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________________ पट्टावली-पराग ७१ भिक्खूजी की चैन्य शब्द पर इतनी प्रब कृपा कैसे हुई यह समझ में नहीं भाता, मन्दिर मषवा मूर्तिवाचक "चत्य" शब्द को ही काट दिया होता तो बात मोर थी। पर मापने चुन-चुन कर "गुणशिलकचंत्य," "पूर्णभद्रचैत्य," पोर चौबीस तीर्थहरों के "चैत्यवृक्ष" मादि जो कोई भी चंत्यान्त शब्द सूत्रों में माया, उसको नेस्तनाबूद कर दिया । इनके पुरोगामी ऋषि जेठमलजी प्रादि "चैत्य" शब्द को "न्यन्तर का मन्दिर" मानकर इसको निभाते थे, उनके बाद के भी बीसवीं शती तक के स्थानकवासी लेखक "चैत्यशब्द" का कहीं 'ज्ञान, कहीं 'साधु,' कहीं 'ध्यन्तर देव का मन्दिर' मानकर सूत्रों में इन शब्दों को निभा रहे थे, परन्तु "श्री पुप्फभिवखूजी" को मालूम हुआ कि इन शब्दों के प्रथं बदलकर चैत्यादि शब्द रहने देना यह एक प्रकार की लीपापोती है । "चैत्यशब्द" जब तक सूत्रों में बना रहेगा तब तक मूर्तिपूजा के विरोध में लड़ना झगड़ना बेकार है, यह सोचकर ही आपने "चैत्य" "प्रायतन" "जिनघर'" "चंत्यवृक्ष" आदि शब्दों को निकालकर अपना मार्ग निष्कण्टक बनाया है । ठीक है, इनकी समझ से तो यह एक पुरुषार्थ किया है, परन्तु इस करतूत से इनके सूत्रों में जो नवीनता प्रविष्ट हुई है, उसका परिणाम भविष्य में ज्ञात होगा। पुप्फभिक्खूजी ने पूजा-विषयक सूत्र-पाठों, मन्दिरों भौर मूर्तिविषयक शब्दों को निकालकर यह सिद्ध किया है, कि इनके पूर्ववर्ती शाह लौका, धर्मसिंह, ऋषि जेठमलजी पौर श्री अमोलक ऋषिजी आदि शब्दों का अर्थ बदलकर मूर्तिपूजा का खण्डन करते थे, वह गलत था। "चैत्य शब्द” का वास्तविक अर्थ : माजकल के कतिपय भदीर्घदर्शी विद्वान् “त्यशब्द" को प्रकृति "चिता" शब्द को मानते हैं और कहते हैं मरे मनुष्य को जहां पर जलाया के प्रमाद से नहीं किन्तु निरुपायता से, क्योंकि "चेइए" इस शब्द के स्थान में रखने के लिए प्रापको दूसरा कोई रगणात्मक "चेइय" शब्द का पर्याय नहीं मिलने से चैत्य शब्द कायम रखना पड़ा और नीचे टिप्पण में "उज्जारों" यह शब्द लिखना पड़ा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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