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पट्टावली-पराग
बढे घटे या विच्छिन्न हो जाय, जैनधर्म के अस्तित्त्व में उसका कोई प्रसर नहीं पड़ेगा।
यद्यपि प्रस्तुत स्थानकवासी पट्टावली ११ पानों में पूरी की है, फिर भी देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण की परम्परा के अतिरिक्त इसमें कोई भी व्यवस्थित परम्परा या पट्टकम नहीं दिया । पार्यकालक की कथा, पंचकाली, सप्तकाली, बारहकाली सम्बन्धो कल्पित कहानियां और दिगम्बर तथा निह्नवों के उटपरांग वर्णनों से इसका कलेवर बढ़ाया है, हमको इन बातों की चर्चा में उतरने की कोई प्रावश्यकता नहीं।
"लौंकागच्छ तथा “स्थानकवासी सम्प्रदायों" से सम्बन्ध रखने वाली कुछ बातों की चर्चा करके इस लेख को पूरा कर देंगे।
पट्टावली के आठवें पत्र के दूसरे पृष्ठ में प्रस्तुत पट्टावलीकार लिखते हैं - श्री महावीर स्वामी के बाद दो हजार तेईस के वर्ष में जिनमत का सच्चा श्रद्धालु और भगवन्त महावीर स्वामी का दयामय धर्म मानने वाला लौकागच्छ हुअा।"
लौकागच्छ के यति भानुचन्द्रजी और केशवजी ऋषि अपने कवित्तों में लौंकाशाह के धर्मप्रचार का सं० १५०८ में प्रारम्भ हुया बताते हैं और १५३२ में तथा ३३ में भागजीऋषि की दीक्षा और लौकाशाह का देवलोक गमन लिखते हैं, तब स्थानकवासो पट्टावली लेखक वोरनिर्वाण २०२३ में अर्थात् विक्रम सं० १५३३ में लौकागच्छ का प्रकट. होना बताते हैं, जिस समय कि लौकाशाह को स्वर्गवासी हुए २० वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो चुका था। पट्टावली लेखक कितना असावधान और अनभिज्ञ है यह बताने के लिए हम ने समयनिर्देश पर ऊहापोह किया है।
यहां पर पट्टावलोकार ने लोकागच्छ को उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक कल्पित कथा दी है जिसका सार यह है - १. "श्री महावीर पछे २०२३ वरजिनमति साचीसरदाका घणी भगवन्त महावीर स्वामी नो धर्म दया में चाल्यो लौ कागच्छ हुवां ।" (पट्टावली का मूल पाठ)
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