SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पट्टावली-पराग ८५ होकर पूजा, दर्शन मादि जो श्रमसाध्य कार्य थे, उन्हें छोड़ छोड़कर लौका के अनुयायी बढ़ गये, इसमें लौका पौर इनके अनुयायियों की बहादुरी नहीं, विध्वसंक पद्धति का ही यह प्रभाव है, मनुष्य को उठाकर ऊचे ले जाना पुरुषार्थ का काम है, कार खड़े पुरुष को धक्का देकर नीचे निराना पुरुषार्थ नहीं कायरता है, जेनों में से हो पूजा प्रादि की श्रद्धा हटाकर शाह लौका, लवजी, रूपजी, धर्मसिंह मादि ने अपना बाडा बढाया, यह वस्तु प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती, इनको प्रशंसा तो हम तब करते जब कि ये अपने त्याग मोर पुरुषायं से प्राकृष्ट करके जेनेतरों को जैनधर्म की तरफ खींचते और शिपिलाचार में डूबने वाले तत्कालीन यतियों को मपने मादर्श और प्रेरणा से शिथिलाचार से ऊंचा उठाने को बाध्य करते। भिक्षुत्रितय चैत्यवासियों द्वारा लोंका आदि को कष्ट दिये जाने की बात कहता है, इसके पुरोगामी लेखक शाह वाडीलाल मोतीलाल तथा स्थानकवासी साधु श्री मरिणलालजी ने भी यही राग अलापा है कि यतियों ने लोकाशाह को कष्ट दिया था, परन्तु यतियों पर दिये जाने वाले इस मारोप की सच्चाई को प्रमापित करने के लिए कोई प्रमाण नहीं बताया, वास्तव में यह हकीकत लोकाशाह को महान् पुरुष ठहराने के अभिप्राय से कलित मढी है । ईसाइयों के धर्मप्रवर्तक "जेसस क्राईष्ट ' को उनके विरोधियों ने क्रॉस पर लटकाया था, जिसके परिणामस्वरूप लगभग सारा यूरोप उसका अनुयायी बन गया था, इसी प्रकार लोंका को कप्ट-सहिण्णु महापुरुष बताकर लोगों को उसकी तरफ खींचने का लौका के भक्तों का यह झूठा प्रचार मात्र है । लोंका ने तो तत्कालीन किन्हीं भी साधुनों के साथ मुकाबला करने की कोई बात नहीं लिखी, परन्तु लोकाशाह के वेशगरी शिष्यों के साथ श्री लावण्यसमय मादि अनेक विद्वान् साधु चर्चा शास्त्रार्थ में उतरे थे और उनको पराजित किया था, लेकिन यह प्रसंग कोई उनको कष्ट देने का नहीं माना जा सकता, समाज के अन्दर फूट डालने मर हजारों वर्षों से चले पाते धार्मिक मार्ग में बखेडा डालने के कारण उन पर किसी ने कटुशब्द प्रहार अवश्य किए होंये मोर यह होना अत्याचार नहीं है, ऐसी बातें तो नौका के बाड़े में से भाग छूटने वालों पर लौका के अनुया. यियों ने भी की हैं, देखिये - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy