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पट्टावली पराग २० वें नम्बर में आचार्य शाण्डिल्य का नाम लिखा है, और कोष्टक में मार्य नागहस्ती एवं मार्य भद्र के नाम हैं, परन्तु ये शाण्डिलाचार्य श्रुतघर शाण्डिल्य नहीं, क्योंकि श्रुतधर शाण्डिल्य का नाम १३ वां है, जो पहले लेखक ने खन्दिलाचार्य के रूप में लिख दिया है। प्रस्तुत शाण्डिल्य पार्य नागहस्ती और आर्य भद्र ये तीनों नाम देवद्धिगरिण की गुर्वावली के हैं और गुर्वावलो में इनके नम्बर क्रमशः ३३, २२ और २० हैं, जिनको लेखक ने ऊटपटांग कहीं के कहीं लिख दिए हैं।
२५ वें नम्बर के मागे श्री लोहगरिए नाम लिखा है, सो ठीक नहीं, शुद्ध नाम "लौहित्यगणि" है ।
२६ नम्बर के आगे इन्द्रसेनजी लिखकर कोष्टक में दुष्यगरिण लिखा है, वास्तव में “इन्द्रसेनजी" कोई नाम ही नहीं है, शुद्ध नाम "दूष्यगणि" ही है।
जनसंघ तीर्थयात्रा को जा रहा था। लोकाशाह जहां अपने मत का प्रचार कर रहे थे वहां संघ पहुंचा और वृष्टि हो जाने के कारण संघ कुछ समय तक रुका । संघजन लौंका का उपदेश सुनकर "दयाधर्म के अनुयायी बन गए और संघ को भागे ले जाने से रुक गए," यह कल्पित कहानी स्थानकवासी सम्प्रदाय की अर्वाचीन पट्टावलियों में लिखी मिलती है। परन्तु न तो सिरोही स्टेट के अन्दर अहवाड़ा अथवा अहटवाड़ा नामक कोई गांव है, न इस कहानी की सत्यता ही मानी जा सकती है, तब अहवाड़ा में लौका का जन्म बताने वाली बात सत्य कैसे हो सकती है। सं० १४७२ के कार्तिक सुदि १५ को गुरुवार होना पंचांग गणित के आधार से प्रमाणित नहीं होता, न उनके स्वर्गवास का समय ही १५४६ के चैत्र सुदि ११ को होना सिद्ध होता है।
उपर्युक्त दोनों संवत् मनघडन्त लिखे हैं, क्योंकि उन दोनों तिथियों में "एफेमेरिज" के आधार से लिखित वार नहीं मिलते । अब रही दीक्षा की बात सो लौकागच्छ को किसी भी पट्टावली में लौकाशाह के दीक्षा लेने की बात नहीं लिखी। प्रत्युत केशवजी ऋषि ने लौका को प्रदीक्षित माना है,
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