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________________ ७८ पट्टावली- पराग बड़े प्रत्याचार हुए। उस मन्धड़ में साहित्य को भी भारी धक्का लगा, फिर भी जैन समाज का शुम उदय या पागमों का माहात्म्य समझो कि जिससे प्रागम बाल-बाल बचे और सुरक्षित रहे।" भिक्षुत्रितय की उपर्युक्त कल्पना उसके फलद्रूप भेजे की है। इतिहास इसकी साक्षी नहीं देता कि बौद्ध मोर जैनों के साथ हिन्दुषों का कभी साहित्यिक संघर्ष हुया हो। साहित्यिक संघर्ष की तो बात ही नहीं, किन्तु धार्मिक सहिष्णुता ने भी बौद मौर जैनों के साथ हिन्दुनों को संघर्ष में नहीं उतारा । किसी प्रदेश विशेष में राज्यसत्ताधारी वर्मान्ध व्यक्ति-विशेष ने कहीं पर बौद्ध जैन प्रथवा दोनों पर किसी अंश तक ज्यावती की होगी तो उसका अपयश हिन्दू समाज पर थोपा नहीं जा सकता और उससे जैन-साहित्य को हानि होने की तो कल्पना ही कैसे हो सकती है । इस प्रकार की देश-स्थिति जैन-साहित्य को हानिकर मुसलमानों के भारत पर माक्रमण के समय में अवश्य हुई थी, परन्तु उससे केवल जैनो का ही नहीं, हिन्दू, जैन, बौद्ध मादि सभी भारतीय सम्प्रदायों को हुई थी। मागे भिक्षुत्रितय अपनी मानसिक खरी भाव. नात्रों को प्रकट करता हुप्रा कहता है - "इसके मनन्तर चैत्यवासियों का युग माया । उन्होंने चैत्यवास का जोर-शोर से मान्दोलन किया और अपनी मान्यता को मजबूत करने के लिए नई-नई बातें घड़नी शुरु की, जैसे कि अंगूठे जितनी प्रतिमा बनवा देने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। जो पशु मन्दिर की ईटें ढोते हैं वे देवलोक जाते हैं मादि-आदि । वे यहीं तक नहीं रुके, बल्कि उन्होंने भागमों में भी अनेक बनावटी पाठ घुसेड़ जिये। जिस प्रकार रामायण में क्षेपकों की भरमार है, उसी प्रकार मागमों में भी।" भिक्षुत्रितय चैत्यवासियों के युग की बात कहता है, तब हमको माश्चर्य के साथ हंसी पाती है । युग किसे कहते हैं और "चैत्यवास" का मर्थ क्या है ? इन बातों को समझ लेने के बाद भिक्षुत्रितय ने इस विषय में कलम चलाई होती, तो वह हास्यास्पद नहीं बनता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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