SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पट्टावली - पराग तव २१ वीं सदी के स्थानकवासी श्रमरणसंघ और "श्रमरणसुरतरु" के लेखक मुनिजी को लोकाशाह के जन्म, दीक्षा और स्वर्गारोहण के समय का किस ज्ञान से पता लगा, यह सूचित किया होता तो इस पर कुछ विचार भी हो सकता था । खरी बात तो यह है कि पट्टावली-लेखकों तथा लौकागच्छ को अपना गच्छ कहने वालों को लोकाशाह को गृहस्थ मानने में संकोच होता था, इसलिये पंजावी पट्टावली में से लोकाशाह कों पहले से ही प्रद्दश्य बना दिया था, अब मारवाड़ के श्रमरणों को भी अनुभव होने लगा कि लोकाशाह को साधु न मानला अपने गच्छ को एक गृहस्थ का चलाया हुआ गच्छ मानना है, इसी का परिणाम है कि 'श्रमणसुरतरु' के लेखक ने लोकाशाह को दीक्षा दिलाकर "अपने गच्छ को श्रम प्रवर्तितगच्छ बताने की चेष्टा की है," कुछ भी करें, लोंका के अनुयायियों की परम्परा गृहस्थोपदिष्ट भार्ग पर चलने वाली है, वह इस प्रकार की कल्पित कहानियों के जोड़ने से श्रागमिक श्रमण परम्पराम्रों के साथ जुड़ नहीं सकती । ६१ प्रारम्भिक पट्टावलियों के विवरण में लोकागच्छीय मौर स्थानकवासियों की पट्टावलियों के सम्बन्ध में हम लिख आए है कि ये सभी पट्टावलियां छिन्नमूलक हैं । देवद्धिगरण क्षमा-श्रमरण तक के २७ नामों से मी इनका एकमत्य नहीं है । किसो ने देवगिरिण क्षमा-श्रमण को प्रार्यमहागिरि की परम्परा के मानकर नन्दी की स्थविरावली में लिया है, किसी ने उन्हें आर्य - सुहस्ती की गुरु-परम्परा के स्थविर मानकर कल्पसूत्र की स्थविरावली में घसीटा है । वास्तव में दोनों प्रकार के लेखक देवगिरिक्षमा श्रमण को परम्परा लिखने में मार्ग भूल गये हैं । तब देवगिरिण-क्षमा श्रमण के बाद के कतिपय स्थविरों को छोड़कर "प्रभुवीर पट्टावली" में उसके लेखक श्री मणिलालजी ने लोकाशाह के गुरु तक के जो नाम लिखे हैं, वे लगभग सब के सब कल्पित हैं। उधर पंजाब के स्थानकवासियों की पट्टावली में जो नाम देवद्विगरण के बाद १८ नामों को छोड़कर शेष लिखे गए हैं, उनमें से भी अधिकांश कल्पित ही ज्ञात होते हैं, क्योंकि झाधुनिक स्थानकवासी साधु उनमें के अनेक नामों को भिन्न For Private & Personal Use Only Jain Education International • www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy