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________________ पट्टावली-पराग ९१ में इसके लेखक, "ऋषि जेठमलजी ने मूर्तिपूजक जैन सम्प्रदाय का "हिंसाधर्मी" यह नाम रक्खा है और सारी पुस्तक में उनको इसी नाम से संबोधित किया है। "सम्यक्त्व-शल्योटार" में बेठमलजी की इस भाषा का ही प्रत्याघात हैं और उसके लेखक ने "मूढजेठाऋष, निन्हव" इत्यादि शब्दों के प्रयोगों से लेखक ने उत्तर दिया है। जेठमलजी के "समकितसार गत" अज्ञान को देखकर बीसवीं शतो के पंजावविहारी स्थानकवासी साधुनों के मन में पाया कि संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं का जानना जैनसाधुनों के लिए जरूरी है, इसके परिणामस्वरूप कतिपय बुद्धिशाली स्थानकवासी साधुओं ने संस्कृत भाषा सीखी और हस्तलिखित सटीकसूत्र पढ़े। संस्कृत सीखने के बाद सटीकसूत्रों के पढ़ने से वे समझने लगे कि सूत्रों में अनेक स्थानों पर मूर्तिपूजा का विधान है और दिनभर मुंह पर मुंहपत्ति बांधना शास्त्रोक्त नहीं है, इन दो बातों को पूरे तौर पर समझने के बाद उनकी श्रद्धा वर्तमान स्थानकवासी सम्प्रदाय में से निकल जाने को हुई, प्रथम श्री बूटेरायजी, श्री मूलचन्दजी, श्री वृद्धिचन्दजी नामक तीन श्रमण मुंहपत्ति छोड़कर सम्प्रदाय से निकल गये, शत्रुञ्जय आदि तीर्थो' की यात्रायें कर श्री बूटेरायजी ने अहमदाबाद पाकर पं० मरिणविजयजी के शिष्य बने, नाम बुद्धिविजयजी रक्खा। शेष दो. साधु बुद्धिविजयजी के शिष्य बने और क्रमश: मुक्तिविजयजी, वृद्धिविजयजी के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसके अनन्तर लगभग दो दशकों के बाद श्री आत्मारामजी श्री वीसनचन्दजी आदि लगभग २० साधु स्थानकवासी सम्प्रदाय छोड़कर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में आये और बुद्धिविजयजी आदि के शिष्य बने, इस प्रकार सम्प्रदाय में : पठित साधुओं के निकल जाने से स्थानकवासी सम्प्रदाय में संस्कृत व्याकरण आदि भाषा विज्ञान के ऊपर से श्रद्धा उठ गई और व्याकरण को तो वे 'व्याधिकरण" मानने लगे। वीसवीं शती का प्रभाव : यों तो अन्तिम दो शतियों से जैन श्रमणों में संस्कृत का पठन-पाठन बहुत कम हो गया था, परन्तु बीसवीं शतो के उत्तरार्ध में संस्कृत भाषा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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