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पट्टावली - पराग
का कर्तव्य है मोर इसी रूप में सुविहित गीतार्थ साधु जैन गृहस्थों को उनके अन्यान्य कर्तव्यों के उपदेश के प्रसंग में दर्शन-शुद्धयर्थं जिनभक्ति का भी उपदेश करते थे श्रौर करते हैं । प्रसिद्ध श्रुतघर श्री हरिभद्रसूरि के प्रतिष्ठा पंचाशक मौर षोडशक प्रादि में इसी प्रकार के निरवद्य उपदेश दिये गये हैं । भर्वाचीनकाल में अंगुष्ठ मात्र त्रिनप्रतिमा के निर्माण से स्वर्गप्राप्ति का किसी ने लिखा होगा तो वह भी प्रधार्मिक वचन नहीं है, किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के करने में कर्ता का मानसिक उल्लास उनके फल में विशिष्टता उत्पन्न कर सकता है इसमें कोई असम्भव की बात नहीं, दो तीन घंटे तक मुंह बंधवाकर स्थानक में जैनों प्रजैनों को बिठाना भोर वाद में उनको मिष्टान्न खिलाकर रवाना करना इस प्रकार दया पल बानेके धार्मिक अनुष्ठान से तो भावि शुभ फल की प्राशा से मन्दिर तथा मूर्तियां का निर्माण करवाना मौर उनमें जिनदेव की कल्पना कर पूजा करना हजार दर्जे प्रच्छा है ।
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भिक्षुत्रितय ने उपर्युक्त फिकरे में भागमों में बनावटी पाठ घुसेड़ देने की बात कही है, वह भी उनके हृदय की भावना को व्यक्त करती है, यों तो हर एक आदमी कह सकता है कि प्रमुक ग्रन्थ में अमुक पाठ प्रक्षिप्त है, परन्तु प्रक्षिप्त कहने मात्र से वह प्रक्षिप्त नहीं हो सकता, किन्तु पुष्ट प्रमारणों से उस कथन का समर्थन करने से ही विद्वान् लोग उस कथन को सत्य मानते हैं । संपादक ने बनावटी पाठ घुसेड़ने की बात तो कह दी पर - इस कथन पर किसी प्रमाण का उपन्यास नहीं किया । अतः यह कथन भी अरण्यरोदन से अधिक महत्त्व नहीं रखता, नागमों में बनावटी पाठ घुसेड़ने और उसमें से सच्चे पाठों को निकालना यह तो भिक्षुत्रितय के घर की रीति परम्परा से चली ना रही है । इनके प्रादि मार्गदर्शक शाह लूका ने जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा, दान, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, साधार्मिक, वात्सल्य आदि अनेक आगमोक्त धार्मिक कर्त्तव्यों का उच्छेद कर दिया था । प्रौर इन कार्यों का उपदेश करने वालों की निन्दा करने में अपना समय विताया था, परन्तु इनके मन्तव्यों का प्रचार करने वाले वेशधारी शिष्यों ने देखा कि लुका के इस उपदेश का प्रचार करने से तो सुनने
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