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पट्टावली -पराग
मुख्य कारण तुम हो। हमने पहले हो तुमको पूछाया तो तुमने लिखा कि शहर में शास्त्रार्थ करने वाला कोई पण्डित नहीं है । तुम्हारे इस झूठे पत्र के भरोसे हम सब हर्षपूर्वक यहां प्राये भोर लूटे गये । इस प्रकार एक दूसरे की भूलें निकालते हुए, दुष्ढक महमदाबाद को छोड़ कर चले गये । शहर से बहुत दूर निकल जाने के बाद वे गांव-गांव प्रचार करने लगे कि राजनगर की अदालत में हमारी जीत हुई । ठीक तो है, सुवर्ण थाल से कांसे का रणकार ज्यादा ही होता है । विष को बघारना इसी को तो कहते हैं, "काटने वाला घोड़ा और भांख से काना", "झूठा गाना भीर होली का त्यौंहार", "रण का जंगल भौर पानी खारा" इत्यादि कहावतें ऐसे प्रसंगों पर ही प्रचलित हुई हैं।
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दास के रचियता पं० श्री उत्तमविजयजी जो उस शास्त्रार्थ के समय वहां उपस्थित थे, रास की समाप्ति में अपना अभिप्राय व्यक्त करते हुए कहते हैं -
"जैनिक वस्त लहरे ॥ जं० ॥ निंदा तेनो नवी कहिईरे ॥ जं० ॥ ग्रहमदाबाद सेहर मजार रे ॥ जै० ॥ सहु चढ्या हता दरबार रे ॥ जं० ॥३॥ करयो न्याय प्रदालत मांये रे ॥ जं० ॥ त्यारे अमे गया ता साथे रे ॥ जं० ॥ त्यारे ढुण्ढ सभा यी भागा रे ॥ जं० जिनसासन डंका वागा रे ॥ जं० ॥ ४ ॥ ए वातो नजरें दीठी रे ॥ जं० ॥ हइयामां लागो मोठी रे ॥ जं० ॥ जब जाजा वरसते थाय रे ॥ जं० ॥ तव कांइक वोसरि जाय रे ॥ जं० ॥ ५ ॥
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पछे कोइ नर पुछाय रे ॥ जं० जूठा बोला करी गाय रे ॥ जं० ॥ श्रंग चौथु जे समवाय रे ॥ जं० श्रमें जूठ नयी कहेंवाय रे ॥ जं० ॥ जिन सामन फरसी छाय रे ॥ जं० ॥ जे मृग तृष्णा जल धाय रे ॥ जं०
मे मवलंब्या गुरु पाय रे साची बातों मे भाषी रे
प्राडु प्रवलु बोलाय रे ॥ जं० ॥ दुनिया जीति नवि जाय रे ॥ जं० ॥ ६ ॥
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॥जै० ॥७॥
जै० ॥
जूठा ना पाप गवाय रे ॥ जै० ॥ श्राटा मां लूरण समाय रे साचा बोलां मुनि राय रे ॥ ॥ ते प्रापमति कहेवाय रे ॥ जं० ॥ साधुं सोनुं ते कसाय रे ॥ जं० ॥ छे लोक हजारो साखी रे
॥जै० ॥८॥
॥ जं० ॥
॥ जं० ॥ ॥
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