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________________ पट्टानी पराण ५१ पढार प्रठयोत्तर वरसे रे ॥ ज० ॥ सुदि पौष नी तेरस विष में रे ॥०॥ कुमति ने शिक्षा दोषी रे ॥०॥ तव रास नी रचना कोषो रे मजे०॥१७॥ राधनपुर ना रहेवासी रे ॥०॥ तपगच्छ केरा चौमासी रे ॥ ० ॥ खुशालविजयनी नु सोस रे ॥ ० ॥ कहे उत्तमविमय जगीस रे ॥०॥११॥ जे नारी रस भर गास्ये रे॥०॥ सोभाग्य मषंडित पास्ये रे॥०॥ सांभल से रास रसीला रे ॥०॥ ते लेस्य प्रविचल लीला रे ॥१२॥ इति लुंपक लोप तपगच्छ जयोत्पत्ति वर्णन रास संपूर्ण । सं० १९७८ ना वर्षे माघ मासे कृष्णपक्षे ५ वार चन्द्र पं० वीरविजयजी नी माज्ञा थी कत्तपुरा गच्छे राजनगर रहेवासी पं० उत्तमविजय । सं० १९८२ २० वर्षे लिपिकृतमस्ति पाटन नगरे पं० मोतीविजय ॥" 'जो निन्दक होता है, उसके वास्तविक स्वभाव का वर्णन करना वह निन्दा नहीं है । महमदाबाद में जब दोनों पार्टियां कोर्ट में जाकर लड़ी थीं पौर पदालत ने जो फैसला दिया था, उस समय हम भी प्रदालत में उनके साथ हाजिर थे। दुण्ढकों के विपक्ष में फैसला हुमा भौर जैनशासन का डंका बजा, तव दुष्टक सभा को छोड़ कर चले गये थे। यह हमने अपनी मांखों से देखी बात है। जब कोई भी घटना घटती है पोर उसको मधिक समय हो जाता है, तब वह विस्मृत हो जाती है। लम्बे काल के बाद उस घटना के विषय में कोई पूछता है तो वास्तविक स्थिति से ज्यादा कम भी कहने में पा जाता है पोर तब जानकार लोग उसको प्रसत्यवादी कहते हैं, हालाकि कहने वाला विस्मृति के वश ऊंचा-नीचा कह देता है, परन्तु दुनियां को कौन बीत सकता है, वह तो उसको प्रसत्यवादी मान लेती हैं। चौवे समवायांब सूत्र में प्रसत्य बोलने का पाप बताया है, इसलिये जो बात न्यों बनी है हम वही कहते हैं। वर्णन में असत्य की माना पाटे में नमक के हिसाब से रह सकती है, अधिक नहीं। जिन्होंने बनशासन को छाया का भी सर्श किया है, वैसे मुनि तो सत्यभाषी ही कहलाते हैं। जो मृग की तरह मृगतृष्णा के पीछे दौड़ते हैं, वे प्रापमति कहलाते हैं। हमने तो गुरु के चरणों का पाश्रय लिया है। जिस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002753
Book TitleLaunkagacchha aur Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijayji
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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