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पट्टावली-पराग प्रकट हुए। उन्होंने जनता को सन्मार्ग. सुझावा पोर उस पर चलने की प्रेरणा दो xxx जिससे लोगों में क्रान्ति पोर जागृति उत्पन्न हुई तथा लवजी, धर्मशी, धर्मदासजी, जीवराबजी जैसे भव्य भावुकों ने धर्म की वास्तविकता को अपनाया और उसके स्वरूप का प्रचार प्रारम्भ किया; परिणामस्वरूप प्राज भी उनकी प्रेरणामों को जीवित रखने वालों की संख्या ५ लाख से कहीं अधिक पाई जाती है । लौकाशाह सहित इन चारों महापुरुषों ने "चंत्यवासी मान्य बन्य भागमों में परस्पर विरोष एवं मनघड़न्त बातें देखकर ३२ मागमों को ही माम्य किया।"
भिक्षुत्रितय चैत्यवासी युग के बाद लोकाशाह जैसे क्रान्तिकारी पुरुषों के उत्पन्न होने की बात कहता है, जो मज्ञानसूचक है, क्योंकि विक्रम की चौथी शती से ग्यारहवीं शती तक शिथिलाचारी साधुनों का प्राबल्य हो चुका था। फिर भी वह उनका युग नहीं था। हम उसे उनकी बहलता वाला युग कह सकते हैं, क्योंकि उस समय भी उद्यतविहारी साधुपों की भी संख्या पर्याप्त प्रमाण में थी। शिथिलाचारी संख्या में अधिक होते हए भी उद्यतविहारी संघ में अग्रगामी थे। स्नानमह, प्रथमसमवसरण मादि प्रसंगों पर होने वाले श्रमण-सम्मेलनों में प्रमुखता उद्यतविहारियों को रहती थी। कई प्रसंगों पर वहारिक श्रमणों द्वारा पार्श्वस्थादि शिथिलाचारी फटकारे भी जाते थे, तथापि उनमें का भधिकांश शिथिलता की निम्न सतह तक पहुंच गया था और धीरे-धीरे उनको संख्या कम होती जाती थी। विक्रम की ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध तक शिथिलाचारी धीरे-धीरे नियतवासी हो चुके थे भौर समाज के ऊपर से उनका प्रभाव पर्याप्त रूप से हट चुका था। भले ही वे जातिगत गुरुयों के रूप में अमुक जातियों धौर कुलों से अपना सम्बन्ध बनाए हुए हों, परन्तु संघ पर से उनका प्रभाव पर्याप्त मात्रा में मिट चुका था, इसी के परिणाम स्वरूप १२ वीं शती के मध्यभाग तक जैनसंघ में अनेक नये पच्छ उत्पन्न होने लगे थे। पौरमिक. पांचलिक, खरतर, साधुपौरपंमिक भौर पागमिक गच्छ ये सभी १२ वीं सौर १३ वीं शती में उत्पन्न हुए थे और इसका कारण चियिताचारी चैत्यवासी कहलाने वाले सामों की कमजोरी थी। यद्यपि उस समय में भी पर्दमान
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