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पट्टावली - पराग
"चैत्यवास" यह कोई नई संस्था नहीं है मोर चेत्यों में रहना भी वजित नहीं है। मौय्यंकाल औौर नन्दकाल से ही पहाड़ों की चट्टानों पर "ले " बनते थे जिसका संस्कृत अर्थ "लयन" होता था, ये स्थान बनाने वाले राजा, महाराजा भौर सेठ साहूकार होते थे धौर मेलों उत्सघों के समय में इनका उपयोग होता था, शेषकाल में उनमें साधु सन्यासी ठहरा करते थे, "लयन" बनाने वाला धनिक जिसघर्म की तरफ श्रद्धा रखने वाला होता, उस धर्म के प्रवर्तक देवों घोर उपदेशक श्रमणों की मूर्तियां भी उन्हीं पत्थरों में से खुदवा लेता था, जिससे कि उनमें ठहरने वाले असुण लोग उनको लक्ष्य करके ध्यान करते, माज भी इसी प्रकार के लयन उडीसा के खण्डगिरि प्रादि पर्वतों में भोर एजण्टा, गिरनार प्रादि के चट्टानों में खुदी हुई गुफाओं के रूप में विद्यमान हैं। सैकड़ों लोग उनको देखने जाते है, खोदी हुई मूर्तियों से सुशोभित इस प्रकार के लयनों को भिझुत्रितय "चंत्य" कहे चाहे अपनी इच्छानुसार दूसरा नाम कहे, वास्तव में इस प्रकार के स्थान " चैत्यालय" ही कहलाते थे मौर उनमें निस्संग भोर त्यागी श्रमरण रहा कहते थे, खास कर वर्षा के समय में श्रमरण लोग उनका माय लेते थे जिनको बड़े-बड़े राजा महाराजा पूज्य दृष्टि से देखते श्रीर उनकी पूजा करते थे। धीरे-धीरे समय निर्बल माया, मनुष्यों के शक्तिसंहनन निर्बल हो चले, परिणामस्वरूप विक्रम की दूसरी शती के निकट समय में श्रमरगगरण ग्रामों के परिसरों में बसने लगे, जब उनकी संख्या अधिक बढ़ी भोर परिसरों में इस प्रकार के ठहरने के स्थान दुर्लभ हो चले, तब धीरे-धीरे श्रमणों ने गांवों के अन्दर गृहस्थों के प्रव्यापृत मकानों में ठहरना शुरू किया, पर इस प्रकार के मकानों में भी जब उनका निर्वाह नहीं होने लगा तब गृहस्थों ने सामूहिक धार्मिक किया करने के लिए स्वतंत्र मकान बनवाने का प्रारम्भ किया। उन मकानों में वे सामायिक प्रतिक्रमण, पोषध आदि धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए जाने लगे, पोषध क्रिया के कारण ये स्थान "पोषघशाला" के नाम से प्रसिद्ध हुए, यह समय विक्रम की प्राठवीं शती का था ।
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साधुयों के उपदेश के सम्बन्ध में भिक्षुत्रितय का कथन अतिरंजित है, उपदेश के रूप में गृहस्थों के भागे उनके कर्तव्य का उपदेश करना उपदेशकों
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