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________________ २९ पट्टावली पराग देवद्वरिण क्षमा श्रमरण का नाम लिखकर उन्हें २७वां पट्टधर मान लिया है । वास्तव में देवद्ध गरि क्षमा श्रमरण की गुरु-परम्परा गिनने से उनका नम्बर ३४वां माता है, जबकि देवद्ध गरिण क्षमा-श्रमण २७ व पुरुष माने गये हैं, सो वाचक-परम्परा के क्रम से, न कि गुरु-शिष्य परम्परा-क्रम से । इस भेद को न समझने के कारण से ही प्रस्तुत पट्टावलीकार ने कल्पस्थविरावली के क्रम से देवद्विर्गाणि को २७वां पुरुष मानने की भूल को है । देवद्विरिण तक के नाम लिखकर पट्टावली लेखक कहता है - ये २७ पाट नन्दी सूत्र में मिलते हैं, "ये २७ पट्टधर जिनारणा के अनुसार चलते थे, तब इनके बाद में पाट परम्परा द्रव्यलिंगियों की चली, श्रात्मार्थी साघु शुद्धमार्ग को चलायेंगे उनका अधिकार आगे कहते हैं ।" फिर कालान्तर में लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि देवद्धरण के बाद जो साधु परम्परा चली वह मात्र वेषधारियों की परम्परा थी । भाव साधुनों की नहीं । यहां लेखक को पूछा जाय कि भावसाधु देवगिरिण के बाद नहीं रहे और सं० १० १७०६ से भगवान् के दयाधर्म का प्रचार स्थानकवासी साधुत्रों ने किया, तब देवगिरिण क्षमाश्रमरण के स्वर्गवास के बाद और स्थानकवासी साधुयों के प्रकट होने के पहले के १२०० वर्षों में भगवान् का दयाधर्म नहीं रहा था ? क्योंकि जैन शासन के चलाने वाले तो निर्ग्रन्थ भावसाधु ही होते थे । तुम्हारी मान्यता के अनुसार देवद्ध के बाद की श्रमरणपरम्परा केवल लिंगघारियों की थी तब तो सं० १७०६ के पहले के १२०० वर्षों में जैन दयाघर्म विच्छिन्न हो गया था, परन्तु भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने अपना धर्मशासन २१ हजार वर्षों तक प्रविच्छिन्न रूप से चलता रहने की बात कही है, मब भगवतीसूत्र का कथन सत्य माना जाय या प्रस्तुत स्थानकवासी पट्टावली के लेखक पूज्यजी का कथन ? समझदारों के लिए तो यह कहने की भावश्यकता ही नहीं है, कि वर्तमान प्रवर्गापरणी के चतुर्थ श्रारे के अन्तिम भाग में भगवान् महावोर ने श्रमरणसंघ की स्थापना करने के साथ धर्म की जो स्थापना की है वह भाज तक अविच्छिन्न रूप से चलती रही है और पंचम श्रारे के अन्त तक चलती रहेगी, चाहे स्थानकवासी सम्प्रदाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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