सम्प्रदाय की आवाय- परम्परा तेरापन्थी सम्प्रदाय स्थानकवासी साधु रघुनाथमलजी के शिष्य भिक्खूजी से चला। तेरापन्थी भिक्खूजी को श्री भिक्षुगणी के नाम से व्यवहृत करते हैं। माज तक इस सम्प्रदाय को दो सौ वर्ष हुए और इसके उपदेशक आचार्य ६ हुए। नवों भाचार्यों की नामाकलि क्रमशः इस प्रकार है (१) आचार्य श्री भिक्षुगणी (२) , , भारमल गणी (३) , , ऋषिराय गणी , जयगणी- श्री मज्जयाचार्य , मघवागणी ,, मारणकगरणी " , डालगरणी (८) , कालूगरणी (६) , " तुलसीगणी GEN ऊपर की तेरापन्थी आचार्यों की नामावलि तेरापन्थी मुनि श्री नग. राजजी लिखित . "तेरापन्थ दिग्दर्शन" नामक पुस्तिका से उद्धृत की है। पुस्तिका में लेखक ने अतिशयोक्तियाँ लिखने में मर्यादा का उल्लंघन किया Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ४१ __"संस्कृत भाषा के अभ्यासी ऐसे भी साधु संघ में हैं, जिन्होंने एकएक दिन में पांच-पांच सौ व सहस्र-सहस्र श्लोकों की रचना की है।" ठीक तो है जिस संघ में प्रतिदिन पांच-पांच सौ और सहस्र-सहन श्लोक बनाने वाले साधु हुए हैं उस संघ में संस्कृत-साहित्य के तो भण्डार भी भर गए होंगे, परन्तु दुःख इतना ही है कि ऐसे संघ की तरफ से एक भी संस्कृत ग्रन्थ मुद्रित होकर प्रकाशित हुमा देखने में नहीं माया । लवजी के शिष्य सोमजी हुए। हरिदासजी के शिष्य वृन्दावनजी हुए। वृन्दावनजी के भवानीदासजी हुए। भवानीदासजी के शिष्य मलूकचन्दजी हुए। मलूकचन्दजी के शिष्य महासिंहजी हुए। महासिंहजी के शिष्य खुशालरामजी हुए। खुशालरामजी के शिष्य छजमलजी हुए। रामलालजी के शिष्य भमरसिंहजी हुए। अमरसिंहजी का शिष्य-परिवार भाजकल पंजाब में मुख बांध कर विचरता है। लवजी के शिष्यों का परिवार मालवा और गुजरात में विचरता है। "समकितसार" के कर्ता जेठमलजी धर्मदासजी के शिष्यों में से थे पौर उनके शाचरण ठीक न होने के कारण उनके चेले देवीचन्द और मोतीचन्द दोनों जन उनको छोड़ कर जोगराजजी के शिष्य हजारीमलजी के पास दिल्ली में भाकर रहे थे। ___ ऊपर हमने जो लौकामत की और स्थानकवासी लवजी की परम्परा लिखी है वह पूर्वोक्त अमोलकचन्दजी के हाथ से लिखी हुई ढुण्ढकमत की पट्टावली के ऊपर से लिखी है, इस विषय में बिस किसी को शंका हो, वह हस्तलिखित मूल प्रति को देख सकता है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ पट्टावली-पराग लोकाशाह, लौकागच्छ मौर स्थानकवासी सम्प्रदाय के सम्बन्ध में अनेक व्यक्तियों ने लिखा है। वाडीलाल मोतीलाल शाह ने अपनी "ऐतिहासिक नोंघ" में, संत बालजी ने "धर्मप्रारण लौकाशाह" में, श्री मरिणलालजी ने "प्रभुवीर पट्टावली" में मोर अन्यान्य लेखकों ने इस विषय के लेखों में जो कुछ लिखा है, वह एक दूसरे से मेल नहीं खाता, इसका कारण यही है कि सभी लेखकों ने अपनी बुद्धि के अनुसार कल्पनामों द्वारा कल्पित बातों से अपने लेखों को विभूषित किया है। इन सब में शाह वाडीलाल मोतीलाल सब के अग्रगामी हैं। इनकी प्रसत्य कल्पनाएं सब से बढ़ी-चढ़ी हैं, इस विषय का एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा । लौकागच्छ के प्राचार्य श्री मेघजी ऋषि अपने २५ साधुनों के साथ लौकामत को छोड़ कर तपागच्छ के प्राचार्य श्री विजयहोरसूरिजी के शिष्य बने थे। इस घटना को बढ़ा-चढ़ा कर शाह वाडीलाल लौकागच्छ के ५०० साधु तपागच्छ में जाने की बात कहते हैं। अतिशयोक्ति की भी कोई हद होती है, परन्तु शाह ने इस बात का कोई ख्याल नहीं किया। इसी प्रकार शाह वाडीलाल ने अपनी पुस्तक "ऐतिहासिक नोंध" में अहमदाबाद में मूर्तिपूजक मौर स्थानकवासी साधुनों के बीच शास्त्रार्थ का जजमेन्ट लिख कर अपनी असत्यप्रियता का परिचय दिया है, शाह लिखते हैं - "माखिर सं. १८७८ में दोनों ओर का मुकद्दमा कोर्ट में पहुंचा। सरकार ने दोनों में कौन सच्चा कोन झूठा ? इसका इन्साफ करने के लिए दोनों ओर के साधुमों को बुलाया । "स्था० की ओर से पूज्य रूपचन्दजी के शिष्य जेठमलजी आदि २८ साधु उस सभा में रहने को चुने गये" और सामने वाले पक्ष की भोर से “वीरविजय प्रादि मुनि और शास्त्री हाजिर हुए।" मुझे जो यादी मिली है, उससे मालूम होता है कि मूर्तिपूजकों का पराजय हुमा भौर मूर्तिविरोधियों का जय हुमा।" शास्त्रार्थ से वाकिफ होने के लिए जेठमलजीकृत “समकितसार" पढ़ना चाहिए xxx १८७८ के पोष सुदि १३ के दिन मुकद्दमा का जजमेन्ट (फैसला) मिला।" ऐ• नों० पृ० १२६ । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग ४३ शाह शास्त्रार्थ होने का वर्ष १७८७ बताते हैं प्रौर मिति उसी वर्ष के पौष मास की १३ । शाह ने वर्ष-मिति की यह कल्पना पं० श्रीरविजयजी और ऋषि जेठमलजी के बीच हुए शास्त्रार्थ की यादगार में पं० उत्तमविजयजी द्वारा निर्मित "लूंपकलोप- तपगच्छ जयोत्पत्ति वर्णन रास" के - ऊपर से गढ़ी है, क्योंकि उत्तमविजयजी के बनाये हुए रास की समाप्ति में सं० १७८७ के वर्ष का भोर माघ मास का उल्लेख है । शाह ने उसी वर्ष को शास्त्रार्थ के फैसले का समय मान कर पौष शुक्ल १३ का दिन लिख दिया है पर वार नहीं लिखा, क्योंकि वार लिखने से लेख की कृत्रिमता तुरन्त पकड़ी जाने का भय था । शाह का यह फैसला उनके दिमाग की कल्पना मात्र है, यह बात निम्न लिखे विवरण से प्रमाणित होगी " समकितसार" के लेखक जेठमलजी लिखते हैं- श्री वर्द्धमान स्वामो मोक्ष गए तब चौथा श्रारा के ३ वर्ष प्रोर साढ़े आठ मास शेष थे । उसके बाद पांचवां ग्रारा लगा और पांचवे मारे के ४७० वर्ष तक वोय संवत् चला, उसके बाद विक्रमादित्य ने संवत्सर चलाया, जिसको आजकल १८६५ वर्ष हो चुके हैं।" शाह के जजमेन्ट के समय में अहमदाबाद में कम्पनी का राज्य हो चुका था और अंग्रेजी अदालत में ही अर्जी हुई और जजमेन्ट भी अंग्रेजी में लिखा गया था, फिर भो जजमेन्ट में अंग्रेजी तारीख न लिखकर पोष सुदि १३ लिखा है इसका अर्थ यही है कि उक्त जजमेन्ट उत्तमविजयजी के रास के आधार से शाह वाढीलाल ने लिखा है, जो कल्पित है यह निश्चित होता है । शाह शास्त्रार्थ के फैसले में लिखते हैं- "शास्त्रार्थं से वाकिफ होने के लिए जेठमलजी कृत समकितसार पढ़ना चाहिए,” यह शाह का दम्भ वाक्य और "समकितसार" के प्रचार के लिए लिखा है, वास्तव में जेठमलजी के "समकितसार" में वीरविजयजी के साथ होने वाले शास्त्रार्थ की सूचना तक भी नहीं है । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ पट्टावली-पराग "ऐतिहासिक नोध" के पृष्ठ १३० में शाह लिखते है "परन्तु किसो प्रकार के लिखित प्रमाण के प्रभाव में किसी तरह की टीका करने को खुश नहीं हूं।" भला किसी लिखित प्रमाण के प्रभाव में शास्त्रार्थ का जजमेन्ट देने को तो खुश हो गए तब उस पर टीका-टिप्पणी करने में भापत्ति ही क्या थी ? परन्तु शाह अच्छी तरह समझते थे कि केवल निराधार बातों की टीका-टिप्पणी करता हुआ कहीं पकड़ा जाऊंगा, इसलिए वे टीका करने से बाज भाए है। शाह स्वयं स्वीकार करते है कि दोनों सम्प्रदायों के बीच होने वाले शास्त्रार्य में कौन जीता और कौन हारा, इसका मेरे पास कोई लिखित प्रमाण नहीं है, इससे इतना तो सिद्ध होता है कि इस शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में जेठमलजी ऋषि अथवा उनके अनुयायियों ने कुछ भी लिखा नहीं है, पन्यथा शाह वाडीलाल को ऐसा लिखने का कभी समय नहीं आता। पं० वीरविजयजी मोर उनके पक्षकारों ने प्रस्तुत शास्त्रार्थ का सविस्तर वर्णन एक लम्बी ढुंढक चौपाई बनाकर किया है, जिसमें दोनों पक्षों के साधुओं तथा श्रावकों के नाम तक लेख-बद्ध किये हैं, इससे सिद्ध होता है कि शास्त्रार्थ में जय मूर्तिविरोध पक्ष का नहीं, परन्तु मूर्तिपूजा मानने वाले पं० वीरविजयजी के पक्ष का हुआ था, इस शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में लिखित प्रमाण होते हुए भी शाहने अपने पक्ष के विरुद्ध होने से उनको छुमा तक नहीं है। रासकार पं० उत्तमविजयजी कहते हैं -मुहपर पाय बांधकर गांव गांव फिरते और लोगों को भ्रमणा में डालते हुए एक समय लौंका के अनुयायी साणंद पाये और वहां लोगों को फंसाने के लिए पास फैलाया, वहां पर तपागच्छ का एक श्रावक नानचन्द शान्तिदास रहता था, कर्मवश वह ढुढको के फंदे में फंस गया। वह ढुंढकों को मानने लगा और परापूर्व के अपने जैनधर्म को भी पालता था, इस प्रकार कई वर्षों तक वह पालता रहा और बीसा श्रीमाली न्यात ने उसको निभाया, प्रब नानूशाह के पुत्रों की बात कहता हूं। अफीमची, अमरा, परमा पनजी और हमका ये चारों पुत्र भी न्यात जात की शर्म छोड़कर दुढकधर्म पालने लगे, इस समय न्यात Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली पराग ने देखा कि यह चेप बढ़ रहा है, अब इसका प्रतीकार करना जरूरी है, यह सोचकर नानचन्द और उसके पुत्रों को न्यात से बहिष्कृत कर दिया, कोई उनको पानी तक नहीं पिलाता था । सगे सम्बन्धी भी अलग हो गये, फिर भी वे अपना दुराग्रह नहीं छोड़ते थे । उनके घरों में लड़कियां १२-१२ वर्ष की हो गई थीं, फिर भी उनसे कोई संबन्ध नहीं करता या औौर जो लड़की राजनगर में व्याही थी वह भी न्याती का विचार कर घर नहीं प्राती थी इस पर नानचन्द ने अपनी न्यात पर १४ हजार रुपयों का राजनगर की राज्यकोर्ट में दावा किया ।" उधर अमरचन्द के घर में उसकी औरत के साथ रोज क्लेश होने लगा । औरत कहती - "तुमने न्यात के विरुद्ध झगड़ा उठाया, यह मूर्खता का काम किया । न्यात से लड़ना झगड़ना प्रासान बात नहीं । पहले यह नहीं सोचा कि इसका परिणाम क्या होगा, तुमने न्यात से सामना किया और लोगों के उपालम्भ में खाती हूं बड़ी उम्रको वेटी को देखकर मेरी छाती जलती है." साह अमरा अपनी श्रोरत की बातों से तंग आकर शा० पूंजा टोकर से मिला और कहने लगा न्यात बहिष्कृति वापस खींचकर हमें न्यात में कैसे लें, इसका कोई मार्ग बतायो । बेटी बड़ी हो गई है, उसको व्याहे बिना कैसे चलेगा, अमरा की बात सुनकर पूजाशाह ने भ्रमरा को उल्टी सलाह दी, कहा न्यात पर कोर्ट में अर्जी करो, इस पर अमरा ने अर्जी की और अपनी पुत्रो को संभात के रहने वाले किसा ढुण्ढक को व्याह दी । पूजाशाह ने न्यात में कुछ " करियावर" किया तब उनके वेवाई जो ढुण्ढक थे, उसके वहां मर्यादा रक्खी तो भी ढुण्ढक लज्जित नहीं हुए, बहुत दिनों के बाद जब मर्जी की पेशी हुई तब शहर के घमंप्रेमी सेठ भगवान् इच्छा चन्द माणकचन्द औौर ग्रन्य भी जो धर्म के अनुयायी थे सब अदालत में न्यायार्थ गए । अदालत ने अर्जी पर हुक्म दिया कि " मामला धर्म का है, इसलिए सभा होगी तब फैसला होगा, दोनों पक्षकार अपने-अपने गुरुयों को बुलाकर पुस्तक प्रमाणों के साथ सभा में हाजिर हों," भदालत का हुक्म होते ही गांव-गांव पत्रवाहक भेजे, फिर भी कोई दुष्ढक आया नहीं था । GOO ४५ -- Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग इस समय पाटन में रहे हुए जेठमलजी ऋषि ने अहमदाबाद पत्र लिखा कि 'मूर्तिपूजकों की तरफ से वाद करने वाला विद्वान् कोन भाएगा ? मूर्तिपूजकों की तरफ से एक वीरविजयजी झगड़े में प्रायें तो अपने पक्ष के सब ऋषि राजनगर आने के लिए तैयार हैं," इस प्रकार का जेठमलजी ऋषि का पत्र पढ़कर प्रेमाजी ऋषि ने गलत पत्र लिखा कि "वीरविजयजी यहां पर नहीं है और न माने वाले हैं" इस मतलब का पत्र पढ़कर जेठमलजी ऋषि लगभग एक गाड़ो के बोझ जितनी पुस्तकें लेकर अहमदाबाद भाए धौर एक गली में उतरे, वहां बैठे हुए अपने पक्षकारों से सलाह मशविरा करने लगे । लोम्बडी गांव के रहने बाले देवजी ऋषि महमदाबाद भाने वाले थे परन्तु विवाद के भय से बोमारी का बहाना कर खुद नहीं भाए घोर अपने शिष्य को भेजा । मूलजी ऋषि जो शरीर के मोटे ताजे थे और चलते वक्त हाँफते थे, इसलिए लोगों ने उनका नाम "पूज्यहाँ फूस " ऐसा रख दिया था । इनके अतिरिक्त नरसिंह ऋषि जो स्थूलबुद्धि थे । वसराम ऋषि प्रदि सब मिलकर ८१ ढुण्ढक साघु जो मुंह पर मुंहपत्ति बांधे हुए थे, अहमदाबाद में एकत्रित हुए । ४६ शहर में ये सर्वत्र भिक्षा के लिए फिरते थे । लोग आपस में कहते थे - ये दुण्डिये एक मास भर का प्रश्न खा जायेंगे | तब दीनानाथ जोशी ने कहा "फिकर न करो आने वाला वर्ष ग्यारह महीने का है," जोशी के वचन से लोग निश्चिन्त हुए। श्रावक लोग उनके पास जाकर प्रश्न पूछते थे, परन्तु वे किसी को उत्तर न देकर नये-नये प्रश्न मागे घरते थे । तपागच्छ के पण्डितों के पास जो कोई प्रश्न भाते उन सब का वे उत्तर देते, यह देखकर ढुण्ढकमत वाले मन में जलते थे, इस प्रकार सब अपनी पार्टी के साथ एकत्रित हुए। इतने में सरकारी आदमी ने कहा "साहब अदालत में बुलाते है," उस समय जो पण्डित नाम घराते थे सभा में जाने के लिए तैयार हुए; मन्दिर मार्गियों के समुदाय में सब से भागे पं० वीरविजयजी चल रहे थे, उनकी मधुर वाणी और विद्वत्ता से परिचित लोग कह रहे थे - जयकमला वीरविजयजी को धरेगी । हितचिन्तक कहते थे - महाराज ! 1 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ४७ प्रच्छ शकुन देखकर चलियेगा, इतने में एक मालिन फूलमाला लेकर. वीरविजयजो को सामने मिली इस शकुन को देखकर जानकार कहने लगेये शकुन जेठाजी ऋषि को हरायेंगे और उनके समर्थक नीचां देखेंगे। वीरविजयजी से कहा - तुम्हारी कीर्ति देश-देश में फैलेगी। उस समय वीरविजयजो के साथ खुशालविजयजी, मानविजयजो, भुजनगर से भाये हुए प्रानन्दशेखरजी, खेड़ा के चौमासी दलोचन्दजी भोर साणंद से पाए हुए लब्धिविजयजी आदि विद्वान् साधु चल रहे थे, इतना ही नहीं गांव-गांव के पढ़े लिखे श्रोता श्रावक जैसे बोसनगर के गलालशाह, जयचन्दशाह मादि। इन के अतिरिक्त अनेक साधु सूत्र-सिद्धान्त लेकर साथ में चल रहे थे और धन खर्च ने में श्रीमाली सेठ रायचन्द, बेचरदास, मनोहर, वक्तचन्द, महेता, मानचन्द मादि जिनशासन के कार्य में उल्लास पूर्वक माग ले रहे थे। भाविक श्रावक केसर चन्दन बरास प्रादि घिसकर तिलक करके भगवान् की पूजा करके जिनाज्ञा का पालन कर रहे थे, नगर सेठ मोतीभाई धर्म का रंग हृदय में घरकर सर्व-गृहस्थों के आगे चल रहे थे। इधर ऋषि जेठमलजी अपने स्थान से निकलकर छीपा गली में पहुंचे, वहां सभी जाति के लोग इकट्ठे हुए थे, वहां से ऋषि जेठमलजी और उनकी टुकड़ी अदालत द्वारा बुलाई गई, सब सरकारी सभा की तरफ चले, मूर्तिपूजक और मूर्तिविरोधियों को पार्टियां अपने-अपने नियत स्थानों पर बैठी। शास्त्रार्थ में पूर्वपक्ष मन्दिर-मागियों का था, इसलिए वादी पार्टी के विद्वान् अपने-अपने शास्त्र-प्रमाणों को बताते हुए मूर्तिविरोधियों के मत का खण्डन करने लगे । जब पूर्व पक्ष ने उत्तर पक्ष की तमाम मान्यतामों को शास्त्र के आधार से निरावार ठहराया तब प्रतिमापूजा-विरोधो उत्तर पक्ष ने अपने मन्तव्य का समर्थन करते हुए कहा - "हम प्रतिमापूजा का खण्डन करते हैं, क्योकि प्रतिमा में कोई गुण नहीं है, न सूत्र में प्रतिमापूजा कही है, क्योंकि दश अंग सूत्र "प्रश्न व्याकरण' के माश्रवद्वार में मूर्ति पूजने वालों को मन्दबुद्धि कहा है और निरंजन निराकार देव को छोडकर चैत्यालय में मूर्ति पूजने वाला मनुष्य अज्ञानी है।" Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली -पराग उत्तर पक्ष की युक्तियों को सुनकर पं० वीरविजयजी प्रत्युत्तर देते हुए बोले "तुम ढुण्डक लोगों का प्रवाह जानवरों के जैसा है, जिस प्रकार जानवरों के टोले को एक प्रादमी जिघर ले जाना चाहता है, उसी तरफ ले जाता है, वही दशा तुम्हारी हैं, तुम्हारे भादि गुरु लौका ने किसी को गुरु नहीं किया और मूर्तिपूजा आदि का विरोध कर घपना मन स्थापित किया, उसी प्रकार तुमने भी किसी भी ज्ञानी गुरु के विना उनको बातों को लेकर उसके पन्य का समर्थन किया है, जिससे एक को साघते हो और दस टूटने हैं । प्रतिमा में गुरण नहीं कहते हो तो उसमें दोष भी तो नहीं है और उसके पूजने से भक्तिगुण की जो पुष्टि होती है वह प्रत्यक्ष है । सूत्र- सिद्धान्त में अरिहन्त भगवन्त ने जिनप्रतिमा पूजनीय कही है श्राश्रव द्वार में प्रतिमापूजा वालों को मन्दबुद्धि कहा है- वह प्रतिमा जिन की नहीं, परन्तु नाग भूत आदि को समझना चाहिए ऐसा "अंगविद्या" नामक ग्रन्थ में कहा है । इतना ही नहीं वल्कि उसी "प्रश्नव्याकरण" अंग के सवरद्वार से जिनप्रतिमा की प्रशंसा की है और पूजने वाले के कर्मों को निर्बल करने वाली बताई है । घट्ट अंग "ज्ञातासूत्र" में द्रौपदी के ठाठ के साथ पूजा करने का पाठ है, इसके अतिरिक्त विद्याचाररणमुनि जिनप्रतिमा वन्दन के लिए जाते हैं, ऐसा भगवती सूत्र में पाठ है । सूर्यामदेव के शाश्वत जिनप्रतिमाओं की पूजा करने का "राजप्रश्नीय" में विस्तृत वर्णन दिया हुआ है और "जीवाभिगम" सूत्र में विजयदेव ने जिनप्रतिमा की पूजा करने का वर्णन विस्तारपूर्वक लिखा है, इस प्रकार जिन-जिन सूत्रों में मूर्तिपूजा के पाठ थे वे निकालकर दिखाये जिस पर ढुण्ढक कुछ भी उत्तर नहीं न दे सके । आागे पं० वीरविजयजी ने कहा - जब स्त्रा ऋतुधर्म से अपवित्र बनती है, तब उसको "सूत्र - सिद्धान्त " पढ़ना तथा पुस्तकों को छूना तक शास्त्र में निषेध किया है । यह कह कर उन्होंने "ठाणाङ्ग" सूत्र का पाठ दिखाया, तब ढुण्ढकों ने राजसभा में मंजुर किया कि ऋतुकाल में स्त्री को शास्त्र पढ़ना जैन सिद्धान्त में वर्जित किया है । परन्तु यह बात शास्त्रार्थ के अन्तर्गत नही है हमारा विरोध प्रतिमा से है इसके उत्तर में वीरविजयजी ने कहा यज्ञ कराने वाला शयम्भव भट के नीचे से निकली हुई शान्तिनाथ की प्रतिमा को देखकर प्रतिबोध पाया, इसी प्रकार अनेक भव्य मनुष्यों ने जिनप्रतिमा के दर्शन से जैनधर्म यू ४८ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ४९ को पाया और दीक्षा लेकर मोक्ष के अधिकारी हुए। प्रतिमा का विरोध करने वाले लोंका के अनुयायी सं० १५३१ में प्रकट हुए, उसके पहले जैन नामधारी कोई भी व्यक्ति जिनप्रतिमा का विरोधी नहीं था। इस पर नृसिंह ऋषि बोले - सूत्र में जिनप्रतिमा का अधिकार है यह बात हम मानते हैं, परन्तु हम स्वयं प्रतिमा को जिन के समान नहीं मानते। नरसिंह ऋषिजी के इन इकबाली बयानों से मदालत ने मूर्तिपूजा मानने वालों के पक्ष में फैसला सुना दिया और नशासन की जय बोलता हुमा मूर्तिपूजक समुदाय वहां से रवाना हुमा । बाद में मूर्तिपूजा विरोधियों के भगुमामों ने संघ के नेतामों से मिल कर कहा - "हम शहर में झूठे तो कहलाये, फिर भी हम वीरविजयजो से मिल कर कुछ समाधान करले। इसलिए जेठमलजी ऋषि को वीरविजयजी मिलें ऐसी व्यवस्था करो" इस पर इच्छाशाह ने कहा - यह तो चोरों की रोति है, साहूकारों को तो खुल्ले आम चर्चा करनी चाहिए। तुम मूर्ति को उत्यापन करते हो, इस सम्बन्ध में तुम से पूछे गये १३ प्रश्नों के उत्तर नहीं देते, राजदरबार में तुम भूठे ठहरे, फिर भी धीठ बनकर एकान्त में मिलने की बातें करते हो?, मोटे ताजे मूलजी ऋषि अदालत में तो एक कोने में जाकर बैठे थे और अब एकान्त में मिलने की बात करते हैं ?, अगर अब भो जेठाजी ऋषि और तुमको शास्त्रार्थ कर जीतने की होश हो तो हम बड़ी सभा करने को तैयार हैं। उनमें शास्त्र के जानकार चार पण्डितों को बुलायेंगे, दूसरे भी मध्यस्थ पण्डित सभा में हाजिर होंगे। वे जो हार-जीत का निर्णय देंगे, दोनों पक्षों को मान्य करना होगा। तुम्हारे कहने मुजब एकान्त में मिलकर कुलड़ी में गुड़ नहीं भांगेंगे। सभा करने की बात सुनकर प्रतिपक्षी बोले - हम सभा तो नहीं करेंगे, हमने तो मापस में मिलकर समाधान करने की बात कही थी। समा करने का इनकार सुनने के बाद प्रतिमा पूजने वालों का समुदाय पौर प्रतिमा-विरोधियों का समुदाय अपने-अपने स्थान गया। अपने स्थानक पर जाने के बाद बेठाजी ऋषि ने हकमाजी ऋषि को कहा - प्राज राजनगर में अपने धर्म का जो पराजय हुमा है, इसका Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली -पराग मुख्य कारण तुम हो। हमने पहले हो तुमको पूछाया तो तुमने लिखा कि शहर में शास्त्रार्थ करने वाला कोई पण्डित नहीं है । तुम्हारे इस झूठे पत्र के भरोसे हम सब हर्षपूर्वक यहां प्राये भोर लूटे गये । इस प्रकार एक दूसरे की भूलें निकालते हुए, दुष्ढक महमदाबाद को छोड़ कर चले गये । शहर से बहुत दूर निकल जाने के बाद वे गांव-गांव प्रचार करने लगे कि राजनगर की अदालत में हमारी जीत हुई । ठीक तो है, सुवर्ण थाल से कांसे का रणकार ज्यादा ही होता है । विष को बघारना इसी को तो कहते हैं, "काटने वाला घोड़ा और भांख से काना", "झूठा गाना भीर होली का त्यौंहार", "रण का जंगल भौर पानी खारा" इत्यादि कहावतें ऐसे प्रसंगों पर ही प्रचलित हुई हैं। ५० दास के रचियता पं० श्री उत्तमविजयजी जो उस शास्त्रार्थ के समय वहां उपस्थित थे, रास की समाप्ति में अपना अभिप्राय व्यक्त करते हुए कहते हैं - "जैनिक वस्त लहरे ॥ जं० ॥ निंदा तेनो नवी कहिईरे ॥ जं० ॥ ग्रहमदाबाद सेहर मजार रे ॥ जै० ॥ सहु चढ्या हता दरबार रे ॥ जं० ॥३॥ करयो न्याय प्रदालत मांये रे ॥ जं० ॥ त्यारे अमे गया ता साथे रे ॥ जं० ॥ त्यारे ढुण्ढ सभा यी भागा रे ॥ जं० जिनसासन डंका वागा रे ॥ जं० ॥ ४ ॥ ए वातो नजरें दीठी रे ॥ जं० ॥ हइयामां लागो मोठी रे ॥ जं० ॥ जब जाजा वरसते थाय रे ॥ जं० ॥ तव कांइक वोसरि जाय रे ॥ जं० ॥ ५ ॥ ॥ ॥ ॥ पछे कोइ नर पुछाय रे ॥ जं० जूठा बोला करी गाय रे ॥ जं० ॥ श्रंग चौथु जे समवाय रे ॥ जं० श्रमें जूठ नयी कहेंवाय रे ॥ जं० ॥ जिन सामन फरसी छाय रे ॥ जं० ॥ जे मृग तृष्णा जल धाय रे ॥ जं० मे मवलंब्या गुरु पाय रे साची बातों मे भाषी रे प्राडु प्रवलु बोलाय रे ॥ जं० ॥ दुनिया जीति नवि जाय रे ॥ जं० ॥ ६ ॥ ॥जै० ॥७॥ जै० ॥ जूठा ना पाप गवाय रे ॥ जै० ॥ श्राटा मां लूरण समाय रे साचा बोलां मुनि राय रे ॥ ॥ ते प्रापमति कहेवाय रे ॥ जं० ॥ साधुं सोनुं ते कसाय रे ॥ जं० ॥ छे लोक हजारो साखी रे ॥जै० ॥८॥ ॥ जं० ॥ ॥ जं० ॥ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टानी पराण ५१ पढार प्रठयोत्तर वरसे रे ॥ ज० ॥ सुदि पौष नी तेरस विष में रे ॥०॥ कुमति ने शिक्षा दोषी रे ॥०॥ तव रास नी रचना कोषो रे मजे०॥१७॥ राधनपुर ना रहेवासी रे ॥०॥ तपगच्छ केरा चौमासी रे ॥ ० ॥ खुशालविजयनी नु सोस रे ॥ ० ॥ कहे उत्तमविमय जगीस रे ॥०॥११॥ जे नारी रस भर गास्ये रे॥०॥ सोभाग्य मषंडित पास्ये रे॥०॥ सांभल से रास रसीला रे ॥०॥ ते लेस्य प्रविचल लीला रे ॥१२॥ इति लुंपक लोप तपगच्छ जयोत्पत्ति वर्णन रास संपूर्ण । सं० १९७८ ना वर्षे माघ मासे कृष्णपक्षे ५ वार चन्द्र पं० वीरविजयजी नी माज्ञा थी कत्तपुरा गच्छे राजनगर रहेवासी पं० उत्तमविजय । सं० १९८२ २० वर्षे लिपिकृतमस्ति पाटन नगरे पं० मोतीविजय ॥" 'जो निन्दक होता है, उसके वास्तविक स्वभाव का वर्णन करना वह निन्दा नहीं है । महमदाबाद में जब दोनों पार्टियां कोर्ट में जाकर लड़ी थीं पौर पदालत ने जो फैसला दिया था, उस समय हम भी प्रदालत में उनके साथ हाजिर थे। दुण्ढकों के विपक्ष में फैसला हुमा भौर जैनशासन का डंका बजा, तव दुष्टक सभा को छोड़ कर चले गये थे। यह हमने अपनी मांखों से देखी बात है। जब कोई भी घटना घटती है पोर उसको मधिक समय हो जाता है, तब वह विस्मृत हो जाती है। लम्बे काल के बाद उस घटना के विषय में कोई पूछता है तो वास्तविक स्थिति से ज्यादा कम भी कहने में पा जाता है पोर तब जानकार लोग उसको प्रसत्यवादी कहते हैं, हालाकि कहने वाला विस्मृति के वश ऊंचा-नीचा कह देता है, परन्तु दुनियां को कौन बीत सकता है, वह तो उसको प्रसत्यवादी मान लेती हैं। चौवे समवायांब सूत्र में प्रसत्य बोलने का पाप बताया है, इसलिये जो बात न्यों बनी है हम वही कहते हैं। वर्णन में असत्य की माना पाटे में नमक के हिसाब से रह सकती है, अधिक नहीं। जिन्होंने बनशासन को छाया का भी सर्श किया है, वैसे मुनि तो सत्यभाषी ही कहलाते हैं। जो मृग की तरह मृगतृष्णा के पीछे दौड़ते हैं, वे प्रापमति कहलाते हैं। हमने तो गुरु के चरणों का पाश्रय लिया है। जिस प्रकार Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ नामावली पराग सच्चा सोना कसौटी पर कसा जाता है, हमारी बातों की सच्चाई के हजारों लोग साक्षी हैं। सं० १८.७८ के पौष सुदि १३ के दिन जब दुर्बुद्धि मूर्सिलोपकों को शिक्षा दी, उस समय इस रास की रचना की है। राधनपुर रहने वाले तपागच्छ के चौमासी श्री खुशालविजयजी के शिष्य उत्तमविजयजी कहते हैं - जो नारी इस रास को रसपूर्वक गायेगी उसका सौभाग्य अखंडित होगा और जो इस रसपूर्ण रास को सुनेंगे वे शाश्वत सुख पायेंगे। ___ "इस प्रकार लुम्पक लोप तपमच्छ जयोत्पत्ति वर्णन रास पूर्ण हुअा। सं० १८७८ के माघ कृष्णपक्ष में ५ सोमवार को पंडित वीरविजयजी की प्राज्ञा से कत्तपुरागच्छोय राजनगर के निवासी पं० उत्तमविजयजी ने रास की रचना की और सं० १८८२ के वर्ष में पं० मोतीविजय ने पाटन नगर में यह प्रति. लिखी ॥" उपर्युक्त पं० उत्तमविजयजी के रास से और वाडीलाल मोतीलाल शाह के जजमेन्ट से प्रमाणित होता है कि "समकितसार" के निर्माण के बाद स्थानकवासियों का प्रचार विशेष हो रहा था, इसलिए इस प्रचार को रोकने के लिए महमदाबाद के जैनसघ ने स्थानकवासियों के सामने कड़ा प्रतिबन्ध लगाया था। परिणामस्वरूप अदालत द्वारा दोनों पार्टियों से सभा में शास्त्रार्थ करवा कर निर्णय किया था। निर्णयानुसार स्थानक. वासी पराजित होने से उन्हें अहमदाबाद छोड़ कर जाना पड़ा था। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभुवीर पट्टावली (२) • स्थानकवासी साधु श्री मणिलालजी द्वारा संकलित "प्रभुवोर पट्टावली" के पृ० १५७ में ३३ पट्टधरों के उपरान्त आगे के पट्टधरों के नाम निम्न प्रकार से दिये हैं - ३४ वर्धनाचार्य ३५ भूराचार्य ३६ सूदनाचार्य ३७ सुहस्ती ३८ वर्धनाचार्य ३६ सुबुद्धि ४० शिवदत्ताचार्य ४१ वरदत्ताचार्य ४२ जयदत्ताचार्य ४३ जयदेवाचार्य ४४ जयघोषाचार्य ४५ वीरचक्रधर ४६ स्वातिसेनाचार्य ४७ श्री वन्ताचार्य ४४ सुमतिप्राचार्य ( लौंकाशाह के गुरु ) अब हम पंजाब की पट्टावली और श्री मणिलालजी की पट्टावली के नाम तुलनात्मक दृष्टि से देखते हैं तो वे एक दूसरे से मिलते नहीं हैं, इसका कारण यही है कि ये दोनों पट्टावलियां कल्पित है और इसी कारण से पंजाबी स्थानकवासियों की पट्टावली के अनुसार लोकाशाह के गुरु ज्ञानजी यति का पट्ट नं० ० ६० वां दिया है, तब श्री मणिलालजी ने ज्ञानजी यति के स्थान पर "सुमति" आचार्य नाम लिखा है मोर उनको ४८ वां पट्टधर लिखा है । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी पंजाबी साधुओं की पडावली (३) पंजाब के स्थानकवासियों की पट्टावली जो "ऐतिहासिक नोध" पृ० १६३ में दी गई है, उसमें देवद्धिगणि के बाद के १८ नाम छोड़कर शेष ४६ से लगाकर निम्न प्रकार से नाम लिखे हैं - ४६ हरिसेन ५३ महासेन ४७ कुशलदत्त ५४ जयराज ४८ जोवनर्षि ५५ गजसेन ४६ जयसेन ५६ मिश्रसेन ५० विजयर्षि ५७ विजयसिंह ५१ देवर्षि ५८ शिवराज ५२ सूरसेन ५६ लालजोमल्ल ६० ज्ञानजी यति Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतागमों की प्रस्तावनों की स्थानकवासी पहावली (8) १ सुधर्मा ४ शय्यम्भव ७ आर्य भद्रबाहु १० बलिस्सह १३ साण्डिल्य १६ नन्दिल १६ खन्दिल २२ नागार्जुन २५ लोहाचार्य २८ वीरभद्र ३१ वीरसेन ३४ हर्षसेन ३७ देवर्षि ४० राजपि ४३ लक्ष्मीलाम ४६ हरिशर्मा ४६ बयसेन ५२ सूरसेन ५५ जयराज ५८ विजयसिंह २ जम्बू ५ यशोभद्र ८ स्थूलभद्र ११ सन्तायरिय १४ जिनधर्म १७ श्री नागहस्ती २० सिंहगिरि २३ गोविन्द २६ दुप्रस्सह २६ शिवभद्र ३२ रिणज्जामय ३५ जयसेन ३८ भीमसेन ४१ देवसेन ४४ राषि ४७ कुशलप्रभ ५० विजयर्षि ५३ महासिंह ५६ गजसेन ५६ शिवराज ३ प्रभव ६ सम्भूति ६ प्रार्य महागिरि १२ श्यामाचार्य १५ समुद्र १८ रेवत २१ श्रीमन्त २४ भूतदिन २७ देवद्धिगणि ३० जसवीर ३३ जससेन ३६ जयपाल गणि ३६ कर्मसिंह ४२ शंकरसेन ४५ पद्माचार्य ४८ उन्मूनाचार्य ५१ श्री देवचन्द्र ५४ महासेन ५७ मित्रसेन ६० लालाचार्य Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पट्टावली-पराग ६१ ज्ञानाचार्य ६२ भारणा ६४ जीवर्षि ६५ तेजराज ६७ जीवराज ७८ घनजी ७० मनजी ७१ नाथूरामाचार्य ७३ छित्तरमल ७४ राजाराम ७६ रामलाल ७७ फकीरचन्द ७६ सुमित्त ८० जिरणचन्द ( २०११ में जिनचन्द्र ने यह पट्टावली बनाई ) ६३ रूपाचार्य ६६ हरजी ६६ विस्सणायरियो ७२ लक्ष्मीचन्द्र ७५ उत्तमचन्द ७८ पुष्फभिक्खू Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमरा-सुरतरु की स्थानकवासि-पडावली (१) पुप्फभिक्खू की पट्टावली लिखने के बाद स्थानकवासी मुनि श्री मिश्रीमलजी (मरुधर केसरी)-निर्मित "श्रमणसुरतरु' नामक एक पट्टक हमारे देखने में आया, उसमें दी गई सुधर्मा स्वामी से ज्ञानजी ऋषि पर्यन्त के ६७ नाम पट्टावलो में लिखे गए हैं । तब पुप्फभिक्खू की नूतन पट्टावली में शानजी ऋषि को "ज्ञानाचार्य" नाम दिया है, और ६१ वां पट्टधर बताया है, इस प्रकार इन दो पट्टावलियों में ही छः नाम कम ज्यादह पाते हैं और जो नाम लिखे गए हैं उनमें से छ: नाम दोनों में एक से मिलते हैं । वे ये हैं - २८ मा० वीरभद्रजी ३१ मा० वीरसेनजी मा. जगमालजी ३८ मा० भीमसेनजी ४० पा. राजर्षिजी ४१ शा. देवसेनजो उपर्युक्त छः माचार्यों के नाम मोर नम्बर दोनों पट्टावलियों में एक से मिलते हैं। तब शेष देवद्धिगणि के बाद के ३४ नामों में से एक भी नाम एक दूसरे के साथ मेल नहीं खावा, इससे प्रमाणित होता है कि देवगिरिण क्षमाश्रमण के बाद के शानषी यति तक के सभी नाम कल्पित हैं, जिनकी पहिचान यह है कि इन सब नामों के अन्त में 'जी' और 'महाराज' शब्द प्रयुक्त किए गए हैं, 'बी' कारान्त पोर 'महाराजान्त' नाम मौलिक नहीं है, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ पट्टावली पराग यह बात नामों की रचना मोर उनके प्रयोगों से ही पाठकगण अच्छी तरह समझ सकने हैं। - सुधर्मा से देवद्धिगणि तक के २८ नामों में भी लेखक महोदय ने अनेक स्थानों में अशुद्धियां घुसेड़ दी है, इनके दिये हुए देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण तक के नाम वास्तव में किसी को गुरु-परम्परा के नाम नहीं हैं, किन्तु ये माथुरी वाचनानुयायी वाचक-वंश के नाम है, जिसका खरा कम निम्न प्रकार का है - ९ श्री मार्य महागिरि १० श्री बलिस्सहसूरि ११ , स्वास्तिसूरि १२ , श्यामार्य १३ , जीतधर-शाण्डिल्य १४ , आर्य समुद्र १५ , मार्य मंगू १५ , आर्य नन्दिल १७ ॥ नागहस्ती , रेवती नक्षत्र १६ । ब्रह्मद्वीपकसिंह २० , स्कन्दिल २१ । हिमवान् २२ , नागार्जुन २३ , गोविन्द वाचक २४ , भूतदिन्न २५ ,, लोहित्य २६ , दूष्यगणि २७ , देवद्धिगरिग क्षमाश्रमण श्रमणसुरतरु' के लेखक महाशय ने ११ वें नम्बर में सुहस्तोसूरि को रखा है, जो ठीक नहीं, क्योंकि महागिरि के बाद उनके अनुयोग-धर शिष्यों के नाम ही भाते हैं, सुहस्ती का नहीं। १२ ३ नम्बर में प्राचार्यश्री शान्ताचार्य लिखा है, इसी लाइन में नन्दिलाचार्य नाम लिखा है, वे भी यथार्थ नहीं हैं, खरा नाम स्वात्याचार्य है। सुप्रतिबुद्ध का नाम वाचक-परम्परा में नहीं है, किन्तु सुहस्तिसूरि की की शिष्य-परम्परा में है और नन्दिल का नाम १६ वें नम्बर में माता है। १३ वां नम्बर स्कन्दिलाचार्य का दिया है, जो गलत है। १३ वें नम्बर के श्रुतघर जीतश्रुतधर शाण्डिल्य हैं, स्कन्दिल नहीं । स्कन्दिलाचार्य का Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली पराज नम्बर २० घां है, १३ वां नहीं, कोष्टक में श्रार्यदिन का नाम भी गलत लिखा है, भार्यदिन धायं सुहस्ती की परम्परा के स्थविर थे और इनका पट्ट नम्बर ११ वां था, १३ वां नहीं । ५९ १४ वें नम्बर में जीतघर स्वामी का नाम लिखा है, जो ठीक नहीं है, क्योंकि जोतघर विशेष नाम नहीं है, किन्तु १३ वें नम्बर के श्रायं शाण्डिल्य का विशेषण मात्र है । १५ वें नम्बर में श्रायं समुद्र का नाम दिया है पर श्रार्य समुद्र १४ वें नम्बर में हैं और आगे कोष्टक के श्री वज्रधर स्वामी ऐसा नाम लिखा है, यह भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि इस नाम के कोई भी स्थविर हुए ही नहीं हैं । १६ वें नम्बर के आगे "वयर-स्वामी" लिखा है, जो गलत है, इस नम्बर के नन्दिलाचार्य स्थविर ही हुए हैं, इनके श्रागे वज्रशाख १, चन्द्रशाखा २, निवृत्तिशाखा ३ र ४ विद्याधरीशाखा नाम लिखे हैं, ये भो यथार्थ नहीं हैं । वज्रस्वामी से वाजीशाखा जरूर निकली है, "चन्द्र" नाम कुल का है शाखा का नहीं इसी तरह "निवृति" नहीं किन्तु "निवृति" नाम है और वह नाम शाखा का नहीं "कुल" का है, इसी तरह "विद्याघर" भी "कुल" का नाम है । शाखा का नहीं । 1 १७ वें नम्बर के आचार्य "रेवतगिरि" "श्री सायंरक्षित" और श्री "घरणीघर" इनमें से पहले और तीसरे नाम के कोई श्रुतवर हुए ही नहीं है और भार्य रक्षित हुए हैं, तो इनका नम्बर २० वां है, १७ वां नहीं । १५ वें धीर १६ वें नम्बर के भागे प्राचार्य "श्री सिंहगरिण" ओोर " स्थविर - स्वामी" ये नाम लिखे हैं, परन्तु दोनों नाम गलत है, क्योंकि इन नामों के कोई श्रुतघर हुए ही नहीं, सिहगरिण के धागे शिवभूति का नाम लिखा है, सो ठीक है परन्तु शिवभूति वाचक-वंश में नहीं किन्तु देवद्धि गरिए की पूर्वावली में है, यह बात लेखक को समझ लेना चाहिए थी । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० पट्टावली पराग २० वें नम्बर में आचार्य शाण्डिल्य का नाम लिखा है, और कोष्टक में मार्य नागहस्ती एवं मार्य भद्र के नाम हैं, परन्तु ये शाण्डिलाचार्य श्रुतघर शाण्डिल्य नहीं, क्योंकि श्रुतधर शाण्डिल्य का नाम १३ वां है, जो पहले लेखक ने खन्दिलाचार्य के रूप में लिख दिया है। प्रस्तुत शाण्डिल्य पार्य नागहस्ती और आर्य भद्र ये तीनों नाम देवद्धिगरिण की गुर्वावली के हैं और गुर्वावलो में इनके नम्बर क्रमशः ३३, २२ और २० हैं, जिनको लेखक ने ऊटपटांग कहीं के कहीं लिख दिए हैं। २५ वें नम्बर के मागे श्री लोहगरिए नाम लिखा है, सो ठीक नहीं, शुद्ध नाम "लौहित्यगणि" है । २६ नम्बर के आगे इन्द्रसेनजी लिखकर कोष्टक में दुष्यगरिण लिखा है, वास्तव में “इन्द्रसेनजी" कोई नाम ही नहीं है, शुद्ध नाम "दूष्यगणि" ही है। जनसंघ तीर्थयात्रा को जा रहा था। लोकाशाह जहां अपने मत का प्रचार कर रहे थे वहां संघ पहुंचा और वृष्टि हो जाने के कारण संघ कुछ समय तक रुका । संघजन लौंका का उपदेश सुनकर "दयाधर्म के अनुयायी बन गए और संघ को भागे ले जाने से रुक गए," यह कल्पित कहानी स्थानकवासी सम्प्रदाय की अर्वाचीन पट्टावलियों में लिखी मिलती है। परन्तु न तो सिरोही स्टेट के अन्दर अहवाड़ा अथवा अहटवाड़ा नामक कोई गांव है, न इस कहानी की सत्यता ही मानी जा सकती है, तब अहवाड़ा में लौका का जन्म बताने वाली बात सत्य कैसे हो सकती है। सं० १४७२ के कार्तिक सुदि १५ को गुरुवार होना पंचांग गणित के आधार से प्रमाणित नहीं होता, न उनके स्वर्गवास का समय ही १५४६ के चैत्र सुदि ११ को होना सिद्ध होता है। उपर्युक्त दोनों संवत् मनघडन्त लिखे हैं, क्योंकि उन दोनों तिथियों में "एफेमेरिज" के आधार से लिखित वार नहीं मिलते । अब रही दीक्षा की बात सो लौकागच्छ को किसी भी पट्टावली में लौकाशाह के दीक्षा लेने की बात नहीं लिखी। प्रत्युत केशवजी ऋषि ने लौका को प्रदीक्षित माना है, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग तव २१ वीं सदी के स्थानकवासी श्रमरणसंघ और "श्रमरणसुरतरु" के लेखक मुनिजी को लोकाशाह के जन्म, दीक्षा और स्वर्गारोहण के समय का किस ज्ञान से पता लगा, यह सूचित किया होता तो इस पर कुछ विचार भी हो सकता था । खरी बात तो यह है कि पट्टावली-लेखकों तथा लौकागच्छ को अपना गच्छ कहने वालों को लोकाशाह को गृहस्थ मानने में संकोच होता था, इसलिये पंजावी पट्टावली में से लोकाशाह कों पहले से ही प्रद्दश्य बना दिया था, अब मारवाड़ के श्रमरणों को भी अनुभव होने लगा कि लोकाशाह को साधु न मानला अपने गच्छ को एक गृहस्थ का चलाया हुआ गच्छ मानना है, इसी का परिणाम है कि 'श्रमणसुरतरु' के लेखक ने लोकाशाह को दीक्षा दिलाकर "अपने गच्छ को श्रम प्रवर्तितगच्छ बताने की चेष्टा की है," कुछ भी करें, लोंका के अनुयायियों की परम्परा गृहस्थोपदिष्ट भार्ग पर चलने वाली है, वह इस प्रकार की कल्पित कहानियों के जोड़ने से श्रागमिक श्रमण परम्पराम्रों के साथ जुड़ नहीं सकती । ६१ प्रारम्भिक पट्टावलियों के विवरण में लोकागच्छीय मौर स्थानकवासियों की पट्टावलियों के सम्बन्ध में हम लिख आए है कि ये सभी पट्टावलियां छिन्नमूलक हैं । देवद्धिगरण क्षमा-श्रमरण तक के २७ नामों से मी इनका एकमत्य नहीं है । किसो ने देवगिरिण क्षमा-श्रमण को प्रार्यमहागिरि की परम्परा के मानकर नन्दी की स्थविरावली में लिया है, किसी ने उन्हें आर्य - सुहस्ती की गुरु-परम्परा के स्थविर मानकर कल्पसूत्र की स्थविरावली में घसीटा है । वास्तव में दोनों प्रकार के लेखक देवगिरिक्षमा श्रमण को परम्परा लिखने में मार्ग भूल गये हैं । तब देवगिरिण-क्षमा श्रमण के बाद के कतिपय स्थविरों को छोड़कर "प्रभुवीर पट्टावली" में उसके लेखक श्री मणिलालजी ने लोकाशाह के गुरु तक के जो नाम लिखे हैं, वे लगभग सब के सब कल्पित हैं। उधर पंजाब के स्थानकवासियों की पट्टावली में जो नाम देवद्विगरण के बाद १८ नामों को छोड़कर शेष लिखे गए हैं, उनमें से भी अधिकांश कल्पित ही ज्ञात होते हैं, क्योंकि झाधुनिक स्थानकवासी साधु उनमें के अनेक नामों को भिन्न • Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ पट्टावली पराग प्रकार से लिखते हैं । पंजाब की पट्टावलियों में देवगिरिण क्षमाश्रमण के वाद १८ नाम छोड़कर ज्ञानजी यति तक के जो नाम मिलते हैं, उनसे भी नहीं मिलने वाले प्राधुनिक स्थानकवासी पंजाबी साधु श्री फूलचन्दजी द्वारा सम्पादित " सुत्तागमे" नामक पुस्तक के दूसरे भाग के प्रारम्भ में दी गई पट्टावली में उपलब्ध होते हैं, जो १८ नाम धन्य पट्टावलियों में नहीं मिलते, वे भी इसमें लिखे मिलते हैं । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुप्फभिक्खू की पहावली (९) २७ देवद्धिगणि क्षमाश्रमण २८ वीरभद् २६ शिवभद्र ३० जसवीर ३१ वीरसेन ३२ रिणज्जामय ३३ जससेन ३४ हर्षसेन ३५ जयसेन ३६ जयपाल गरिण ३७ देवर्षि ३८ भीमसेन ३६ कर्मसिंह ४० राजषि ४१ देवसेन ४२ शंकरसेन ४३ लक्ष्मीलाभ ४४ रामर्षि ४५ पद्माचार्य ४६ हरिशर्मा ४७ कुशलप्रभ ४८ उन्मनाचार्य ४६ जयसेन ५० विजयपि ५१ देवचन्द्र ५२ सूरसेन ५३ महासिंह ५४ महासेन ५५ जयराज ५६ गजसेन ५७ मित्रसेन ५८ विजयसिंह ५६ शिवराज ६० लालाचार्य ६१ ज्ञानाचार्य ६२ भारणाचार्य ६३ रूपाचार्य ६४ जीवपि ६५ तेजराज ६६ हरजी ६७ जीवराज ६८ धनजी ६६ विस्सरणायरिमो ७० मनजी ७१ नाथूरामाचार्य ७२ लक्ष्मीचन्द्र ७३ छितरमल ७४ राजाराम ७५ उत्तमचन्द ७६ रामलाल ७७ फकीरचन्द ७८ पुष्पभिक्षुः ७६ सुमित्र ८० जिनचन्द्र उपयुक्त ८० नामों में से देवद्धिगणि पर्यन्त के २७ नाम ऐतिहासिक हैं। इनमें भी कतिपय नाम प्रस्त-व्यस्त और अशुद्ध बना दिये हैं । २७ में से ११वां, १४वां, २०वां, २१वां, २५वां मोर २६ वां, ये सात नाम वास्तव Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ पट्टावली-पराग में देवद्धिगरण की वाचक-वंशावली के नहीं हैं और न देवद्धि की गुरु-परम्परा के ये नाम हैं, तथा २८ से लेकर ६० तक ये नाम कल्पित हैं। इन नामों के प्राचार्यो या साधुओं के होने का उल्लेख माथुरी या वालभी स्थविरावली में अथवा तो अन्य किसी पट्टावली स्थविरावली में नहीं है। ६१वां ज्ञानाचार्य वास्तव में वृद्धपोषधशालिक आचार्य ज्ञानचन्द्रसूरि हैं। इसके मागे के ६२ से लेकर ८० तक के १८ नामों में प्रारम्भ के कतिपय नाम लौकागच्छ के ऋषियों के हैं, तब अन्तिम कतिपय नाम पुष्पभिक्षु के बड़ेरों के और उनके शिष्य-प्रशिष्यों के हैं। पंजाब के स्थानकवासियों को पट्टावली जो ऐतिहासिक नोंघ" पृ० १६३ में दी है उसमें देवद्धिगरिण के बाद के १८ नाम छोड़कर ४६ से लगा. कर निम्न प्रकार से नाम लिखे हैं४६ हरिसेन ४७ कुशलदत्त ४८ जीवनर्षि ४६ जयसेन ५० विजयर्षि ५१ देवर्षि ५२ सूरसेन ५३ महासेन ५४ जयराज ५५ गजसेन ५६ मिश्रसेन ५७ विजयसिंह ५८ शिवराज ५६ लालजीमल्ल ६. ज्ञानजी यति पंजाबी साधु फूलचन्दजी ने अपनी नवीन पट्टावली में देवद्धिगणिक्षमाश्रमण के बाद जो २८ से ४५ तक के नम्बर वाले नाम लिखे हैं वे तो कल्पित हैं ही, परन्तु उसके बाद के भी ४६ से ६० नम्बर तक के १५ नामों में से ७ नाम फूलचन्दजी की पट्टावली के नामों से नहीं मिलते। ४६वां पट्टधर का नाम पंजाबी पट्टावली में हरिसेन है, तब फूलचन्दजी ने उसके स्थान पर हरिशा लिखा है। पं० पट्टावली में ४७वां नाम कुशलदत्त है, तब फूलचन्दजी ने उसे कुशलप्रभ लिखा है । पं० पट्टावली में ४८वां नाम जोक्नषि है, तब फूलचन्दजी ने उसके स्थान पर "उमरणायरियो" लिखा है। ५१वां नाम पं० पट्टावली में "देवर्षि" है तब फूलचन्दजी ने "देवचन्द्र" लिखा है। पं० पट्टावली में ५३वा नाम "महासेन" मिलता है तब फूलचन्दजी ने "महासिंह" लिखा है। पं० पट्टावली में ५४वां नाम Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग ६५ जयराज है तब फूलचन्दजी ने उस नम्बर के साथ " महासेन" लिखा है पौर " जयराज " को नम्बर ५५वां में लिया है, और पं० पट्टावली में ५५वें नंबर के साथ गजसेन का नाम लिखा है । पं० पट्टावली में ५६वों पट्टधर "मिश्रसेन" बताया है, तब फूलचन्दजी ने इन्हीं को "मित्रसेन" लिखा है मोर नम्बर ५७वां दिया है । पं० पट्टावली में ५७वां नाम "विजयसिंह " का है, तब फूलचन्दजी ने विजयसिंह को ५८वें नम्बर में रखा है । पं० पट्टावली में ५८- ५६ - ६० नम्बर क्रमशः शिवराज, लालजीमल्ल, मोर ज्ञानजी यति को दिए है, तब फूलचन्दजी ने इन्हीं को ५६ - ६०-६१ नम्बर में रखा है | ❤ उपर्युक्त नामों की तुलना से जाना जा सकता है कि पंजाबी साघु श्री फूलचन्दजी सूत्रों के पाठों के परिवर्तन में भौर नये नाम गढने में सिद्धहस्त प्रतीत होते हैं । इन्होंने स्थविरों के नामों में ही नहीं भागमों के पाठों में भी अनेक परिवर्तन किये हैं और कई पाठ मूल में से हटा दिये हैं । इस हकीकत की जानकारी पाठकगरण मागे दिये गए शीर्षकों को पढ़कर हासिल कर सकते हैं । जैन आगमों में काट-छांट : कामत का प्रादुर्भाव विक्रम सं० १५०८ में हुआ था और इस मत में से १८वीं शती के प्रारम्भ में अर्थात् १७०६ में मुख पर मुहपत्ति बांधने वाला स्थानकवासी सम्प्रदाय निकला, इत्यादि बातों का विस्तृत वर्णन लौकावच्छ की पट्टावली में दिया जा चुका है। शाह लोंका ने तथा उनके अनुयायी ऋषियों ने मूर्तिपूजा का विरोध प्रवश्य किया था, परन्तु जैन द्यागमों में काटछांट करने का साहस किसी ने नहीं किया था । सर्वप्रथम सं० १८६५ में स्थानकवासी साघु श्री जेठमलजी ने "समकितसार" नामक ग्रन्थ लिखकर मूर्तिपूजा के समर्थन में जो सागमों के पाठ दिये थे उनकी समालोचना करके वर्थ परिवर्तन द्वारा पनी मान्यता Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ पट्टावली-पराग का बचाव करने की चेष्टा की, परन्तु मूल-सूत्रों में परिवर्तन अथवा कोटछांट करने का कातर प्रयास किसी ने नहीं किया। उसके बाद स्थानकवासी साधु श्री अमोलकऋषिजी ने ३२ सूत्रों को भाषान्तर के साथ छपवाकर प्रकाशित करवाया। उस समय भी ऋषिजी ने कहीं-कहीं शब्द परिवर्तन के सिवा पाठों पर कटार नहीं चलाई थी। विक्रम की २१ वीं शती के प्रथम चरण में उन्हीं ३२ सूत्रों को "सुत्तागमे इस शीर्षक से दो भागों में प्रकाशित करवाने वाले श्री पुष्फभिक्खू (श्री फूलचन्दजी) ने उक्त पाठों को जो उनकी दृष्टि में प्रक्षिप्त थे निकालकर ३२ भागमों का संशोधन किया है। उन्होंने जिन-जिन सूत्रों में से जो-जो पाठ निकाले हैं उनकी संक्षिप्त तालिका नीचे दी जाती है - (१) श्री भगवती सूत्र में से शतक २० । ३०६ । सू० ६८३ - ६८४ । भगवतीसूत्र शतक ३ । ३०२ में से। भगवतीसूत्र के अन्दर जंघाचारण विद्याधारणों के सम्बन्ध में नन्दीश्वर मानुषोत्तर पर्वत तथा मेरु पर्वत पर जाकर चैत्यवन्दन करने के पाठ मूल में से उड़ा दिए गए हैं । (२) ज्ञाताधर्म-कथांग में द्रौपदी के द्वारा की गई जिनपूजा सम्बन्धी सारा का सारा पाठ हटा दिया है। (३) स्थानांग सूत्र में आने वाले नन्दीश्वर के चैत्यों का अधिकार हटाया गया है। (४) उपासक-दशांग सूत्र के प्रानन्द श्रावकाध्ययन में से सभ्यक्त्वोच्चारण का मालापक निकाल दिया है। (५) विपाकश्रुत में से मृगारानी के पुत्र को देखने जाने के पहले मृगादेवी ने गौतम स्वामी को मुहपत्ति से मुह बांधने की सूचना करने वाला पाठ-उड़ा दिया है। (६) भोपपातिक सूत्र का मूल पाठ जिसमें भम्बहपरिव्राजक के सम्यक्त्व उचरने का अधिकार था, वह हटा दिया गया है, क्योंकि उसमें Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली पराग ६७ "अरिहन्तचेत्य" और "अन्य तीर्थिक परिगृहीत परिहन्त चेत्यों" का प्रसंग प्राता था । (७) राजप्रश्नीय सूत्रों में सूर्याभदेव के विमान में रहे हुए सिद्धायतन में जिनप्रतिमाओं का वर्णन और सूर्याभदेव द्वारा किये हुए उन प्रतिमानों के पूजन का वर्णन सम्पूर्ण हटा दिया है । (८) जीवाभियम सूत्र में किये गए विजयदेव की राजधानी के सिद्धायतन तथा जिनप्रतिमानों का, नन्दीश्वर द्वीप के जिनचत्यों का रुचक तथा कुण्डल द्वीप के जिनचंत्यों का वर्णन निकाल दिया गया है। श्री जीवाभिगम की तीसरी प्रतिपत्ति के द्वितीय उद्देश में विरुद्ध जाने वाला जो पाठ था उसको हटा दिया है । (E) इसी प्रकार जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति प्रादि सूत्रों में पाने वाले सिद्धायतन कूटों में से "प्रायतन" शब्द को हटाकर "सिद्धकूट" ऐसा नाम रक्खा है । (१०) वहार-सूत्र के प्रथम उद्देशक के ३७ में सूत्र के द्वितीय भाग में माने वाले "भाविजिनचे इन" शब्द को हटा दिया है । उपर्युक्त सभी पाठ स्थानकवासी साधु धर्मसिंहजी से लगाकर बीसवीं सदी के स्थानकवासी साधु श्री प्रमोलक ऋषिजी ने ३२ सूत्रों को भाषान्तर के साथ छपवाकर प्रकाशित करवाया तब तक सूत्रों में विद्यमान थे । गतवर्ष सं० २०१६ के शीतकाल में जब हमने श्री पुप्फभिक्खू सम्पादित " सुत्तागमे " नामक जैनसूत्रों के दोनों अंश पढ़े तो ज्ञात हुआ कि सूत्रों के इस नवीन प्रकाशन में श्री फूलचन्दजी (पुप्फभिक्खू) ने बहुत ही बोलमाल किया है। सूत्रों के पाठ के पाठ निकालकर मूर्तिविरोधियों के लिए मार्ग निष्कण्टक बनाया है । मैंने प्रस्तुत सूत्रों के सम्पादन में की गई काटछांट के विषय में स्थानकवासी श्री जैनसंघ सहमत है या नहीं, यह जानने के लिए एक छोटा सा लेख तैयार कर "जनवाणी" कार्यालय जयपुर (राजस्थान) तथा चांदनी चौक देहली नं० ६ "जेनप्रकाश" कार्यालय को Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ पट्टावली-पराग एक-एक नकल प्रकाशनार्थ भेजी, परन्तु उक्त लेख स्थानकवासी एक भी पत्रकार ने नहीं छापा, तव इसकी नकल भावनगर के "जैन" पत्र के ऑफिस को भेजी और वह लेख जैन के :"भगवान् महावीर-जन्म कल्याणक विशेषाङ्क" में छपकर प्रकट हुमा, हमारा वह संक्षिप्त लेख निम्नलिखित था। श्री स्थानकवासी जैनसंघ से प्रश्न : पिछले लगभग पद्धशताब्दी बितने जीवन में अनेक विषयों पर गुजराती तथा हिन्दी भाषा में मैंने अनेक लेख तथा निबन्ध लिखे हैं, परन्तु श्री स्थानकवासी हीनसंघ को सम्बोधन करके लिखने का यह पहला ही प्रसंग है, इसका कारण है "श्री पुप्फभिक्खू" द्वारा संशोधित और सम्पादित "सुत्तागमे" नामक पुस्तक का मध्ययन । पिछले कुछ वर्षों से प्राचीन जैन साहित्य का स्वाध्याय करना मेरे लिए नियम सा हो गया है, इस नियम के फलस्वरूप मैंने "सुत्तागमे" के दोनों अंश पढ़े, पढने से मेरे जीवन में कभी न होने वाला दुःख का अनुभव हुमा । _ मेरा झुकाव इतिहास-संशोधन की तरफ होने से "श्री लौकागच्छ" तथा "श्री बाईस सम्प्रदाय" के इतिहास का भी मैंने पर्याप्त अवलोकन किया है। लोकाशाह के मत-प्रचार के बाद में लिखी गई अनेक हस्तलिखित पुस्तकों से इस सम्प्रदाय की पर्याप्त जानकारी भी प्राप्त की, फिर भी इस विषय में कलम चलाने का विचार कभी नहीं किया, क्योंकि संप्रदायों के मापसो संघर्ष का बो परिणाम निकलता है उसे मैं अच्छी तरह जानता था। लोकाशाह के मौलिक मन्तव्य क्या थे, उसको उनके अनुयायियों के द्वारा १६वीं शताब्दी के अन्त में लिखित एक चर्चा-प्रन्थ को पढ़ कर मैं इस विषय में अच्छी तरह वाकिफ हो गया था। उस हस्तलिखित ग्रन्थ के बाद में बनी हुई भनेक इस गच्छ की पट्टावलियों तथा अन्य साहित्य का भी मेरे पास अच्छा संग्रह है। स्थानकवासी साधु श्री जेठमलजी द्वारा संहन्ध "समकितसार" और इसके उत्तर में श्री विजयानन्दसूरि-लिखित "सम्यक्त्व Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ६९ चल्योहार" पुस्तक तथा श्री प्रमोसंकऋषिजी द्वारा प्रकाशित ३२ सूत्रों में से भी कतिपय सूत्र पढ़े थे। यह सब होने पर भी स्थानकवासी सम्प्रदाय के विरुद्ध लिखने की मेरी भावना नहीं हुई । यद्यपि कई स्थानकवासी विद्वानों ने अपने मत के बाधक होने वाले सूत्र-पाठों के कुछ शब्दों के मर्थ जरूर बदले थे, परन्तु सूत्रों में से बाषक पाठों को किसी ने हटाया नहीं था। लौकागच्छ को उत्पत्ति से लगभग पौने पांच सौ वर्षों के बाद श्री पुप्फभिक्खू तथा इनके शिष्य-प्रशिष्यों ने उन बाधक पाठों पर सर्वप्रथम कैंची चलाई है, यह जान कर मन में प्रपार ग्लानि हुई। मैं जानता था कि स्थानकवासी सम्प्रदाय के साथ मेरा सद्भाव है, वैसा ही बना रहेगा, परन्तु पुप्फभिक्खू के उक्त कार्य से मेरे दिल पर जो आघात पहुँचा है, वह सदा के लिए अमिट रहेगा। भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथांग, उपासकदशांग, विपाकसूत्र, प्रोपपातिक, राजप्रश्नीय ,जीवाभिगम, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, व्यवहारसूत्र मादि में जहां-जहां जिनप्रतिमा-पूजन. जिनचंत्यवन्दन, सिद्धायतन, मुहपत्ति बांधने के विरुद्ध जो जो सूत्रप.ठ थे, उनका सफाया करके श्री भिक्खूजी ने स्थानकवासी सम्प्र. दाय को निरापद बनाने के लिए एक मप्रामाणिक भोर कापुरुपोचित कार्य किया है, इसमें कोई शंका नहीं, परन्तु इस कार्य के सम्बन्ध में मैं यह जानना चाहता हूं कि “सुतागमे" रूपवाने में सहायता देने वाले गृहस्थ और सुत्तागमें पर अच्छी-अच्छी सम्मतियां प्रदान करने वाले विद्वान् मुनिवयं मेरे इस प्रश्न का उत्तर देने का कष्ट करेंगे कि इस कार्य में वे स्वयं सहमत हैं या नहीं ? उपर्युक्त मेरा लेख छपने के वाद "अखिल भारत स्थानकवासी जैन कफ्रेिन्स" के माननीय मन्त्री पोर इस संस्था के गुजराती साप्ताहिक मुखपत्र "न-प्रकाश" के सम्पादक श्रीयुत् खीमचन्दमाई मगनलाल बोहरा द्वारा "न" पत्र के सम्पादक पर तारीख १-५-६२ को लिखे गये पत्र में लिखा था कि - "सुतागमें" पुस्तक श्री पुप्फभिक्खू महाराज का खानगी प्रकाशन है, जिसके साथ "श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसघ'' भषवा "अखिल भारतीय स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेन्स" का कोई सम्बन्ध Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० पट्टावली-पराग नहीं है, सो जानिएगा। "इस पुस्तक के प्रकाशन के सम्बन्ध में श्रमणसंघ के अधिकारी मुनिराजों ने तथा कॉन्फेन्स ने श्री पुष्फभिक्खू महाराज के साप पत्र व्यवहार भी किया है, इसके अतिरिक्त यह प्रश्न श्रमणसंघ के विचारणीय प्रश्नों पर रक्खा गया है और श्रमणसंघ के अधिकारी मुनिराज थोड़े समय में मिलेंगे तब इस पुस्तक प्रकाशन के विषय में मावश्यक निर्णय करने का सोचा है।" कुछ समय के बाद पत्र में लिखे मुजब ता० ७-६-६२ के "जैनप्रकाश" में स्थानकवासी श्रमरणसंघ की कार्यवाहक समिति ने “सुत्तागम" पुस्तक को अप्रमाणित ठहराने वाला नीचे लिखा प्रस्ताव सर्वानुमति से पास किया "मन्त्री श्री फूलचन्दजी महाराज ने "सुत्तागमे" नामक पुस्तक के प्रकाशन में भागमों में कतिपय मूल पाठ निकाल दिए हैं, वह योग्य नहीं। शास्त्र के मूल पाठों में कमी करने का किसी को अधिकार नहीं है, इसलिए "सुत्तागमे" नामक सूत्र के प्रस्तुत प्रकाशन को यह कार्यवाहक समिति अप्रमाणित उद्घोषित करती है।" . उपर्युक्त स्थानकवासी श्रमसमय की समिति का प्रस्ताव प्रसिद्ध होने के बाद इस विषय में अधिक लिखना ठीक नहीं समझा और चर्चा वहीं स्थगित हो गई। पट्टावली के वि।.., ५ श्री पुप्फभिक्खू के "सुत्तागमे" नामक सूत्रों के प्रकाशन के सम्बन्ध में पुप्फभिक्खूजी द्वारा किये गये पाठ परिवर्तन के सम्बन्ध में कुछ लिखना मावश्यक समझ कर ऊपर निकाले हुए सूत्रपाठों की तालिका दी है । पुप्फभिक्खूजी का पुरुषार्थ इतना करके ही पूरा नहीं हुआ है, इन्होंने सूत्रों में से चत्य शब्द को तो इस प्रकार लुप्त कर दिया है कि सारा प्रकाशन पढ़ लेने पर भी शायद ही एकाध जगह चत्य शब्द दृष्टिगोचर हो जाये । १. उत्तराध्ययन-सूत्र के महानियंठिन्ज नामक बीसवें अध्ययन की दूसरी गाथा के चतुर्थ ___ "डि कुच्छिसिचेइए" इस चरण में "चैत्य" शब्द रहने पाया है, वह भी मिक्खूजी Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ७१ भिक्खूजी की चैन्य शब्द पर इतनी प्रब कृपा कैसे हुई यह समझ में नहीं भाता, मन्दिर मषवा मूर्तिवाचक "चत्य" शब्द को ही काट दिया होता तो बात मोर थी। पर मापने चुन-चुन कर "गुणशिलकचंत्य," "पूर्णभद्रचैत्य," पोर चौबीस तीर्थहरों के "चैत्यवृक्ष" मादि जो कोई भी चंत्यान्त शब्द सूत्रों में माया, उसको नेस्तनाबूद कर दिया । इनके पुरोगामी ऋषि जेठमलजी प्रादि "चैत्य" शब्द को "न्यन्तर का मन्दिर" मानकर इसको निभाते थे, उनके बाद के भी बीसवीं शती तक के स्थानकवासी लेखक "चैत्यशब्द" का कहीं 'ज्ञान, कहीं 'साधु,' कहीं 'ध्यन्तर देव का मन्दिर' मानकर सूत्रों में इन शब्दों को निभा रहे थे, परन्तु "श्री पुप्फभिवखूजी" को मालूम हुआ कि इन शब्दों के प्रथं बदलकर चैत्यादि शब्द रहने देना यह एक प्रकार की लीपापोती है । "चैत्यशब्द" जब तक सूत्रों में बना रहेगा तब तक मूर्तिपूजा के विरोध में लड़ना झगड़ना बेकार है, यह सोचकर ही आपने "चैत्य" "प्रायतन" "जिनघर'" "चंत्यवृक्ष" आदि शब्दों को निकालकर अपना मार्ग निष्कण्टक बनाया है । ठीक है, इनकी समझ से तो यह एक पुरुषार्थ किया है, परन्तु इस करतूत से इनके सूत्रों में जो नवीनता प्रविष्ट हुई है, उसका परिणाम भविष्य में ज्ञात होगा। पुप्फभिक्खूजी ने पूजा-विषयक सूत्र-पाठों, मन्दिरों भौर मूर्तिविषयक शब्दों को निकालकर यह सिद्ध किया है, कि इनके पूर्ववर्ती शाह लौका, धर्मसिंह, ऋषि जेठमलजी पौर श्री अमोलक ऋषिजी आदि शब्दों का अर्थ बदलकर मूर्तिपूजा का खण्डन करते थे, वह गलत था। "चैत्य शब्द” का वास्तविक अर्थ : माजकल के कतिपय भदीर्घदर्शी विद्वान् “त्यशब्द" को प्रकृति "चिता" शब्द को मानते हैं और कहते हैं मरे मनुष्य को जहां पर जलाया के प्रमाद से नहीं किन्तु निरुपायता से, क्योंकि "चेइए" इस शब्द के स्थान में रखने के लिए प्रापको दूसरा कोई रगणात्मक "चेइय" शब्द का पर्याय नहीं मिलने से चैत्य शब्द कायम रखना पड़ा और नीचे टिप्पण में "उज्जारों" यह शब्द लिखना पड़ा।" Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ पट्टावली - पराग जाता था उस स्थान पर लोग चबूतरा मादि कुछ स्मारक बनाते थे, जो "चैत्य" कहलाता था । इस प्रकार "चिता" शब्द की निष्पत्ति बताने वाले विद्वान् व्या कररण- शास्त्र के अनजान मालूम होते हैं । "विता " शब्द से "चैत्य" नहीं बनता पर "चंत" शब्द बनता है । माज से लगभग ५ हजार वर्ष पहले के वैदिक धर्म को मानने वाले सवणं भारतीय लोग मग्निपूजक थे, उन प्रत्येक के घरों में पवित्र भग्नि को रखने के तीन-तीन कुण्ड होते थे, उन कुण्डों में अग्नि की जो स्थापना होती थी उसको "प्रग्निचित्या" कहते थे । सैकड़ों वर्षों के बाद "प्रग्निचित्या" शब्द में से "अग्नि" शब्द तिरोहित होकर व्यवहार में केवल "चित्या" शब्द ही रह गया था। भाज से लगभग २४०० वर्ष पहले के प्रसिद्ध वैयाकरण श्री पाणिनिऋषि ने अपने व्याकररण में व्यवहार में प्रचलित "चित्या" शब्द को ज्यों का त्यों रखकर उसको स्पष्ट करने वाला उसको पर्याय शब्द "भग्निचित्या" को उसके साथ जोड़कर "चित्याग्निचित्ये" ३ । १ ॥ ३२, यह सूत्र बना डाला, इसी प्रग्निचयनवाचक "चित्या" शब्द से "चंत्य' शब्द को निष्पत्ति हुई, जिसका अर्थ होता है - "पवित्र भग्नि, पवित्र देवस्थान, पवित्र देवमूर्ति और पवित्र वृक्ष" इन सब मर्थो में "चेत्य" शब्द प्रचलित हो गया और आज भी प्रचलित है । जिनचत्य का अर्थ जिन का पवित्र स्थान अथवा जिन की पवित्र प्रतिमा, यह ममाज भी कोथों से ज्ञात होता है । जिस वृक्ष के नीचे मेटकर जिन ने धर्मोपदेश किया वह वृक्ष भी श्रीजिन चैत्य-वृक्ष कहलाने लगा और कोशकारों ने उसी के माधार से " चैत्य जिनौ कस्तदुबिम्बं चेत्यो जिनसभातरुः " इस प्रकार अपने कोशों में स्थान दिया । But कौटिल्य अर्थशास्त्र जो लगभग २३०० वर्ष पहले का राजकीय न्याय- शास्त्र है, उसमें भी झमुक वृक्षों को "संत्यवृक्ष" माना है और उन पवित्र वृक्षों के काटने वालों तथा उसके प्रास-पास गन्दगी करने वालों के लिए दण्डविधान किया है ।" नगर के निकटवर्ती भूमि-भागों को देवताम्रों के नामों पर छोड़कर उनमें प्रमुक देवों के मन्दिर बना दिये जाते थे और उन भूमि-भागों के नाम उन्हीं देवों के नाम से प्रसिद्ध होते थे । जैसे Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ७३ राजगृह नगर के ईशानदिकोण में "गुणशिलक" नामदेव का स्थान होने से वह सारा भूमिभाग "गुणशिलक चैत्य" कहलाता था। इसी प्रकार चम्पानगरी के ईशान दिशा-भाग में "पूर्णभद्र" नामक देव का स्थान था जो "पूर्णभद्र चत्य" के नाम से प्रसिद्ध हो गया था और उस सारे भूमिभाग को देवता-अधिष्ठित मानकर उस स्थान की लकड़ी तक लोग नहीं काटते थे। इसी प्रकार प्राचीनकाल के ग्रामों, नगरों के बाहर तत्कालीन भिन्नभिन्न देवों के नामों से भूमि-माग छोड़ दिए जाते थे मोर वहां उन देवों के स्थान बनाए जाते थे, जो चैत्य कहलाते थे। भाजकल भी कई गांवों के बाहर इस प्रकार के भूमिभाग छोड़े हुए विद्यमान हैं। भाजकल इन मुक्त भूमिभागों को लोग "उरण" अर्थात् "उपवन" इन नाम से पहिचानते हैं। उपयुक्त संक्षिप्त विवरण से पाठकगण समझ सकेंगे कि "चैत्यशब्द" "साधुवाधक" मथवा "मानवाचक" न कभी था न पाज ही है। क्योंकि चत्य शब्द की उत्पत्ति पूजनीय भग्निचयन वाचक "चित्या" शब्द से हुई है, न कि "चिता" शब्द से भयवा "चिति संज्ञाने" इस धातु से । इस प्रकृतियों से "चत" "चित्त" "चंतस्" शन्द बन सकते हैं, "चत्य-शब्द" नहीं। श्री पुप्फभिक्खू को समझ में यह बात मा गई कि शब्दों का पर्थ बदलने से कोई मतलब हल नहीं हो सकता। पूजनीय पदार्थ-वाचक "चत्य" शब्द को सूत्रों में से हटाने से ही प्रमूर्तिपूजकों का मार्ग निष्कण्टक हो सकेगा। श्री पुप्फमिक्खू पपने प्रकाशन के प्रथम मंश के प्रारम्भ में "सूचना" इस शीर्षक के नीचे लिखते हैं- "यह प्रकाशन मेरे धर्मगुरु धर्माचार्य साधुकुल-शिरोमणि १०८ श्रीफकीरचन्दजीमहाराज (स्वर्गीय) के धारणा व्यवहारानुसार " पुष्फभिक्खूजी को इस सूचना में "धारणा-व्यवहार" शब्द का प्रयोग किस पर्य में हमा है यह तो प्रयोक्ता हो जाने, क्योंकि "धारणा-व्यवहार" शब्द प्रायश्चित्त विषयक पांच प्रकार के व्यवहारों में से एक का वाचक है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ पट्टावली-पराग शास्त्र के प्रकाशन में प्रायश्चित संबन्धी व्यबहार का कोई प्रयोजन नहीं होता, फिर भी मापने इसका प्रयोग किया है। यदि "हमारे गुरु की धारणा यह थी कि चैत्यादि-वाचक शब्द-विशिष्ट पाठों को निकालकर सूत्रों का सम्पादन करना" यह धारणा व्यवहार के अर्थ में अभिप्रेत है तो जिनके विशेषणों से पौने दो पृष्ठ भरे है वे विशेषण अपार्थक हैं और यदि वे लेखक के कथनानुसार विद्वान मोर गुणी थे तो सम्पादक ने उनकी 'धारणा" का नाम देकर अपना बोझा हल्का किया है, क्योंकि गुणी और जिनवचन पर श्रद्धा रखने वाला मनुष्य जैनागमों में काट-छांट करने को सलाह कभी नहीं दे सकता । श्री भिक्खूजी के सम्पादन में सूत्रों को काफी काटछांट हुई है, इसकी जवाबदारी पुप्फभिक्खूजी अपने गुरुजी पर रक्खे या स्वयं जवाबदार रहें इस सम्बन्ध में हमको कोई सारांश निकालना नहीं है। पुप्फभिक्खूजी के समानधर्मी श्रमणसमिति ने इस प्रकाशन को अप्रमाणित जाहिर किया, इससे इतना तो हर कोई मानेगा कि यह काम भिक्षुजी ने अच्छा नहीं किया। पुप्फभिक्खूजी ने अपने प्रस्तुत कार्य में सहायक होने के नाते अपने शिष्यि श्री जिनचन्द्र भिक्खू की अपने वक्तव्य में जो सराहना की है उसका मूल साधार निम्नलिखित गाथा है - "दो पुरिसे परइ घरा, महवा दोहिवि धारिमा घरणी । उवयारे जस्स मई, उवयरिमं जो न फुसेई ॥" अर्थात् ;- पृथ्वी अपने ऊपर दो प्रकार के पुरुषों को धारण करती है उपकार बुद्धि वाले उपकारक को पोर उपकार को न भूलने वाले "कृतज्ञ" को प्रथवा दो प्रकार के पुरुषों से पृथ्वी धारण की हुई है । एक उपकारक पुरुष से और दूसरे उपकार को न भूलने वाले कृतज्ञ पुरुष से। उपर्युक्त सुभाषित को गुरु-शिष्यों के पारस्परिक सहकार को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त करना शिष्टसम्मत है, या नहीं, इसका निर्णय हम शिष्ट वाचकों पर छोड़ते हैं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली -पराग श्री पुप्फभिक्खू सुमित्तभिक्खू मोर जिषचन्दभिक्खू यह त्रितय " सुत्तागमे" के सम्पादन में एक दूसरे का सहकारी होने से भागे हम इनका उल्लेख " भिक्षुत्रितय" के नाम से करेंगे । पुस्तक की प्रस्तावना में "भागमों की भाषा" नामक शीर्षक के नीचे लिखा है - ७५ "देवगिरिण क्षमाश्रमण ने श्रागमों को लिपिबद्ध किया, इतने समय के बाद लिखे जाने पर भी भाषा की प्राचीनता में कमी नहीं भाई ।" देवगिरिण क्षमाश्रमरण के समय में भाषा की प्राचीनता में कमी नहीं माई, यह कहने वाले भिक्षुत्रितय को प्रथम प्राचीन भौर अर्वाचीन अर्द्धमागधी भाषा में क्या अन्तर है, यह समझ लेना चाहिए था । श्रागमों में प्राचारांग और सूत्रकृतांग हैं शोर भागमों में विपाक और प्रश्न व्याकरण भी हैं, इन सूत्रों की भाषानों का भी पारस्परिक अन्तर समझ लिया होता तो वे "प्राचीनता में कमी नहीं हुई' यह कहने का साहस नहीं करते । आचारांग तथा सूत्रकृतांग सूत्र चाज भी भ्रपने उसी मूल रूप में वर्तमान हैं, जो रूप उनके लिखे जाने के मोय्यं समय में था । इनके भागे के स्थानांग मादि सभी अंग सूत्रों में भिन्न-भिन्न वाचनाम्रों के समय में थोड़ा थोड़ा परिवर्तन चोर संक्षेप होता रहा हैं। स्थानांग मादि नव अंग सूत्रों में दूसरी वाचना के समय में स्कन्दिलाचार्थ की प्रमुखता में सूत्रों का जो स्वरूप निर्धारित हुआ था, वह भाज तक टिका हुमा है। देवद्विगरि क्षमाश्रमण के समय में जो पुस्तकालेखन हुमा उसमें मुख्यता माथुरी और वालभी वाचनानुगत सूत्रों में चलते हुए पाठान्तरों का समन्वय करने की प्रवृत्ति को थी । देवद्धगरण ने तत्कालीन दोनों वाचनानुयायी श्रमरणसंघों की सम्मति से सूत्रों का समन्वय किया था, तत्कालीन प्रश्नव्याकरण में १०८ प्रश्न, १०८ अप्रश्न, १०८ प्रश्नाप्रश्न, जैसे अंगुष्ठ प्रश्नादि, बाहु-प्रश्नादि, प्रादर्शप्रश्नादि के उत्तरों का निरूपण था। इनके अतिरिक्त दूसरे भी श्रनेक विचित्र विद्याओं के प्रतिशय थे उनको तिरोहित करके वर्तमानकालीन Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पट्टावली - पराग पंचतंवर - पंचाश्रवमय प्रश्नव्याकरण बनाया मोर प्राचीन प्रश्न-व्याकरण के स्थान में रखा । भाषा की प्राचीनता प्रर्वाचीनता की मीमांसा करने वाला भिक्षुत्रितय यह बताएगा कि प्राचारांग, सूत्रकृतांग की भाषा में मौर मागे के नव मंगसूत्रों की भाषा में क्या मन्तर पड़ा है, चोर उनमें प्रयुक्त शब्दों तथा वाक्यों में कितना परिवर्तन हुआ है ? अंग्रेज विचारकों के अनुयायी बनकर जैन-मागमों की भाषा को महाराष्ट्रीय प्राकृत के असर वाली मानने के पहले उन्हें देशकाल - सम्बन्धी इतिहास जान लेना चावश्यक था। डा० हार्नले जैसे भग्रेजों की मपूर्ण शोध के रिपोर्टों को महत्त्व देकर जैन मुनियों के दक्षिण देश में जाने की बात जो दिगम्बर भट्टारकों की कल्पनामात्र है, सच्ची मानकर जैन-मागमों में दक्षिणात्य प्राकृत का सर मानंना निराधार है। न तो मोय्यं चन्द्रगुप्त के समय में जैनश्रमरण दक्षिण प्रदेश में गए थे, न उनकी पर्द्धमागधी सौत्र भाषा में दक्षिण भाषा का प्रसर हुआ या । जो दिगम्बर विद्वान् कुछ वर्षो पहले श्रुतघर भद्रबाहु स्वामी के चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिण में जाने की बात करते थे वे सभी प्राज मानने लगे हैं कि दक्षिण में जाने वाले भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त दूसरे थे, श्रुतघर भद्रबाहु भोर मोय्यं सम्राट चन्द्रगुप्त नहीं, क्योंकि दिगम्बरों के ग्रन्थों में भद्रबाहु का भौर चंन्द्रगुप्त का दक्षिरण में जाना उज्जैनी नगरी से बताया है, पर उनका समय विक्रम को दूसरी शताब्दी में मनुमानित किया है । आज तो डा० ज्योतिप्रसाद जैन जैसे शायद ही कोई प्रति श्रद्धालु दिगम्बर विद्वान् श्र तकेवली भद्रबाहु के दक्षिण में जाने की बात कहने वाले मिलेंगे । श्रवणबेलगोल भादि दिगम्बरों के प्राचीन तीर्थो के शिलालेखों के प्रकाशित होने के बाद भब विद्वानों ने यह मान लिया है कि दक्षिण में जाने वाले भद्रबाहु श्रुतकेवली नहीं किन्तु दूसरे ज्योतिषी-भद्रबाहु हो सकते हैं। इसका कारण उनके प्राचीन तीर्थों में से जो शिलालेख मिल हैं वे सभी शक की पाठवीं शती मौर उसके बाद के हैं। हमारी खुद की मान्यता के अनुसार तो अधिक दिगम्बर साधुयों के दक्षिण में जाने सम्बन्धी दंतकथाएं सही हों, तो भी इनका समय विक्रम को छुट्टी शती के पहले का नहीं हो सकता । दिगम्बर-सम्प्रदाय की ग्रंथप्रशस्तियों तथा पट्टावलियों में Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग जो प्राचीनता का प्रतिपादन किया गया है, वह विश्वासपात्र नहीं है । इस स्थिति में श्वेताम्बर - सम्प्रदाय मान्य नागमों पर दक्षिणात्य प्राकृत भाषा का प्रभाव बताना कोई अर्थ नहीं रखता । ७७ "सुत्तागमे" के प्रथम मंश की प्रस्तावना के १४ वें पृष्ठ की पादटीका में लेखक कहते हैं - " इतना और स्मरण रहे कि इससे पहले पाटलीपुत्र का सम्मेलन मौर नागार्जुन क्षमाश्रमण के तत्त्वावधान में माथुरी वाचना हो चुकी थी ।" लेखकों का नागार्जुन क्षमाश्रमण के तत्वावधान में माथुरीवाचना बताना प्रमादपूर्ण है, माथुरो-वाचना नागार्जुन वाचक के तत्वावधान में नहीं किन्तु श्राचार्य स्कन्दिल को प्रमुखता में मथुरा नगरी में हुई थी, इसलिये यह वाचना "माथुरो" तथा "स्कन्दिली” नामों से भी पहचानी जाती है । एक प्रागम के नाम का निर्देश दूसरे में होने के सम्बन्ध में भिक्षुत्रितय समाधान करता है - कि यह आगमों की प्राचीन शैली है । भिक्षुत्रय का यह कथन यथार्थ नहीं, भगवान् महावीर के गणधरों ने जब द्वादशांगी की रचना की थी, उस समय यह पद्धति अस्तित्व में नहीं थी । पूर्वाचार्यों ने नाश के भय से जब श्रागमों को संक्षिप्त रूप से व्यवस्थित किया, तब उन्होंने सुगमता के खातिर यह शैली अपनाई है, मोर जिस विषय का एक अग प्रथवा उपांगसूत्र में विस्तार से वर्णन कर देते थे । उसको दूसरे में कट करके विस्तृत वर्णन वाले सूत्र का निर्देश कर देते थे । श्रगसूत्रों में “पनवरणा" भादि उपांगों के नाम प्राते हैं उसका यही कारण है । जैन - साहित्य पर नई-नई आपत्तियाँ : उपर्युक्त प्रस्तावनापत शीर्षक के नीचे भिक्षुत्रितय एक नया प्राविष्कार प्रकाश में लाता हुना कहता है --""जिस काल में जैनों और बौद्धों के साथ हिन्दुओं का महान् संघर्ष या उस समय धर्म के नाम पर बड़े से Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ पट्टावली- पराग बड़े प्रत्याचार हुए। उस मन्धड़ में साहित्य को भी भारी धक्का लगा, फिर भी जैन समाज का शुम उदय या पागमों का माहात्म्य समझो कि जिससे प्रागम बाल-बाल बचे और सुरक्षित रहे।" भिक्षुत्रितय की उपर्युक्त कल्पना उसके फलद्रूप भेजे की है। इतिहास इसकी साक्षी नहीं देता कि बौद्ध मोर जैनों के साथ हिन्दुषों का कभी साहित्यिक संघर्ष हुया हो। साहित्यिक संघर्ष की तो बात ही नहीं, किन्तु धार्मिक सहिष्णुता ने भी बौद मौर जैनों के साथ हिन्दुनों को संघर्ष में नहीं उतारा । किसी प्रदेश विशेष में राज्यसत्ताधारी वर्मान्ध व्यक्ति-विशेष ने कहीं पर बौद्ध जैन प्रथवा दोनों पर किसी अंश तक ज्यावती की होगी तो उसका अपयश हिन्दू समाज पर थोपा नहीं जा सकता और उससे जैन-साहित्य को हानि होने की तो कल्पना ही कैसे हो सकती है । इस प्रकार की देश-स्थिति जैन-साहित्य को हानिकर मुसलमानों के भारत पर माक्रमण के समय में अवश्य हुई थी, परन्तु उससे केवल जैनो का ही नहीं, हिन्दू, जैन, बौद्ध मादि सभी भारतीय सम्प्रदायों को हुई थी। मागे भिक्षुत्रितय अपनी मानसिक खरी भाव. नात्रों को प्रकट करता हुप्रा कहता है - "इसके मनन्तर चैत्यवासियों का युग माया । उन्होंने चैत्यवास का जोर-शोर से मान्दोलन किया और अपनी मान्यता को मजबूत करने के लिए नई-नई बातें घड़नी शुरु की, जैसे कि अंगूठे जितनी प्रतिमा बनवा देने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। जो पशु मन्दिर की ईटें ढोते हैं वे देवलोक जाते हैं मादि-आदि । वे यहीं तक नहीं रुके, बल्कि उन्होंने भागमों में भी अनेक बनावटी पाठ घुसेड़ जिये। जिस प्रकार रामायण में क्षेपकों की भरमार है, उसी प्रकार मागमों में भी।" भिक्षुत्रितय चैत्यवासियों के युग की बात कहता है, तब हमको माश्चर्य के साथ हंसी पाती है । युग किसे कहते हैं और "चैत्यवास" का मर्थ क्या है ? इन बातों को समझ लेने के बाद भिक्षुत्रितय ने इस विषय में कलम चलाई होती, तो वह हास्यास्पद नहीं बनता। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग "चैत्यवास" यह कोई नई संस्था नहीं है मोर चेत्यों में रहना भी वजित नहीं है। मौय्यंकाल औौर नन्दकाल से ही पहाड़ों की चट्टानों पर "ले " बनते थे जिसका संस्कृत अर्थ "लयन" होता था, ये स्थान बनाने वाले राजा, महाराजा भौर सेठ साहूकार होते थे धौर मेलों उत्सघों के समय में इनका उपयोग होता था, शेषकाल में उनमें साधु सन्यासी ठहरा करते थे, "लयन" बनाने वाला धनिक जिसघर्म की तरफ श्रद्धा रखने वाला होता, उस धर्म के प्रवर्तक देवों घोर उपदेशक श्रमणों की मूर्तियां भी उन्हीं पत्थरों में से खुदवा लेता था, जिससे कि उनमें ठहरने वाले असुण लोग उनको लक्ष्य करके ध्यान करते, माज भी इसी प्रकार के लयन उडीसा के खण्डगिरि प्रादि पर्वतों में भोर एजण्टा, गिरनार प्रादि के चट्टानों में खुदी हुई गुफाओं के रूप में विद्यमान हैं। सैकड़ों लोग उनको देखने जाते है, खोदी हुई मूर्तियों से सुशोभित इस प्रकार के लयनों को भिझुत्रितय "चंत्य" कहे चाहे अपनी इच्छानुसार दूसरा नाम कहे, वास्तव में इस प्रकार के स्थान " चैत्यालय" ही कहलाते थे मौर उनमें निस्संग भोर त्यागी श्रमरण रहा कहते थे, खास कर वर्षा के समय में श्रमरण लोग उनका माय लेते थे जिनको बड़े-बड़े राजा महाराजा पूज्य दृष्टि से देखते श्रीर उनकी पूजा करते थे। धीरे-धीरे समय निर्बल माया, मनुष्यों के शक्तिसंहनन निर्बल हो चले, परिणामस्वरूप विक्रम की दूसरी शती के निकट समय में श्रमरगगरण ग्रामों के परिसरों में बसने लगे, जब उनकी संख्या अधिक बढ़ी भोर परिसरों में इस प्रकार के ठहरने के स्थान दुर्लभ हो चले, तब धीरे-धीरे श्रमणों ने गांवों के अन्दर गृहस्थों के प्रव्यापृत मकानों में ठहरना शुरू किया, पर इस प्रकार के मकानों में भी जब उनका निर्वाह नहीं होने लगा तब गृहस्थों ने सामूहिक धार्मिक किया करने के लिए स्वतंत्र मकान बनवाने का प्रारम्भ किया। उन मकानों में वे सामायिक प्रतिक्रमण, पोषध आदि धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए जाने लगे, पोषध क्रिया के कारण ये स्थान "पोषघशाला" के नाम से प्रसिद्ध हुए, यह समय विक्रम की प्राठवीं शती का था । ७९ साधुयों के उपदेश के सम्बन्ध में भिक्षुत्रितय का कथन अतिरंजित है, उपदेश के रूप में गृहस्थों के भागे उनके कर्तव्य का उपदेश करना उपदेशकों Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग का कर्तव्य है मोर इसी रूप में सुविहित गीतार्थ साधु जैन गृहस्थों को उनके अन्यान्य कर्तव्यों के उपदेश के प्रसंग में दर्शन-शुद्धयर्थं जिनभक्ति का भी उपदेश करते थे श्रौर करते हैं । प्रसिद्ध श्रुतघर श्री हरिभद्रसूरि के प्रतिष्ठा पंचाशक मौर षोडशक प्रादि में इसी प्रकार के निरवद्य उपदेश दिये गये हैं । भर्वाचीनकाल में अंगुष्ठ मात्र त्रिनप्रतिमा के निर्माण से स्वर्गप्राप्ति का किसी ने लिखा होगा तो वह भी प्रधार्मिक वचन नहीं है, किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के करने में कर्ता का मानसिक उल्लास उनके फल में विशिष्टता उत्पन्न कर सकता है इसमें कोई असम्भव की बात नहीं, दो तीन घंटे तक मुंह बंधवाकर स्थानक में जैनों प्रजैनों को बिठाना भोर वाद में उनको मिष्टान्न खिलाकर रवाना करना इस प्रकार दया पल बानेके धार्मिक अनुष्ठान से तो भावि शुभ फल की प्राशा से मन्दिर तथा मूर्तियां का निर्माण करवाना मौर उनमें जिनदेव की कल्पना कर पूजा करना हजार दर्जे प्रच्छा है । ८० भिक्षुत्रितय ने उपर्युक्त फिकरे में भागमों में बनावटी पाठ घुसेड़ देने की बात कही है, वह भी उनके हृदय की भावना को व्यक्त करती है, यों तो हर एक आदमी कह सकता है कि प्रमुक ग्रन्थ में अमुक पाठ प्रक्षिप्त है, परन्तु प्रक्षिप्त कहने मात्र से वह प्रक्षिप्त नहीं हो सकता, किन्तु पुष्ट प्रमारणों से उस कथन का समर्थन करने से ही विद्वान् लोग उस कथन को सत्य मानते हैं । संपादक ने बनावटी पाठ घुसेड़ने की बात तो कह दी पर - इस कथन पर किसी प्रमाण का उपन्यास नहीं किया । अतः यह कथन भी अरण्यरोदन से अधिक महत्त्व नहीं रखता, नागमों में बनावटी पाठ घुसेड़ने और उसमें से सच्चे पाठों को निकालना यह तो भिक्षुत्रितय के घर की रीति परम्परा से चली ना रही है । इनके प्रादि मार्गदर्शक शाह लूका ने जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा, दान, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, साधार्मिक, वात्सल्य आदि अनेक आगमोक्त धार्मिक कर्त्तव्यों का उच्छेद कर दिया था । प्रौर इन कार्यों का उपदेश करने वालों की निन्दा करने में अपना समय विताया था, परन्तु इनके मन्तव्यों का प्रचार करने वाले वेशधारी शिष्यों ने देखा कि लुका के इस उपदेश का प्रचार करने से तो सुनने Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावली-पराग ८१ वाला अपने पास तक नहीं फटकेगा, न पपनी पेटपूजा ही सुख से होगी, इस कारण से लौका के वेशधारी शिष्यों ने प्रतिमापूषा के विरोध के अतिरिक्त शेष सभी लौका के उपदेशों को अपने प्रचार में से निकाल दिया, इतना ही नहीं, कतिपय बातें तो लौका के मन्तव्यों का विरोध करने वाली भी प्रचलित कर दीं। भिक्षुत्रितय ने जिन 'सूत्रपाठों' को मूल में से हटा दिया है, उनको बनावटी कहकर अपना बचाव करते हैं । “गरणघरों की रचना को हो ये पागम मानकर दूसरे पाठों को बनावटी मानते हैं, तब तो इनको मूल भागमों में से अभी बहुत पाठ निकालना शेष है। स्थानांग सूत्र मौर प्रौपपातिक सूत्र में सात निन्हवों के नाम संनिहित हैं, जो पिछला प्रक्षेप है, क्योंकि मन्तिम निन्हव गोष्ठामाहिल भगवान् महावीर के निर्वाण से ५८४ वर्ष बीतने पर हुआ था, इसी प्रकार नन्दीसूत्र मौर मनुयोग द्वार में कौटिल्य, कनकसप्तति, वैशेषिकदर्शन, बुद्धवचन, पैराशिकमत, षष्ठितन्त्र, माठर, भागवत, पातञ्जल, योगशास्त्र मादि मनेक पर्वाचीनमत और ग्रन्थों के नामों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं जिनका अस्तित्व ही गणपरों द्वारा की गई मागम-रचना के समय में नहीं था, इनको प्रक्षिप्त मानकर भिक्षुत्रितय ने पायमों में से क्यों नहीं निकाला, यह समझ में नहीं पाता। प्रक्षिप्त पाठ मानकर ही मागमों में से पाठों को दूर करना था तो सर्वप्रथम उपयुक्त पाठों का निकालना मावश्यक था, भयवा तो अर्वाचीन पाठ वाले मागमों को मप्रमाणिक घोषित करना था सो तो नहीं किया, केवल "चैत्यादि के पाठों को सूत्रों में से हटाए;" इससे सिद्ध है कि बनावटी कहकर चैत्य-सम्बन्धी पाठों को हटाने की अपनी जबावदारी कम करने की चाल मात्र है। गणधर तीर्थङ्करों के उपदेशों को शब्दात्मक रचना में व्यवस्थित करके मूल मागम बनाते हैं और उन भागमों को अपने शिष्यों को पढ़ाते समय गणघर पोर मनुयोगपर चार प्रकार के व्याख्यानांगों से विभूषित कर पंचांगी के रूप में व्यवस्थित करते हैं। भागों की पंचांगी के नाम ये हैं - १ सूत्र, अर्थ २, अन्य ३, नियुक्ति ४ और ५ संग्रहणी। माज भी Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग यह पंचांगी तीर्थकर भाषित मागमों का खरा अर्थ बता सकती है । मूल सूत्र के ऊपर उसी भाषा में प्रथवा तो संस्कृत प्रादि अन्य भाषामों द्वारा सूत्रों का जो भाव स्पष्ट किया जाता है, उसको संक्षेप में "मर्थ" कहते हैं । सूत्र का अर्थ ही पद्यों में स्वकर प्रकरणों द्वारा समझाया जाता है उसको "ग्रन्थ' कहते हैं, सूत्रों में प्रकट रूप से नहीं बंधे हुए और लक्षणा. व्यंजनामों से उपस्थित होने वाले अर्थों को लेकर सूत्रोक्त-विषयों का जो शंका-समाधान-पूर्वक ऊहापोह करने वाला गाथात्मक निबन्ध होता है वह "नियुक्ति" नाम से व्यवहृत होता है, तथा सूत्रोक्त विषयों को सुगमतापूर्वक याद करने के लिए मध्याय, शतक, उद्देशक मादि प्रकरणों की भादि में उनमें वरिणत विषयों का सूचित करने वाली गाथानों का संग्रह बनाया जाता था, उसको "संग्रहणी" के नाम से पहिचानते हैं। माजकल सूत्रों पर जो प्राकृत चूणियां, संस्कृत टीकाएं मादि व्याख्याएं हैं, इनको प्राचीन परिभाषा के अनुसार "अर्थ" कह सकते हैं । सूत्र तथा अर्थ में व्यक्त किये गये विषयों को लेकर प्राचीनकाल में गायाबद्ध निर्मित भाष्यों को भी प्राचीन परिभाषा के अनुसार "ग्रन्थ" कहना चाहिए। भद्रबाहु मादि अनेक श्रुतघरों ने आवश्यक, दशवकालिक मादि सूत्रों के ऊपर तकंशली से गाथाबद्ध निबन्ध लिखे हैं, उन्हें भाज भी "नियुक्ति" कहा जाता है। "भगवती", "प्रज्ञापना" मादि के कतिपय अध्यायों की मादि में अध्यायोक्त विषय का सूचन करने वाली गापाएं दृष्टिगोचर होती हैं इनका पारिभाषिक नाम "संग्रहणी" है। भगवती-सूत्र के प्रथम शतक के प्रारम्भ में ऐसी संग्रहणी गाथा भाई तब भिक्षु महोदय ने पुस्तक के नीचे पाद-टीका के रूप में उसे छोटे टाइपों में लिया, परन्तु बाद में भिक्षु महोदय की समझ ठिकाने भाई और मागे की तमाम संग्रहणी पाथाएं मूल सूत्र के साथ ही रक्खीं। सम्प्रदायानभिज्ञ व्यक्ति अपनी समझ से प्राचीन साहित्य में संशोधन करते हुए किस प्रकार सत्यमार्ग को भूलते हैं, इस बात का भिक्षु महोदय ने एक उदाहरण उपस्थित किया है । भिक्षुत्रितय मागे लिखता है - "इसके बाद युग ने करवट बदली मोर उसी कटाकटी के समय धर्मप्रारण लोकाशाह जैसे क्रान्तिकारी पुरुष Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग प्रकट हुए। उन्होंने जनता को सन्मार्ग. सुझावा पोर उस पर चलने की प्रेरणा दो xxx जिससे लोगों में क्रान्ति पोर जागृति उत्पन्न हुई तथा लवजी, धर्मशी, धर्मदासजी, जीवराबजी जैसे भव्य भावुकों ने धर्म की वास्तविकता को अपनाया और उसके स्वरूप का प्रचार प्रारम्भ किया; परिणामस्वरूप प्राज भी उनकी प्रेरणामों को जीवित रखने वालों की संख्या ५ लाख से कहीं अधिक पाई जाती है । लौकाशाह सहित इन चारों महापुरुषों ने "चंत्यवासी मान्य बन्य भागमों में परस्पर विरोष एवं मनघड़न्त बातें देखकर ३२ मागमों को ही माम्य किया।" भिक्षुत्रितय चैत्यवासी युग के बाद लोकाशाह जैसे क्रान्तिकारी पुरुषों के उत्पन्न होने की बात कहता है, जो मज्ञानसूचक है, क्योंकि विक्रम की चौथी शती से ग्यारहवीं शती तक शिथिलाचारी साधुनों का प्राबल्य हो चुका था। फिर भी वह उनका युग नहीं था। हम उसे उनकी बहलता वाला युग कह सकते हैं, क्योंकि उस समय भी उद्यतविहारी साधुपों की भी संख्या पर्याप्त प्रमाण में थी। शिथिलाचारी संख्या में अधिक होते हए भी उद्यतविहारी संघ में अग्रगामी थे। स्नानमह, प्रथमसमवसरण मादि प्रसंगों पर होने वाले श्रमण-सम्मेलनों में प्रमुखता उद्यतविहारियों को रहती थी। कई प्रसंगों पर वहारिक श्रमणों द्वारा पार्श्वस्थादि शिथिलाचारी फटकारे भी जाते थे, तथापि उनमें का भधिकांश शिथिलता की निम्न सतह तक पहुंच गया था और धीरे-धीरे उनको संख्या कम होती जाती थी। विक्रम की ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध तक शिथिलाचारी धीरे-धीरे नियतवासी हो चुके थे भौर समाज के ऊपर से उनका प्रभाव पर्याप्त रूप से हट चुका था। भले ही वे जातिगत गुरुयों के रूप में अमुक जातियों धौर कुलों से अपना सम्बन्ध बनाए हुए हों, परन्तु संघ पर से उनका प्रभाव पर्याप्त मात्रा में मिट चुका था, इसी के परिणाम स्वरूप १२ वीं शती के मध्यभाग तक जैनसंघ में अनेक नये पच्छ उत्पन्न होने लगे थे। पौरमिक. पांचलिक, खरतर, साधुपौरपंमिक भौर पागमिक गच्छ ये सभी १२ वीं सौर १३ वीं शती में उत्पन्न हुए थे और इसका कारण चियिताचारी चैत्यवासी कहलाने वाले सामों की कमजोरी थी। यद्यपि उस समय में भी पर्दमान Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ पट्टावली पराग सूरि, जिनेश्वरसरि, जिनवल्लभगणि, मुनिचन्द्र मूरि, धनेश्वरसूरि, जगचन्द्रसूरि मादि भनेक उद्यतविहारी भाचार्य मौर के शिष्य परिवार अप्रतिबद्ध विहार से विचरते थे, तथापि एक के बाद एक नये सुधारक गच्छों की सृष्टि से जनसंघ में जो पूर्वकालीन संघटन चला मा रहा था वह विशखल हो गया। इसी के परिणाम स्वरूप शाहलौका शाह कडुमा प्रादि गृहस्थों को अपने पन्य स्थापित करने का अवसर मिला था, न कि उनके खुद के पुरुषार्थ से। उपयुक्त जैनसंघ की परिस्थिति का वर्णन पढ़कर विचारक समझ सकेंगे कि श्रमणसमुदाय में से अधिकांश शिथिलाचार के कारण निर्वल हो जाने से सुवारकों को नये गच्छ मोर गृहस्थों को श्रमणगण के विरुद्ध अपनी मान्यताओं को व्यापक बनाने का सुअवसर मिला था, किसी भी संस्था या समाज को बनाने में कठिन से कठिन पुरुषार्थ और परिश्रम की मावश्यकता पड़ती है, न कि नष्ट करने में । समाज की कमजोरी का लाभ उठाकर क्रियोद्धार के नाम से नव गच्छसजकों ने तो अपने बाड़े मजबूत किये ही, पर इस अव्यवस्थित स्थिति को देखकर कतिपय श्रमणसंस्था के विरोधी गृहस्थों ने भी अपने-अपने अखाड़े खड़े किये भोर मापस के विरोधों और शिथिलाचारों से बलहीन बनी हुई श्रमणसंस्था का ध्वंस करने का कार्य शुरू किया । लौका तथा उसके अनुयायी मन्दिर तथा मूर्तियों की पूजा को प्रतिप्रवृत्तियों का उदाहरण दे देकर गृहस्थवर्ग को साधुनों से विरुद्ध बना रहे थे। कडुवा जैसे गृहस्य मूर्तिपूजा के पक्षपाती होते हुए भी साधुमों के शिथिलाधार की बातों को महत्त्व दे देकर उनसे असहकार करने लगे, चीज बनाने में जो शक्ति व्यय करनी पड़ती हैं वह विगाड़ने में नहीं। लोकाशाह तथा उनके वेशधारी चेले हिंसा के विरोध में और दया के पक्ष में बनाई गई, चौपाइयों के पुलिन्दे खोल-खोलकर लोगों को सुनाते और कहते - "देखो भगवान् ने दया में धर्म बताया है, तब भाजकल के यति स्वयं तो अपना प्राचार पालते नहीं और दूसरों को मन्दिर मूर्तिपूजा मादि का उपदेश को पृथ्वी, पानी, वनस्पति प्रादि के जीवों की हिंसा करवाते हैं, बोलोधर्म दया, में कि हिंसा में ? उत्तर मिलता दया में," तब लौका के चेले पहले - "जब धर्म दया में है तो हिंसा को छोड़ों और दया पालो" पनपढ़ तोग, लौका के अनपढ अनुयायियों की इस प्रकार की बातों से भ्रमित Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ८५ होकर पूजा, दर्शन मादि जो श्रमसाध्य कार्य थे, उन्हें छोड़ छोड़कर लौका के अनुयायी बढ़ गये, इसमें लौका पौर इनके अनुयायियों की बहादुरी नहीं, विध्वसंक पद्धति का ही यह प्रभाव है, मनुष्य को उठाकर ऊचे ले जाना पुरुषार्थ का काम है, कार खड़े पुरुष को धक्का देकर नीचे निराना पुरुषार्थ नहीं कायरता है, जेनों में से हो पूजा प्रादि की श्रद्धा हटाकर शाह लौका, लवजी, रूपजी, धर्मसिंह मादि ने अपना बाडा बढाया, यह वस्तु प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती, इनको प्रशंसा तो हम तब करते जब कि ये अपने त्याग मोर पुरुषायं से प्राकृष्ट करके जेनेतरों को जैनधर्म की तरफ खींचते और शिपिलाचार में डूबने वाले तत्कालीन यतियों को मपने मादर्श और प्रेरणा से शिथिलाचार से ऊंचा उठाने को बाध्य करते। भिक्षुत्रितय चैत्यवासियों द्वारा लोंका आदि को कष्ट दिये जाने की बात कहता है, इसके पुरोगामी लेखक शाह वाडीलाल मोतीलाल तथा स्थानकवासी साधु श्री मरिणलालजी ने भी यही राग अलापा है कि यतियों ने लोकाशाह को कष्ट दिया था, परन्तु यतियों पर दिये जाने वाले इस मारोप की सच्चाई को प्रमापित करने के लिए कोई प्रमाण नहीं बताया, वास्तव में यह हकीकत लोकाशाह को महान् पुरुष ठहराने के अभिप्राय से कलित मढी है । ईसाइयों के धर्मप्रवर्तक "जेसस क्राईष्ट ' को उनके विरोधियों ने क्रॉस पर लटकाया था, जिसके परिणामस्वरूप लगभग सारा यूरोप उसका अनुयायी बन गया था, इसी प्रकार लोंका को कप्ट-सहिण्णु महापुरुष बताकर लोगों को उसकी तरफ खींचने का लौका के भक्तों का यह झूठा प्रचार मात्र है । लोंका ने तो तत्कालीन किन्हीं भी साधुनों के साथ मुकाबला करने की कोई बात नहीं लिखी, परन्तु लोकाशाह के वेशगरी शिष्यों के साथ श्री लावण्यसमय मादि अनेक विद्वान् साधु चर्चा शास्त्रार्थ में उतरे थे और उनको पराजित किया था, लेकिन यह प्रसंग कोई उनको कष्ट देने का नहीं माना जा सकता, समाज के अन्दर फूट डालने मर हजारों वर्षों से चले पाते धार्मिक मार्ग में बखेडा डालने के कारण उन पर किसी ने कटुशब्द प्रहार अवश्य किए होंये मोर यह होना अत्याचार नहीं है, ऐसी बातें तो नौका के बाड़े में से भाग छूटने वालों पर लौका के अनुया. यियों ने भी की हैं, देखिये - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग सं० १५७० में लौंकामत को छोड़कर श्री विजजऋषि ने मूर्तिपूजा मानना स्वीकार किया; तब लौंका के अनुयायियों ने उन पर कैसे वाग्वारग बरसाये थे, उसका नमूना निम्नलिखित केशवजी ऋषि कृत लोकाशाह के सिलोके की कडी पढिए - ८६ "लवण ऋषि भीमाजी स्वामी, जगमाला रुषि सखा स्वामी ।. arat निकल्यो कुमति पापी तेराई वली जिनप्रतिमा थापी ॥२३॥" इसी प्रकार लोकाशाह के विरोध में मूर्तिमण्डन पक्ष के विद्वानों ने लोकाशाह के लिए "लुम्पक" "लुंकट" प्रादि शब्दों से कोसा होगा, तो यह कुछ कष्ट देना नहीं कहा जा सकता । लौंका की ही शती के लकागच्छीय भानुचन्द्र यति केशवजो ऋषि उन्नीसवीं शती के मध्यभागवत "समकितसार” के कर्त्ता श्री जेठमलजी ऋषि प्रादि ने लोकाशाह तथा उनके मत के सम्बन्ध में बहुत लिखा है, फिर भी उनमें से किमी ने भी यह सूचन तक नहीं किया कि चैत्यवासियों ने लौकाशाह को कष्ट दिया था, वास्तव में लोकाशाह की तरफ जन समाज का ध्यान खींचने के लिए बीसवीं सदी के लेखकों की यह - एक कल्पना मात्र है | भिक्षुतिय धागे कहता है- वर्तमानकालीन जैन साहित्य में चैत्यवासियों ने अनेक प्रक्षेप कर उन्हें परस्पर विरोधी बना दिया है, इसलिए लौका और उसके धनुयायी धर्मशी, मादि ने ३२ सूत्रों को ही मान्य रक्खा है। भिक्षुत्रितय की ये बातें उनके जैसे ही सत्य मानगे, विचारक वर्ग नहीं, जैन भागमों का शास्त्रवरिणत स्वरूप आज नहीं है, इस बात को हम स्वयं स्वीकार करते हैं, परन्तु लका के अनुयायी जिन ३२ श्रागमों को गणधर : कृत मानते हैं, वे भी काल के दुष्प्रभाव से बचे हुए नहीं हैं, उनमें सौकर्यार्थ संक्षिप्त किये गये हैं, एक दूसरे के नाम एक दूसरे में निर्दिष्ट किये हुए हैं, उनसे यही प्रमाणित होता हैं, कि सूत्रों में जिस विषय का वर्णन जहां पर विस्तार से दिया गया है, उसको फिर मूल-सूत्र में न लिखकर उसी वर्णन वाले सूत्र का प्रतिदेश कर दिया है, जैन सिद्धान्त के द्वादश भागम गरणधर कृत होते हैं तब उपांग, प्रकीर्णक प्रादि शेष श्रुतस्यविर कृत होते हैं । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली -पराग स्थविरों में चतुर्दश पूर्वघर भी हो सकते है और सम्पूर्ण दशपूबंधर भी हो सकते हैं, इन घरों की कृतियां भागमों में परिमाणित होती हैं, तब इन से निम्न कोटि के पूर्वधरों की कृतियां सूव्याख्यांग या प्रकारक कहलाते हैं भोर उनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल के अनुसार पढ़ने वालों के हितार्थ सिद्धान्त मर्यादा के बाहर नहीं जाने वाले उपयुक्त परिवर्तन भी होते रहते हैं, इस प्रकार के परिवर्तन ३२ सूत्रों में भी पर्याप्त मात्रा में हुए है, परन्तु लका के अनपढ धनुयायियों को उनका पता नहीं है । लोका के अनुयायियों में प्रचलित सैकड़ों ऐसी बातें हैं जो ३२ भागमों में नहीं हैं और उन्हें वे सच्ची मानते हैं। तव कई बातें उनमें ऐसी भी देखो जाती हैं जो उनके मान्य श्रागमों से भी विरुद्ध हैं, इसका कारण मात्र इस समाज में वास्तविक तलस्पर्शी ज्ञान का प्रभाव है । ८७ व्याकरण व्याधिकरण है : भाज से कोई ५० वर्ष पहले लुंकामत के अनुयायी साधुम्रों को कहते सुना है कि "व्याकरण में क्या रक्खा है, व्याकरण तो व्याषिकरण है ।" स्थानकवासी सों के उपर्युक्त उद्गारों का खास कारण था सत्रहवीं शती में लुकागच्छ के प्राचार्य मेघजी ऋषि ने अपना गच्छ छोड़कर तपागच्छ में दीक्षित होने को घटना । इस घटना के बाद लुं कामच्छ वालों ने व्याकरण का पढ़ना खतरनाक समझा प्रोर अपने पाठ्यक्रम में से उसको निकाल दिया था, यही कारण है कि बाद के लौकागच्छ के प्राचार्य, यति " र स्थानकवासी साधुत्रों के बनाये हुए संस्कृत, प्राकृत प्रादि के ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होते " समक्तिमार" के कर्त्ता ऋषि जेठमलजी जैसे ग्रग्रग. मी स्थानकवासी सा भी सूत्रों पर लिखे हुए टिवों मात्र के आधार से अपना काम चलाते थे, यहो कारण है कि भौगोलिक आदि की आवश्यक बातों में भी वे प्रज्ञान रहते थे, इस विषय में हम "समकितसार" का एक फिकरा उद्धृत करके पाठकों को दिखाएगे कि उन्नीसवीं शती तक के लोकागच्छ के वंशज कितने प्रबोध होते थे । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ पट्टावली-पराग ___"समकितसार" के पृष्ठ ११-१२ में "मार्यक्षेत्र की मर्यादा" इस शीर्षक के नीचे ऋषि जेठमलजी ने “बृहत्कल्पसूत्र" का एक सूत्र देकर मायं अनार्य क्षेत्र को हद दिखाने का प्रयत्न किया है - 'कप्पइ निग्गन्थाणं वा निग्गंथोरणं वा पुरत्यिमेणं जाव अंग मगहामों एत्तए; दक्खिरणेणं जाव कोसम्बीनो एत्तए, पच्चत्यिमेणं जाव पूणाविसयानो एत्तए, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयानो एत्तए एयावयावकप्पइ, एयावयाव प्रारिए खेते, नो से कप्पइ एत्तो वाहि, तेरण परं जत्थ नागवंसरणचरित्ताई उस्सप्पन्ति ॥४८॥" उपर्युक्त पाठ "समकितसार' में कितना अशुद्ध छपा है, यह जानने की इच्छा वाले सज्जन “समकितसार" के पाठ के साथ उपर्युक्तं पाठ का मिलान करके देखे कि "समकितसार" में छपा हुमा पाठ कितना भ्रष्ट है, इस पाठ को देकर नीचे चार दिक्षा की क्षेत्र मर्यादा बताते हुए ऋषिजी कहते हैं - "पूर्व दिशा में अंगदेश भोर मगधदेश तक आर्यक्षेत्र है, अब भी राजगृह और चम्पा की निशानियां पूर्व दिशा में हैं। दक्षिण में कोशम्बी नगरी तक आर्यक्षेत्र है, प्रागे दक्षिण दिशा में समुद्र निकट है इसलिए ममुद्र की जगती लगती है । पश्चिम दिशा में थूभणानगरो कही है, वहां भी कच्छ देश तक मार्यक्षेत्र है, मागे समुद्र की जगती पाती है। - उत्तर दिशा में कुणाल देश मोर श्रावस्तो-नगरी है, जहां भाज स्यालकोट नामक शहर है। भागे ऋषिजी कहते हैं - कितनेक नगरों के नाम बदल गए हैं। उनको लोकोत्तर से जानते हैं, जैसे- पाटलीपुर जो माज का पटना है, देसारणपुर वह मन्दसौर है, हत्थरणापुर वह प्राज को दिल्ली, सौरीपुर वह भागरा भट्ठीगांव वह वढवाण है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ८९ इसी प्रकार वृहत्कल्पोक्त गंगा, यमुना, सरयू, इरावती और मही इन पांच महानदियों का परिचय देते हुए जेठमलजी इरावतो को लाहौर के पास की रावी बताते हैं और मही गुजरात में बडौदा शहर के उत्तर में ८-१० माईल के फैसले पर बहने वाली मही बतति हैं । जेठमलजी कौशम्बी के मागे दक्षिण में समुद्र मोर उसकी जगती बताते हैं, यह भौगोलिक "मज्ञान" मात्र है, कौशम्बी नगरो माधुनिक इलाहबाद से दक्षिण में वत्स देश की राजधानी थी। उनकी दक्षिण सीमा विन्ध्याचल के उत्तर प्रदेश में ही समाप्त हो जाती थी मोर समुद्र कहाँ से १ हजार माईल से भी अधिक दूर था, इस परिस्थिति में कौशम्बी की दक्षिण सीमा समुद्र के निकट बताना भोगेलिक अज्ञानता सूचक है। पश्चिम दिशा में पायंदेश की अन्तिम सीमा यूभणानगरी कहते हैं पौर उनकी हद कच्छ देश तक बताते हैं, यह भी गल्त है, प्रथम तो नगरी का नाम ही गलत लिखा है, नगरी का नाम थूमणा नहीं, पर उसका नाम "स्थूणा" है पौर वह सिन्ध देश के पश्चिम में कहीं पर पायी हुई थी और उसके पास-पास के प्रदेश को जेनसूत्रों में "स्थूणाविषय" बताया है, कच्छ को नहीं। ___ भारत के उत्तरीय मार्यक्षेत्र की सीमा पंजाब के शहर स्यालकोट तक बताते हैं, यह भी मज्ञानजन्य हैं, स्यालकोट पंजाब प्रदेद में वर्तमान भारत के वायव्यकोण में भाया हुआ है, तब कुणाल देश भारत के उत्तरीय भाग में था बीर भाजकल के "सेटमहेट" के किले को प्राचीनकाल में श्रावस्ती कहते है। गोरखपुर तथा बस्ति जिले के मास-पास का प्रदेश पूर्वकाल में कुरान देश कहलाता था। दशापुरको बेठमसजी देसारणपुर लिखते हैं और उसको माधुनिक मन्दसौर कहते हैं वो यथार्थ नहीं है। दशार्णपुर प्राजकल का मन्दसौर नहीं किन्तु पूर्व जनवा के पहाड़ी प्रदेश में भाए हुए दशार्ण देश की राजधानी थी और दशार्णपुर अथवा मृत्तिकावती इन नामों से प्रसिद्ध पी, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० पट्टावली-पराग माधुनिक मन्दसौर का पूर्वकालीन नाम दशार्णपुर नहीं किन्तु 'दशपुर" था, यह बात शायद जेठमलजी के स्मरण में से उतर गई है । हत्थाणापुर अर्थात् हस्तिनापुर दिल्ली नहीं, किन्तु वह कुरु जांगल देश की राजधानी स्वतंत्र नगरी थी और श्राज भी है। सौरीपुर आगरा नहीं किन्तु आगरा से भिन्न प्राचीन सौर्यपुर नगर का नाम है। वढ़वाण को अट्ठीगांव कहना भूल से भरा है, अस्थिकग्राम प्राचीन भारत के विदेह प्रदेश में था, पश्चिम भारत में नहीं। ___लाहौर के पास की रावी नदी इरावती नहीं, किन्तु कुणाल प्रदेश में बहने वाली इरावती नामक एक बड़ी नदी थी, इसी प्रकार मही नदी भी बड़ौदा के निकटवर्ती गुजगत की मही नहीं किन्तु दक्षिण कौशल की पहाड़ियों से निकलने वाली मही नदी को सूत्र में ग्रहण किया है जो गगा को सहायक नदी है। . "समकितसार" के लेखक श्री जेठमलजी के प्रमादपूर्ण उपर्युक्त पांच सात भूलों में ही "समकितसार" गत अज्ञान विलास की समाप्ति नहीं होती। यों तो सारी पुस्तक भूलों का खजाना है, प्रमाण के रूप में दिये गये संस्कृत प्राकृत अवतरण इतनी भद्दी भूलों से भरे पड़े हैं जो देखते ही पुस्तक पढ़ने को श्रद्धा को हटा देते हैं और पुस्तक की भाषा तो किसी काम की नहीं रहीं, क्योंकि शब्द-शब्द पर विषयगत अज्ञान और मुद्रण-सम्बन्धी अशुद्धियों को देखकर पढ़ने वाले का चित्त ग्लानि से उद्विग्नि हो जाता है । । हमारे सामने जो "समकितसार" की पुस्तक उपस्थित हैं यह "समकितसार" की तृतीयावृत्ति के रूप में विक्रम सं० १९७३ में अहमदाबाद में छपी हुई है, इसी "समकितसार" की सम्भवतः प्रथमावृत्ति विक्रम सं० १९३८ में निकली थी, इसकी द्वित्तीयावृत्ति कब निकली इसका हमें पता नहीं है और ७३ के बाद इसकी कितनी ग्रावृत्तियां निकली यह भी साधनाभाव से कहना कठिन है। १९३८ की आवृत्ति निकलने के बाद इसके उत्तर में सं० १९४१ में "सम्यक्त्व-शल्योद्धार" नामक पुस्तक पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज ने लिखकर प्रकाशित करवाई "समकितसार" Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग ९१ में इसके लेखक, "ऋषि जेठमलजी ने मूर्तिपूजक जैन सम्प्रदाय का "हिंसाधर्मी" यह नाम रक्खा है और सारी पुस्तक में उनको इसी नाम से संबोधित किया है। "सम्यक्त्व-शल्योटार" में बेठमलजी की इस भाषा का ही प्रत्याघात हैं और उसके लेखक ने "मूढजेठाऋष, निन्हव" इत्यादि शब्दों के प्रयोगों से लेखक ने उत्तर दिया है। जेठमलजी के "समकितसार गत" अज्ञान को देखकर बीसवीं शतो के पंजावविहारी स्थानकवासी साधुनों के मन में पाया कि संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं का जानना जैनसाधुनों के लिए जरूरी है, इसके परिणामस्वरूप कतिपय बुद्धिशाली स्थानकवासी साधुओं ने संस्कृत भाषा सीखी और हस्तलिखित सटीकसूत्र पढ़े। संस्कृत सीखने के बाद सटीकसूत्रों के पढ़ने से वे समझने लगे कि सूत्रों में अनेक स्थानों पर मूर्तिपूजा का विधान है और दिनभर मुंह पर मुंहपत्ति बांधना शास्त्रोक्त नहीं है, इन दो बातों को पूरे तौर पर समझने के बाद उनकी श्रद्धा वर्तमान स्थानकवासी सम्प्रदाय में से निकल जाने को हुई, प्रथम श्री बूटेरायजी, श्री मूलचन्दजी, श्री वृद्धिचन्दजी नामक तीन श्रमण मुंहपत्ति छोड़कर सम्प्रदाय से निकल गये, शत्रुञ्जय आदि तीर्थो' की यात्रायें कर श्री बूटेरायजी ने अहमदाबाद पाकर पं० मरिणविजयजी के शिष्य बने, नाम बुद्धिविजयजी रक्खा। शेष दो. साधु बुद्धिविजयजी के शिष्य बने और क्रमश: मुक्तिविजयजी, वृद्धिविजयजी के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसके अनन्तर लगभग दो दशकों के बाद श्री आत्मारामजी श्री वीसनचन्दजी आदि लगभग २० साधु स्थानकवासी सम्प्रदाय छोड़कर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में आये और बुद्धिविजयजी आदि के शिष्य बने, इस प्रकार सम्प्रदाय में : पठित साधुओं के निकल जाने से स्थानकवासी सम्प्रदाय में संस्कृत व्याकरण आदि भाषा विज्ञान के ऊपर से श्रद्धा उठ गई और व्याकरण को तो वे 'व्याधिकरण" मानने लगे। वीसवीं शती का प्रभाव : यों तो अन्तिम दो शतियों से जैन श्रमणों में संस्कृत का पठन-पाठन बहुत कम हो गया था, परन्तु बीसवीं शतो के उत्तरार्ध में संस्कृत भाषा की Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली -पराग फिर कदर होते लगी । बनारस, मेसारणा आदि स्थानों में संस्कृत पाठशालाएं स्थापित हुई और उनमें गृहस्थ विद्यार्थी पढ़कर विद्वान् हुए कतिपय उनमें से साघु भी हुए, तब कई साघु स्वतंत्र रूप से पण्डितों के पास पढ़कर व्युत्पन्न हुए, इस नये संस्कृत प्रचार से प्रमूर्तिपूजक सम्प्रदाय को एक नई चिता उत्पन्न हुई, वह यह कि सम्प्रदाय में से पहले अनेक पठित साधु चले गये तो अब न जायेंगे, इसका क्या भरोसा ? इस चिंता के वश होकर सम्प्रदाय के प्रमुक साघुनों ने अपने मान्य सिद्धान्तों पर नई संस्कृत टीकाएँ बनवाना शुरू किया। अहमदाबाद शाहपुर के स्थानक में रहते हुए स्थानकवासी साधु श्री घीसीलालजी लगभग ७-८ साल से यही काम करवा रहे हैं, संस्कृतज्ञ ब्राह्मण विद्वानों द्वारा आगमों पर अपने मतानुसार संस्कृत टीकाएँ तैयार करवाते हैं, साथ-साथ उनका गुजराती तथा हिन्दी भाषा में भाषान्तर करवा कर छपवाने का कार्य भी करवा रहे हैं; इस प्रकार की नई टीकाओं के साथ कतिपय सूत्र छप भी चुके हैं। टीकाकार के रूप में उन पर अमुक प्रसिद्ध साधुयों के नाम अंकित किये जाते है । ९२ उपर्युक्त व्यवस्था चालू हुई तभी से श्री फूलचन्दजी ने सबसे आगे कदम उठाया, उन्होंने सोचा नई टीकाओं के बनने पर भी संस्कृत के जानकार साधु को प्राचीन मूर्तिपूजक सम्प्रदाय-मान्य टीकाओं को पढ़ने से कोन रोक सकेगा, इस वास्ते सबसे प्रथम कर्त्तव्य यही है कि आगमों में से तमाम मूर्तिपूजा के पाठ तथा उनके समर्थक शब्दों तक को हटा दिया जाय ताकि भविष्य में सूत्रों का वास्तविक अर्थ समझकर अपने सम्प्रदाय में से मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में साघुजों का जाना रुक जाय । अगर प्राचीन टीकाओं वाले आगमों में मूर्तिपूजा के अधिकार देखकर कोई यह शंका करेंगे कि मूर्तिपूजक सम्प्रदाय-मान्य भागमों में तो प्रतिमापूजा के अधिकार विद्यमान है और अपने आगमों में नहीं इसका क्या कारण है, तो उन्हें कह दिया जायगा कि मूर्तिपूजा के पाठ चैत्यवासी यतियों ने श्रागमों में घुसेड़ दिये थे उनको हटाकर भागमों को संशोधित किया गया है । स्थानकवासी सम्प्रदाय के साधुओंों में व्याकरण को "व्याधिकरण" कहने की जो पुरानी परम्परा थी वह सचमुच ठीक ही थी, क्योंकि उनमें से Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली पराण ९३ व्याकरण पढ़े हुए कई साधु सम्प्रदाय छोड़कर चले गये थे, श्री फूलचन्दजी तथा उनके शिष्य-प्रशिष्य भी साधारणतया व्याकरण पढ़े हुए हैं, तो उनके लिए भो "व्याकरण व्याधिकरण" होना ही था, यदि ये सम्प्रदाय में से निकल जाते तो इतना ही व्याधिकरण" होता, अन्यथा इन्होंने सूत्रों के पाठ निकालकर सूत्रों को जो खण्डित किया है और इस प्रक्रिया द्वारा सूत्रों की प्राचीनता में जो विकृति उत्पन्न की है, इसके परिणामस्वरूप भविष्य में कोई भी जेनेतर संशोधक विद्वान इन सूत्रों को एएगा तक नहीं, क्योंकि प्रागमों को मौलिकता ही उनका खरा जौहर है। वह फूलचन्दजी ने उनके सम्प्रदाय मान्य ३२ आगमों में से खत्म कर दिया है। अब उन पर संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती भाषा को टोकाएं लिखवाते रहें और छपवाते रहें, जैन आगमों के आधार से जैनधर्म की प्राचीनता, जेनमियों की प्राचीन सभ्यता और आगम-कालीन जैनों के प्राचार-विचार जानने के लिए ये "स्थानकवासी आगम" किसी काम के नहीं रहे । शोध, खोज, करने वालों के लिए ये आगम वीसवीं सदी के बने हुए किसी भी प्रन्थ संदर्भ से अधिक महत्त्व के नहीं रहे। भिक्षुत्रितय 'सुत्तागमे' के दोनों पुस्तकों में लिखता है - "पाठ शुद्धि का पूरा-पूरा ध्यान रक्खा है, इसके सम्पादन में शुद्धि प्रतियों का उपयोग किया गया है।" सम्पादकों की पाठ-शुद्धि का अर्थ है इनकी मान्यता में बाधक होने वाले पाठों को "हटाना"। अन्यथा कई स्थानों पर सम्पादकीय प्रशुद्धियां ही नहीं बल्कि सम्पादकों द्वारा अपनी होशियारी से की गई अनेक अशुद्धियां सूत्रों में दृष्टिगोचर होती हैं, इस स्थिति में सम्पादन में शुद्ध प्रतियों का उपयोग करने की बात केवल दम्भपूर्ण है, क्योंकि स्थानकवासियों के पास जो भी सूत्रों के पुस्तक होंगे वे मशुद्धियों के भण्डार ही होंगे, क्योंकि इनके पुस्तकालयों तथा स्थानकों में मिलने वाले पुस्तक बहुधा इनके अनपढ़ साधुनों के हाथ के लिखे हुए ही मिलते हैं। सोलहवीं शती में लौका का मत निकला मोर अठारहवीं शती के प्रारंभ में स्थानकवासी ऋपियों ने टिब्वे के साथ सूत्र लिखने शुरू किये थे, लिखने वाले साधु नकल करने Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली - पराग वाले लहियो से तो बढ़कर होशियार थे नहीं, फिर सम्पादकों को शुद्ध प्रतियां कहां से हाथ लगीं, यह सूचित किया होता तो इनके कथन पर विश्वास हो सकता था, परन्तु यह बात तो है ही नहीं, फिर कौन मान सकता है कि इनके सम्पादन कार्य के लिए ६००-७०० वर्ष पहले के भागमों के शुद्ध श्रादर्श उपलब्ध हुए होंगे । 'सुत्तागो" के द्वितीय अंश में दी हुई पट्टावली से ही यह तो निश्चित होता है कि सम्पादकों को शुद्ध-पुस्तक नहीं मिला था । प्रन्यथा नन्दो को वाचक-वंशावली के ऊपर से ली हुई गाथात्रों में में इतनी गड़बड़ी नहीं होती । ୧୫ पट्टावली में सप्तम पट्टधर भायं भद्रबाहु के सम्बन्ध में लेखक निम्न प्रकार का उल्लेख करते हैं - "तयागंतरं प्रज्ज भद्दवाहु चउरणारा चउदहपुंव्वधारगो दसाकप्पववहारकारगो सुयसमुद्दपारगो ॥ ७ ॥ " उपर्युक्त प्रतीक में दो भूलें हैं, एक तो सम्पादक के सम्पादन की औौर दूसरी सम्गदक के शास्त्रीय ज्ञान के प्रभाव की, सम्पादन की भूल के सम्बन्ध में चर्चा करना महत्त्वहीन है, परन्तु दूसरो भूल के सम्बन्ध में ऊहापोह करना प्रावश्यक है, क्योंकि पट्टावली-निर्माता ने इस उल्लेख में भद्रबाहु स्वामी को 'चतु' ज्ञानधारक" लिखा है, वह शास्त्रोत्तीर्ण है क्योंकि भद्रबाहु "ज्ञानद्वयधारक" थे । लेखक ने इनको चर्तुं ज्ञानधारक कहने में किसी प्रमाण का उपन्यास किया होता, तो उस पर विचार करते । अन्यथा भद्रबाहु को चतु ज्ञानवारक कहना प्रमाणहोन है । पट्टावली-लेखक ने अपनी पट्टावली में ११ वें नम्बर के स्थविर को " सन्तायरिम्रो" लिखा है जिसका संस्कृत “शान्त्याचार्य" होता है जो कि गल्त है, इन स्थविरजी का नाम "स्वात्याचार्य" ( प्राचार्य स्वाति ) है श्राचार्य शान्ति नहीं | शाण्डिल्य के बाद १४ वें स्थविर का नाम 'जिनधर्म' और १६ वें स्थविर का नाम "नन्दिल" लिखा है, जो दोनों प्रक्रम प्राप्त हैं, क्योंकि इन में से "आर्यधर्म" का नाम नन्दी को मूल गाथाओं में नहीं है और "नन्दिल" का नम्बर मूल नन्दी में १७ वां है । नम्बर २० प्रौर २१ में स्थविरों के नाम भो पट्टावलो- लेखक ने गलत लिखे हैं, पायं महागिरि Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली-पराग को वाचक-परम्परा में सिंहगिरि का नाम नहीं है, किन्तु इस परम्परा में वाचक "ब्रह्मद्वीपकसिंह" का नाम अवश्य आता है, २१ वें स्थविर को "सिरिमन्तो" नाम से उल्लिखित किया है, जो गलत है, वास्तव में इनका नाम "हिमवन्त" है। पट्टावलीकार ने २३ वां नम्बर गोविन्द को दिया है, जो वास्तव में नन्दी को मूल गाथानों में नहीं है, किन्तु यह नाम "प्रक्षिप्त गाथा में" माता है । पट्टावलीकार ने २५ वें स्थविर का नाम "लोहाचार्य" लिखा है, जो पथार्थ नहीं है, इनका खरा नाम "लोहित्याचार्य" है । पट्टावलीलेखक ने २६ वें स्थविर का नाय "दुप्पस' लिखा है, जो अशुद्ध है । देवद्धिगरिण के पट्टगुरु का नाम ',दुप्पस" नहीं किन्तु "दूष्यगणि" है, यह लेखक को समझ लेना चाहिए था। पट्टावलीकार ने देवद्धिगरिण के बाद वीरभद्र २८ शिवभद्र २६ आदि ३३ नाम कल्पित लिखे हैं, प्रतः इन पर ऊहापोह करना निरर्थक है, इनके मागे पट्टावली लेखक ने "ज्ञानाचार्य" "भारगजो" प्रादि लौंकागच्छ को परम्परा के ऋषियों के नाम दिए हैं, इन नामों में भी पंजाबी प्राधुनों की पट्टावली के कई नामों के विरुद्ध पढ़ने वाले नाम हैं जिनकी चर्चा पहले ही पट्टावली-विवरण में की गई. है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________