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पट्टावली-पराग
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राजगृह नगर के ईशानदिकोण में "गुणशिलक" नामदेव का स्थान होने से वह सारा भूमिभाग "गुणशिलक चैत्य" कहलाता था। इसी प्रकार चम्पानगरी के ईशान दिशा-भाग में "पूर्णभद्र" नामक देव का स्थान था जो "पूर्णभद्र चत्य" के नाम से प्रसिद्ध हो गया था और उस सारे भूमिभाग को देवता-अधिष्ठित मानकर उस स्थान की लकड़ी तक लोग नहीं काटते थे।
इसी प्रकार प्राचीनकाल के ग्रामों, नगरों के बाहर तत्कालीन भिन्नभिन्न देवों के नामों से भूमि-माग छोड़ दिए जाते थे मोर वहां उन देवों के स्थान बनाए जाते थे, जो चैत्य कहलाते थे। भाजकल भी कई गांवों के बाहर इस प्रकार के भूमिभाग छोड़े हुए विद्यमान हैं। भाजकल इन मुक्त भूमिभागों को लोग "उरण" अर्थात् "उपवन" इन नाम से पहिचानते हैं।
उपयुक्त संक्षिप्त विवरण से पाठकगण समझ सकेंगे कि "चैत्यशब्द" "साधुवाधक" मथवा "मानवाचक" न कभी था न पाज ही है। क्योंकि चत्य शब्द की उत्पत्ति पूजनीय भग्निचयन वाचक "चित्या" शब्द से हुई है, न कि "चिता" शब्द से भयवा "चिति संज्ञाने" इस धातु से । इस प्रकृतियों से "चत" "चित्त" "चंतस्" शन्द बन सकते हैं, "चत्य-शब्द" नहीं। श्री पुप्फभिक्खू को समझ में यह बात मा गई कि शब्दों का पर्थ बदलने से कोई मतलब हल नहीं हो सकता। पूजनीय पदार्थ-वाचक "चत्य" शब्द को सूत्रों में से हटाने से ही प्रमूर्तिपूजकों का मार्ग निष्कण्टक हो सकेगा।
श्री पुप्फमिक्खू पपने प्रकाशन के प्रथम मंश के प्रारम्भ में "सूचना" इस शीर्षक के नीचे लिखते हैं- "यह प्रकाशन मेरे धर्मगुरु धर्माचार्य साधुकुल-शिरोमणि १०८ श्रीफकीरचन्दजीमहाराज (स्वर्गीय) के धारणा व्यवहारानुसार "
पुष्फभिक्खूजी को इस सूचना में "धारणा-व्यवहार" शब्द का प्रयोग किस पर्य में हमा है यह तो प्रयोक्ता हो जाने, क्योंकि "धारणा-व्यवहार" शब्द प्रायश्चित्त विषयक पांच प्रकार के व्यवहारों में से एक का वाचक है।
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