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पदावली-पराग
सं० १५०८ में लौका ने जैन साधुनों के विरोध में मन्दिर मूर्तिपूजा प्रादि का खण्डन करना शुरू किया, लगभग २५ वर्ष तक दयाधर्म-सम्बन्धी चौपाइयां सुना-सुनाकर लोगों को मन्दिरों का विरोधी बनाता रहा, फिर भी उसका उत्तराधिकारी बनकर उसका कार्य सम्हालने वाला कोई नहीं मिला।
सं० १५३४ में भाणा नामक एक बनिया उसे मिला, अशुभ कर्म के उदय से वह लौका का पनन्य भक्त बना । इतना ही नहीं, वह लो का के कहने के अनुसार विना गुरु के ही साधु का वेश पहन कर प्रज्ञ लोगों को लों का का भनुयायो बनाने लगा। लौ का ने ३१ सूत्र मान्य रखे थे । व्यव. हार सूत्रों को वह मानता नहीं था मोर माने हुए सूत्रों में भी जहां जिनप्रतिमा का अधिकार प्राता वहां मनःकल्पित अर्थ लगाकर उनको समझा देता।
सं० १५६८ में भागजी ऋषि का शिष्य रूपजी हुआ। सं० १५७८ में माघ सुदि ५ के दिन रूपजी का शिष्य जीवाजो हुआ।
सं० १५८७ के चेत्र वदि १४ के दिन जीवाजी का शिष्य वृद्धवरसिंहजी नामक हुप्रा।
सं० १६०६ में उनका शिष्य वरसिंहजी हुमा।
सं० १६४६ में वरसिंहजी का शिष्य यशवन्त नामक हुआ और यशवन्त के पीछे बजरंगजी नामक साधु हुआ, जो बाद में लौ कागच्छ का प्राचार्य बना था।
__उस समय सूरत के रहने वाले बोहरा वीरजी की पुत्री फूलांबाई के दत्तपुत्र लवजी ने लोंकाचार्यजी के पास दीक्षा लो और दोक्षा लेने के बाद उसने अपने गुरु से कहा - दशवकालिक सूत्र में जो साधु का आचार बताया है, उसके अनुसार माप नहीं चलते है। लवजी की इस प्रकार की बातों से बजरंगजी के साथ उनका झगड़ा हो गया और वह लौ कामत और अपने गुरु का सदा के लिए त्याग कर थोमण ऋषि आदि कतिपय लौका साधुनों को साथ में लेकर स्वयं दीक्षा ली और मुख पर मुंहपत्ति बांधी।
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