SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ पट्टावली-पराग ___"समकितसार" के पृष्ठ ११-१२ में "मार्यक्षेत्र की मर्यादा" इस शीर्षक के नीचे ऋषि जेठमलजी ने “बृहत्कल्पसूत्र" का एक सूत्र देकर मायं अनार्य क्षेत्र को हद दिखाने का प्रयत्न किया है - 'कप्पइ निग्गन्थाणं वा निग्गंथोरणं वा पुरत्यिमेणं जाव अंग मगहामों एत्तए; दक्खिरणेणं जाव कोसम्बीनो एत्तए, पच्चत्यिमेणं जाव पूणाविसयानो एत्तए, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयानो एत्तए एयावयावकप्पइ, एयावयाव प्रारिए खेते, नो से कप्पइ एत्तो वाहि, तेरण परं जत्थ नागवंसरणचरित्ताई उस्सप्पन्ति ॥४८॥" उपर्युक्त पाठ "समकितसार' में कितना अशुद्ध छपा है, यह जानने की इच्छा वाले सज्जन “समकितसार" के पाठ के साथ उपर्युक्तं पाठ का मिलान करके देखे कि "समकितसार" में छपा हुमा पाठ कितना भ्रष्ट है, इस पाठ को देकर नीचे चार दिक्षा की क्षेत्र मर्यादा बताते हुए ऋषिजी कहते हैं - "पूर्व दिशा में अंगदेश भोर मगधदेश तक आर्यक्षेत्र है, अब भी राजगृह और चम्पा की निशानियां पूर्व दिशा में हैं। दक्षिण में कोशम्बी नगरी तक आर्यक्षेत्र है, प्रागे दक्षिण दिशा में समुद्र निकट है इसलिए ममुद्र की जगती लगती है । पश्चिम दिशा में थूभणानगरो कही है, वहां भी कच्छ देश तक मार्यक्षेत्र है, मागे समुद्र की जगती पाती है। - उत्तर दिशा में कुणाल देश मोर श्रावस्तो-नगरी है, जहां भाज स्यालकोट नामक शहर है। भागे ऋषिजी कहते हैं - कितनेक नगरों के नाम बदल गए हैं। उनको लोकोत्तर से जानते हैं, जैसे- पाटलीपुर जो माज का पटना है, देसारणपुर वह मन्दसौर है, हत्थरणापुर वह प्राज को दिल्ली, सौरीपुर वह भागरा भट्ठीगांव वह वढवाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy