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________________ पट्टावली - पराग जो प्राचीनता का प्रतिपादन किया गया है, वह विश्वासपात्र नहीं है । इस स्थिति में श्वेताम्बर - सम्प्रदाय मान्य नागमों पर दक्षिणात्य प्राकृत भाषा का प्रभाव बताना कोई अर्थ नहीं रखता । ७७ "सुत्तागमे" के प्रथम मंश की प्रस्तावना के १४ वें पृष्ठ की पादटीका में लेखक कहते हैं - " इतना और स्मरण रहे कि इससे पहले पाटलीपुत्र का सम्मेलन मौर नागार्जुन क्षमाश्रमण के तत्त्वावधान में माथुरी वाचना हो चुकी थी ।" लेखकों का नागार्जुन क्षमाश्रमण के तत्वावधान में माथुरीवाचना बताना प्रमादपूर्ण है, माथुरो-वाचना नागार्जुन वाचक के तत्वावधान में नहीं किन्तु श्राचार्य स्कन्दिल को प्रमुखता में मथुरा नगरी में हुई थी, इसलिये यह वाचना "माथुरो" तथा "स्कन्दिली” नामों से भी पहचानी जाती है । एक प्रागम के नाम का निर्देश दूसरे में होने के सम्बन्ध में भिक्षुत्रितय समाधान करता है - कि यह आगमों की प्राचीन शैली है । भिक्षुत्रय का यह कथन यथार्थ नहीं, भगवान् महावीर के गणधरों ने जब द्वादशांगी की रचना की थी, उस समय यह पद्धति अस्तित्व में नहीं थी । पूर्वाचार्यों ने नाश के भय से जब श्रागमों को संक्षिप्त रूप से व्यवस्थित किया, तब उन्होंने सुगमता के खातिर यह शैली अपनाई है, मोर जिस विषय का एक अग प्रथवा उपांगसूत्र में विस्तार से वर्णन कर देते थे । उसको दूसरे में कट करके विस्तृत वर्णन वाले सूत्र का निर्देश कर देते थे । श्रगसूत्रों में “पनवरणा" भादि उपांगों के नाम प्राते हैं उसका यही कारण है । जैन - साहित्य पर नई-नई आपत्तियाँ : उपर्युक्त प्रस्तावनापत शीर्षक के नीचे भिक्षुत्रितय एक नया प्राविष्कार प्रकाश में लाता हुना कहता है --""जिस काल में जैनों और बौद्धों के साथ हिन्दुओं का महान् संघर्ष या उस समय धर्म के नाम पर बड़े से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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