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________________ पट्टावली पराण ९३ व्याकरण पढ़े हुए कई साधु सम्प्रदाय छोड़कर चले गये थे, श्री फूलचन्दजी तथा उनके शिष्य-प्रशिष्य भी साधारणतया व्याकरण पढ़े हुए हैं, तो उनके लिए भो "व्याकरण व्याधिकरण" होना ही था, यदि ये सम्प्रदाय में से निकल जाते तो इतना ही व्याधिकरण" होता, अन्यथा इन्होंने सूत्रों के पाठ निकालकर सूत्रों को जो खण्डित किया है और इस प्रक्रिया द्वारा सूत्रों की प्राचीनता में जो विकृति उत्पन्न की है, इसके परिणामस्वरूप भविष्य में कोई भी जेनेतर संशोधक विद्वान इन सूत्रों को एएगा तक नहीं, क्योंकि प्रागमों को मौलिकता ही उनका खरा जौहर है। वह फूलचन्दजी ने उनके सम्प्रदाय मान्य ३२ आगमों में से खत्म कर दिया है। अब उन पर संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती भाषा को टोकाएं लिखवाते रहें और छपवाते रहें, जैन आगमों के आधार से जैनधर्म की प्राचीनता, जेनमियों की प्राचीन सभ्यता और आगम-कालीन जैनों के प्राचार-विचार जानने के लिए ये "स्थानकवासी आगम" किसी काम के नहीं रहे । शोध, खोज, करने वालों के लिए ये आगम वीसवीं सदी के बने हुए किसी भी प्रन्थ संदर्भ से अधिक महत्त्व के नहीं रहे। भिक्षुत्रितय 'सुत्तागमे' के दोनों पुस्तकों में लिखता है - "पाठ शुद्धि का पूरा-पूरा ध्यान रक्खा है, इसके सम्पादन में शुद्धि प्रतियों का उपयोग किया गया है।" सम्पादकों की पाठ-शुद्धि का अर्थ है इनकी मान्यता में बाधक होने वाले पाठों को "हटाना"। अन्यथा कई स्थानों पर सम्पादकीय प्रशुद्धियां ही नहीं बल्कि सम्पादकों द्वारा अपनी होशियारी से की गई अनेक अशुद्धियां सूत्रों में दृष्टिगोचर होती हैं, इस स्थिति में सम्पादन में शुद्ध प्रतियों का उपयोग करने की बात केवल दम्भपूर्ण है, क्योंकि स्थानकवासियों के पास जो भी सूत्रों के पुस्तक होंगे वे मशुद्धियों के भण्डार ही होंगे, क्योंकि इनके पुस्तकालयों तथा स्थानकों में मिलने वाले पुस्तक बहुधा इनके अनपढ़ साधुनों के हाथ के लिखे हुए ही मिलते हैं। सोलहवीं शती में लौका का मत निकला मोर अठारहवीं शती के प्रारंभ में स्थानकवासी ऋपियों ने टिब्वे के साथ सूत्र लिखने शुरू किये थे, लिखने वाले साधु नकल करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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