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________________ ७४ पट्टावली-पराग शास्त्र के प्रकाशन में प्रायश्चित संबन्धी व्यबहार का कोई प्रयोजन नहीं होता, फिर भी मापने इसका प्रयोग किया है। यदि "हमारे गुरु की धारणा यह थी कि चैत्यादि-वाचक शब्द-विशिष्ट पाठों को निकालकर सूत्रों का सम्पादन करना" यह धारणा व्यवहार के अर्थ में अभिप्रेत है तो जिनके विशेषणों से पौने दो पृष्ठ भरे है वे विशेषण अपार्थक हैं और यदि वे लेखक के कथनानुसार विद्वान मोर गुणी थे तो सम्पादक ने उनकी 'धारणा" का नाम देकर अपना बोझा हल्का किया है, क्योंकि गुणी और जिनवचन पर श्रद्धा रखने वाला मनुष्य जैनागमों में काट-छांट करने को सलाह कभी नहीं दे सकता । श्री भिक्खूजी के सम्पादन में सूत्रों को काफी काटछांट हुई है, इसकी जवाबदारी पुप्फभिक्खूजी अपने गुरुजी पर रक्खे या स्वयं जवाबदार रहें इस सम्बन्ध में हमको कोई सारांश निकालना नहीं है। पुप्फभिक्खूजी के समानधर्मी श्रमणसमिति ने इस प्रकाशन को अप्रमाणित जाहिर किया, इससे इतना तो हर कोई मानेगा कि यह काम भिक्षुजी ने अच्छा नहीं किया। पुप्फभिक्खूजी ने अपने प्रस्तुत कार्य में सहायक होने के नाते अपने शिष्यि श्री जिनचन्द्र भिक्खू की अपने वक्तव्य में जो सराहना की है उसका मूल साधार निम्नलिखित गाथा है - "दो पुरिसे परइ घरा, महवा दोहिवि धारिमा घरणी । उवयारे जस्स मई, उवयरिमं जो न फुसेई ॥" अर्थात् ;- पृथ्वी अपने ऊपर दो प्रकार के पुरुषों को धारण करती है उपकार बुद्धि वाले उपकारक को पोर उपकार को न भूलने वाले "कृतज्ञ" को प्रथवा दो प्रकार के पुरुषों से पृथ्वी धारण की हुई है । एक उपकारक पुरुष से और दूसरे उपकार को न भूलने वाले कृतज्ञ पुरुष से। उपर्युक्त सुभाषित को गुरु-शिष्यों के पारस्परिक सहकार को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त करना शिष्टसम्मत है, या नहीं, इसका निर्णय हम शिष्ट वाचकों पर छोड़ते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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