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________________ पट्टावली - पराग ६५ जयराज है तब फूलचन्दजी ने उस नम्बर के साथ " महासेन" लिखा है पौर " जयराज " को नम्बर ५५वां में लिया है, और पं० पट्टावली में ५५वें नंबर के साथ गजसेन का नाम लिखा है । पं० पट्टावली में ५६वों पट्टधर "मिश्रसेन" बताया है, तब फूलचन्दजी ने इन्हीं को "मित्रसेन" लिखा है मोर नम्बर ५७वां दिया है । पं० पट्टावली में ५७वां नाम "विजयसिंह " का है, तब फूलचन्दजी ने विजयसिंह को ५८वें नम्बर में रखा है । पं० पट्टावली में ५८- ५६ - ६० नम्बर क्रमशः शिवराज, लालजीमल्ल, मोर ज्ञानजी यति को दिए है, तब फूलचन्दजी ने इन्हीं को ५६ - ६०-६१ नम्बर में रखा है | ❤ उपर्युक्त नामों की तुलना से जाना जा सकता है कि पंजाबी साघु श्री फूलचन्दजी सूत्रों के पाठों के परिवर्तन में भौर नये नाम गढने में सिद्धहस्त प्रतीत होते हैं । इन्होंने स्थविरों के नामों में ही नहीं भागमों के पाठों में भी अनेक परिवर्तन किये हैं और कई पाठ मूल में से हटा दिये हैं । इस हकीकत की जानकारी पाठकगरण मागे दिये गए शीर्षकों को पढ़कर हासिल कर सकते हैं । जैन आगमों में काट-छांट : कामत का प्रादुर्भाव विक्रम सं० १५०८ में हुआ था और इस मत में से १८वीं शती के प्रारम्भ में अर्थात् १७०६ में मुख पर मुहपत्ति बांधने वाला स्थानकवासी सम्प्रदाय निकला, इत्यादि बातों का विस्तृत वर्णन लौकावच्छ की पट्टावली में दिया जा चुका है। शाह लोंका ने तथा उनके अनुयायी ऋषियों ने मूर्तिपूजा का विरोध प्रवश्य किया था, परन्तु जैन द्यागमों में काटछांट करने का साहस किसी ने नहीं किया था । सर्वप्रथम सं० १८६५ में स्थानकवासी साघु श्री जेठमलजी ने "समकितसार" नामक ग्रन्थ लिखकर मूर्तिपूजा के समर्थन में जो सागमों के पाठ दिये थे उनकी समालोचना करके वर्थ परिवर्तन द्वारा पनी मान्यता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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