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पट्टावली - पराग
वाले लहियो से तो बढ़कर होशियार थे नहीं, फिर सम्पादकों को शुद्ध प्रतियां कहां से हाथ लगीं, यह सूचित किया होता तो इनके कथन पर विश्वास हो सकता था, परन्तु यह बात तो है ही नहीं, फिर कौन मान सकता है कि इनके सम्पादन कार्य के लिए ६००-७०० वर्ष पहले के भागमों के शुद्ध श्रादर्श उपलब्ध हुए होंगे । 'सुत्तागो" के द्वितीय अंश में दी हुई पट्टावली से ही यह तो निश्चित होता है कि सम्पादकों को शुद्ध-पुस्तक नहीं मिला था । प्रन्यथा नन्दो को वाचक-वंशावली के ऊपर से ली हुई गाथात्रों में में इतनी गड़बड़ी नहीं होती ।
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पट्टावली में सप्तम पट्टधर भायं भद्रबाहु के सम्बन्ध में लेखक निम्न प्रकार का उल्लेख करते हैं - "तयागंतरं प्रज्ज भद्दवाहु चउरणारा चउदहपुंव्वधारगो दसाकप्पववहारकारगो सुयसमुद्दपारगो ॥ ७ ॥ "
उपर्युक्त प्रतीक में दो भूलें हैं, एक तो सम्पादक के सम्पादन की औौर दूसरी सम्गदक के शास्त्रीय ज्ञान के प्रभाव की, सम्पादन की भूल के सम्बन्ध में चर्चा करना महत्त्वहीन है, परन्तु दूसरो भूल के सम्बन्ध में ऊहापोह करना प्रावश्यक है, क्योंकि पट्टावली-निर्माता ने इस उल्लेख में भद्रबाहु स्वामी को 'चतु' ज्ञानधारक" लिखा है, वह शास्त्रोत्तीर्ण है क्योंकि भद्रबाहु "ज्ञानद्वयधारक" थे । लेखक ने इनको चर्तुं ज्ञानधारक कहने में किसी प्रमाण का उपन्यास किया होता, तो उस पर विचार करते । अन्यथा भद्रबाहु को चतु ज्ञानवारक कहना प्रमाणहोन है ।
पट्टावली-लेखक ने अपनी पट्टावली में ११ वें नम्बर के स्थविर को " सन्तायरिम्रो" लिखा है जिसका संस्कृत “शान्त्याचार्य" होता है जो कि गल्त है, इन स्थविरजी का नाम "स्वात्याचार्य" ( प्राचार्य स्वाति ) है श्राचार्य शान्ति नहीं | शाण्डिल्य के बाद १४ वें स्थविर का नाम 'जिनधर्म' और १६ वें स्थविर का नाम "नन्दिल" लिखा है, जो दोनों प्रक्रम प्राप्त हैं, क्योंकि इन में से "आर्यधर्म" का नाम नन्दी को मूल गाथाओं में नहीं है और "नन्दिल" का नम्बर मूल नन्दी में १७ वां है । नम्बर २० प्रौर २१ में स्थविरों के नाम भो पट्टावलो- लेखक ने गलत लिखे हैं, पायं महागिरि
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