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पट्टावली पराग
सूरि, जिनेश्वरसरि, जिनवल्लभगणि, मुनिचन्द्र मूरि, धनेश्वरसूरि, जगचन्द्रसूरि मादि भनेक उद्यतविहारी भाचार्य मौर के शिष्य परिवार अप्रतिबद्ध विहार से विचरते थे, तथापि एक के बाद एक नये सुधारक गच्छों की सृष्टि से जनसंघ में जो पूर्वकालीन संघटन चला मा रहा था वह विशखल हो गया। इसी के परिणाम स्वरूप शाहलौका शाह कडुमा प्रादि गृहस्थों को अपने पन्य स्थापित करने का अवसर मिला था, न कि उनके खुद के पुरुषार्थ से। उपयुक्त जैनसंघ की परिस्थिति का वर्णन पढ़कर विचारक समझ सकेंगे कि श्रमणसमुदाय में से अधिकांश शिथिलाचार के कारण निर्वल हो जाने से सुवारकों को नये गच्छ मोर गृहस्थों को श्रमणगण के विरुद्ध अपनी मान्यताओं को व्यापक बनाने का सुअवसर मिला था, किसी भी संस्था या समाज को बनाने में कठिन से कठिन पुरुषार्थ और परिश्रम की मावश्यकता पड़ती है, न कि नष्ट करने में । समाज की कमजोरी का लाभ उठाकर क्रियोद्धार के नाम से नव गच्छसजकों ने तो अपने बाड़े मजबूत किये ही, पर इस अव्यवस्थित स्थिति को देखकर कतिपय श्रमणसंस्था के विरोधी गृहस्थों ने भी अपने-अपने अखाड़े खड़े किये भोर मापस के विरोधों और शिथिलाचारों से बलहीन बनी हुई श्रमणसंस्था का ध्वंस करने का कार्य शुरू किया । लौका तथा उसके अनुयायी मन्दिर तथा मूर्तियों की पूजा को प्रतिप्रवृत्तियों का उदाहरण दे देकर गृहस्थवर्ग को साधुनों से विरुद्ध बना रहे थे। कडुवा जैसे गृहस्य मूर्तिपूजा के पक्षपाती होते हुए भी साधुमों के शिथिलाधार की बातों को महत्त्व दे देकर उनसे असहकार करने लगे, चीज बनाने में जो शक्ति व्यय करनी पड़ती हैं वह विगाड़ने में नहीं। लोकाशाह तथा उनके वेशधारी चेले हिंसा के विरोध में और दया के पक्ष में बनाई गई, चौपाइयों के पुलिन्दे खोल-खोलकर लोगों को सुनाते और कहते - "देखो भगवान् ने दया में धर्म बताया है, तब भाजकल के यति स्वयं तो अपना प्राचार पालते नहीं और दूसरों को मन्दिर मूर्तिपूजा मादि का उपदेश को पृथ्वी, पानी, वनस्पति प्रादि के जीवों की हिंसा करवाते हैं, बोलोधर्म दया, में कि हिंसा में ? उत्तर मिलता दया में," तब लौका के चेले पहले - "जब धर्म दया में है तो हिंसा को छोड़ों और दया पालो" पनपढ़ तोग, लौका के अनपढ अनुयायियों की इस प्रकार की बातों से भ्रमित
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