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________________ ६८ पट्टावली-पराग एक-एक नकल प्रकाशनार्थ भेजी, परन्तु उक्त लेख स्थानकवासी एक भी पत्रकार ने नहीं छापा, तव इसकी नकल भावनगर के "जैन" पत्र के ऑफिस को भेजी और वह लेख जैन के :"भगवान् महावीर-जन्म कल्याणक विशेषाङ्क" में छपकर प्रकट हुमा, हमारा वह संक्षिप्त लेख निम्नलिखित था। श्री स्थानकवासी जैनसंघ से प्रश्न : पिछले लगभग पद्धशताब्दी बितने जीवन में अनेक विषयों पर गुजराती तथा हिन्दी भाषा में मैंने अनेक लेख तथा निबन्ध लिखे हैं, परन्तु श्री स्थानकवासी हीनसंघ को सम्बोधन करके लिखने का यह पहला ही प्रसंग है, इसका कारण है "श्री पुप्फभिक्खू" द्वारा संशोधित और सम्पादित "सुत्तागमे" नामक पुस्तक का मध्ययन । पिछले कुछ वर्षों से प्राचीन जैन साहित्य का स्वाध्याय करना मेरे लिए नियम सा हो गया है, इस नियम के फलस्वरूप मैंने "सुत्तागमे" के दोनों अंश पढ़े, पढने से मेरे जीवन में कभी न होने वाला दुःख का अनुभव हुमा । _ मेरा झुकाव इतिहास-संशोधन की तरफ होने से "श्री लौकागच्छ" तथा "श्री बाईस सम्प्रदाय" के इतिहास का भी मैंने पर्याप्त अवलोकन किया है। लोकाशाह के मत-प्रचार के बाद में लिखी गई अनेक हस्तलिखित पुस्तकों से इस सम्प्रदाय की पर्याप्त जानकारी भी प्राप्त की, फिर भी इस विषय में कलम चलाने का विचार कभी नहीं किया, क्योंकि संप्रदायों के मापसो संघर्ष का बो परिणाम निकलता है उसे मैं अच्छी तरह जानता था। लोकाशाह के मौलिक मन्तव्य क्या थे, उसको उनके अनुयायियों के द्वारा १६वीं शताब्दी के अन्त में लिखित एक चर्चा-प्रन्थ को पढ़ कर मैं इस विषय में अच्छी तरह वाकिफ हो गया था। उस हस्तलिखित ग्रन्थ के बाद में बनी हुई भनेक इस गच्छ की पट्टावलियों तथा अन्य साहित्य का भी मेरे पास अच्छा संग्रह है। स्थानकवासी साधु श्री जेठमलजी द्वारा संहन्ध "समकितसार" और इसके उत्तर में श्री विजयानन्दसूरि-लिखित "सम्यक्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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